आतंक के युद्ध में जीत!!!
यह सब से बड़ा आतंकी हमला था। १० आतंकियों को मार कर आतंक के खिलाफ यह जंग जीत ली है – गर्व की बात है!
१९९३ के बम विस्फोट में, संसद पर हमले में, दिल्ली में, जयपुर में – जहां भी देखो कितनी ही जानें खो कर अंत में यही कहने में गर्व होने लगता है – ‘आतंकियों पर जीत’ और जय जयकार से आकाश गूंज उठता है।
बस, कुछ करना-धरना नहीं, केवल खोखली बातें :
“सरकार को यह करना चाहिए, वह करना चाहिए था, जो मैं कह रहा हूं वही करना चाहिए, मैंने तो पहले ही कह दिया था कि ये आतंकी फिर आएंगे ……” –
बस यहां ख़त्म हो जाती हमारी कर्मभूमि की सीमा! वागाडंबर और वाग्-युद्ध में हमें सिद्धि प्राप्त है!
१९९३ के बम-विस्फोट में, संसद पर हमले में, दिल्ली में, जयपुर में – जहां भी देखो कितनी ही जानें खो कर अंत में यही कहने में गर्व होने लगता है और वही पुनरावृत्ति – ‘आतंकियों पर जीत’ और जय जयकार से आकाश गूंज उठता है। कितनी ही बार यही विजय-घोष का नारा सुनते आए हैं किंतु विजयश्री की श्रृंखला में अनेक निर्दोष लोगों की आत्माएं गोलियों से छिदे और विस्फोट की आग में झुलसते हुए शरीरों से विदा लेकर रोती रहीं। हमले का आकार और भीषणता का विस्तार होता रहा। मिडिया और अखबारों का व्यापार बढ़ जाता है। पान की दुकान पर, पार्कों में, हर जगह लोगों के झुंड इकट्ठे हो कर शासन-नीति, कूट-नीति, सरकारी-नीति पर बहस और दावेदारी के साथ एक दूसरे पर लांछन और आरोप लगा कर अपनी भड़ास निकालने का अवसर मिल जाता है।
मैं भी तो यही कर रहा हूं। ब्लॉग में अपनी भड़ास ही तो निकाल रहा हूं – अपनी शर्मिंदगी पर आवरण डालने की कोशिश में कहे देता हूं :-
“इस वाग्-युद्ध के अलावा हम क्या कर सकते हैं, यह तो सरकार का, पुलिस का, खुफिया एजेंसियों, डिज़ास्टर मैनेजमेंट विभाग का, कमांडो का कर्तव्य है। ड्यूटी ही तो कर रहे हैं हम – नारा लगा रहे हैं, लोगों में जागृति उत्पन्न कर रहे हैं।”
भैया, कुछ भी नहीं कर सकते तो फिरका-परस्ती मिटाने के लिए इतना तो कर सकते हो कि जब कोई पूछे –
“भाई साहब आप हिंदू हो?”
“नहीं”
“मुसलमान हो?”
“नहीं।”
“तो क्या सिख हो?”
“नहीं।”
” तो फिर लगता है पारसी या यहूदी होगे।”
“नहीं”
“अरे अब समझ गया। दलित हो तुम!”
” मैं बताता हूं। मैं क्या हूं! मैं हूं ‘भारतीय’ – केवल ‘भारतीय’ जिसका मुझे गर्व है।
दुनिया के किसी भी भाग में चला जाऊं, मैं जन्म-जन्मांतर से ‘भारतीय’ हूं। “
महावीर
**********************
‘नीरज त्रिपाठी’ ने जयपुर में विस्फोट पर एक कविता में अपना रोष कुछ शब्दों में व्यक्त किया था जो आज भी लागू होते हैं।
जब भी यही हुआ था, आज फिर उसकी पुनरावृत्ति और कल भी कौन जाने………?
यह पंक्तियां उसी दिन स्वयं ही लुप्त हो जाएंगी जिस दिन ‘आतंकवाद’ शब्द मानव की जबान पर आते ही उबकाई आने लगेः-
नीरज त्रिपाठी की कविता की कुछ पंक्तियां :-
मिट गया सिंदूर हाथ मेंहदी है अभी भी
राख है वो आज मासूमियत उसकी हँसी
सुलगेगी बस अब जिंदगी भर जिंदगी
वो जहाँ जब भी जो चाहेंगे करेंगे
हम नपुंसक थे नपुंसक हैं नपुंसक ही रहेंगे
था लगा मन में वो कुछ सपने संजोने
था क्या पता हैं पापियों के हम खिलौने
बम फटे और साथ में अरमान उसके
बहन खोयी भाई खोये खोये हैं बेटे किसी ने
कैसे मरे कितने मरे दो चार दिन चर्चा करेंगे
हम नपुंसक थे नपुंसक हैं नपुंसक ही रहेंगे
शर्ट के टुकड़े मिले हैं लाल गायब
लाश भी मिलती नही कुछ को चहेतों की
सरकार ने तो कर दिया है काम अपना
एक कमेटी थोड़ा शोक थोड़ा पैसा
ये धमाके कल हुए थे आज भी और कल भी होंगे
हम नपुंसक थे नपुंसक हैं नपुंसक ही रहेंगे
नीरज त्रिपाठी