जुलाई 12th, 2010 के लिए पुरालेख

भारत से रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की दो लघुकथाएं

जुलाई 12, 2010

पागल
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

कई सौ लोगों का हुजूम। लाठी, भाले और गंडासों से लैस। गली–मुहल्लों में आग लगी हुई है। कुछ घरों से अब सिर्फ धुआँ उठ रहा है। लाशों के जलने से भयावह दुर्गन्ध वातावरण में फैल रही है। भीड़ उत्तेजक नारे लगाती हुई आगे बढ़ी।
नुक्कड़ पर एक पागल बैठा था। उसे देखकर भीड़ में से एक युवक निकला–‘‘मारो इस हरामी को।’’ और उसने भाला पागल की तरफ उठाया।
भीड़ की अगुआई करने वाले पहलवान ने टोका–‘‘अरे–रे इसे मत मार देना। यह तो वही पागल है जो कभी–कभी मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठा रहता है।’’ युवक रुक गया तथा बिना कुछ कहे उसी भीड़ में खो गया।
कुछ ही देर बाद दूसरा दल आ धमका। कुछ लोग हाथ में नंगी तलवारें लिए हुए थे, कुछ लोग डण्डे। आसपास से ‘बचाओ–बचाओ’ की चीत्कारें डर पैदा कर रही थीं। आगे–आगे चलने वाले युवक ने कहा–‘‘अरे महेश, इसे ऊपर पहुंचा दो।’’
पागल खिलखिलाकर हंस पड़ा। महेश ने ऊँचे स्वर में कहा–‘‘इसे छोड़ दीजिए दादा। यह तो वही पागल है जो कभी–कभार लक्ष्मी मन्दिर के सामने बैठा रहता है।’’
दंगाइयों की भीड़ बढ़ गई। पागल पुन: खिलखिलाकर हंस पड़ा।
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अपने–अपने सन्दर्भ
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

इस भयंकर ठंड में भी वेद बाबू दूध वाले के यहाँ मुझसे पहले बैठे मिले। मंकी कैप से झाँकते उनके चेहरे पर हर दिन की तरह धूप–सी मुस्कान बिखरी थी।
लौटते समय वेदबाबू को सीने में दर्द महसूस होने लगा। वे मेरे कंधे, पर हाथ मारकर बोले–‘‘जानते हो, यह कैसा दर्द है?’’मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मद्धिम स्वर में बोले–‘‘यह दर्दे–दिल है। यह दर्द या तो मुझ जैसे बूढ़ों को होता है या तुम जैसे जवानों को।’’
मैं मुस्करा दिया।
धीरे–धीरे उनका दर्द बढ़ने लगा।
‘‘मैं आपको घर तक पहुँचा देता हूँ।’’ मोड़ पर पहुँचकर मैंने आग्रह किया–‘‘आज आपकी तबियत ठीक नहीं लग रही है।’’
‘‘तुम क्यों तकलीफ करते हो? मैं चला जाऊँगा। मेरे साथ तुम कहाँ तक चलोगे? अपने वारण्ट पर चित्रगुप्त के साइन होने भर की देर है।’’ वेद बाबू ने हंसकर मुझको रोकना चाहा।
मेरा हाथ पकड़कर आते हुए वेदबाबू को देखकर उनकी पत्नी चौंकी–‘‘लगता है आपकी तबियत और अधिक बिगड़ गई है? मैंने दूध लाने के लिए रोका था न?’’
‘‘मुझे कुछ नहीं हुआ। यह वर्मा जिद कर बैठा कि बच्चों की तरह मेरा हाथ पकड़कर चलो। मैंने इनकी बात मान ली।’’ वे हँसे
उनकी पत्नी ने आगे बढ़कर उन्हें ईज़ी चेयर पर बिठा दिया। दवाई देते हुए आहत स्वर मे कहा–‘‘रात–रात–भर बेटों के बारे में सोचते रहते हो। जब कोई बेटा हमको पास ही नहीं रखना चाहता तो हम क्या करें। जान दे दें ऐसी औलाद के लिए। कहते हैं–मकान छोटा है। आप लोगों को दिक्कत होगी। दिल्ली में ढंग के मकान बिना मोटी रकम दिए किराए पर मिलते ही नहीं।’’
वेदबाबू ने चुप रहने का संकेत किया–‘‘उन्हें क्यों दोष देती हो भागवान! थोड़ी–सी साँसें रह गई हैं, किसी तरह पूरी हो ही जाएगी–’’ कहते–कहते हठात् दो आँसू उनकी बरौनियों में आकर उलझ गए।
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