जुलाई 2010 के लिए पुरालेख

भारत से सुभाष नीरव की दो लघुकथाएं

जुलाई 27, 2010

रंग-परिवर्तन
सुभाष नीरव

आखिर मनोहरलाल जी का मंत्री बनने का पुराना सपना साकार हो ही गया। शपथ-समारोह के बाद वह मंत्रालय के सुसज्जित कार्यालय में पहुंचे तो वहाँ उनके प्रशंसकों का ताँता लगा हुआ था। सभी उन्हें बधाई दे रहे थे।
देश-विदेश के प्रतिष्ठित पत्रों के पत्रकार और संवाददाता भी वहां उपस्थित थे। एक संवाददाता ने उनसे पूछा, “मंत्री बनने के बाद आप अपने मंत्रालय में क्या सुधार लाना चाहेंगे?”
उन्होंने तत्काल उत्तर दिया, “सबसे पहले मैं फिजूलखर्ची को तत्काल बंद करूँगा।”
“देश और देश की जनता के बारे में आपको क्या कहना है?”
इस प्रश्न पर वह नेताई मुद्रा में आ गए और धारा-प्रवाह बोलने लगे, “देश में विकास की गति अभी बहुत धीमी है। देश को यदि उन्नति और प्रगति के पथ पर ले-जाना है तो हमें विज्ञान और तकनालोजी का सहारा लेना होगा। तभी हम इक्कीसवीं सदी में पहुँच सकेंगे। इसके लिए देश की जनता को धार्मिक अंधविश्वासों से ऊपर उठाना होगा।”
तभी मंत्रीजी के निजी सहायक ने फोन पर बजर देकर सूचित किया कि उनसे छत्तरगढ़ वाले आत्मानंदजी महाराज मिलना चाहते हैं। मंत्री महोदय ने कमरे में उपस्थित सभी लोगों से क्षमा-याचना की और वे सब कमरे से बाहर चले गए।
महाराज के कमरे में प्रवेश करते ही, मंत्री महोदय आगे बढ़कर उनके चरणस्पर्श करते हुए बोले, “महाराज, मैं तो स्वयं आपसे मिलने को आतुर था। यह सब आपकी कृपा का ही फल है कि आज….”
आशीष की मुद्रा में महाराज ने अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाया और फिर चुपचाप कुर्सी पर बैठ गए। उनकी शांत, गहरी आँखों ने पूरे कमरे का निरीक्षण किया और फिर यकायक वह चीख-से उठे, “बचो, मनोहरलाल, बचो!….इस हरे रंग से बचो। यह हरा तुम्हारी राशि के लिए अशुभ और अहितकारी है।”

मंत्री महोदय का ध्यान कमरे में बिछे हरे रंग के कीमती कालीन, सोफों और खिड़कियों पर लहराते हरे पर्दों की ओर गया। पूरे कमरे में हरीतिमा फैली थी।

“जानते हो, तुम्हारे लिए नीला रंग ही शुभ और हितकारी है।” महाराज ने उन्हें चेताया।
मंत्री महोदय ने निजी सचिव को बुलाकर उससे कुछ बातचीत की और फिर महाराज को साथ लेकर तुरंत अपनी कोठी चले गए।
अब मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी मंत्री जी के कमरे से हरे रंग के कालीन,सोफे और पर्दे जो उनके पूर्ववर्ती मंत्री के आदेश पर कुछ दिन पूर्व ही खरीदे गए थे, हटवाकर उनकी जगह नीले रंग के नए कालीन, सोफे और पर्दे मँगवाकर लगवाने में युद्धस्तर पर जुटे थे।

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सफर में
सुभाष नीरव

“अबे, कहाँ घुसा आ रहा है?”सिर से पाँव तक गंदे भिखारीनुमा आदमी से अपने कपड़े बचाता हुआ वह लगभग चीख सा पड़ा। उस आदमी की दशा देखकर मारे घिन्न के मन ही मन वह बुदबुदाया-कैसे डिब्बे में चढ़ बैठा। अगर अर्जेंसी न होती तो कभी भी इस डिब्बे में न चढ़ता, भले ही ट्रेन छूट जाती।

माँ के सीरियस होने का तार उसे तब मिला, जब वह शाम सात बजे आफिस से घर लौटा। अगले दिन, राज्य में बंद के कारण रेलें रद्द कर दी गई थीं, और बसों के चलने की भी उम्मीद नहीं थी। अत: उसने रात की आखिरी गाड़ी पकड़ना ही बेहतर समझा।

एक के बाद एक स्टेशन पीछे छोड़ती ट्रेन आगे बढ़ी जा रही थी। खड़े हुए लोग आहिस्ता-आहिस्ता नीचे फर्श पर बैठने लग गए थे। कई अधलेटे-से भी हो गए थे।

“जाहिल! कैसी गंदी जगह पर लुढ़के पड़े हैं! कपड़ों तक का ख्याल नहीं है।” नीचे फर्श पर फैले पानी और संडास के पास की दुर्गन्ध और गन्दगी के कारण उसे घिन्न आ रही थी. किसी तरह भीड़ में जगह बनाते हुए आगे बढ़कर उसने डिब्बे में अंदर की ओर झांका। अंदर तो और भी बुरा हाल था। असबाब और सवारियों से खचाखच भरे डिब्बे में तिल रखने की जगह नहीं थी।

आगे बढ़ना असंभव देख वह वहीं खड़े रहने की विवश हो गया। उसने घड़ी देखी, साढ़े दस बज रहे थे-रात के। सुबह छह बजे से पहले गाड़ी क्या लगेगी दिल्ली ! रात-भर यहीं खड़े-खड़े यात्रा करनी पड़ेगी-वह सोच रहा था।

ट्रेन अंधकार को चीरती आगे बढ़ती जा रही थी। खड़ी हुई सवारियों में से दो-चार को छोड़कर शेष सभी नीचे फर्श पर बैठ गई थीं और आड़ी-तिरछी होकर सोने का उपक्रम कर रही थीं।

“जाने कैसे नींद आ जाती है इन्हें!” वह फिर बुदबुदाया।

ट्रेन जब अम्बाला से छूटी तो उसकी टाँगों में दर्द होना आरम्भ हो गया था। नीचे का गंदा-गीला फर्श उसे बैठने से रोक रहा था। वह किसी तरह खड़ा रहा और इधर-उधर की बातों को याद कर, समय को गुजारने का प्रयत्न करने लगा।

कुछ ही देर बाद, उसकी पलकें नींद के बोझ से दबने लगीं। वह आहिस्ता-आहिस्ता टाँगों को मोड़कर बैठने को हुआ, लेकिन तभी अपने कपड़ों का ख़याल कर सीधा तनकर खड़ा हो गया। पर खड़े-खड़े झपकियाँ जोर मारने लगीं और देखते-देखते वह भी संडास की दीवार से पीठ टिकाकर गंदे और गीले फर्श पर अधलेटा-सा हो गया।

किसी स्टेशन पर झटके से ट्रेन रूकी तो उसकी नींद टूटी। मिचमिचाती आँखों से उसने देखा-डिब्बे में चढ़ा एक व्यक्ति एक हाथ में ब्रीफकेस उठाए, आड़े-तिरछे लेटे लोगों के बीच से रास्ता बनाने की कोशिश कर रहा था। उसके समीप पहुँचकर उस व्यक्ति ने उसे यूँ गंदे-गीले फर्श पर अधलेटा-सा देखकर नाक-भौं सिकोड़ी और बुदबुदाता हुआ आगे बढ़ गया,’जाहिल ! गंदगी में कैसे बेपरवाह पसरे पड़े हैं !’

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यू.के. से प्राण शर्मा की दो लघु कथाएं

जुलाई 19, 2010

दाता दे दरबार विच

प्राण शर्मा

पंडित नरदेव जी नगर के प्रसिद्ध भजन गायक हैं. बहुत व्यस्त रहते हैं. खूब डिमांड है
उनकी. भजन गा गा कर यानि प्रभु का नाम ले लेकर उन्होंने अपना भव्य मकान
खड़ा कर लिया है. महीने में एक दिन वे भजन गायकी का कार्यक्रम अपने घर में भी
रखते हैं. श्रद्धालुओं की भीड़ लग जाती है. उनके बड़े कमरे में बैठने को जगह नहीं मिलती है.
एक बार मेरा मित्र मुझे पंडित नरदेव जी के घर ले गया था. उनका कीर्तन चल
रहा था. वे अपनी भजन मंडली के साथ भजन पर भजन गाये जा रहे थे. क्या
सुरीली आवाज़ थी उनकी! सुन-सुन कर श्रद्धालु जन प्रेम भाव से झूम रहे थे और
साथ ही साथ धन की बरखा भी कर रहे थे. धन की बरखा होते देख कर पंडित
नरदेव जी का भजन गाने का उत्साह दुगुना-तिगुना हुआ जा रहा था. हर
भजन की समाप्ति पर वे कहते – श्रद्धालुओ, ऐसी संगत बड़े भाग्य से मिलती है .
वातावरण में भक्ति की उफान लेती धारा को देख कर पंडित नरदेव जी ने अपने
अति लोकप्रिय भजन का सुर अलापा —
‘तन, मन, धन सब वार दे अपने दाता दे दरबार विच’.
धुन बड़ी प्यारी थी, मंत्रमुग्ध कर देने वाली. सुन कर पाषाण ह्रदय भी पिघल गये.
श्रद्धालु जन तन, मन तो नहीं वार पाए लेकिन धन वारने में कोई पीछे नहीं हटा. शायद
ही किसीकी जेब बची थी. देखा देखी मेरी जेब भी नहीं बच पाई.
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आकांक्षा

प्राण शर्मा

“अरी ,क्या हुआ जो वो पैंसठ साल का बूढ़ा खूसट है ! है तो करोड़पति न ! !
एकाध साल में बेचारा लुढ़क जाएगा. उसकी सारी की सारी संपत्ति की तू ही तो – – – तब ऐश और आराम से रहना. इंग्लॅण्ड हो या इंडिया कौन छैल–छबीला करोड़ों कीजायदाद की मालकिन का हाथ मांगने को तैयार नहीं होगा ? देखोगी, तुझसे शादी करने के लिए हजारों लड़के ही भागे आयेंगे .”

तीस साल की आकांक्षा को माँ का सुझाव बुरा नहीं लगा.
दूसरे दिन ही अग्नि के सात फेरों के बाद वो बूढ़े खूसट की अर्धांगिनी बन गयी.
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भारत से रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की दो लघुकथाएं

जुलाई 12, 2010

पागल
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

कई सौ लोगों का हुजूम। लाठी, भाले और गंडासों से लैस। गली–मुहल्लों में आग लगी हुई है। कुछ घरों से अब सिर्फ धुआँ उठ रहा है। लाशों के जलने से भयावह दुर्गन्ध वातावरण में फैल रही है। भीड़ उत्तेजक नारे लगाती हुई आगे बढ़ी।
नुक्कड़ पर एक पागल बैठा था। उसे देखकर भीड़ में से एक युवक निकला–‘‘मारो इस हरामी को।’’ और उसने भाला पागल की तरफ उठाया।
भीड़ की अगुआई करने वाले पहलवान ने टोका–‘‘अरे–रे इसे मत मार देना। यह तो वही पागल है जो कभी–कभी मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठा रहता है।’’ युवक रुक गया तथा बिना कुछ कहे उसी भीड़ में खो गया।
कुछ ही देर बाद दूसरा दल आ धमका। कुछ लोग हाथ में नंगी तलवारें लिए हुए थे, कुछ लोग डण्डे। आसपास से ‘बचाओ–बचाओ’ की चीत्कारें डर पैदा कर रही थीं। आगे–आगे चलने वाले युवक ने कहा–‘‘अरे महेश, इसे ऊपर पहुंचा दो।’’
पागल खिलखिलाकर हंस पड़ा। महेश ने ऊँचे स्वर में कहा–‘‘इसे छोड़ दीजिए दादा। यह तो वही पागल है जो कभी–कभार लक्ष्मी मन्दिर के सामने बैठा रहता है।’’
दंगाइयों की भीड़ बढ़ गई। पागल पुन: खिलखिलाकर हंस पड़ा।
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अपने–अपने सन्दर्भ
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

इस भयंकर ठंड में भी वेद बाबू दूध वाले के यहाँ मुझसे पहले बैठे मिले। मंकी कैप से झाँकते उनके चेहरे पर हर दिन की तरह धूप–सी मुस्कान बिखरी थी।
लौटते समय वेदबाबू को सीने में दर्द महसूस होने लगा। वे मेरे कंधे, पर हाथ मारकर बोले–‘‘जानते हो, यह कैसा दर्द है?’’मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मद्धिम स्वर में बोले–‘‘यह दर्दे–दिल है। यह दर्द या तो मुझ जैसे बूढ़ों को होता है या तुम जैसे जवानों को।’’
मैं मुस्करा दिया।
धीरे–धीरे उनका दर्द बढ़ने लगा।
‘‘मैं आपको घर तक पहुँचा देता हूँ।’’ मोड़ पर पहुँचकर मैंने आग्रह किया–‘‘आज आपकी तबियत ठीक नहीं लग रही है।’’
‘‘तुम क्यों तकलीफ करते हो? मैं चला जाऊँगा। मेरे साथ तुम कहाँ तक चलोगे? अपने वारण्ट पर चित्रगुप्त के साइन होने भर की देर है।’’ वेद बाबू ने हंसकर मुझको रोकना चाहा।
मेरा हाथ पकड़कर आते हुए वेदबाबू को देखकर उनकी पत्नी चौंकी–‘‘लगता है आपकी तबियत और अधिक बिगड़ गई है? मैंने दूध लाने के लिए रोका था न?’’
‘‘मुझे कुछ नहीं हुआ। यह वर्मा जिद कर बैठा कि बच्चों की तरह मेरा हाथ पकड़कर चलो। मैंने इनकी बात मान ली।’’ वे हँसे
उनकी पत्नी ने आगे बढ़कर उन्हें ईज़ी चेयर पर बिठा दिया। दवाई देते हुए आहत स्वर मे कहा–‘‘रात–रात–भर बेटों के बारे में सोचते रहते हो। जब कोई बेटा हमको पास ही नहीं रखना चाहता तो हम क्या करें। जान दे दें ऐसी औलाद के लिए। कहते हैं–मकान छोटा है। आप लोगों को दिक्कत होगी। दिल्ली में ढंग के मकान बिना मोटी रकम दिए किराए पर मिलते ही नहीं।’’
वेदबाबू ने चुप रहने का संकेत किया–‘‘उन्हें क्यों दोष देती हो भागवान! थोड़ी–सी साँसें रह गई हैं, किसी तरह पूरी हो ही जाएगी–’’ कहते–कहते हठात् दो आँसू उनकी बरौनियों में आकर उलझ गए।
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