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भारत से आचार्य संजीव ‘सलिल’ की दो लघुकथाएं

मार्च 31, 2010

गाँधी और गाँधीवाद

आचार्य संजीव ‘सलिल’

बापू आम आदमी के प्रतिनिधि थे. जब तक हर भारतीय को कपड़ा न मिले, तब तक कपड़े न पहनने का संकल्प उनकी महानता का जीवत उदाहरण है. वे हमारे प्रेरणास्रोत हैं’ -नेताजी भाषण फटकारकर मंच से उतरकर अपनी मंहगी आयातित कार में बैठने लगे तो पत्रकारों ने उनसे कथनी-करनी में अन्तर का कारण पूछा.

नेताजी बोले

– ‘बापू पराधीन भारत के नेता थे. उनका अधनंगापन पराये शासन में देश की दुर्दशा दर्शाता था, हम स्वतंत्र भारत के नेता हैं. अपने देश के जीवनस्तर की समृद्धि तथा सरकार की सफलता दिखाने के लिए हमें यह ऐश्वर्य भरा जीवन जीना होता है. हमारी कोशिश तो यह है की हर जनप्रतिनिधि को अधिक से अधिक सुविधाएं दी जायें.’

‘ चाहे जन प्रतिनिधियों की सुविधाएं जुटाने में देश के जनगण क दीवाला निकल जाए. अभावों की आग में देश का जन सामान्य जलाता रहे मगर नेता नीरो की तरह बांसुरी बजाते ही रहेंगे- वह भी गाँधी जैसे आदर्श नेता की आड़ में.’ – एक युवा पत्रकार बोल पड़ा.

अगले दिन से उसे सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो गया.

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निपूती भली थी

आचार्य संजीव ‘सलिल’

बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली. अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया.

अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आंखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली. उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए, तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुंह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि

देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आयी.

उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूंदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सत्ता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे.

दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीड़ाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे. नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुंह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुंह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गा कर ख़ुद को धन्य मान रहा था.

अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता के मुँह से निकला-

‘ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी.

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तेजेंद्र शर्मा की पुस्तक ‘सीधी रेखा की परतें’ का लोकार्पण और आचार्य संजीव ‘सलिल’ की लघु कथा

दिसम्बर 23, 2009

भोपाल में तेजेन्द्र शर्मा का रचना पाठ एवं पुस्तक लोकार्पण

: उर्मिला शिरीष

(भोपाल) – संस्कृति, साहित्य तथा ललित कलाओं के लिए समर्पित संस्था स्पंदन भोपाल द्वारा दिनांक २६ नवंबर ०९ को स्वराज भवन, भोपाल में लंदन के प्रतिष्ठित कथाकार तेजेन्द्र शर्मा की अब तक प्रकाशित संपूर्ण कहानियों के प्रथम खण्ड सीधी रेखा की परतें का लोकार्पण समारोह का आयोजन किया गया।

(बाएं से प्रो. रमेश दवे, तेजेन्द्र शर्मा, ज्ञान चतुर्वेदी, मनोज श्रीवास्तव)

इस अवसर पर तेजेन्द्र शर्मा ने इस संग्रह से अपनी बहुचर्चित कहानी कैंसर का पाठ किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार, चिंतक तथा शिक्षाविद् प्रो. रमेश दवे ने की। मुख्य अतिथि के रूप में प्रख्यात व्यंग्यकार डा. ज्ञान चतुर्वेदी उपस्थित थे। विशिष्ट अतिथि थे श्री मनोज कुमार श्रीवास्तव, आयुक्त जनसंपर्क म.प्र. शासन।

इससे पूर्व संस्था के अध्यक्ष डा. शिरीष शर्मा तथा सचिव गायत्री गौड़ ने अतिथियों का स्वागत किया।

श्री मनोज श्रीवास्तव ने अपने लिखित आलेख का पाठ करते हुए तेजन्द्र शर्मा की कहानियों को ख़ालिस हिन्दुस्तानी कहानियां बताया। उनका मानना था कि तेजेन्द्र की कहानियां करुण हैं। उनके पात्र स्मृतियों में रहते हैं। मृत्यु की अनेक अंतरछवियां इन कहानियों में देखने को मिलती हैं।

डा. आनंद सिंह ने कहा कि तेजेन्द्र शर्मा सामान्य कहानीकार नहीं हैं। वे इंटेलिजेण्ट और नॉलेजेबल कहानीकार हैं। वे घटनाओं का तार्किक चित्रण करते हैं। वे ऐसी पृष्ठभूमि तथा परिवेश के रचनाकार हैं जिसकी तुलना अन्य किसी रचनाकार से नहीं की जा सकती। वे अपनी कहानियों में महीन आध्यात्मिकता का सृजन करते हैं। उनकी कहानियों में मानवता का समग्र वेदना तरल रूप में काम करती है। तेजेन्द्र शर्मा के कहानी पाठ करने के नाटकीय ढंग की भी उन्होंने तारीफ़ की।

मुख्य अतिथि डा. ज्ञान चतुर्वेदी ने कहानी की परम्परा को विस्तार से रखा। प्रेमचन्द से लेकर नये कहानीकारों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने प्रत्येक धारा की विशिष्टताओं को रेखांकित किया। डा. ज्ञान चतुर्वेदी के अनुसार कहानी में किस्सागोई तथा भाषा की कलात्मकता तथा सौन्दर्य बोध होना चाहिये। तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों में ये तत्व हैं। उन्होंने आगे कहा कि कैंसर एक बड़ी कहानी बनते बनते रह गयी।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रतिष्ठित साहित्यकार प्रो. रमेश दवे ने कहा कि तेजेन्द्र शर्मा की कहानियां लोग और रोग के बीच कंट्राडिक्शन को सामने लाती हैं। उनकी कहानियां मृत्यु का बोध करवाती हैं। कैंसर कहानी हो या अन्य इनमें वैकल्पिक जीवन उभर कर आता है। कहानियां जो व्यक्ति और परिवार की संवेदना को लोक संवेदना में बदल देती हैं। कैंसर जैसी कहानियों में आई करुणा को ट्रांसफ़ॉर्म कर देना रचनात्मक लेखक का फ़र्ज़ बनता है। तेजेन्द्र अपनी कहानियों में मानसिक द्वन्द्वों को बख़ूबी निभाते हैं। उनकी सबसे बड़ी ताकत है भाषा का प्रयोग।

कार्यक्रम का संचालन करते हुए उर्मिला शिरीष ने तेजेन्द्र शर्मा के व्यापक अनुभव जगत की बात कही।

कार्यक्रम में अन्य गणमान्य अतिथियों के अतिरिक्त राजेश जोशी, हरि भटनागर, वीरेन्द्र जैन, राजेन्द्र जोशी, मुकेश वर्मा, स्वाति तिवारी, आशा सिंह तथा अल्पना नारायण भी उपस्थित थे।

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सीख

आचार्य संजीव ‘सलिल’

भारत माता ने अपने घर में जन-कल्याण का जानदार आँगन बनाया. उसमें सिक्षा की शीतल हवा, स्वास्थ्य का निर्मल नीर, निर्भरता की उर्वर मिट्टी, उन्नति का आकाश, दृढ़ता के पर्वत, आस्था की सलिला, उदारता का समुद्र तथा आत्मीयता की अग्नि का स्पर्श पाकर जीवन के पौधे में प्रेम के पुष्प महक रहे थे.

सिर पर सफ़ेद टोपी लगाये एक बच्चा आया, रंग-बिरंगे पुष्प देखकर ललचाया. पुष्प पर सत्ता की तितली बैठी देखकर उसका मन ललचाया, तितली को पकड़ने के लिए हाथ बढाया, तितली उड़ गयी. बच्चा तितली के पीछे दौड़ा, गिरा, रोते हुए रह गया खडा.

कुछ देर बाद भगवा वस्त्रधारी दूसरा बच्चा खाकी पैंटवाले मित्र के साथ आया. सरोवर में खिला कमल का पुष्प उसके मन को भाया, मन ललचाया, बिना सोचे कदम बढाया, किनारे लगी काई पर पैर फिसला, गिरा, भीगा और सिर झुकाए वापिस लौट गया.

तभी चक्र घुमाता तीसरा बच्चा अनुशासन को तोड़ता, शोर मचाता घर में घुसा और हाथ में हँसिया-हथौडा थामे चौथा बच्चा उससे जा भिड़ा. दोनों टकराए, गिरे, कांटें चुभे और वे चोटें सहलाते सिसकने लगे.

हाथी की तरह मोटे, अक्ल के छोटे, कुछ बच्चे एक साथ धमाल मचाते आए, औरों की अनदेखी कर जहाँ मन हुआ वहीं जगह घेरकर हाथ-पैर फैलाये. धक्का-मुक्की में फूल ही नहीं पौधे भी उखाड़ लाये.

कुछ देर बाद भारत माता घर में आयीं, कमरे की दुर्दशा देखकर चुप नहीं रह पायीं, दुःख के साथ बोलीं- ‘ मत दो झूटी सफाई, मत कहो कि घर की यह दुर्दशा तुमने नहीं तितली ने बनाई. काश तुम तितली को भुला पाते, काँटों ओ समय रहते देख पाते, मिल-जुल कर रह पाते, ख़ुद अपने लिये लड़ने की जगह औरों के लिए कुछ कर पाते तो आदमी बन जाते.

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आचार्य संजीव ‘सलिल’ की दो लघुकथाएं

नवम्बर 11, 2009

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लघुकथा
एकलव्य

‘नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?’
– ‘हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.’
– ‘उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?’
-‘हाँ बेटा.’

– ‘दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा – ‘काश वह आज भी होता.’
आचार्य संजीव ‘सलिल’
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– लघुकथा
समय का फेर

गुरु जी शिष्य को पढ़ना-लिखना सिखाते परेशां हो गए तो खीझकर मारते हुए बोले-
‘ तेरी तकदीर में तालीम है ही नहीं तो क्या करुँ? तू मेरा और अपना दोनों का समय बरबाद कर रहा है. जा भाग जा, इतने समय में कुछ और सीखेगा तो कमा खायेगा.’
गुरु जी नाराज तो रोज ही होते थे लेकिन उस दिन चेले के मन को चोट लग गयी. उसने विद्यालय आना बंद कर दिया, सोचा ‘आज भगा रहे हैं. ठीक है भगा दीजिये, लेकिन मैं एक दिन फ़िर आऊंगा… जरूर आऊंगा.
गुरु जी कुछ दिन दुखी रहे कि व्यर्थ ही नाराज हुए, न होते तो वह आता ही रहता और कुछ न कुछ सीखता भी. धीरे-धीरे गुरु जी वह घटना भूल गए.
कुछ साल बाद गुरूजी एक अवसर पर विद्यालय में पधारे अतिथि का स्वागत कर रहे थे. तभी अतिथि ने पूछा- ‘आपने पहचाना मुझे?
गुरु जी ने दिमाग पर जोर डाला तो चेहरा और घटना दोनों याद आ गयी किंतु कुछ न कहकर चुप ही रहे.
गुरु जी को चुप देखकर अतिथि ही बोला
– ‘आपने ठीक पहचाना. मैं वही हूँ. सच ही मेरे भाग्य में विद्या पाना नहीं है, आपने ठीक कहा था किंतु विद्या देनेवालों का भाग्य बनाना मेरे भाग्य में है यह आपने नहीं बताया था.
गुरु जी अवाक् होकर देख रहे थे समय का फेर.

आचार्य संजीव ‘सलिल’
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“शिष्टता” और “जंगल में जनतंत्र” – प्राण शर्मा और आचार्य संजीव ‘सलिल’ की लघुकथाएँ

अगस्त 19, 2009

लघुकथा

शिष्टता

प्राण शर्मा

किसी जगह एक फिल्म की शूटिंग हो रही थी. किसी फिल्म की आउटडोर शूटिंग हो वहां दर्शकों की भीड़ नहीं उमड़े, ये मुमकिन ही नहीं है. छोटा-बड़ा हर कोई दौड़ पड़ता है उस स्थल को जहाँ फिल्म की आउटडोर शूटिंग हो रही होती है. इस फिल्म की आउटडोर शूटिंग के दौरान भी कुछ ऐसा ही हुआ. दर्शक भारी संख्या में जुटे. उनमें एक अंग्रेज भी थे. किसी भारतीय फिल्म की शूटिंग देखने का उनका पहला अवसर था.

पांच मिनटों के एक दृश्य को बार-बार फिल्माया जा रहा था. अंग्रेज महोदय उकताने लगे. वे लौट जाना चाहते थे लेकिन फिल्म के हीरो के कमाल का अभिनय उनके पैरों में ज़ंजीर बन गया था.

आखिर फिल्म की शूटिंग पैक अप हुई. अँगरेज़ महोदय हीरो की ओर लपके. मिलते ही उन्होंने कहा-” वाह भाई, आपके उत्कृष्ट अभिनय की बधाई आपको देना चाहता हूँ.”

एक अँगरेज़ के मुंह से इतनी सुन्दर हिंदी सुनकर हीरो हैरान हुए बिना नहीं रह सका.

उसके मुंह से निकला-“Thank you very much.”

” क्या मैं पूछ सकता हूँ कि आप भारत के किस प्रदेश से हैं?

” I am from Madya Pradesh.” हीरो ने सहर्ष  उत्तर  दिया.

” यदि मैं मुम्बई आया तो क्या मैं आपसे मिल सकता हूँ?

” Of course”.

” इस के पहले कि विदा लूं आपसे मैं एक बात पूछना चाहता हूँ. आपसे मैंने आपकी भाषा में प्रश्न किये किन्तु आपने उनके उत्तर अंगरेजी में दिए. बहुत अजीब सा लगा मुझको.”

” देखिये, आपने हिंदी में बोलकर मेरी भाषा का मान बढ़ाया, क्या मेरा कर्त्तव्य नहीं था कि अंग्रेजी में बोलकर मैं  आपकी भाषा का मान बढ़ाता?”

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लघुकथा

जंगल में जनतंत्र

आचार्य संजीव सलिल

जंगल में चुनाव होनेवाले थे. मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे.- ‘ जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर कदम रखिये. सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये.’

‘ मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद. आपके कागज़ घर पर दे आया हूँ. ‘ भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया. मंत्री जी खुश हुए.


तभी उल्लू ने आकर कहा- ‘अब तो बहुत धांसू बोलने लगे हैं. हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिए रखी’ और एक लिफाफा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया.

विभिन्न महकमों के अफसरों उस अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी मंत्री जी को दी.

समाजवादी विचार धारा के मंत्री जी मिले उपहारों और लिफाफों को देखते हुए सोच रहे थे – ‘जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद. ‘

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महावीर शर्मा की
ग़ज़ल और कविता:
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‘महावीर’

प्राण शर्मा और आचार्य संजीव ‘सलिल’ की लघु कथाएँ

जुलाई 29, 2009

।।लघुकथा ।।

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जन नायक

प्राण शर्मा

अपने आपको प्रतिष्ठित समझने वाले गुणेन्द्र प्रसाद के मन में एक अजीब-सी लालसा जागी, यदि बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, मोहन दास कर्म चंद गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस, लाला लाजपत राय, भगत सिंह आदि को क्रमशः लोकमान्य महामना, महात्मा, लौहपुरुष, चाचा, नेता जी, शेरे पंजाब और शहीदे आज़म की उपाधियों से विभूषित किया जा सकता है तो उन्हें क्यों नहीं? तीस सालों के सामाजिक जीवन में उन्होंने जन-सेवा की है, कई संस्थाओं को धनराशि दी है, भले ही सच्चाई के रास्ते पर वे कभी नहीं चले हैं। आख़िर वे क्या करते ! उनका पेशा ही झूठ को सच और सच को झूठ करने वाला है यानी वकालत का है।


विचार-विमर्श के लिए गुणेन्द्र प्रसाद जी ने अपने कर्मचारियों को बुलाया। निश्चित हुआ कि गुणेन्द्र प्रसाद जी को ‘जन नायक’ की उपाधि से विभूषित किया जाना चाहिए। इसके लिए रविवार को एक विशाल जनसभा के आयोजन का फैसला किया गया। प्रचार-प्रसार का बिगुल बज उठा। घोषणा की गयी की जनसभा में हर आनेवाले को पाँच सौ ग्राम का शुद्ध खोये के लड्डुओं का डिब्बा दिया जायेगा ।


छोटा-बड़ा हर कोई जनसभा में पहुँचा। गुणेन्द्र प्रसाद की ख़ुशी का पारावार नहीं रहा जब उन्हें “जननायक” सर्वसम्मति से चुना गया। ये अलग बात है की आजतक किसी ने भी उन्हें “जन नायक” की उपाधि से संबोधित नहीं किया है।

प्राण शर्मा

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।। लघुकथा ।।

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मुखौटे

आचार्य संजीव ‘सलिल’

मेले में बच्चे मचल गए- ‘पापा! हमें मुखौटे चाहिए, खरीद दीजिए.’ हम घूमते हुए मुखौटों की दुकान पर पहुंचे. मैंने देखा दुकान पर जानवरों, राक्षसों, जोकरों आदि के ही मुखौटे थे. मैंने दुकानदार से पूछा- ‘क्यों भाई! आप राम, कृष्ण, ईसा, पैगम्बर, बुद्ध, राधा, मीरा, गांधी आदि के मुखौटे क्यों नहीं बेचते?’


‘कैसे बेचूं? राम की मर्यादा, कृष्ण का चातुर्य, ईसा की क्षमा, पैगम्बर की दया, बुद्ध की करुणा, राधा का समर्पण, मीरा का प्रेम, गाँधी की दृष्टि कहीं देखने को मिले तभी तो मुखौटों पर अंकित कर पाऊँगा. आज-कल आदमी के चेहरे पर जो गुस्सा, धूर्तता, स्वार्थ, हिंसा, घृणा और बदले की भावना देखता हूँ उसे अंकित कराने पर तो मुखौटा जानवर या राक्षस का ही बनता है. आपने कहीं वे दैवीय गुण देखे हों तो बताएं ताकि मैं भी देखकर मुखौटों पर अंकित कर सकूं.’ -दुकानदार बोला.


मैं कुछ कह पता उसके पहले ही मुखौटे बोल पड़े- ‘ अगर हम पर वे दैवीय गुण अंकित हो भी जाएँ तो क्या कोई ऐसा चेहरा बता सकते हो जिस पर लगकर हमारी शोभा बढ़ सके?’ -मुखौटों ने पूछा.

मैं निरुत्तर होकर सर झुकाए आगे बढ़ गया.

आचार्य संजीव ‘सलिल’

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