मुशायरा/कवि-सम्मेलन “बरखा-बहार” भाग 2

मुशायरा/कवि-सम्मेलन “बरखा-बहार” भाग 2

सूचनाः देखने वालों के अनुरोध पर ‘मुशायरे का यह रूप अगले कुछ दिनों के लिए बढ़ा दिया गया है। ‘यू.के. की डायरी’ के अंतर्गत ‘ब्रिटिश संसद में एक बार फिर गूंज उठी हिन्दी’ शीघ्र ही किसी आगामी पोस्ट में दिखाई जाएगी।
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आदरणीय प्रधान जी, कवियों, कवियत्रियों और श्रोतागण को आपके सेवक (महावीर शर्मा) और श्री प्राण शर्मा जी का नमस्कार।

‘बरखा-बहार’ पर १५ जुलाई २००८ के मुशायरे का अभी भी ख़ुमार बाक़ी है। आज जो गुणवान कवि और कवियत्रियां अपना अमूल्य समय देकर रचनाओं से इस कवि-सम्मेलन की शोभा बढ़ा रहे हैं, उन्हें मैं विनम्रतापूर्वक प्रणाम करता हूं। आप सभी श्रोताओं का हार्दिक स्वागत है।

यहां यह कहना उचित होगा कि यह कवि-सम्मेलन हमारे यू.के. के प्रितिष्ठित कवि, लेखक, समीक्षक और ग़ज़लकार श्री प्राण शर्मा जी की ही प्रेरणा और सुझाव से आयोजित किया किया गया है जिनका मार्गदर्शन पग-पग पर मिलता रहा है। आप ग़ज़ल की दुनिया में एक जाने माने उस्ताद हैं। ‘अभिव्यक्ति’ में उनका एक सारगर्भित लेख “उर्दू ग़ज़ल बनाम हिंदी ग़ज़ल”‘ नए ग़ज़ल-प्रेमयों को सही मार्ग दर्शाता है।
प्राण शर्मा जी की दो पुस्तकें ‘सुराही’ और ‘ग़ज़ल कहता हूं’ प्रकाशित हो चुकी हैं। “सुराही” एक मुक्तक-संग्रह है। ‘बच्चन’ जी की ‘मधुशाला’ की परंपरा को आगे बढ़ाने में जो योग दिया है, सराहनीय है। लेकिन प्राण शर्मा जी के नए प्रयोगों में पुराने प्रयोगों से भिन्न हैं, उनके काव्य में मौलिकता है।आप की ग़ज़लें मुशायरों, आकाशवाणी और अनेक जालघरों की रौनक़ बढ़ाते रहे हैं।

मैं शर्मा जी को सादर आमंत्रित करता हूं कि अपनी रचना प्रस्तुत करें :
(श्रोतागण खड़े होकर तालियों से उनका स्वागत कर रहे हैं और वे माइक पर आगए
हैं)
प्राण शर्मा जीः
श्री महावीर जी का मैं बहुत आभारी हूं जिन्हों ने कवि सम्मेलन में शामिल कर, अहमद अली ‘बर्क़ी’ आज़मी, देवमणि पांडेय, द्विजेन्द्र ‘द्विज’, समीर लाल ‘समीर’, पारुल, रज़िया अकबर मिर्ज़ा, डॉ. मुंजु लता, नीरज गोस्वामी, राकेश खंडेलवाल, नीरज त्रिपाठी, रंजना भाटिया ‘रंजू’, सतपाल ‘ख़्याल’ जैसे गुणी कवियों और कवियत्रियों के साथ पढ़ने का सुनहरा मौक़ा दिया है। भाईयो और बहनों मैं अपना एक ग़ज़लनुमा गीत सुनाने से पहले “सुराही” में से एक मुक्तक सुनाना चाहता हूं।

(कवियों और कवियत्रियों का समवेत् स्वरः- “इर्शाद”

अर्ज़ किया हैः

सौंधी हवाओं की मस्ती में जीने का कुछ और मज़ा है
भीगे मौसम में घावों को सीने का कुछ और मज़ा है
मदिरा का रस दुगना-तिगना बढ़ जाता है मेरे प्यारे
बारिश की बूंदा-बादी में पीने का कुछ और
मज़ा है।

(शायरों समेत श्रोतागण की वाह वाह से हॉल गूंज उठता है।)
अब मैं आपके सामने एक ग़ज़लनुमा गीत पेश करता हूं।

शीर्षक है “बदलियाँ” –

आस्मां में घुम घुमा कर आ गई हैं बदलियां
जल-तरंगों को बजाती छा गई हैं बदलियां

नाज़ और अन्दाज़ इनके झूमने के क्या कहें
कभी इतराई कभी बल खा गई हैं बदलियां

पेड़ों पे पिंगें चढ़ी हैं प्यार की मनुहार की
हर किशोरी के हृदय को भा गई हैं बदलियां

साथ उठी थी सभी मिलकर हवा के संग संग
राम जाने किस तरह टकरा गई हैं बदलियां

इक नज़ारा है नदी का जिस तरफ़ ही देखिए
पानियों को किस तरह बरसा रही हैं बदलियां

भीगते हैं बारिशों के पानियों में झूम कर

बाल-गोपालों को यूं हर्षा गई हैं बदलियां

उठ रही हैं हर तरफ़ से सौंधी सौंधी ख़ुशबुएं
बस्तियां जंगल सभी महका गई हैं बदलियां

याद आएगा बरसना ‘प्राण’ इनका देर तक
गीत रिमझिम के रसीले गा गई हैं बदलियां

(ग़ज़ल ख़त्म होते ही सारा हॉल तालियों से गूंज रहा है।)

वाह! बहुत ख़ूब।
उठ रही हैं हर तरफ़ से सौंधी-सौंधी ख़ुशबुएं
बस्तियां जगल सभी महका गई हैं बदलियां।

(वाह! वाह! के साथ तालियों से हॉल गूंज उठा है।)

***

आज हमें बेहद खुशी है कि हमारे दरमियान जनाब डॉ. अहमद अली बर्क़ी आज़मी साहेब मौजूद हैं। आपको शायरी का फ़न विरसे में मिला है। आप मशहूर शायर जनाब बर्क़ साहेब के बेटे हैं जो जनाब नूह नारवी के शागिर्द थे। जनाब नूह नारवी साहेब दाग़ देहलवी के शागिर्द थे।
डॉ. बर्क़ी साहेब ने फ़ारसी में पी.एच.डी. हासिल की है और आजकल ऑल इंडिया रेडियो में ऐक्स्टर्नल सर्विसिज़ डिवीज़न के पर्शियन (फ़ारसी) सर्विस में ट्रांस्लेटर/अनाउंसर/ब्रॉडकास्टर की हैसियत से काम कर रहे हैं। आप का तआरुफ़ आज की ग़ज़ल
में देखा जा सकता है।

मैं जनाब डॉ. अहमद अली ‘बर्क़ी’ साहेब से दरख़्वास्त करता हूं कि माइक पर आकर अपने कलाम से इस मुशायरे की शान बढ़ाएं :

जनाब अहमद अली ‘बर्क़ी’:

खिल उठा दिल मिसले ग़ुंचा आते ही बरखा बहार
ऐसे मेँ सब्र आज़मा है मुझको तेरा इंतेज़ार

आ गया है बारिशोँ मेँ भीग कर तुझ पर निखार
है नेहायत रूह परवर तेरी ज़ुल्फ़े मुश्कबार

जलवागाहे हुस्ने फितरत है यह दिलकश सबज़ाज़ार
सब से बढकर मेरी नज़रोँ मे है लेकिन हुस्ने यार

ज़िंदगी बे कैफ है मेरे लिए तेरे बग़ैर
गुलशने हस्ती मेँ मेरे तेरे दम से है बहार

है जुदाई का तसव्वुर ऐसे मेँ सोहाने रूह
आ भी जा जाने ग़ज़ल मौसम है बेहद साज़गार

ग़ुचा वो गुल हंस रहे हैँ रो रहा है दिल मेरा

इमतेहाँ लेती है मेरा गर्दिशे लैलो नहार

साज़े फ़ितरत पर ग़ज़लख़्वाँ है बहारे जाँफेज़ा
क़ैफ़—ओ— सरमस्ती से हैँ सरशार बर्क़ी बर्गो बार

(श्रोतागण खड़े होकर तालियों से ‘बर्क़ी’ साहेब के धन्यवाद और दाद का इज़हार कर रहे हैं।)
जनाब डॉ. बर्क़ी साहेब आपकी शिरकत के लिए हम सभी तहे दिल से ममनून और शुक्रगुज़ार हैं। उम्मीद है कि आगे होने वाले मुशायरों में भी आपकी राहनुमाई मिलती रहेगी।
***

“छ्म छम छम दहलीज़ पे आई मौसम की पहली बारिश
गूंज उठी जैसे शहनाई मौसम की पहली बारिश”

मुम्बई से प्रतिष्ठित लोक-प्रिय कवि , मंच संचालक जिनके दो प्रकाशित संग्रह ‘दिल की बातें’ और ‘खुशबू की लकीरें’ ,फ़िल्म ‘पिंजर’, ‘हासिल’ और ‘कहां तुम’ के अलावा सिरियलों के गीतकार, संपादित संस्कृतिक निर्देशिका ‘संस्कृति संगम में मुम्बई के रचनाकारों को एक जुट करने का अदम्य कार्य समपन्न होने का सेहरा आपके ही सर सजाया गया है।

मैं देख रहा हूं कि आपकी उत्सुकता बढ़ती जारही है। लीजिए आपका सस्पेंस दूर किए देते हैं। देखिए श्री देवमणि पांडेय जी मंच पर आगए हैं और माइक संभाल लिया है। हॉल तालियों से गूंज गया है।

श्री देवमणि पांडेयः

मौसम की पहली बारिश

छ्म छम छम दहलीज़ पे आई मौसम की पहली बारिश

गूंज उठी जैसे शहनाई मौसम की पहली बारिश

जब तेरा आंचल लहराया
सारी दुनिया चहक उठी
बूंदों की सरगोशी तो
सोंधी मिट्टी महक उठी

मस्ती बनकर दिल में छाई मौसम की पहली बारिश

रौनक़ तुझसे बाज़ारों में
चहल पहल है गलियों में
फूलों में मुस्कान है तुझसे
और तबस्सुम कलियों में

झूम रही तुझसे पुरवाई मौसम की पहली बारिश

पेड़-परिन्दें, सड़कें, राही
गर्मी से बेहाल थे कल

सबके ऊपर मेहरबान हैं
आज घटाएं और बादल

राहत की बौछारें लाई मौसम की पहली बारिश

आंगन के पानी में मिलकर
बच्चे नाव चलाते हैं
छत से पानी टपक रहा है
फिर भी सब मुस्काते हैं

हरी भरी सौग़ातें लाई मौसम की पहली बारिश

सरक गया जब रात का घूंघट
चांद अचानक मुस्काया
उस पल हमदम तेरा चेहरा
याद बहुत हमको आया

कसक उठी बनकर तनहाई मौसम की पहली बारिश

(हॉल तालियों से एक बार फिर गूंज गया है।)

क्या बात हैः
मस्ती बनकर दिल में छाई मौसम की पहली बारिश

***

आज हमारे हमारे बीच २००७ के बेस्ट हिंदी ब्लॉग का इण्डीब्लॉगीज़ अवॉर्ड और तरकश स्वर्ण कमल, २००६ से सम्मानितउडन तश्तरी ब्लॉग के चिट्ठाकार श्री समीर लाल ‘समीर’ जी विद्यमान हैं। आप जबलपुर, भारत में जन्मे थे। चार्टर्ड एकाउंटैंसी पास करने के बाद, अब ९ वर्षों से कनाडा में बैंक में टैक्नोलॉजी सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं। आपके टैक्नोलॉजी पर कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी काव्य में रुचि होने से कविता पढ़ने और लिखने का शौक उनकी कविताओं और लेखन में स्पष्ट लक्षित होता है। भारत, अमेरिका, कनाडा में अनेकों कवि सम्मेलनोंमें शिरकत की है। आपकी पुस्तक ‘बिखरे मोती’ शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है।

मैं श्री समीर लाल जी को आमंत्रित करता हूं और विनती है कि अपनी रचना प्रस्तुत करें।

(लोग तालियों से समीर जी का स्वागत कर रहे हैं)

श्री समीर लाल ‘समीर’ जीः

पहले बारिश पर एक दोहा सुनें:

बारिश बरसत जात है, भीगत एक समान,
पानी को सब एक हैं, हिन्दु औ’ मुसलमान.

(कवि और कवियत्रियों का सम्वेत स्वरः वाह! बहुत सुंदर!)

अब एक गीत:

बारिशों का मौसम है प्रिय! तुम चले आओ..

सांस सावनी बयार, बन के कसमसाती है
प्रीत की बदरिया भी ,नित नभ पे छाती है

इस बरस तो बरखा का ,तुमहि से तकाजा है
मीत तुम चले आओ ,ज़िन्दगी बुलाती है

बारिशों का मौसम है प्रिय! तुम चले आओ..

खिल उठे हैं फूल फूल, भ्रमर गुनगुनाते हैं
रिम झिमी फुहारों की, सरगमें सुनाते हैं

उमड़ घुमड़ के घटा, भी तो यही कहती है
साज बन के आ जाओ, रागिनि बुलाती है.

बारिशों का मौसम है प्रिय! तुम चले आओ..

झूम रही है धरा ,ओढ़ के हरी ओढ़नी
किन्तु है पिपासित बस ,एक यही मोरनी

इससे पहले दामिनी ,नभ से दे उलाहने
प्रीत बन चले आओ, प्रेयसि बुलाती है

बारिशों का मौसम है प्रिय! तुम चले आओ..

–समीर लाल ‘समीर’

(कवि और कवियत्रियों के साथ साथ श्रोताओं की तालियों से गूंजने लगा है।)
***

मैं डॉ. मंजुलता सिंह जी को मंच पर आने के लिए आमंत्रित करते हुए निवेदन करता हूं कि मंच पर आकर अपनी कविता
सुनाएं।

गोल्ड मेडलिस्ट डॉ. मंजुलता सिंह जी जिन्हों ने लखनऊ विश्व विद्यालय से एम.ए. और पी.एच.डी प्राप्त करके विभिन्न कॉलेजों में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत रहीं और सन् २००० में दिल्ली विश्व विद्यालय में रीडर के पद से निवृत्ति लेकर हिंदी साहित्य की सेवा कर रहीं है। उनकी कविताएं हस्ताक्षर पर पढ़ सकते हैं। आपकी ७ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जो हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।

लीजिए, डॉ. सिंह माइक के सामने आगई हैं और स्वागत में लोगों लोग खड़े होकर तालियो से उनका स्वागत कर रहे हैं। तालियो से हॉल गूंज रहा है …. यह कहना असंगत ना होगा कि मंजुलता जी की सुपुत्री रचना सिंह जी भी बधाई की पात्र हैं। हमें मंजुलता जी से मिलवाने का श्रेय रचना जी को ही जाता है।

डॉ. मंजुलता सिंह जी :–

मेरी कविता है ‘बरसात’

कैसे भूलूँ वे बरसातें
कैसे भूलूँ तुम्हारी बांतें ।

जब सावन को हम तुम तरसे
तब नैनो से मेघा बरसे
कैसे भूलूँ तुम्हारी यादें

कैसे भूलूँ वे बरसातें

उठा बवंडर धरती प्यासी
मेघा तुम फिर भी ना बरसे

कैसे भूलूँ तुम्हारी बांतें ।
कैसे भूलूँ वे बरसातें

कितनी सुंदर पंक्तियां हैं-
उठा बवंडर धरती प्यासी
मेघा तुम फिर भी ना बरसे

(हॉल तालियों से एक बार फिर गूंज गया है।)
***

आज हमारे मध्य एक ऐसे कवि हैं जिन्हें कवित्व के गुण विरासत में मिले हैं और उन गुणों का विस्तार उनकी ग़ज़लों, कविताओं, लेखों और सभी रचनाओं में देखा जा सकता है। आप हैं श्री द्विजेन्द्र ‘द्विज’ जी जो सुविख्यात ग़ज़लकार स्वर्गीय श्री मनोहर लाल ‘साग़र’ जी के सुपुत्र हैं। ‘साग़र’ साहिब के नाम से स्वतः ही नतमस्तक हो जाता है।’साग़र’ साहेब की रचनाएं ग़ज़ल-एक प्रयास पर देखी जा सकती हैं।
श्री ‘द्विज’ जी ने हिमाचल प्रदेश विश्व विद्यालय के सेन्टर फ़ॉर पोस्ट्ग्रेजुएट स्टडीज़ और धर्मशाला से अंग्रेज़ी साहित्य में सनातकोत्तर डिग्री प्राप्त की। आपकी रचनाएं भारत की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। कई राष्ट्र एवं राज्य स्तरीय कवि सम्मेलनों, मुशायरों में भाग लेते रहे हैं और रचनाएं आकाशवाणी से प्रसारित हुई हैं। आपका ग़ज़ल-संग्रह ‘जन-गण-मन’ २००३ में प्रकाशित हुआ था।

श्री द्विजेन्द्र ‘द्विज’ जी को मंच पर आने का मेरा विनम्र आग्रह स्वीकार करें और अपनी ग़ज़ल सुनाएँ :

श्री द्विजेन्द्र ‘द्विज’ :

मैं आपके सामने एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूं।

(कवि और कवियत्रियों का समवेत् स्वरः ‘इर्शाद’)

नग़्मगी नग़्मासरा है और नग़्मों में गुहार
तुम जो आओ तो मना लें हम भी ये बरखा बहार

‘पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ’
मन—पपीहा भी यही तो कह रहा तुझ को पुकार

पर्वतों पे रक़्स करते बादलों के कारवाँ
बज उठा है जलतरंग अब है फुहारों पर फुहार

पर्वतों से मिल गले रोये हैं खुल कर आज ये
इन भटकते बादलों का इस तरह निकला ग़ुबार

नद्दियों, नालों की सुन फ़िर आज है सरगम बजी
रुह का सहरा भिगो कर जाएगी बरखा बहार

बैठ कर इस पालकी में झूम उठा मेरा भी मन
झूमते ले जा रहे हैं याद के बादल—कहार

झूमती धरती ने ओढ़ा देख लो धानी लिबास
बाद मुद्दत के मिला बिरहन को है सब्रो—क़रार

बारिशों में भीगना इतना भी है आसाँ कहाँ
मुद्दतों तपती ज़मीं ने भी किया है इन्तज़ार

आसमाँ ! क्या अब तुझे भी लग गया बिरहा का रोग?
भेजता है आँसुओं की जो फुहारें बार—बार

तेरी आँखों से कभी पी थी जो इक बरसात में
मुद्दतें गुज़रीं मगर उतरा नहीं उसका ख़ुमार

वो फुहारों को न क्यों तेज़ाब की बूँदें कहें
उम्र भर है काटनी जिनको सज़ा—ए—इन्तज़ार

भीगना यादों की बारिश में तो नेमत है मगर
तेरी बिरहा की जलन है मेरे सीने पर सवार

इस भरी बरसात ने लूटा है जिसका आशियाँ
वो इसे महशर कहेगा, आप कहियेगा बहार.

महशर= प्रलय का दिन

वाह!
नग़्मगी नग़्मासरा है और नग़्मों में गुहार
तुम जो आओ तो मना लें हम भी ये बरखा बहार

(श्रोतागण खड़े हो कर तालियां बजा कर अपनी दाद दे रहे हैं)
***

भारत के ‘बोकारा स्टील सिटी’ से भारतीय संगीत स्नातकोत्तर ‘पारुल’ जी जब अपनी कविताएं संगीत के स्वरों में ढाल कर प्रस्तुत करती हैं तो श्रोता मंत्र-मुग्ध हो जाते हैं। पारुल…चाँद पुखराज का जालघर से अनेक महान गायकों के स्वरों को हमारे कानों में रस घोलने का श्रेय आपको जाता है।

मैं पारुल जी को मंच पर आने के लिए आमंत्रित करता हूं और मधुर स्वरों में अपनी रचना प्रस्तुत करें।

( पारुल जी मंच पर आगई हैं और हॉल तालियों से गूंज रहा है। सभी उनकी स्वर-लहरी को सुनने के लिए बेताब हैं)

पारुल जीः-

झर झर नीर झरे बरखा बन
अपलक नयन निहारें बाट
आस बसा के हिय हमारे
कंत सिधारे तुम किस धाम

कुंज कुंज मे तुम्हे पुकारूँ
बूंद बूंद मे तुम्हे निहारूँ
विरह वेदना मे अकुलाये
मीत सिधारे तुम किस धाम

तुम बिन झूला कौन झुलाये
तुम बिन कजरी किसे सुहाये
ऐसा निर्मम रास रचाकर
सखा सिधारे तुम किस धाम

घन गरजे कजरा घुल जाये
श्यामल मेघ मल्हारें गायें
आँचल ओट जलाये सावन
सजन सिधारे तुम किस धाम

(हॉल में एक भावातिरेक वातावरण छा गया है। स्वर बंद हो गए हैं किंतु कानों में उनके स्वर अभी भी गूंज रहे हैं। पारुल जी के मुख से जैसे ही ‘धन्यवाद’ शब्द निकला तो ऐसा लगा जैसे लोग सम्मोहनवत् तंद्रा से जाग उठे हों और तालियों से हॉल फिर से गूंज उठा है।)
***

‘हंसता हुआ नूरानी चेहरा’! आप पहचान गए होंगे – नीरज गोस्वामी जिनकी रचनाओं में एक विशेष सौंदर्य झलकता है, जिसका रहस्य है कि वे कभी अपने गुरू या उस्ताद को नहीं भूलते। नीरज उनके उद्गारों की जालघरीय किताब है।

अहंकार रहित, जीवन से संतुष्ट, हर हाल में हंसते रहने वाले इंजिनियरिंग स्नातक नीरज गोस्वामी, स्वांतःसुखाय के लिए एशिया, यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया महाद्वीपों के अनेक देशों के भ्रमण के बाद अभी भी कौन जाने उनके पांव कितने और देशों की सीमाएं पार करेंगे।
अधिकांश जीवन-काल जयपुर में गुज़ारने के बाद अब भूषण स्टील, मुम्बई में असिस्टेंट वाइस प्रेसिडेंट के पद पर कार्य-रत हैं।

लीजिए वह हंसता हुआ चेहरा माइक के सामने है। नीरज जी, आप से निवेदन है कि अपनी रचना प्रस्तुत करें।

नीरज गोस्वामी जीः

(हॉल तालियों से गूंज रहा है और नीरज जी ने चश्मा ठीक करते हुए शुरू कर दिया है):

तू अगर बाँसुरी सुना जाए
मेरे दिल को करार आ जाए

कोई बारिश बुझा नहीं सकती
आग जो चाँदनी लगा जाए

इक दिये —सा वजूद है मेरा
तेरी राहों में जो जला जाए

लौटती है बहार गुलशन में
फिर ख़िज़ाँ से भी क्यूँ डरा जाए?

याद तेरी नदी पहाड़ों की
राह में जो पड़े बहा जाए

हमने माना कि दौड़ है जीवन
पर कहीं तो कभी रुका जाए!

दिल का क्या ऐतबार है ‘नीरज’!
क्या ख़बर कब ये किस पे आ जाए

नीरज

वाह! नीरज जी, बहुत ख़ूबसूरत!
इक दिये —सा वजूद है मेरा
तेरी राहों में जो जला जाए

***

अमेरिका के ‘वाशिंग्टन हॉस्पिटल सेंटर, वाशिंग्टन डी.सी. से थोड़ा समय निकाल कर गुणी गीतकार श्री राकेश खंडेलवाल जी मंच पर आरहे हैं। राजस्थान के भरतपुर शहर की गलियों में गूंजते हुए बृज के रसिया और करौली तथा कैलादेवी की ओर जाते हुए भक्तों के लांगुरियां लोक गीतों को सुनते सुनते अपने आप ही इनका काव्य में रुझान हो गया था। भरतपुर की हिंदी साहित्य समिति में उपलब्ध साहित्य और कवि सम्मेलनोक्त ने इस रुचि को और बढ़ा दिया था। आगरा विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान कई कवि सम्मेलनों और आकाशवाणी के माध्यम ने इनको निरंतर लिखने को उत्साहित किया। आप १९८३ से यू.एस.ए. से गीत कलश द्वारा अपने गीतों से लोगों के दिलों में ऐसी छाप छोड़ जाते हैं कि पाठक दीर्घ काल तक उनके गीतों को गुनगुनाता रहता है। अमेरिका में भी बड़े २ साहित्यिक समारोहों में उनका योगदान सराहनीय है।

(लीजिए राकेश जी माइक पर आगए हैं और लोग खड़े होकर तालियों से उनका स्वागत कर रहे हैं।)

श्री राकेश खंडेलवाल जीः

गगन के नील पत्रों पर घटाओं के हैं हस्ताक्षर
किसी के काजरी नयनों की कोई श्याम छाया है

ये घिर कर आये हैं बदरा या उमड़े भाव हैं मन के
किसी का रात सा आँचल हवा ने या उड़ाया है

झुलसती आस को यह तॄप्ति का सन्देश है कोई
कि जिसकी चाह लेकर प्राण में धरती तरसती है

अंधेरों की यह परछाईं पड़ी आषाढ़ के नभ पर
किसी के नैन विरही में कोई नदिया संवरती है

किसी चातक के सपनों को मिला है शिल्प क्या कोई
किसी ने स्वाति के नक्षत्र को फिर से पुकारा है

ये घिर कर आये हैं बदरा किसी के मरुथली आँगन
भ्रमों के या किसी आभास ने फिर से लुभाया है

ये घिर कर आये हैं बदरा बिना सावन तो क्या कारन
किसी ने आज फिर दरबार में मल्हार गाया है

पिया के गांव के पाहुन गगन के मार्ग से आये
किसी ने मेघदूतम आज फिर से गुनगुनाया है

राकेश खंडेलवाल

(लोग एक बार फिर खड़े होकर तालियां बजा रहे हैं, वह देखिए पीछे से लोग उनकी यह पंक्ति गा गा कर मस्त हो रहे हैं- किसी के नैन विरही में कोई नदिया संवरती है)

क्या बात है! श्री राकेश खंडेलवाल जी
पिया के गांव के पाहुन गगन के मार्ग से आये
किसी ने मेघदूतम आज फिर से गुनगुनाया है

***

ग़म की तपिश से यारो थी सुर्ख लाल आंखें
ठंडक मिली है दिल को कुछ आंख आज तर है

अब मैं हिमाचल निवासी श्री सतपाल ‘ख़्याल’ जी को मंच पर आने के लिए आमंत्रित करता हूं। आप यद्यपि पेशे से इंजीनियर हैं लेकिन अंतःकरण में बैठा हुआ भावुक कवि आपकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगता है। आपके गुरू श्री द्विजेन्द्र ‘द्विज’ और आपने आज की ग़ज़ल ब्लॉग के माध्यम से आज के ग़ज़लकारों को एक जगह प्रकाशित करने के इस सुनहरे सपने को साकार बनाने का सफल प्रयास सराहनीय है।

श्री सतपाल ‘ख़्याल’ जी

कच्चा मकान उसपे बरसात का भी डर है
छ्त सर पे गिर न जाए सहमी हुई नज़र है

तपती हुई ज़मी की सुन ली है आसमां ने
बरसा है अपनी धुन मे हर कोना तर-बतर है

भीगे लिबास में से झलका बदन जो उसका
उसपे सब आशिकों की ठहरी हुई नज़र है

ग़म की तपिश से यारो थी सुर्ख लाल आंखें
ठंडक मिली है दिल को कुछ आंख आज तर है

टूटा है कहर उसपे सैलाब में घिरा जो
उसका ख्याल किसको जो शख्स दर-बदर है.

वाह! बहुत ख़ूब।

(श्रोताओं की ज़ोर ज़ोर से तालियां बज रही हैं, ‘ख़्याल’ साहिब वापस अपने स्थान पर बैठ गए हैं।)
***

जो लोग विज्ञान और रोग-चिकित्सा से संबंध रखते हैं, उनका साहित्य से भी गहरा लगाव होता है।
आज हमारे सामने एक विज्ञान की विद्यार्थी, अस्पताल में कार्य-रत कवियत्री जो अस्पताल में रोगियों की स्थिति बचपन, यौवन तथा
बुढ़ापे को हर रोज़ नज़दीक से देख कर उनके जीवन की गहराईयों को खोजती रहती हैं, और इन्हीं संवेदनाओं से एक कवियत्री “राज़” ने जन्म लिया जिसे साहित्य से प्रगाढ़ प्रेम हो गया और वह हैं रज़िया अकबर मिर्ज़ा “राज़” गुजरात से। वैसे तो आप उनकी रचनाएं Razia786’s Weblog पर देखते रहते होंगे लेकिन आज यहां अन्य कवियों के बीच उनकी कविता का आनंद लीजिएः

रज़िया जी मंच पर आगई हैं।

(काफ़ी देर तक तालियां बजती रहीं और अब बंद होने पर भी कानों में यह आवाज़ अभी भी गूंज रही है।)

लीजिए,

रज़िया मिर्ज़ा “राज़”:-

बरख़ा

देख़ो आई रुत मस्तानी..(2)
आसमान से बरसा पानी.. देख़ो आई रुत मस्तानी..(2)

पत्ते पेड़ हुए हरियाले
पानी-पानी नदियां नाले।
धरती देख़ो हो गई धानी। देख़ो आई रुत मस्तानी..(2)

मेंढक ने जब शोर मचाया।
मुन्ना बाहर दौड़ के आया।
हंसके बोली ग़ुडीया रानी। देख़ो आई रुत मस्तानी..(2)

बिज़ली चमकी बादल गरज़े।
रिमझिम रिमझिम बरख़ा बरसे।
आंधी आई एक तुफ़ानी। देख़ो आई रुत मस्तानी..(2)

कोयल की कुउ,कुउ,कुउ सुनकर।
पपीहे की थर,थर,थर भरकर।
”राज़”हो गई है दीवानी।

देख़ो आई रुत मस्तानी..(2)

(वाह! श्रोता-गण मस्ती में ‘देखो आई रुत मस्तानी’ ‘राज़’ जी के साथ साथ तालियों से ताल देते हुए खुद भी गा रहे हैं। हॉल में मस्ती का वातावरण छा गया है। ‘राज़’ जी धन्यवाद देते हुए मंच से उतर रही हैं।)
***

आपके सामने रंजना भाटिया जी आरही हैं जिनको हम सब स्नेहावश रंजू के नाम से पुकारते हैं। बहुत छोटी सी आयु से ही लिखना शुरू कर दिया था। इनके लेख और कविताएं अनेक पत्रों और पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। आपका हिंदी साहित्य से विशेष लगाव रहा है। आप कविताओं और बच्चों का विषय लेकर दो पुस्तकों के प्रकाशन में संलग्न हैं वैसे तो आप उनकी कविताएं उनके ब्लॉग कुछ मेरी कलम से में पढ़ते ही रहते हैं, आज इस मंच पर उनकी रचना का आनंद लीजिए।

(तालियों से हॉल गूंज रहा है और सब उत्सुकता से उनकी ओर देख रहे हैं। )

रंजना भाटिया ‘रंजू’ जी

बरस आज तू किसी सावन की बादल की तरह
मेरी प्यासे दिल को यूँ तरसता क्यूँ है

है आज सितारों में भी कोई बहकी हुई बात
वरना आज चाँद इतना इठलाता क्यूँ है

लग रही है आज धरती भी सजी हुई सेज सी
तू मुझे अपनी नज़रो से पिला के बहकता क्यूँ है

दिल का धडकना भी जैसे हैं आज कोई जादूगिरी
हर धड़कन में तेरा ही नाम आता क्यूँ है

बसी है मेरे तन मन में सेहरा की प्यास सी कोई
यह दिल्लगी करके मुझे तडपाता क्यूँ है
रंजू

वाह!
बसी है मेरे तन मन में सेहरा की प्यास सी कोई
यह दिल्लगी करके मुझे तड़पाता क्यूं है

***
हास्य-रस कवि नीरज त्रिपाठी खरामा खरामा चले आरहे हैं।
जन्म नवाबों के शहर लखनऊ में हुआ और आजकल निज़ामों के शहर हैदराबाद में एक प्रतिष्ठित कंपनी में कार्यरत हैं। ईश्वर उस कंपनी का भला करे, क्योंकि वो कहा करते है :

‘करते करते काम अगर तुम थक जाओ
कार्यालय में कुर्सी पर चौड़े हो जाओ।’

आजकल उन्हें उम्रेरिया हो गया है कि मिलते ही पूछते हैं कि उनकी उम्र कितनी
लगती है! फिर कह ही गएः
‘एक बात सताने लगी प्रतिदिन प्रतिपल
बच्चे बुलाने लगे नीरज अंकल’

लीजिए, अब मंच पर पहुंच गये हैं। नीरज त्रिपाठी जी, लीजिए माइक संभालिए ।लोगों को ज़्यादा इंतज़ार ना करवाएं।

‘नीरज त्रिपाठी जी :


महावीर जी को एक कविता भेजी थी – ‘हम गधे हैं’, पर पता लगा यह मुशायरा तो बरखा-बहार पर आयोजित किया गया है। तो सज्जनों आपके सामने एक कविता प्रस्तुत है जिसका शीर्षक हैः ‘पढ़ाई और बरसात’।
(तालियों से नीरज जी का स्वागत हो रहा है , कुछ शोर भी है)

पढ़ाई और बरसात

जब भी मेरे मन में पढ़ाई के विचार आते थे
जाने क्यों आकाश में काले बादल छा जाते थे

मेरे थोड़ा-सा पढ़ते ही गगन मगन हो जाता था
पंख फैला नाचते मयूर मैं थककर सो जाता था

पाठयपुस्तक की पंक्तियाँ लोरियाँ मुझे सुनाती थीं
छनन छनन छन छन बारिश की बूँदें आती थीं

टर्र टर्र टर्राते मेंढक ताल तलैया भर जाते थे
रात-रात भर जाग-जाग हम चिठ्ठे खूब बनाते थे

बरखा रानी के आते ही पुष्प सभी खिल जाते थे
कैसे भी नंबर आ जाएँ हरदम जुगत लगाते थे

पूज्यनीय गुरुदेव हमारे जब परिणाम सुनाते थे
आँसुओं की धार से पलकों के बाँध टूट जाते थे

पास होने की आस में हम पुस्तक पुन: उठाते थे
फिर गगन मगन हो जाता फिर नाचने लगते मयूर
फिर से बादल छा जाते थे

(तालियों का शोर और ऊपर से लोग ठहाके मार रहे हैं, नीरज जी ने तो मुशायरे का
वातावरण ही बदल दिया।)
लगे रहो नीरज भाई, पास होने के लिए नंबर लाने की जुगत लगाते रहो, नैय्या पार हो ही जाएगी।

***

नीरज त्रिपाठी जी की कविता-पाठ के ही साथ साथ आज का मुशायरा समाप्त हो……….नहीं नहीं मुशायरा अभी समाप्त नहीं हो रहा है। दरवाज़े पर देखियेगा, जनाब ‘चांद’ शुक्ला हदियाबादी आ रहे हैं। अचम्भा हो रहा है कि आज उनके हाथ में मोबाईल नहीं है। याद हो, १५ जुलाई के मुशायरे में एक ज़रूरी काम की वजह से वो अपने कलाम के बीच में चले गये थे।
आईये चाँद साहेब, पिछले कलाम की किश्त बाक़ी है, हमें खुशी है कि आज आप आगये हैं।

(चाँद साहेब माईक पर आगये हैं)
जनाब ‘चाँद’ शुक्ला हदियाबादी


दोस्तों, पिछली बार राडियोसबरंग पर एक रिकॉर्डिंग की वजह से जाना पड़ गया था जिसके लिए मैं आप से मुआफ़ी चाहता हूं। बरसात पर कुछ अशा’र आपके सामने पेश कर रहा हूं :

यह अब के काली घटाओं के गहरे साये में
जो हमपे गुजरी है ऐ “चाँद ” हम समझते हैं

जब पुराने रास्तों पर से कभी गुज़रे हैं हम
कतरा कतरा अश्क बन कर आँख से टपके हैं हम

तुन्द हवाओं तुफानो से दिल घबराता है
हलकी बारिश का भीगा पन अच्छा लगता है

अपने अश्कों से मैं सींचुगा तेरे गुलशन के फूल
चार सु बूए मोहबत को मैं फैला जाऊँगा

जो पूरी कायनात पे बरसाए चाँदनी

ऐसा भी किया के उसको दुआएं न दीजिये

तेरी बातों की बारिश मैं भीग गया था
फ़िर जा कर तन मन का पौदा हरा हुया था

तपते सहराओं में देखा है समुन्द्र मैंने

मेरी आंखों में घटा बन के बरसता क्या है

ऐ घटा मुझको तू आँचल में छुपा कर लेजा
सुखा पत्ता हूँ मुझे साथ उडा कर लेजा

(लोगों की तालियों से हॉल गूंज उठा है।)

********************************

“वो आए घर हमारे ख़ुदा की कुदरत है,

कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं।”

आप हमारी ख़ुशी का अन्दाज़ा नहीं लगा सकते जब हमें पता लगा कि अरब इमारत के शारजाह शहर से पूर्णिमा वर्मन जी इस मुशायरे में चार चांद लगाने के लिए आरही हैं। पूर्णिमा जी का परिचय किसी भी शब्दों का मुहताज नहीं है जिनकी ख्याति विश्व के कोने कोने में फैली हुई है। विश्व-विख्यात “अभिव्यक्ति” और “अनुभूति” के लेखक और कवि आज भी उनके गुणगान करने से तृप्त नहीं हो पाते। कोई भी ऐसी स्तरीय पत्र-पत्रिका नहीं जो उनकी क़लम से अछूती रह गई हो। उपमाएं और अलंकार उनकी रचनाओं में सजीव हो जाती हैं।

लीजिए, पूर्णिमा जी मंच पर आगई हैं।

(श्रोतागण खड़े होकर उनका स्वागत कर रहे हैं। अन्य कवि।कवियत्रियां भी तालियों से उनके आगमन पर ख़ुशी का इज़हार कर रहे हैं)

पूर्णिमा वर्मन जीः

घिरा गगन

मुदित मगन

मन मयूर नाचे!

ग्राम नगर सभी डगर

बूँदों की टपर-टपर

चपला की जगर मगर

रात्रि पत्र बाँचे!

पवन हुई मदिर-मदिर

वन पल्लव पुष्प रुचिर

जुगनू के बाल मिहिर

भरते कुलांचे!

हरित चुनर श्यामल तन

वर्षा ऋतु चितरंजन

इंद्रधनुष का कंगन

सतरंगा साजे!

दूर हुई कठिन अगन

धरती की बुझी तपन

कोकिल-शुक-पिक-खंजन

बोल कहें साँचे

बारिश की यह सरगम

पानी की यह छम-छम

सावन का यह मौसम

साल भर विराजे

-पूर्णिमा वर्मन

(श्रोताओं की तालियों से हॉल गूंज उठा है, पूर्णिमा जी सभी का धन्यवाद देते हुए मंच से जा रही हैं पर लोगों की तालियों का शोर कम नहीं हो रहा है)

******************

आप गुणी कवि/कवियत्रियों की मनभावन रचनाओं और ग़ज़लों से विभोर हो रहे हैं। अब आपके सामने कनाडा से मनोशी चैटर्जी मंच पर आरही हैं जिनके ‘हाइकू’ आपके दिलों में जिज्ञासा उत्पन्न कर देंगे कि सागर की गहराई जैसे भाव ५-७-५ अक्षरों के ‘हाइकू’ में कैसे भर दिए गए हैं! मनोशी जी का नाम ज़बान पर आते ही उनके ब्लॉग ‘मानसी’ और ‘संगीत’ स्वतः ही आंखों के सामने आ जाते हैं। उनके ब्लॉग ‘संगीत’ में शास्त्रीय संगीत के विभिन्न रागों को आरंभ से लेकर उनकी बारीकियों तक सरल रूप में सिखाने की दक्षता देखी जा सकती है। उनकी ग़ज़लें आकाशवाणी पर प्रसारित हो चुकी हैं।

लीजिए, मनोशी जी माईक पर आगई हैं।

मनोशी चैटर्जीः

मैं आपके सामने कुछ ‘हाईकू’ पेश कर रही हूं :

बादल संग

आंख मिचौली खेले

पागल धूप

प्रकोपी गर्मी

मचा उत्पात अब

शांत हो भीगी

हल्की फुहार

रिमझिम के गीत

रुके न झड़ी

रोये पर्बत

चूम कर मनाने

झुके बदरा

बदरा तले

मेंढक की मंडली

जन्मों की बातें

झुका के सर

चुपचाप नहाये

शर्मीले पेड़

ओढ़ कम्बल

धरती आसमान

फूट के रोये


मानोशी चैटर्जी

(श्रोता वाह! वाह! कहते हुए ज़ोर ज़ोर से तालियां बजा रहे हैं।)

महावीर शर्माः-

इस मुशायरे/कवि-सम्मेलन में जिन कवियों और शायरों ने अपनी अनमोल रचनाएं और अमूल्य समय देकर इसे सफल बनाने में योगदान दिया है, उसके लिए हम आभारी हैं और हार्दिक धन्यवाद करते हैं। आशा है कि आप इसी तरह आगामी कवि-सम्मेलनों में योगदान देते रहेंगे।
मुशायरा चाहे किसी हॉल में हो, पार्क में हो या ब्लॉग पर हो, श्रोताओं, दर्शकों या पाठकों के बिना मुशायरा एक शेल्फ़ पर पड़ी किताब बन कर रह जाती है। इस ब्लॉग पर आने के लिए आप सभी का हार्दिक धन्यवाद।

शुभकामनाओं सहित
महावीर शर्मा
प्राण शर्मा

26 Comments »

  1. बहुत ही सुरुचिपूर्ण आयोजन -पद्माकर की परम्परा कायम है –
    घुमडि घमंड घटा घन की घनेरे आवे गरजि गए थी फेरि गर्जन लागी री …..
    इतनी सुकोमल और मन को छू जाने वाली अभिव्यक्तियों के लिए कवि वृन्द का अर्चन वंदन !
    आयोजक तो साधुवाद के सुपात्र है हीं !

  2. ऐ घटा मुझको तू आँचल में छुपा कर लेजा
    सुखा पत्ता हूँ मुझे साथ उडा कर लेजा
    जनाब ‘चाँद’ शुक्ला हदियाबादी
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    छनन छनन छन छन बारिश की बूँदें आती थीं
    फिर गगन मगन हो जाता फिर नाचने लगते मयूर
    फिर से बादल छा जाते थे
    नीरज त्रिपाठी
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    बरस आज तू किसी सावन की बादल की तरह
    मेरी प्यासे दिल को यूँ तरसता क्यूँ है
    रंजू’ जी-
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    बिज़ली चमकी बादल गरज़े।
    रिमझिम रिमझिम बरख़ा बरसे।
    आंधी आई एक तुफ़ानी। देख़ो आई रुत मस्तानी
    रज़िया मिर्ज़ा “राज़” जी
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    तपती हुई ज़मी की सुन ली है आसमां ने
    बरसा है अपनी धुन मे हर कोना तर-बतर है

    टूटा है कहर उसपे सैलाब में घिरा जो
    उसका ख्याल किसको जो शख्स दर-बदर है.
    श्री सतपाल ‘ख़्याल’ जी
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    ये घिर कर आये हैं बदरा बिना सावन तो क्या कारन
    किसी ने आज फिर दरबार में मल्हार गाया है

    पिया के गांव के पाहुन गगन के मार्ग से आये
    किसी ने मेघदूतम आज फिर से गुनगुनाया है
    श्री राकेश खंडेलवाल जीः
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    कोई बारिश बुझा नहीं सकती
    आग जो चाँदनी लगा जाए
    नीरज गोस्वामी जी
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    तुम बिन झूला कौन झुलाये
    तुम बिन कजरी किसे सुहाये
    ऐसा निर्मम रास रचाकर
    सखा सिधारे तुम किस धाम

    घन गरजे कजरा घुल जाये
    श्यामल मेघ मल्हारें गायें
    पारुल जी
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    ‘पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ’
    मन—पपीहा भी यही तो कह रहा तुझ को पुकार

    पर्वतों पे रक़्स करते बादलों के कारवाँ
    बज उठा है जलतरंग अब है फुहारों पर फुहार
    श्री द्विजेन्द्र ‘द्विज’
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    कैसे भूलूँ तुम्हारी यादें

    कैसे भूलूँ वे बरसातें

    उठा बवंडर धरती प्यासी
    मेघा तुम फिर भी ना बरसे
    डॉ. मंजुलता सिंह जी
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    खिल उठे हैं फूल फूल, भ्रमर गुनगुनाते हैं
    रिम झिमी फुहारों की, सरगमें सुनाते हैं

    उमड़ घुमड़ के घटा, भी तो यही कहती है
    साज बन के आ जाओ, रागिनि बुलाती है.
    श्री समीर लाल ‘समीर’ जीः
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    छ्म छम छम दहलीज़ पे आई मौसम की पहली बारिश

    गूंज उठी जैसे शहनाई मौसम की पहली बारिश
    श्री देवमणि पांडेय
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    खिल उठा दिल मिसले ग़ुंचा आते ही बरखा बहार
    ऐसे मेँ सब्र आज़मा है मुझको तेरा इंतेज़ार

    आ गया है बारिशोँ मेँ भीग कर तुझ पर निखार
    है नेहायत रूह परवर तेरी ज़ुल्फ़े मुश्कबार
    जनाब अहमद अली ‘बर्क़ी’
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    पेड़ों पे पिंगें चढ़ी हैं प्यार की मनुहार की
    हर किशोरी के हृदय को भा गई हैं बदलियां

    साथ उठी थी सभी मिलकर हवा के संग संग
    राम जाने किस तरह टकरा गई हैं बदलियां

    उठ रही हैं हर तरफ़ से सौंधी सौंधी ख़ुशबुएं
    बस्तियां जंगल सभी महका गई हैं बदलियां
    प्राण शर्मा जीः
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

    सभी शायरोँ कवियोँ की उम्दा कृति पढकर
    मन “बरखा ~ बहार” के रस से ओत प्रोत है –
    सभी को हार्दिक बधाई !!
    ये पँक्तियाँ यादगार रहेँगीँ –
    आदरणीय महावीर जी व प्राण भाई साहब को
    एक सफल आयोजन हेतु बधाई
    – लावण्या

    ***********************

  3. 3

    आदरणीय,महावीरजी और प्राणजी.
    नमस्कार, ‘बरखा-बहार के सफ़ल आयोजन बदल धन्यवाद।
    आपने हमें अपनी रचनाएं प्रस्तुत कर्ने का जो मौक़ा दिया हम उसके आभारी हैं।
    आशा है आगे भी अपने किसी कविसंमेलन/मुशायरे में जरूर न्योता मिलेगा।

  4. 4
    Shrddha Says:

    Aadrniy pran sharama ji aur mahavir ji
    aapke dawara aayozit mushayara padha bhaut achha laga
    is tarah ke mushayre aur bhi hote rahe yahi meri dua hai

    http://bheegigazal.blogspot.com

  5. 5

    महावीर जी
    मैं आप का और प्राण शर्मा साहेब का तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ जिन्होंने मुझे इन लब्ध प्रतिष्ठित कवियों और शायरों के साथ मंच पर अपनी रचना सुनाने का मौका दिया. मेरे लिए बहुत सम्मान की बात है. ऐसे गुणी सुनने और सुनाने वाले अगर मिल जायें तो लिखने वाले की तपस्या सफल हो जाती है. मैं आप सब का आभार व्यक्त करता हूँ.
    नीरज

  6. 6
    parul Says:

    sabhii gunijano.n ki rimjhim phuhaaro.n ko padhney ka avsar mila..mun khush ho gaya. aadarniya MAHAVEER JI V PRAAN JI KA BAHUT AABHAAR …

  7. 7
    ranju Says:

    सभी के लिखे रचना की फुहार दिल को भिगो गई .सबने बहुत ही सुंदर लिखा है ..शुक्रिया महावीर जी ..आगे भी यूँ मुशायरे होते रहे ..सबके साथ लिखना एहसास करवाता है कि सब साथ ही हैं ..शुक्रिया

  8. 8
    rachna Says:

    respected mahavir ji
    i thank you from the bottom of my heart for posting dr manju lata singhs poems . she does not blog but she is sending her thanks to you and good wishes to all the bloggers whose poems you have posted .
    i believe that there is time when parents catch our hands and teach us how to write , now with the technology many children can really share the knowledge to bring fort the work done by their parents .
    regds to all

  9. 9
    देवमणि पांडेय Says:

    भीगे मौसम में घावों को सीने का कुछ और मज़ा है
    बारिश की बूंदा-बादी में पीने का कुछ और मज़ा है।

    वाह वाह ! महावीर जी, बारिश का यह मुशायरा सुनकर
    बहुत मज़ा आया। आपको और प्राण शर्मा जी को हार्दिक
    बधाई।

  10. 10
    meenakshi Says:

    महावीरजी और शर्माजी को सादर प्रणाम…. हम रेगिस्तान में हवा में उड़ते रेत के कणों को
    बरखा की बूँद मान कर जी हल्का कर रहे हैं…बरखा के इस मुशायरे में हर कविता स्वाति बूँद सी लगी…

  11. भाई महावीर शर्मा जी,

    लावण्या जी ने इतना डिटेल्ड पत्र लिख कर हर कवि की जो प्रशंसा कर दी है, मुझे लगता है हम सब उसी पत्र के नीचे डिटो डिटो लिखते जाते हैं। एक सुझाव है – इस पूरे कवि सम्मेलन की कविताओं को तो एक ई-पुस्तक के रूप में पिरोया जा सकता है, साथ ही ही साथ इन सभी कवियों, गीतकारों एवं गज़लकारों की पांच पांच रचनाएं (समान लम्बाई वाली) लेकर उसे पुस्तकाकार में छपवाने के बारे में भी सोचा जा सकता है। एक बार फिर बधाई। – तेजेन्द्र शर्मा, (कथा यू.के.), लन्दन

  12. इतने सुन्दर आयोजन की करें आप स्वीकार बधाई
    इस महफ़िल में ्जो बहार हैम वह ही सबके दिल पर छाई
    और आपका संचालन यह , चिट्ठाजग का इक मानक है
    ऐसे ही बिखराते रहिये , सुरभित छंदों की पुरबाई

  13. 13
    Dwijendra Dwij Says:

    आदरणीय श्री महावीर शर्मा जी,
    बरखा बहार मुशायरे की कल्पना के लिए तथा उस कल्पना को साकार कर दिखाने के लिए आपका और प्राण शर्मा साहिब का आभार. सुन्दर आयोजन एवं सजीव मंच संचालन के लिए हार्दिक बधाई.

    लेकिन अभी मुशायरा समाप्त नहीं हुआ है. अभी आपने तो अपना क़लाम सुनाया ही नहीं. बहुत से श्रोता दिल थाम कर अभी श्री महावीर शर्मा जी को सुनने के लिए बैठे हुए हैं.तमाम श्रोताओं की ओर से आपको दावते क़लाम . आपसे प्रार्थना है कि आप भी अपना क़लाम पेश करें.

    सादर
    द्विज

  14. 14

    आदरणीय महावीरजी, प्राण शर्माजी
    सादर नमन
    बरखा बहार सच में अपने साथ एक सप्तरंगी शबनमी सुगंध ले आई है, जिसकी सौंधी सौंधी महक हर तरफ़ फ़िज़ा में फैल रही है. लाजवाब प्रस्तुतिकरण है !!!! हर कवि की रचना गुफ्तगू करती है अपने अनोखे अंदाज़ से.
    आपके और प्राण जी के प्रयास को दाद दिए बिना नहीं रह सकती. सजीवता सानमे है.
    ये कैसी ख़ुशबू है सोच में जो
    कि लफ्ज़ बन कर गुलाब महका
    ये शुरूवात है, है क्षितिज के उस पार तक सफ़र

    शुभकामनाओं सहित
    देवी नागरानी

  15. 15
    aajkeeghazal Says:

    लावण्या जी
    दाद के लिए धन्यवाद और खास तौर पर महावीर जी को बधाई.
    सादर
    ख्याल

  16. 16

    महावीर जी
    मैं द्विज भाई के प्रस्ताव का अनुमोदन करता हूँ…..आप ऐसे बच के कैसे चले जायेंगे?
    नीरज

  17. 17
    Dwijendra Dwij Says:

    aadaraNeeya Mahavir Sharma jee
    Aapake qalaam ke intazaar meN
    Ham abhee bhee dil thaame hall meN baiThe haiN.
    Dwij

  18. 18
    kanchan Says:

    sab ek se badh kar ek..Mahavir Ji aap ne to samaa bandh diya..!

  19. महावीर जी हैँ बधाई के पात्र
    यह बज़्मे सुख़न थी बहुत कामयाब
    बढाती है लोगोँ का यह हौसला
    यह ख़िदमत अदब की है एक लाजवाब
    यह मेरे लिए था नया तजर्बा
    था संचालन इसका बहुत कामयाब
    मनाते हैँ अब नेट पे बरखा बहार
    यह है टेक्नोलोजी का दौरे शबाब
    दिखाते हैँ फ़ंकार ज़ोरे क़लम
    ब्लागोँ पे अपने बजाए किताब
    अहमद अली बर्क़ी आज़मी
    598।9ज़ाकिर नगर
    नई दिल्ली-110025

  20. 20

    एक अद्भुत आयोजन,
    ऐसे खुशनुमा माहौल में कविता सुनकर बहुत आनंद आया ..

    आदरणीय महावीर जी और प्राण जी को ऐसा आयोजन कराने के लिए कोटि कोटि नमन ..

    में तो बस यही कहूँगा

    मुशायरा पढ़ते पढ़ते मेरा सर चकरा गया
    कि मेरा नाम इन बड़े बड़े कवियों के बीच कैसे आ गया

    मेरे मन के सभी फ्यूज बल्ब जलने लगे
    और चारों ओर से बधाई संदेश मिलने लगे

    बड़ी मुश्किल से मैं ख़ुद को संभाल पाया
    और छाता लेकर मैं बाजार से मिठाई लाया

    महावीर जी अब एक बात तो मैं कहूँगा कि मुशायरा सफल रहा लेकिन अभी केवल घटायें छाई हैं ये बरसेंगी तभी जब आप हमें कुछ सुनायेंगे …. इन्तजार रहेगा आपकी कविता का ..बारिश का ..

  21. अगर सारी बात का एवं इस वृहद कार्यक्रम का सार कहना हो एक शब्द में तो, बस यही कह सकते हैं:

    अद्भुत या अद्वितीय

    प्राण जी और महावीर जी जितना आभार और साधुवाद कहा जाये, कम ही होगा.

    सभी प्रस्तुत कर्ताओं ने जिस उत्साह के साथ अपने आप को प्रस्तुत किया है, वैसा कम ही देखने में आता है..वाह!! तारीफ को शब्द देना उसे कम करना होगा.

    एक बार पुनः सच्चे हृदय से प्राण जी और महावीर जी का साधुवाद एवं सभी श्रोताओं और कवि कवित्रियों का हार्दिक अभिनन्दन के साथ बधाई.

    http://udantashtari.blogspot.com/

  22. 22
    Dwijendra Dwij Says:

    वन पल्लव पुष्प रुचिर

    जुगनू के बाल मिहिर

    भरते कुलांचे!

    हरित चुनर श्यामल तन

    वर्षा ऋतु चितरंजन

    इंद्रधनुष का कंगन

    सतरंगा साजे!

    वर्षा ऋतु की यह मनहर चित्रावली भी बहुत भाई.

    आभार

    बधाई.

  23. आदरणीय महावीर सर एवं प्राण शर्मा जी ,

    देरी के लिये क्षमा किजीयेगा ,
    कवि सम्मेलन के दोंनो भाग समय से पढे़ थे और बहुत अच्छा लगा , टिप्पणी करने में देर हो गयी ।
    सभी वरिष्ठ कवियों को सुना बहुत आनन्द आया । ऎसा लगा मानो सभी मंच पर दिखाई दे रहे है।
    पर महावीर सर आपकी रचना का अब तक इन्तजार हैं ।

    सादर
    हेम ज्योत्स्ना

  24. 24

    रात-रानी जिस तरह महकाए रातों को मिरी
    उस तरह महके मेरा ज़ख़्मे-जिगर बरसात में

    लोरियाँ गा गा के रिमझिम मुझको सहलाती रहीं
    नींद आकर भी न आई रात भर बरसात में

    रिमझिम रिमझिम
    छन छनन छन
    पैजनियाँ है बोल रही
    सुन ले सुर और ताल के रस में
    बारिश जो है घोल रही

    देवी नागरानी

  25. 25
    jai kumar srivastava Says:

    haadasaa yah saath mere khoob gujaraa. main gaya thaa dekhane joode kaa gajaraa. par, lagaa main dekhane aakhon kaa kajara. drishti jaise hee gai najaron tarf vah muskuraai, aur naa mai bach sakaa tiryak nayam ke baan se. jeet lee vo roop ki raani mujhe muskaan se.

  26. 26
    jay borana Says:

    महावीर जी हैँ बधाई के पात्र
    यह बज़्मे सुख़न थी बहुत कामयाब
    बढाती है लोगोँ का यह हौसला
    यह ख़िदमत अदब की है एक लाजवाब
    यह मेरे लिए था नया तजर्बा
    था संचालन इसका बहुत कामयाब
    मनाते हैँ अब नेट पे बरखा बहार
    यह है टेक्नोलोजी का दौरे शबाब
    दिखाते हैँ फ़ंकार ज़ोरे क़लम
    ब्लागोँ पे अपने बजाए किताब
    अहमद अली बर्क़ी आज़मी
    jaynti borana


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