जून 2010 के लिए पुरालेख

भारत से सुधा अरोड़ा की लघु कथा

जून 30, 2010

डर
सुधा अरोड़ा

दुपहर की फुरसती धूप में शेल्फ पर मुस्कुराती किताबें थीं.
करीने से सजी किताबों में से एक नयी सी दिखती किताब को उसकी उँगलियों ने हल्के से बाहर सरका लिया. उसे उलट – पलट कर देखा. यह एक रूमानी उपन्यास था. कवर पर एक आकर्षक तस्वीर थी.

उसने कुछ पन्नों पर एक उड़ती सी निगाह डाली. फिर पहले पन्ने पर उसकी निगाह थम गई . किताब  के पहले पन्ने पर दायीं ओर ऊपर से चिपकाई हुई थी.
अब वहां किताब की जगह सिर्फ एक चिप्पी थी.
उसके नाखून भोथरे थे. फिर भी चिप्पी का एक कोना नरम होकर खुला.
उसकी उंगलियाँ अब कौशल में ड़ूब गई. उसे सिर्फ चिप्पी निकालनी थी. किताब का पन्ना खराब किये बिना.
“कोई फायदा नहीं , छोड़ दे” , उसने अपनी उँगलियों से कहा, “इस चिप्पी को हटाने के बाद भी इसके निशान किताब पर रह जाएंगे.”
पर उँगलियों ने सुना नहीं. वे अपने काम में दक्षता से तल्लीन रहीं. तब तक जब तक वह चिप्पी उखड़ नहीं गई.
उसकी मुस्कुराहट फैलने से पहले ही सिमट गई. चिप्पी के साथ किताब का थोड़ा सा कागज़ भी लितढ़ गया था. उस पर लिखा नाम आधा रगड़ खाए किताब पन्ने और आधा चिप्पी पर था.
वह अपनी सोच से लौट आई थी. उसने चिप्पी को कांपते हाथों से दुलारा, सीधा किया, हथेली पर रखा और आईने के सामने जा खड़ी हुई. आईने में नाम सीधा हो गया था.
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एक जादुई ताला जैसे खुला. वह सर थाम कर बैठ गई. वह इस नाम से परिचित थी. यह उसके पति की प्रेमिका का नाम था.

फिर ताकत लगाकर उठी. उसने अपनी उँगलियों को कोसा. क्यों वे कोई न कोई खुराफात करती रहना चाहती है?  क्यों?

उसके कानों में एक रूआबदार आवाज़ बजी, वह थरथराने लगी.

उस चिप्पी के पीछे गोंद लगा कर उसे फिर से चिपकाना चाहा. पर कागज़ उँगलियों के निरंतर प्रहार से छीज गया था. वह गीली छाप छोड़ रहा था.

उसने खुली किताब को धूप में रखा और बदहवास सी सारा घर ढूँढती फिरी, वैसी ही चिप्पी के लिए. मेज, दराज, शेल्फ. डिब्बे, फाइलें, लिफ़ाफ़े, अलमारियां, टी.वी. के ऊपर, किताबों के बीच. वह छपे हुए डाक के नीचे का अनछपा कागज था.

आखिर मिला वह – पुरानी डायरी में रखे डाक टिकट के साथ.

उसने उसी साइज़ की चिप्पी फाड़ी, वैसा ही उल्टा नाम लिखा. उसे एहतियात से चिपकाया. फिर उंगली को ज़रा मैला कर उस पर फिरा दिया.

उस चिप्पी को कई कोणों से उसने देखा.

अब उसने राहत की सांस ली. सब ठीक था.
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उसने इत्मीनान से किताब को शेल्फ पर मुस्कुराती दूसरी किताबों के साथ पहले की तरह टिका दिया और दुपहर की फुर्सत ओढ़कर लेट गई.
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अमेरिका से देवी नागरानी की दो लघुकथाएं

जून 23, 2010

कड़वा सच

देवी नागरानी

सोच के सैलाब में डूबा रामू पेड़ के नीचे बुझी हुई बीड़ी को जलाने की कोशिश में खुद ठिठुर रहा था. दरवाज़े की चौखट पर घुटनों के बल बैठा अपनी पुरानी फटी कम्बल से खुद को ठिठुरते जाड़े से बचाने की कोशिश में जूझ रहा था, पर कम्बल के छोटे-बड़े झरोखे उनकी जर्जर हालत बयान करने से नहीं चूके.

“रामू यहाँ ठंडी में क्यों बैठे हो? अंदर घर में जाओ” गली के नुक्कड़ से गुज़रते हुए देखा तो उसके पास चला गया. रामू मेरे ऑफिस का चपरासी है.

“साहब अंदर बेटे-बेटी के दोस्त आये हुए हैं. गाना-बजाना शोर-शराबा मचा हुआ है. सब झूम-गा रहे हैं. इसलिए मैं बाहर….” कहकर उसने ठंडी सांस ली.

“तुम्हारी उम्र की उन्हें कोई फ़िक्र नहीं, रात के बारह बज रहे हैं और यह बर्फीली ठण्ड!”

“साहब दर्द की आंच मुझे कुछ होने नहीं देती अब तो आदत सी पड़ गयी है. पत्नी के गुज़र जाने के बाद बच्चे बड़े होकर आज़ाद भी हो गए हैं, बस गुलामी की सारी बेड़ियाँ उन्होंने मुझे पहना दी है. कहाँ जाऊं साहब?” कहकर वह बच्चों की तरह बिलख पड़ा.

मैंने उसका कंधा थपथपाते हुए निशब्द राहत देने का असफल प्रयास किया और सोच में डूबा था की अगर मैं उस हालत में होता तो !

“क्या उन्हें बिलकुल परवाह नहीं होती कि तुम उनके बाप हो? क्या कुछ नहीं किया तुमने और तुम्हारी पत्नी ने उन्हें बड़ा करने के लिए?”

” वो बीती बातें हैं साहब, ‘आज’ मस्त जवानी का दौर है, उनकी मांगें और ज़रूरतें मैं पूरी नहीं कर पाता, उनकी पगारें कर देती हैं. पैसा ही उनका माई-बाप है.”

“तो इसका मतलब हुआ, संसार बसाकर, बच्चों कि पैदाइश से उनके बड़े होने तक का परिश्रम, जिसे हम ‘ममता’ कहते हैं कोई माइने नहीं रखता?”

“नहीं मालिक! मैं ऐसा नहीं सोचता. दुनिया का चलन है, चक्र चलता रहता है और इन्हीं संघर्षों के तजुर्बात से जीवन को परिपूर्णता मिलती है. जीवन के हर दौर का ज़ायका अलग-अलग होता है. जो मीठा है उसे ख़ुशी से पी लेते हैं, जो कड़वा है उसे निग़ल तक नहीं सकते. बीते और आने वाले पलों का समय ही समाधान ले आता है. काल-चक्र चलता रहता है, बीते हुए कल की जगह ‘आज’ लेता है और आज का स्थान ‘कल’ लेगा. यही परम सत्य है और कड़वा सच भी.

देवी नागरानी

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दाव पर द्रोपदी

देवी नागरानी

कहते हैं चोर चोरी से जाए पर हेरा फेरी से न जाए. अनील भी कितने वादे करता, किए हुए वादे तोड़ता और जुआ घर पहुँच जाता, अपनी खोटी किस्मत को फिर फिर आज़माता. बस हार पर हार उसके हौसले को मात करती रही.

एक दिन अपनी पत्नी को राज़दार बनाकर उसके सामने अपनी करतूतों का चिट्ठा खोलकर रखते हुए कहाँ- “अब तो मेरे पास कुछ भी नहीं है जो मैं दाव पर लगा सकूँ. क्या करूँ? क्या न करूँ, समझ में नहीं आता. कभी तो लगता है खुद को ही दाव पर रख दूँ.”

पत्नी समझदार और सलीकेदार थी, झट से बोली- “ आप तो खोटे सिक्के की तरह हो, वो जुआ की बाज़ार में कॅश हो नहीं सकता ? अगर आपका ज़मीर आपको इज़ाज़त देता है तो, आप मुझे ही दाव पर लगा दीजिए. इस बहाने आपके किसी काम तो आऊंगी.”

अनील सुनकर शर्म से पानी पानी हो गया. और इस तरह के कटाक्ष के वार से खुद को बचा न पाया. हाँ, एक बात हुई. ज़िंदगी की राह पर सब कुछ हार जाने के बाद भी, जो कुछ बचा था उसे दाव पर हार जाने से बच गया.

देवी नागरानी

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भारत से सुभाष नीरव की दो लघु कथाएं

जून 15, 2010

लेखक परिचय
हिंदी कथाकार/कवि सुभाष नीरव लगभग पिछले 35 वर्षों से कहानी, लघुकथा, कविता और अनुवाद विधा में सक्रिय हैं। अब तक तीन कहानी-संग्रह ”दैत्य तथा अन्य कहानियाँ (1990)”, ”औरत होने का गुनाह (2003)” और ”आखिरी पड़ाव का दु:ख(2007)” प्रकाशित। इसके अतिरिक्त, दो कविता-संग्रह ”यत्किंचित (1979)” और ”रोशनी की लकीर (2003)”, एक बाल कहानी-संग्रह ”मेहनत की रोटी (2004)”, एक लधुकथा संग्रह ”कथाबिन्दु”(रूपसिंह चंदेह और हीरालाल नागर के साथ) भी प्रकाशित हो चुके हैं। अनेकों कहानियाँ, लधुकथाएँ और कविताएँ पंजाबी, तेलगू, मलयालम और बांगला भाषा में अनूदित हो चुकी हैं।
हिंदी में मौलिक लेखन के साथ-साथ पिछले तीन दशकों से अपनी माँ-बोली पंजाबी भाषा की सेवा मुख्यत: अनुवाद के माध्यम से करते आ रहे हैं। अब तक पंजाबी से हिंदी में अनूदित डेढ़ दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें ”काला दौर”, ”पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं”, ”कथा पंजाब-2”, ”कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ”, ”तुम नहीं समझ सकते”(जिन्दर का कहानी संग्रह)”, ”छांग्या रुक्ख” (पंजाबी के दलित युवा कवि व लेखक बलबीर माधोपुरी की आत्मकथा), पाये से बंधा हुआ काल(जतिंदर सिंह हांस का कहानी संग्रह), रेत (हरजीत अटवाल का उपन्यास) आदि प्रमुख हैं। मूल पंजाबी में लिखी दर्जन भर कहानियों का आकाशवाणी, दिल्ली से प्रसारण।
हिंदी में लघुकथा लेखन के साथ-साथ, पंजाबी-हिंदी लधुकथाओं के श्रेष्ठ अनुवाद हेतु ”माता शरबती देवी स्मृति पुरस्कार 1992” तथा ”मंच पुरस्कार, 2000” से सम्मानित।
सम्प्रति : भारत सरकार के पोत परिवहन विभाग में अनुभाग अधिकारी(प्रशासन)
सम्पर्क : 372, टाईप-4, लक्ष्मी बाई नगर, नई दिल्ली-110023
ई मेल : subhneerav@gmail.com
दूरभाष : 09810534373, 011-24104912(निवास)

एक और कस्बा
सुभाष नीरव

देहतोड़ मेहनत के बाद, रात की नींद से सुबह जब रहमत मियां की आँख खुली तो उनका मन पूरे मूड में था। छुट्टी का दिन था और कल ही उन्हें पगार मिली थी। सो, आज वे पूरा दिन घर में रहकर आराम फरमाना और परिवार के साथ बैठकर कुछ उम्दा खाना खाना चाहते थे। उन्होंने बेगम को अपनी इस ख्वाहिश से रू-ब-रू करवाया। तय हुआ कि घर में आज गोश्त पकाया जाए। रहमत मियां का मूड अभी बिस्तर छोड़ने का न था, लिहाजा गोश्त लाने के लिए अपने बेटे सुक्खन को बाजार भेजना मुनासिब समझा और खुद चादर ओढ़कर फिर लेट गये।

सुक्खन थैला और पैसे लेकर जब बाजार पहुँचा, सुबह के दस बज रहे थे। कस्बे की गलियों-बाजारों में चहल-पहल थी। गोश्त लेकर जब सुक्खन लौट रहा था, उसकी नज़र ऊपर आकाश में तैरती एक कटी पतंग पर पड़ी। पीछे-पीछे, लग्गी और बांस लिये लौंडों की भीड़ शोर मचाती भागती आ रही थी। ज़मीन की ओर आते-आते पतंग ठीक सुक्खन के सिर के ऊपर चक्कर काटने लगी। उसने उछलकर उसे पकड़ने की कोशिश की, पर नाकामयाब रहा। देखते ही देखते, पतंग आगे बढ़ गयी और कलाबाजियाँ खाती हुई मंदिर की बाहरी दीवार पर जा अटकी। सुक्खन दीवार के बहुत नज़दीक था। उसने हाथ में पकड़ा थैला वहीं सीढ़ियों पर पटका और फुर्ती से दीवार पर चढ़ गया। पतंग की डोर हाथ में आते ही जाने कहाँ से उसमें गज़ब की फुर्ती आयी कि वह लौंडों की भीड़ को चीरता हुआ-सा बहुत दूर निकल गया, चेहरे पर विजय-भाव लिये !

काफी देर बाद, जब उसे अपने थैले का ख़याल आया तो वह मंदिर की ओर भागा। वहाँ पर कुहराम मचा था। लोगों की भीड़ लगी थी। पंडित जी चीख-चिल्ला रहे थे। गोश्त की बोटियाँ मंदिर की सीढ़ियों पर बिखरी पड़ी थीं। उन्हें हथियाने के लिए आसपास के आवारा कुत्ते अपनी-अपनी ताकत के अनुरूप एक-दूसरे से उलझ रहे थे।

सुक्खन आगे बढ़ने की हिम्मत न कर सका। घर लौटने पर गोश्त का यह हश्र हुआ जानकर यकीनन उसे मार पड़ती। लेकिन वहाँ खड़े रहने का खौफ भी उसे भीतर तक थर्रा गया- कहीं किसी ने उसे गोश्त का थैला मंदिर की सीढ़ियों पर पटकते देख न लिया हो ! सुक्खन ने घर में ही पनाह लेना बेहतर समझा। गलियों-बाजारों में से होता हुआ जब वह अपने घर की ओर तेजी से बढ़ रहा था, उसने देखा- हर तरफ अफरा-तफरी सी मची थी, दुकानों के शटर फटाफट गिरने लगे थे, लोग बाग इस तरह भाग रहे थे मानो कस्बे में कोई खूंखार दैत्य घुस आया हो!

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चोर

सुभाष नीरव

मि. नायर ने जल्दी से पैग अपने गले से नीचे उतारा और खाली गिलास मेज पर रख बैठक में आ गये।

सोफे पर बैठा व्यक्ति उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर उठ खड़ा हुआ।

”रामदीन तुम ? यहाँ क्या करने आये हो ?” मि. नायर उसे देखते ही क्रोधित हो उठे।

”साहब, मुझे माफ कर दो, गलती हो गयी साहब… मुझे बचा लो साहब… मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं… मैं बरबाद हो जाऊँगा साहब।” रामदीन गिड़गिड़ाने लगा।

”मुझे यह सब पसन्द नहीं है। तुम जाओ।” मि. नायर सोफे में धंस-से गये और सिगरेट सुलगाकर धुआँ छोड़ते हुए बोले, ”तुम्हारे केस में मैं कुछ नहीं कर सकता। सुबूत तुम्हारे खिलाफ हैं। तुम आफिस का सामान चुराकर बाहर बेचते रहे, सरकार की आँखों में धूल झोंकते रहे। तुम्हें कोई नहीं बचा सकता।”

”ऐसा मत कहिये साहब… आपके हाथ में सब कुछ है।” रामदीन फिर गिड़गिड़ाने लगा, ”आप ही बचा सकते हैं साहब, यकीन दिलाता हूँ, अब ऐसी गलती कभी नहीं करुँगा, मैं बरबाद हो जाऊँगा साहब… मुझे बचा लीजिए… मैं आपके पाँव पड़ता हूँ, सर।” कहते-कहते रामदीन मि. नायर के पैरों में लेट गया।

”अरे-अरे, क्या करते हो। ठीक से वहाँ बैठो।”

रामदीन को साहब का स्वर कुछ नरम प्रतीत हुआ। वह उठकर उनके सामने वाले सोफे पर सिर झुकाकर बैठ गया।

”यह काम तुम कब से कर रहे थे ?”

”साहब, कसम खाकर कहता हूँ, पहली बार किया और पकड़ा गया। बच्चों के स्कूल की फीस देनी थी, पैसे नहीं थे। बच्चों का नाम कट जाने के डर से मुझसे यह गलत काम हो गया।”

इस बीच मि. नायर के दोनों बच्चे दौड़ते हुए आये और एक रजिस्टर उनके आगे बढ़ाते हुए बोले, ”पापा पापा, ये सम ऐसे ही होगा न ?” मि. नायर का चेहरा एकदम तमतमा उठा। दोनों बच्चों को थप्पड़ लगाकर लगभग चीख उठे, ”जाओ अपने कमरे में बैठकर पढ़ो। देखते नहीं, किसी से बात कर रहे हैं, नानसेंस !”

बच्चे रुआँसे होकर तुरन्त अपने कमरे में लौट गये।

”रामदीन, तुम अब जाओ। दफ्तर में मिलना।” कहकर मि. नायर उठ खड़े हुए। रामदीन के चले जाने के बाद मि. नायर बच्चों के कमरे में गये और उन्हें डाँटने-फटकारने लगे। मिसेज नायर भी वहाँ आ गयीं। बोलीं, ”ये अचानक बच्चों के पीछे क्यों पड़ गये ? सवाल पूछने ही तो गये थे।”

”और वह भी यह रजिस्टर उठाये, आफिस के उस आदमी के सामने जो…” कहते-कहते वह रुक गये। मिसेज नायर ने रजिस्टर पर दृष्टि डाली और मुस्कराकर कहा, ”मैं अभी इस रजिस्टर पर जिल्द चढ़ा देती हूँ।”

मि. नायर अपने कमरे में गये। टी.वी. पर समाचार आ रहे थे। देश में करोड़ों रुपये के घोटाले से संबंधित समाचार पढ़ा जा रहा था। मि. नायर ने एक लार्ज पैग बनाया, एक सांस में गटका और मुँह बनाते हुए रिमोट लेकर चैनल बदलने लगे।

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यू.के. से प्राण शर्मा की दो लघुकथाएं

जून 8, 2010

‘राज़ ‘

– प्राण शर्मा

धर्मपाल ने टेलिफ़ोन का चोगा उठाकर सतपाल का फ़ोन नंबर मिलाया.फ़ोन की लाइन अंगेज थी.” पता नहीं कि लोग फोन पर क्या- क्या बातें करते हैं? घंटों ही लगा देते हैं.किसी और को बातकरने का मौक़ा ही नहीं देते  हैं.” खीझ कर उसने फोन पर चोगा पटक दिया.

कमरे में इधर-उधर चक्कर लगा कर धर्मपाल ने फिर सतपाल को फोन किया.दूसरी ओर से फ़ोन की घंटी बजी.धर्मपाल के चेहरे पर सब्र का प्याला छलका.

” कौन ? “दूसरी और से सतपाल की आवाज़ थी.

” मैं धर्मपाल  बोल रहा हूँ. सतपाल, तुम बड़े अजीब किस्म के आदमी हो. एक राज़ को तुमने कुछ ही दिनों  में  यारों-दोस्तों में उगल दिया. क्या उसे तुम अपने दिल में नहीं रख सकते थे ? “

” किस राज़ को उगल दिया मैंने ?

” वही यशपाल का राज़ कि वो किसी और ब्याही औरत से छिप- छिप कर इश्क लड़ाता है.अभी-अभी वो मुझसे लड़ कर गया है. बहुत गुस्से में था.”

” भाई, तुमने तो मुझे यशपाल का राज़ बताया ही नहीं था. राज़ तो योगराज और सुधीर ने मुझे बताया था.धर्मपाल , पकड़ना है तो उन्हें पकड़ो.” सतपाल ने फ़ोन के बेस  पर चोगा रख दिया.

धर्मपाल ने फ़ोन पर योगराज को पकड़ा ” योगराज , तुमने ये हंगामा क्या बरपा कर दिया है?”

” कैसा हंगामा,भाई.समझा नहीं.” योगराज ने हैरानगी ज़ाहिर की.

” क्या तुम एक राज़ को अपने दिल में नहीं रख सकते थे?”

” किस राज़ को ? जरा खोल कर बात करो.

” वही यशपाल वाला राज़ कि वो छिप-छिप कर किसी ब्याही औरत से रंगरलियाँ मनाता है.उसका राज़ तुमने सतपाल को खोल दिया और उसने कई यारों-दोस्तों  को.मुझे तुमसे ये आशा कतई नहीं थी.”

” देखो धर्मपाल, तुम मुगालते में हो. तुमने तो ये राज़ मुझसे कहा ही नहीं तो खफा क्यों होते हो ? राज़ तो मुझे सुधीर ने बताया था. पकड़ना है तो उसे पकड़ो.”

योगराज ने भी फ़ोन के बेस पर चोगा पटक दिया.

धर्मपाल को याद आया कि राज़ उसने सुधीर को ही  बताया था. उसने उसको पकड़ना मुनासिब समझा. फ़ोन लगने पर सुधीर की पत्नी बोली – ” कौन ?

” भाभी जी, मैं धर्मपाल बोल रहा हूँ. क्या सुधीर घर में है? “

” जी, नहीं. कुछ मेहमान आने वाले हैं. उनके लिए मीठा – नमकीन लेने गये हैं.आने वाले ही हैं.आप कुछ देर के बाद फ़ोन कर लीजिये .ठहरिये, वो आ गये हैं. लीजिये, उनसे बात कीजिये.”

”  सुधीर.”

” बोल रहा हूँ , धर्मपाल.”

” तुम अच्छे हमराज़ निकले हो ! एक राज़ को तुम अपने पेट के किसी कोने में दबा कर नहीं रख सके.”

” कौन सा राज़, मेरे यार ?”

” वही यशपाल का किसी ब्याही औरत से लुक-लुक  कर मिलने वाला राज़.”

” अरे यार, इसे तुम राज़ कहते हो ?  इश्क-विश्क के चक्कर को तुम राज़ समझते हो .ये रोग भी कहीं छिपाने से छिपता  हैं? देखो, धर्मपाल, तुमने मुझसे यशपाल का राज़ बताया. बताया न ?

” बताया.”

” राज़ था तो उसे राज़ ही रहने देते.- – – मैं गलत तो नहीं कह रहा हूँ ? – – – – चुप क्यों हो गये हो ?  – – – – बोलो न?”

धर्मपाल को दूसरी ओर से टेलिफ़ोन के बेस पर चोगा रखने की आवाज़ सुनायी दी.

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सुरक्षाकर्मी

– प्राण शर्मा

रामस्वरूप और राजनारायण कई सालों से पुलिस विभाग में काम कर रहें हैं. उनके काम को सराहते हुए विभाग ने उन्हें उद्योगपति पी.के.धर्मा की सुरक्षा में तैनात कर दिया.

पी.के. धर्मा वही उद्योगपति हैं जो हर साल देश की प्रमुख पार्टी को एक करोड़ रुपयों की धनराशि चन्दा के रूप में देते हैं. गत मास किसी अज्ञात व्यक्ति ने उन पर गोली चला कर हमला किया था. गोली उनके सर के दस-ग्यारह मीटर ऊपर होकर निकल गयी थी. उनको कोई जानी नुक्सान नहीं हुआ था.

मीडिया ने उक्त घटना को पी.के. धर्मा का स्टंट बताया. सरकार  ने इसकी छानबीन करवाई. छानबीन पर लाखों रूपए खर्च हुए. जल्द ही एक सौ पृष्ठों की रिपोर्ट छपी. रिपोर्ट का सारांश था – ” चूँकि पी.के. धर्मा सैंकड़ों संस्थाओं को चन्दा देते हैं इसलिए वे कई ईर्ष्यालु संस्थाओं की हिटलिस्ट में हैं. वे सरकारी सुरक्षा व्यवस्था के पूरे हक़दार हैं.”

पी.के. धर्मा की सुरक्षा में तैनात रामस्वरूप और राजनारायण को तीन महीने भी नहीं बीते थे कि उन्हें और उनके परिवार को जान से मार देने के धमकी भरे पत्र और फ़ोन आने लगते हैं. हिम्मती हैं इसलिए कुछ दिनों तक दोनो ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया. लेकिन रोज़ – रोज़ के धमकी भरे पत्रों और फ़ोनों से वे घबरा जाते हैं. अपनी चिंता कम और परिवार वालों की चिंता उन्हें ज्यादा है. अपनी और अपने परिवार वालों की सुरक्षा व्यवस्था के लिए उन्होंने पूरा विवरण अपने विभाग को भेज दिया.

विभाग ने उनकी दरखास्त को नामंजूर कर दिया. जवाब में लिखा था – ” आप सुरक्षाकर्मी हैं. आपको सुरक्षा की क्या आवश्यकता है ? “

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कनाडा से विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय “उड़नतश्तरी” हिंदी ब्लॉग के समीर लाल “समीर” की दो लघुकथाएं

जून 2, 2010

समीर लाल का जन्म २९ जुलाई, १९६३ को रतलाम म.प्र. में हुआ. विश्व विद्यालय तक की शिक्षा जबलपुर म.प्र से प्राप्त कर आप ४ साल बम्बई में रहे और चार्टड एकाउन्टेन्ट बन कर पुनः जबलपुर में १९९९ तक प्रेक्टिस की. सन १९९९ में आप कनाडा आ गये और अब वहीं टोरंटो नामक शहर में निवास करते है. आप कनाडा की सबसे बड़ी बैक के लिए तकनिकी सलाहकार हैं एवं पेशे के अतिरिक्त साहित्य के पठन और लेखन की ओर रुझान है. सन २००५ से नियमित लिख रहे हैं. आप कविता, गज़ल, व्यंग्य, कहानी, लघु कथा आदि अनेकों विधाओं में दखल रखते हैं एवं कवि सम्मेलनों के मंच का एक जाना पहचाना नाम हैं. भारत के अलावा कनाडा में टोरंटो, मांट्रियल, ऑटवा और अमेरीका में बफेलो, वाशिंग्टन और आस्टीन शहरों में मंच से कई बार अपनी प्रस्तुति देख चुके हैं.
आपका ब्लॉग
“उड़नतश्तरी” हिन्दी ब्लॉगजगत का विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय नाम है एवं आपके प्रशांसकों की संख्या का अनुमान मात्र उनके ब्लॉग पर आई टिप्पणियों को देखकर लगाया जा सकता है.
आपका लोकप्रिय काव्य संग्रह ‘बिखरे मोती’ वर्ष २००९ में शिवना प्रकाशन, सिहोर के द्वारा प्रकाशित किया गया. अगला कथा संग्रह ‘द साईड मिरर’ (हिन्दी कथाओं का संग्रह) प्रकाशन में है और शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है.
सम्मान: आपको सन २००६ में तरकश सम्मान, सर्वश्रेष्ट उदीयमान ब्लॉगर, इन्डी ब्लॉगर सम्मान, विश्व का सर्वाधिक लोकप्रिय हिन्दी ब्लॉग, वाशिंगटन हिन्दी समिती द्वारा साहित्य गौरव सम्मान सन २००९ एवं अनेकों सम्मानों से नवाजा जा चुका है.
समीर लाल का ईमेल पता है:
sameer.lal@gmail.com

अंतिम फैसला

सामने टीवी पर लॉफ्टर चैलेंज आ रहा है. वो सोफे पर बैठा है और नजरें एकटक टी वी को घूर रही हैं, लेकिन वो टीवी का प्रोग्राम देख नहीं रहा है.

उसके कान से दो हाथ दूर रेडियो पर गाना बज रहा है

‘जिन्दगी कितनी खूबसूरत हैssssss!’

साथ में पत्नी गुनगुनाते हुए खाना बना रही है. उसके कान में न रेडियो का स्वर और न ही पत्नी की गुनगुनाहट, दोनों ही नहीं जा रही हैं.

एकाएक वो सोफे से उठता है और अपने कमरे में चला जाता है.

रेडियो पर अब समाचार आ रहे हैं: ’न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेन्ज ७०० पाईंट गिरा’

कमरे से गोली चलने की आवाज आती है.

पत्नी कमरे की तरफ भागती है. उसका शरीर खून से लथपथ जमीन पर पड़ा है, उसने खुद को गोली मार ली.

रेडियो पर समाचार जारी हैं कि ७०० पाईंट की गिरावट मानवीय भूलवश हुई है अतः उस बीच हुई सभी ट्रेड रद्द की जाती है.

वो मर चुका है.

-समीर लाल ‘समीर’

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कर्ज चुकता हुआ??

इकलौता बेटा है.

हाल ही बी ई पूरी कर ली. मास्टर माँ बाप की आँख का तारा, उनका सपना. एक शिक्षक को और क्या चाहिये, बेटा पढ़ लिख कर इन्जिनियर बन गया.

विदेश जाकर आगे पढ़ने की इच्छा है.

शिक्षक का काम ही शिक्षा का प्रसार है, वो भला कब शिक्षा की राह में रोड़ा बन सकता है वो भी तब, जब उसका इकलौता बेटा उनका नाम रोशन करने और उनके सपने पूरे करने के लिए माँ बाप से बिछोह का गम झेलते हुए अकेला अपनी मातृ भूमि से दूर अनजान देश में जा संघर्ष करने को तैयार हो.

बैंक से एक मात्र जमा पूँजी, अपना मकान गिरवी रख, लोन लेकर मास्साब ने बेटे को आशीषों के साथ विदेश रवाना किया.

दो बरस में बेटा कमाने लायक होकर, मुश्किल से साल भर में कर्ज अदा कर देगा फिर मास्साब की और उनकी पत्नी की जिन्दगी ठाट से कटेगी. फिर वो ट्यूशन नहीं पढ़ायेंगे. बस, मन पसंद की किताबें पढ़ेंगे और साहित्य सृजन करेंगे.

अब चौथा बरस है. बेटे ने एक गोरी से वहीं विदेश में शादी कर ली है. उससे एक बेटा भी है. भारत की बेकवर्डनेस बहु और पोते दोनों के आने के लिए उचित नहीं . इसके चलते बेटा भारत आ नहीं सकता और वहाँ विदेश में घर में माँ बाप के लिए जगह नहीं और न ही कोई देखने वाला.

नई फैमली है, खर्चे बहुत लगे हैं. फोन पर भी बात करना मंहगा लगता है अतः लोन वापस करने की अभी स्थितियाँ नहीं है और न ही निकट भविष्य में कोई संभावना है. बेटे और उसकी पत्नी को बार बार का तकादा पसंद नहीं अन्यथा भी अनेक टेंशन है, जो भारतीय माँ बाप समझते नहीं,  अतः इस बारे में बात न करने का तकादा वो माँ को फोन पर दे चुका है वरना उसे मजबूर होकर फोन पर बात करना बंद करना होगा. माँ ने पिता जी को समझा दिया है और पिता ने समझ भी लिया है.

आज रिटायर्ड मास्साब ने अपने ट्यूशन वाले बच्चों को नये घर का पता दिया. कल वो उस किराये के घर में शिफ्ट हो जायेंगे.

जाने कौन सा और किसका कर्ज चुकता हुआ. कम से कम बैंक का तो हो ही गया.

साहित्य सृजन की आशा इतिहास के पन्ने चमका रही है.

इतिहास भी तो साहित्य का ही हिस्सा है!!

उसकी चमक बरकरार रखने का श्रेय तो मिलना ही चाहिये!!

-समीर लाल ‘समीर’

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