पागल
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
कई सौ लोगों का हुजूम। लाठी, भाले और गंडासों से लैस। गली–मुहल्लों में आग लगी हुई है। कुछ घरों से अब सिर्फ धुआँ उठ रहा है। लाशों के जलने से भयावह दुर्गन्ध वातावरण में फैल रही है। भीड़ उत्तेजक नारे लगाती हुई आगे बढ़ी।
नुक्कड़ पर एक पागल बैठा था। उसे देखकर भीड़ में से एक युवक निकला–‘‘मारो इस हरामी को।’’ और उसने भाला पागल की तरफ उठाया।
भीड़ की अगुआई करने वाले पहलवान ने टोका–‘‘अरे–रे इसे मत मार देना। यह तो वही पागल है जो कभी–कभी मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठा रहता है।’’ युवक रुक गया तथा बिना कुछ कहे उसी भीड़ में खो गया।
कुछ ही देर बाद दूसरा दल आ धमका। कुछ लोग हाथ में नंगी तलवारें लिए हुए थे, कुछ लोग डण्डे। आसपास से ‘बचाओ–बचाओ’ की चीत्कारें डर पैदा कर रही थीं। आगे–आगे चलने वाले युवक ने कहा–‘‘अरे महेश, इसे ऊपर पहुंचा दो।’’
पागल खिलखिलाकर हंस पड़ा। महेश ने ऊँचे स्वर में कहा–‘‘इसे छोड़ दीजिए दादा। यह तो वही पागल है जो कभी–कभार लक्ष्मी मन्दिर के सामने बैठा रहता है।’’
दंगाइयों की भीड़ बढ़ गई। पागल पुन: खिलखिलाकर हंस पड़ा।
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अपने–अपने सन्दर्भ
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
इस भयंकर ठंड में भी वेद बाबू दूध वाले के यहाँ मुझसे पहले बैठे मिले। मंकी कैप से झाँकते उनके चेहरे पर हर दिन की तरह धूप–सी मुस्कान बिखरी थी।
लौटते समय वेदबाबू को सीने में दर्द महसूस होने लगा। वे मेरे कंधे, पर हाथ मारकर बोले–‘‘जानते हो, यह कैसा दर्द है?’’मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मद्धिम स्वर में बोले–‘‘यह दर्दे–दिल है। यह दर्द या तो मुझ जैसे बूढ़ों को होता है या तुम जैसे जवानों को।’’
मैं मुस्करा दिया।
धीरे–धीरे उनका दर्द बढ़ने लगा।
‘‘मैं आपको घर तक पहुँचा देता हूँ।’’ मोड़ पर पहुँचकर मैंने आग्रह किया–‘‘आज आपकी तबियत ठीक नहीं लग रही है।’’
‘‘तुम क्यों तकलीफ करते हो? मैं चला जाऊँगा। मेरे साथ तुम कहाँ तक चलोगे? अपने वारण्ट पर चित्रगुप्त के साइन होने भर की देर है।’’ वेद बाबू ने हंसकर मुझको रोकना चाहा।
मेरा हाथ पकड़कर आते हुए वेदबाबू को देखकर उनकी पत्नी चौंकी–‘‘लगता है आपकी तबियत और अधिक बिगड़ गई है? मैंने दूध लाने के लिए रोका था न?’’
‘‘मुझे कुछ नहीं हुआ। यह वर्मा जिद कर बैठा कि बच्चों की तरह मेरा हाथ पकड़कर चलो। मैंने इनकी बात मान ली।’’ वे हँसे
उनकी पत्नी ने आगे बढ़कर उन्हें ईज़ी चेयर पर बिठा दिया। दवाई देते हुए आहत स्वर मे कहा–‘‘रात–रात–भर बेटों के बारे में सोचते रहते हो। जब कोई बेटा हमको पास ही नहीं रखना चाहता तो हम क्या करें। जान दे दें ऐसी औलाद के लिए। कहते हैं–मकान छोटा है। आप लोगों को दिक्कत होगी। दिल्ली में ढंग के मकान बिना मोटी रकम दिए किराए पर मिलते ही नहीं।’’
वेदबाबू ने चुप रहने का संकेत किया–‘‘उन्हें क्यों दोष देती हो भागवान! थोड़ी–सी साँसें रह गई हैं, किसी तरह पूरी हो ही जाएगी–’’ कहते–कहते हठात् दो आँसू उनकी बरौनियों में आकर उलझ गए।
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पहली कथा पढ़कर अहसास हुआ कि दंगाईयों की मानसिकता पर तो पागल ही विजय पा सकता है….
दूसरी कथा तो न जानों कितने घरों का भोगा अहसास है और न ही जाने कितने और अभिशप्त हैं इस जीवन को जीने के लिए.
दोनों कथायें पसंद आईं. रामेश्वर जी को बधाई.
दो अलग-अलग संवेदनाओं के रंग समेटे दोनों ही लघुकथाएं लाजवाब हैं… श्री हिमांशु जी को बधाई और आदरणीय महावीर सर का आभार और वंदन..
दोनो लघु कथायें समाज के विभिन्न चेहरों को नंगा किया है। दोनो रचनायें बहुत अच्छी लगीं धन्यवाद।
आदरणीय महावीर जी, आप का प्रयास सराहनीय है। हिमांशु जी की दोनों लघु कथायें मन को छूती हैं, दोनों में जीवन का यथार्थ है, युगबोध है। इस कठिन होते समय में सच्चाइयां याद रहें, तो भी समाज का बहुत भला हो सकता है। आप की यही कोशिश तो है। धन्यवाद।
हां, कविता पर ही केन्द्रित एक ब्लाग मैंने आरम्भ किया है। आप को समय मिले तो उसे देखें और अच्छा लगे तो अपनी पत्रिकाओं पर उसकी सूचना दाल दें। आभार मानूंगा। ब्लाग का लिंक है
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समदर्शी व्यक्ति आज की दुनिया में पागल है। लेकिन अंडर-करेंट यह लघुकथा यह संदेश देती-सी लगती है कि अन्तत: ‘पागल’ ही होंगे जो असंगत और अमानवीय व्यवहारों से अपने-आप को बचाने में सफल रह पाएंगे।
संवेदनहीनता के समय में कोई कितना भी अपने-आप को सम्हालने की कोशिश करे, कितना भी अपने-आप को धैर्यशाली दिखाए, मर्मांतक पीड़ा को आँख के कोरों में छलक आने से रोक पाना कभी-कभी असम्भव हो जाता है। ‘अपने-अपने संदर्भ’ छू जाने वाली नहीं, चुभ जाने वाली लघुकथा है।
पागल लघुकथा ने मन को विशेषतः उद्विग्न व सोचने पर मजबूर किया । क्या इस स्वार्थ और आवेश में बौराई दुनिया के लिए यही एक जबाव है, यही एक हथियार है!
इस विचारोत्तेजक लघुकथा के लिए हिमांशु जी का साधुवाद।
दोनों लघुकथाएँ अत्यंत सुंदर हैं और मन को छू जाती हैं। मेरे विचार में पागल वह नहीं है जो कभी मंदिर और कभी मस्जिद के पास बैठा होता है अपितु वे हैं जो अकारण उसकी हत्या पर तत्पर हैं। ‘अपने अपने संदर्भ तो शायद हर बूढ़े माता-पिता की कहानी है। जब मतलब पूरा हो जाता है तो यही बहाना चलता है की घर छोटा है। जब दिल छोटे होते हैं तो महल भी छोटे लगते हैं।
महेंद्र दवेसर ‘दीपक’
बहुत ही सटीक और धारदार लघुकथाएं हैं हिमांशु जी की। लघुकथा की शक्ति मैं समझता हूँ, यह नहीं है कि विषय क्या है, नया है या पुराना, विषय कुछ भी हो सकता है, लघुकथा की शक्ति और लेखक की सफलता इस बात में है कि उसे कितनी कलात्मकता और प्रामाणिकता के साथ कम शब्दों में निबाहा गया है। अपनी इन दोनों लघुकथाओं में हिमांशु जी मेरी इस बात को पुष्ट करते हैं। दोनों ही लघुकथाएं इस मायने में बेजोड़ हैं।
Dono laghu kathaayen har drishti se prabhaavshaalee hain.unse
sambandhit Subash Neerav kee bebaaq tippani se main sahmat
hoon.Himanshu jee ko badhaaee aur shubh kamna.
दंगाईयों की मानसिकता पर तो पागल ही विजय पा सकता है….Yahi aaj ka satya hai.
sashakt laghukatahyein katya evam ship ki nazar se. Rameshwar ji ki kalatmak anubhutiOn se parichay paana hai aur bhi..aur aage bhi…..
मैं अपने सभी सुधी साथियो का उनकी प्रेरक टिप्पणियों के लिए आभारी हूँ।
हिमांशु जी ,
प्रणाम !
दोनों लघु कथाए संवेदन शील विषय लिए है , पहली लघु कथा में ऐसा लगा कि शायद दोनों जामत को जो उपद्रव मचने में ही विशवास रखते है उन्हें कोई ना कोई मौका चाहिए ,”””पागल का प्रतीक अच्छा लगा !
दूसरी में शायद महा नगरों में आम बात होने लग गयी है जो धीरे धीरे छोटे शहरों कि तारा भी होने लगी है , मगर मन को छूने वाली है दोनों रचनाये ,आप को साधुवाद ,
आदर जोग महावीर साब सादर प्रणाम १
आभार
sunil gajjani
दोनो रचनायें बहुत अच्छी लगीं।
कम शब्दों में गहरी बात…मन को छू गई।
आभार
हरदीप
दोनो लघुकथायें समाज का चेहरा दिखा रही हैं……………गागर मे सागर की तरह सब कुछ कह दिया ।
दोनों लघुकथाएं सशक्त हैं। हिमांशु जी संवेदनात्मक स्तर पर हमेशा ही अच्छा लिखते हैं।
हिमांशु जी की दोनों ही लघु कथाएं अलग अलग विषयों पर मारक प्रभाव रखती हैं जिस समाज का सही आदमी पागल हो उस समाज का सोच कितना भयावह हो सकता है .यही सन्देश है इस लघु कथा का ,जो अपनी स्थायी छाप छोड़ता है.बधाई.
मन को छूती झकझोरती लघुकथाएं…
बहुत बहुत सुन्दर…