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महेन्द्र दवेसर दीपक की पुस्तक ‘अपनी-अपनी आग’ पर समीक्षा

जून 29, 2009

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समीक्षक:

उषा राजे सक्सेना

महेन्द्र दवेसर दीपक की पुस्तक ‘अपनी-अपनी आग’ अभी हाल ही में मेधा बुक्स ने प्रकाशित की है।

ब्रिटेन के हिंदी साहित्य जगत में महेन्द्र दवेसर ‘दीपक’ का नाम कोई नया नहीं है। दवेसर जी ब्रिटेन की साहित्यिक पत्रिका ‘पुरवाई’ में लिखते रहे है। भारत की पत्र-पत्रिकाओं में भी वे लिखते रहते हैं।‘अपनी-अपनी आग’ महेन्द्र जी का तीसरा कहानी संग्रह है इससे पूर्व उनके दो और कहानी-संग्रह आ चुके है, ‘पहले कहा होता’ और ‘बुझे दिए की आरती’। और अब यह ‘अपनी-अपनी आग’ जिसके प्रकाशन के लिए भारतीय उच्चायोग ने उन्हें ढाई सौ पाउँड का अनुदान देकर उनका मान बढ़ाया है। ‘अपनी-अपनी आग’ इस संग्रह की शीर्ष कहानी है जिसमें ‘आग’ एक प्रतीक है। आग जो हम सबके अंदर किसी न किसी रूप में दहकती रहती है जो हमे जीवित रखती है, हमें जीजिविषा प्रदान करती है। हमारा यह देह पाँच तत्वों से बना है। आग उसका ही एक तत्व है। ‘क्षिति, जल, पावक, गगन समीरा, पंच रचित यह अधम शरीरा’। इन कहानियों के केंद्र में दवेसर जी ने इस आग को नए-नए रूप में, नए-नए चेहरों, नए-नए किरदारों के माध्यम से प्रज्जवलित किए रखा है। यहाँ तक कि यह आग ‘चक्कर ही चक्कर’ और ‘अतिथि’ जैसी हास्य-व्यंग्य की हल्की-फुल्की कहानियों में भी जलती रहती है।

दवेसर जी एक ऐसे सृजक हैं, जो भावुक हैं संवेदनशील हैं। उनके जीवन में या उनके आस-पास जो कुछ घटता है वह उनके अंदर बैठे सृजक को मथता है, उत्प्रेरित करता है। वे चैन से नहीं रह पाते हैं उनकेDavesar & Ravi Sharma 1 अनुभव, उनकी संवेदनाएँ उनको झकझोरती हैं और उनकी लेखनी चल पड़ती है। वे स्वयं पुस्तक की भूमिका में स्वीकारते हैं, मैं अपने जीवन के 80वें वर्ष से गुज़र रहा हूँ, मेरे पास अनुभवों का कोई अभाव नहीं हैं। वास्तव में उनके पास अनुभवों का अकूत भंडार है। उन अनुभवों को वे शब्दों में ढालते चले जाते हैं। जीवन के सुख-दुख, ईर्ष्या-द्वेष, षड़यंत, हादसे, अत्याचार, प्रतिशोध, करुणा, संघर्ष और पीड़ा उनके सरोकार हैं जो कहानियों के बुनावट में उतरते है। वे पर-पीड़ा को आत्मसात करने में सक्षम हैं। पुरुष होते हुए भी वे स्त्री के मनोभावों को, उसकी पीड़ा को, उसकी सीमाओं को, उसकी कुटिलता को, उसकी सरलता-सहजता को, उसके छले जाने को, पाठकों तक शब्दों के माध्यम से कहानियों में ढालकर पहुँचाते है।

दवेसर जी की अधिकांश कहानियाँ नायिका प्रधान होती हैं। ‘अपनी-अपनी आग’ की कहानियाँ शिल्प-सुघड़ या किसी वाद से जुड़ी कहानियाँ नहीं हैं, लेकिन इनमें एक बेचैन धड़कती हुई ज़िंदगी है जो अपने अफ़साने पाठकों से पढ़वा लेती है। यही इन कहानियों की खूबी है। कहानियों की भाव-भूमि ब्रिटेन है। इन कहानियों में दवेसर जी ने परंपराओं महत्वकांक्षाओ और उनसे उपजी त्रासद परिस्थितियों के बीच पिसते मनुष्य को, विभिन्न किरदारों और घटनाओं द्वारा क्षय होते मानवीय संबंधों की पड़ताल करने की कोशिश की हैं।

पुस्तक ‘अपनी-अपनी आग’ में दस कहानियाँ हैं। ‘बीस पाउँड’ ‘आधा गुनाह’ ‘नहीं’ ‘चक्कर ही चक्कर’ ‘ईबू’ ‘अतिथि’ ‘अपनी-अपनी आग’ ‘एक सूखी बदली’ ‘सुरभि’ ‘प्यासे प्रश्न’ आदि। आग की तपिश पुस्तक की तकरीबन हर कहानी में किसी-न-किसी रूप में दहकती है कहीं रूढियों में जकड़े माँ-बाप द्वारा बेटी के छले जाने की पीड़ा में, तो कहीं परमिस्सिव सोसाइटी में औरत के यौन, स्वछंद व्यौहार से आती गुनाह की ग्लानि में, तो कहीं मृदुला जैसी शीलवंती पत्नि के प्रतिशोध में, तो कही रिश्तों में आते जा रहे खोखलेपन में, तो कहीं ईबू जैसे नन्हें बालक के भविष्य में अड़चने डालनेवाले समाज और व्यवस्था के घेराबंदी में, तो कहीं सुरभि जैसी निर्दोष, कोमलह्रदया किशोरी के तथा-कथित बाप द्वारा शोषण में, तो कहीं कैलाश और मधु के प्यासे प्रश्नों में। कैसी विडंबना है सनातन काल से मनुष्य सुख की खोज में भटक रहा है, वह चाहे कितना भी हाथ-पाँव मारे पर वह कहीं भी सुखी नहीं रह पाता है। कभी वह स्वयं महत्वकांक्षाओं के मकड़जाल बुनता है तो कभी परिवेश, समाज, कानून या व्यवस्था उसकी राह में रोड़े अटकाते हैं।

समय की सीमा है अतः मैं दो कहानियों पर कुछ विस्तृत चर्चा कर अपना वक्तव्य समाप्त करुंगी।

संग्रह की पहली कहानी ‘बीस पाउँड’ ब्रिटेन में जन्मी सोलह वर्ष की समीना अख्तर की है जिसने अभी-अभी ओ-लेवेल की परीक्षा दी है उसकी आँखों में सपने है वह आगे पढना चाहती है। रूढ़ संस्कारों में जकड़े अम्मी-अब्बू के लिए समीना उनके बुढापे की इन्श्योरेंस है वे उसकी शादी पाकिस्तान में रहनेवाले, पचाससाला अपढ़-गवाँर दो बच्चों के बाप अरशद के साथ इस लिए करना चाहते हैं कि वह उस घर में इतनी अमीर हो जाएगी कि एक दिन जब वे बूढ़े हो जाएँगे तो वह उनकी देख-भाल कर सकेगी। समीना की अम्मी बुड्ढे से शादी करने के लिए उसे इमोशनल ब्लैकमेल करती हैं। समीना अपने से दो साल बड़ी सहेली बलजीत के पास निस्तार के लिए पहुँती है पर वह तो खुद उसी आग में जल रही होती है। बलजीत के दार जी बलजीत और उसके प्रेमी का कत्ल कर सकते हैं पर उसका उसके मनपसंद लड़के से ब्याह नहीं कर सकते। बलजीत घर से भाग कर अपने प्रेमी से शादी कर लेती है। समीना बलजीत का सहारा लेकर घर से भागती है पर विडंबना यह है कि बल्ली और जग्गी तो शादी के बाद हनीमून के लिए चले जाएँगे पर वह कहाँ जाएगी? बलजीत और जग्गी हनीमून पर जाते हुए उसे ठेंगा दिखा देते हैं। पल भर में मित्रता की उष्मा खतम हो जाती है। समीना अकेली पड़ जाती है, अब अपने शहर बर्मिंघम में रहने का मतलब, फिर से उसी नारकीय स्थिति में पहुँच जाना जहाँ से वह निस्तार के लिए भागी थी। अल्लाह पर भरोसा रख समीना लंदन पहुँच कर पिकैडिली सर्कस की भीड़ में खो जाना चाहती है। पर उसका ज़मीर उसे उस भीड़ से अलग करता है, वह बिकना नहीं चाहती है। कड़कड़ाती ठंड है तेज़ तिरछी हवा है भूख है, आँखे नीद से बोझिल है, कहाँ जाए समीना? पुलिस वार्निंग देती है। समीना मन ही मन चाहती है कि पुलिस उसे जेल में ठूँस दे ताकि उसे रात भर को छत मिल जाए। तभी युवा पत्रकार योगेश चोपड़ा की नज़र उस देसी लड़की पर पड़ती है जिसकी आँखों में आँसू है चेहरे पर लाचारी है। लड़की भूखी है वह उसे बीस पाउँड देकर विमेन्स हाँस्टल याने ‘शेल्टर’ में जाने को कहता है। घर से भागी समीना शेल्टर में जाने से घबड़ाती है। योगेश को भाई कह कर द्रवित करती है और वह उसे अपने घर ले जाने को राज़ी कर लेती है। जैसा कि आम होता है योगेश की पत्नि प्रीति को योगेश का आधी रात को एक अंजान खूबसूरत लड़की का घर लाना नागवार लगता है। वह योगेश को जली-कटी सुनाती है और समीना को देह व्यापार करनेवाली औरत मान कर उसे रंडी का खिताब देती है। समीना बंद दरवाज़े से बाहर आती आवाज़ें सुनती है। वह निर्दोष है परिस्थितियों की मारी, बिना कुछ पूछे योगेश की पत्नि उसे कटघरे में खड़ा कर लांछित करती है। चोट खाई समीना, एक बार फिर दिगभ्रमित, अकेली और लाचार महसूस करती है। उसका आत्मसम्मान जोश मारता है वह योगेश के दिए बीस पाउँड का नोट एक फूलदान के नीचे दबा कर एक छोटा सा नोट लिख जाती है, ‘थैंक यू ब्रदर मेरे लिए आपको बहुत कुछ सुनना पड़ा। मैं छोड़ रही हूँ यह रैन बसेरा।’ वह फिर सड़क पर आ जाती है।

पुस्तक: ‘अपनी-अपनी आग’
लेखक: महेन्द्र दवेसर दीपक
प्रकाशक: मेधा बुक्स
x-11, नवीन शाहदरा,
नई दिल्ली-110032
टेलीफोन: 91-(011)-2116672
फैक्स: 91-(11)-22321818
ई मेल: medhabooks@gmail.com
मूल्य: 200 रुपये

कहानी के अंत में योगेश दुखी होता है तो उसकी पत्नि प्रीति रिलीव्ड कि चलो अच्छा हुआ छुट्टी मिली… पर समीना का क्या हश्र हुआ? कहानीकार ने सबीना को जागरूक तो बनाया पर उसे आज की प्रगतिशील लड़कियों की तरह चतुर और सजग नहीं बनाया कि अपनी रक्षा वह स्वयं कर सके।

संग्रह की एक और मानवीय संवेदनाओं से भरपूर, प्रभावशाली और पाठक को उद्वेलित करनेवाली, भावप्रवण कहानी है ‘ईबू’। इस कहानी के केंद्र में एक नन्हाँ बालक ‘वरजा’ है जिसकी माँ तूफ़ानी सुनामी को भेट चढ़ चुकी है, और है कोमल-ह्रदया अविवाहित, लोक-सेवा को समर्पित, डा. शेफाली। डा. शेफाली मानवता के नाते अपनी सहकर्मी मित्र सुंदरी के साथ इंडोनेसिया के एक गाँव मोलाबो आती है जिसे तीन-दिन पहले सुनामी लहरों के तांडव ने तहस-नहस कर दिया है। वहीं वह नन्हें वरजा से मिलती है। वरजा की माँ को सुनामी लील गई, बाप की मृत्यु तो पहले ही हो चुकी थी। अनाथ वरजा का भोला-भाला चेहरा डॉ. शेफाली के मातृत्व को झकझोरता है। वरजा जब उसे ईबू कहकर पुकारता है तो उसका अंग-अंग थिरकने लगता है। वह वरजा को इस हद तक प्यार करने लगती है कि अविवाहित होते हुए भी उसे गोद लेने का निर्णय ले लेती है किंतु क्या वह उसे गोद ले पाती है? क्या उसे वह सुरक्षित घर दे पाती है? धर्म के ठेकेदार, कानून, समाज, मनुष्य की सुरक्षा, प्रगति और विकास के लिए बनाई गईं व्यवस्था किस तरह एक संवरते हुए अबोध बालक की जिंदगी में कुटिलता से दखल देकर उसके सारे संभावनाओं को नष्ट कर देती है। इंसान कितना बेइमान, संकीर्ण, फ़सादी खुदगर्ज़, नृशंस, अत्याचारी और भावशून्य हो सकता है इसे नन्हें अनाथ वरजा की कहानी ‘ईबू’ पढ़ कर जाना जा सकता है।

आज का वक्त सांस्कृतिक एवं साहित्यिक वैचारिकता के संकट का समय है। दवेसर जी का यह संग्रह चरित्रों और परिवेशों का आत्मावलोकन है। संग्रह की तमाम कहानियों को पढ़ कर महसूस होता है कि दवेसर जी अपनी कहानियों में जीने की कोशिश करते हैं और पाठक में सकारात्मक और वैचारिक ऊर्जा भरते है। संग्रह की सभी कहानियाँ पठनीय है। कहानियों की भाषा सहज और सरल है।

दवेसर जी आपकी लेखनी इसी तरह चलती रहे। निश्चय ही ‘अपनी-अपनी आग’ का हिंदी जगत में भरपूर स्वागत होगा।

समीक्षक: उषा राजे सक्सेना

प्रेषक: महावीर शर्मा

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देवी नागरानी एक संवेदन शील कवियित्री – प्राण शर्मा

अगस्त 10, 2008

देवी नागरानी एक संवेदन शील कवियित्री
-प्राण शर्मा

‘प्रतिभाशाली और श्रेष्ट कवि कौन है?’ के उत्तर में गुरु ने कहा की प्रतिभाशाली और श्रेष्ट कवि वह है जिसके पास विपुल भाषा का भंडार हो, जिसके पास संसार का अनुभव ही अनुभव हो, जिसमें सॉफ-सुथरी कविता कहने की निपुणता हो, और जिसको छंदों- बहरों का पूरा ग्यान हो. पूछने वाले में संतुष्टि की लहर दौड़ गयी.

देवी नागरानी एक ऐसी सशक्त कवियित्री हैं, जिसमें उपरोक्त चारों विशेषताएँ हैं. उनका भाषा पर अधिकार भी है, उनको संसार का अनुभव भी है, उनमें सॉफ-सुथरी कविता कहने की क्षमता भी है और उन्हें छंदों- बहरों का पूरा ग्यान भी है. उनमें इन्ही विशेषताओं एवं गुणों के कारण हिंदी और उर्दू के मूधन्यि साहित्यकारों डा॰. कमल किशोर गोयनका, आर. पी शर्मा “महर्षि” , अहमद वसी, अंजना सँधीर, दीक्षित दनकौरी, मरियम ग़ज़ाला, हसन माहिर और अनवरे इस्लाम ने उनके चरागे-दिल की ग़ज़लों को भरपूर सराहा है. उनकी शायरी के बारे में जनाब अनवरे इस्लाम का कथन वर्णननीय है -” मैने पाया की वे (देवी नागरानी) महसूस करके फ़िक्र के साथ शेर कहती हैं, आपकी फ़िक्र में दिल की मामलेदारियों के साथ ग़मे ज़माना और उसके तमाम मसाइल शेरों में ढलकर ‘रंगे-रुख़े-बुताँ’ की तरह हसीन हो जाते हैं क्योंकि वे ग़म में भी ख़ुशी के पहलू तलाश करना जानती हैं –

ज़िंदगी अस्ल में तेरे ग़म का है नाम
सारी ख़ुशियाँ है बेकार अगर ग़म नहीं

चराग़े-दिल के पश्चात देवी नागरानी का नया ग़ज़ल-संग्रह है- “दिल से दिल तक” ग़ज़ल-संग्रह की लगभग सभी ग़ज़लें मैने पढ़ी है. प्रसन्नता की बात है कि देवी नागरानी ने ग़ज़ल की सभी विशेषताओं का निर्वाह बख़ूबी किया है. मैने अपने लेख ‘उर्दू ग़ज़ल बनाम हिंदी ग़ज़ल’ में लिखा है-” अच्छा शेर सहज भाव स्पष्ट भाषा और उपयुक्त छन्द के सम्मिलन का नाम है. भवन के अंदर की भव्यता बाहर से दीख जाती है. जिस तरह करीने से ईंट पर ईँट लगाना निपुण राजगीर के कौशल का परिचायक होता है, उसी तरह शेर के विचार से शब्द-सौंदर्या तथा लय का माधुर्या प्रदान करना अच्छे कवि की उपलब्धि को दर्शाता है.”

चूँकि देवी नागरानी के पास भाषा है, भाव है और छन्दों-बेहरों का ग्यान है, उनकी ग़ज़लों में लय भी है, गेयता भी है और शब्द सौंदर्या भी है. वे उपयुक्त शब्दों के अनुसार छन्दों का और उपयुक्त छंदो के अनुसार शब्दों का प्रयोग करने में प्रवीण हैं, इसलिए उनके एक-एक शेर में माधुर्य और सादगी निहित है. अपनी ग़ज़लों में देवी नागरानी एक कुशल राजगीर की तरह कौशलता दिखाती है. उन्होने अपने मन के आँगन को यादों से ख़ूब सजाया है. बिल्कुल वैसे ही जैसे एक माली उध्यान को फूलों से सजाता है. उनके अनगिनत शेर ऐसे हैं जिन्हें गुनगुनाने को जी करता हैं. मसलन-

मुहब्बत की ईंटें न होती अगरचे
तो रिश्तों की पुख़्ता इमारत न होती

वक्त़ किसका कहाँ हुआ ‘देवी’
कल हमारा था अब तुम्हारा है.

हमको ढूंढो न तुम मकानों में
हम दिलों में निवास करते हैं

वफ़ा मेरी नज़र अंदाज़ कर दी उन दिवानों ने
मेरी ही नेकियों का ज़िक्र कल जिनकी ज़ुबाँ पर था

हस्ती ही मेरी तन्हा,
इक द्वीप सी रही है

चारों तरफ़ है पानी,
फिर भी बची हुई है.

भरोसा करने से पहले ज़रा तू सोचती देवी
कि सच में झूठ कितना उस फ़रेबी ने मिलाया है
देवी

नागरानी एक कुशल कवियित्री हैं. यूँ तो ‘दिल से दिल तक’ में सुख के भाव भी बिखरे हैं लेकिन दुख के भाव कुछ ज़्यादा ही व्यक्त हुए हैं. उनके शब्दों में-

ग़म तो हर वक्त साथ साथ रहे
ग़म कहीं अपना रुख़ बदलते हैं.

यहां मैं महादेवी वर्मा की दो पंक्तियां कहना चाहूँगा जिनके शब्दों से दर्द उसी तरह टपकता है जैसे देवी नागरानी जी के शेरों से –

मैं नीर भरी दुख की बदली
उमड़ी कल थी मिट आज चली.

मानव-जीवन में सुख-आगमन पर दुख भरे शेर भी मीठे लगते हैं, महान अँग्रेज़ी कवि शैले की इस पंक्ति की तरह-

Our sweetest songs are those
That tell of saddest thoughts.

परिणाम स्वरूप देवी नागरानी के अधिकांश शेर सर पर चढ़ कर बोलते ही नहीं, दिल में भी उतरते चले जाते हैं.
प्राण शर्मा
3 Crackston Close
Coventry CV25EB
U.K
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नामे किताबः दिल से दिल तक,
शायराः देवी नागरानी, पन्नेः १४४, मूल्यः १५०, प्रकाशकः लेखक

कल्पना और भाषा की अद्भुत पकड़

अगस्त 5, 2008

कल्पना और भाषा की अद्भुत पकड़:
देवी नागरानी जी का
नया
ग़ज़ल-संग्रह “दिल से दिल तक”

श्रीमती देवी नागरानी जी के अब तक दो ग़ज़ल-संग्रह “ग़म में भीगी ख़ुशी” और “चराग़े-दिल” प्रकाशित हो चुके हैं। तीसरे ग़ज़ल-संग्रह “दिल से दिल तक” का विमोचन महरिष ‘गुंजार समिति’ द्वारा आयोजित किए गए समारोह में ११ मई २००८ रविवार के दिन आर.डी. नेशनल कालेज, मुम्बई के कॉन्फ़्रेंस रूम में संपन्न हुआ था।

अपनी संवेदना और भाषा की काव्यात्मकता के कारण देवी जी संवेदनशील रचनाकार कही जा सकती हैं। देवी जी अपने इस नये ग़ज़ल- संग्रह में ग़ज़लों को कुछ इस अंदाज़ से कहती हैं कि पाठक पूरी तरह उन में डूब जाता है। विचारों के बिना भाव खोखले दिखाई देते हैं। इस संग्रह में भावों और विचारों का सुंदर सामंजस्य होने के कारण यह पुस्तक सारगर्भित बन गई है।

शाइर ज़िन्दगी की जटिलताओं के बीच अपने संघर्ष का इज़हार करने के लिए एक उपकरण ढूंढता है जो देवी जी की ग़ज़लों में अभिव्यक्त हुई है। देवी जी तकनीकी नज़ाकतों से भी भली भांति परिचित हैं। ज़िन्दगी अक्सर सीधी-सादी नहीं हुआ करती। उन्होंने लंबे संघर्षों के बीच अपनी राह बनाई हैः

जिसे लोग कहते हैं जिंदगी
वो तो इतना आसां सफ़र नहीं.

तवील जितना सफ़र ग़ज़ल का
कठिन है मंज़िल का पाना उतना.

नारी से जुड़े हुए गंभीर सवालों को उकेरने और समझाने के लिए उनके पारदर्शी प्रयास से ग़ज़लों के फलक का बहुत विस्तार हो गया है। फिर भी स्त्री-मन की तड़प, चुभन और अपने कष्टों से झूझना, समाज की रुग्ण मानसिकता आदि स्थितियों की परतें खोल कर रख देना तथा अपनी रचनाओं की अंतरानुभूति के साथ पाठकों को बहा ले जाती हैं:

कैसी दीमक लगी है रिश्तों की
रेज़े देवी है भाईचारों के

नारी के जीवन की पीड़ा, संघर्ष और अस्तित्व की पहचान भी कराती हैं:

“ये है पहचान एक औरत की
माँ बाहन, बीवी, बेटी या देवी.”

ग़ज़ल कहने की अपनी अलग शैली के कारण देवी जी की ग़ज़लों की रंगत कुछ और ही हो जाती है। अतीत का अटूट हिस्सा हो कर यादों के साथ पहाड़ जैसे वर्तमान को भी देख सकते हैं:

कुछ न कुछ टूटके जुड़ता है यहाँ तो यारो
हमने टूटे हुए सपनों को बहुत ढोया है

इम्तिहाँ ज़ीस्त ने कितने ही लिए हैं देवी
उन सलीबों को जवानी ने बहुत ढोया है.

उनकी शब्दावली, कल्पना और भाषा की अद्भुत पकड़ देखिएः

मुहब्बत की ईंटें न होती अगरचे
तो रिश्तों की पुख़्ता इमारत न होती.

वो सोच अधूरी कैसे सजे
लफ़्ज़ों का लिबास ओढ़े न कभी.

आज की शा‘इरी अपने जीवन और वक्त के बीच गुज़रते हुए तरक्की कर रही है। समय की यातना से झूझती है, टकराती है और कभी कभी लाचार हालत में तड़प कर रह जाती हैः

ज़िदगी से जूझना मुशकिल हुआ इस दौर में
ख़ुदकुशी से ख़ुद को लेकिन मैं बचाकर आई हूँ

वक्ते आखिर आ के ठहरे है फरिश्ते मौत के
जो चुराकर जिस्म से ले जायेंगे जाने कहाँ.

उनकी ग़ज़लों के दायरे का फैलाव सुनामी जैसी घटनाओं के समावेश करने में देखा जा सकता है, जिसमें आर्द्रता है, मानवीयता हैः

सुनामी ने सजाई मौत की महफ़िल फ़िज़ाओं में
शिकारी मौत बन कर चुपके-चुपके से कफ़न लाया.

आज धर्म के नाम पर इंसान किस तरह पिस रहा है। धनलोलुपता के कारण धर्म के रक्षक ही भक्षक बन कर धर्म और सत्य को बेच रहे हैं। इस ग़ज़ल के दो मिस्रों को देखिएः

मौलवी पंडित खुदा के नाम पर
ख़ूब करते है तिजारत देखलो

दाव पर ईमान और बोली ज़मीरों पर लगी
सौदेबाज़ी के नगर में बेईमानी दे गया.

निम्नलिखित पंक्तियों में अगर ग़ौर से देखा जाए तो यह आईना उनके अंदर का आईना है या वक्त का या फिर महबूब का जिसके सामने खड़े होकर वो अपने आप को पहचानतीं हैं :

मुझको सँवरता देखके दर्पण
मन ही मन शरमाया होगा.

इन अशा‘र में गूंजती हुई आवाज़ उनकी निजी ज़िन्दगी से जुड़ी हुई है। कितनी ही यातनाएं भुगतनी पड़े, पर वे हार नहीं मानती, बस आगे बढ़ती जाती हैं:

पाँव में मजबूरियों की है पड़ी ज़ंजीर देवी
चाल की रफ़्तार लेकिन हम बढ़ाकर देखते हैं.

हौसलों को न मेरे ललकारो
आँधियों को भी पस्त कर देंगे.

जीवन के लंबे अथक सफ़र पर चलते चलते देवी जी ज्यों ही मुड़ कर अतीत में देखती हैं तो बचपन के वो क्षण ख़ुशी देकर दूर कहीं अलविदा कहते हुए विलीन हो गयाः

वो चुलबुलाहट, वो खिलखिलाहट
वो मेरा बचपन न फिर से लौटा.

आशा है कि देवी नागरानी जी का यह ग़ज़ल-संग्रह ग़ज़ल साहित्य में अपना उचित स्थान पायेगा। हार्दिक शुभकामनाओं सहित

महावीर शर्मा

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‘दिल से दिल तक”
मूल्य़ – रुपये 150/- $5
Publisher: Devi Prakashan
9-D, Corner View Society
15/33 Road, Bandra,
Mumbai – 400 050