क़ातिल सिसकने क्यूं लगा – ग़ज़ल
ग़ज़ल का हर शे’र अपने आप में संपूर्ण और स्वतंत्र होता है। यह आवश्यक नहीं कि ग़ज़ल के एक शे’र का दूसरे शे’र के साथ समविषयक हो। हाँ, ग़ज़ल के सारे अशा’र एक ही बहरो-वज़न में होने चाहिए।
सोगवारों* में मिरा क़ातिल सिसकने क्यूं लगा
दिल में ख़ंजर घोंप कर, ख़ुद ही सुबकने क्यूं लगा
(*सोगवारः- मातम/शोक करने वाले)
आइना देकर मुझे, मुंह फेर लेता है तू क्यूं
है ये बदसूरत मिरी, कह दे झिझकने क्यूं लगा
गर ये अहसासे-वफ़ा जागा नहीं दिल में मिरे
नाम लेते ही तिरा, फिर दिल धड़कने क्यूं लगा
दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन
आज आंखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूं लगा
जाते जाते कह गया था, फिर न आएगा कभी
आज फिर उस ही गली में दिल भटकने क्यूं लगा
छोड़ कर तू भी गया अब, मेरी क़िस्मत की तरह
तेरे संगे-आसतां पर सर पटकने क्यूं लगा
ख़ुश्बुओं को रोक कर बादे-सबा ने यूं कहा
उस के जाने पर चमन फिर भी महकने क्यूं लगा।
महावीर शर्मा
जाते जाते कह गया था, फिर न आएगा कभी
आज फिर उस ही गली में दिल भटकने क्यूं लगा
vaah vaah !
दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन
आज आंखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूं लगा
जाते जाते कह गया था, फिर न आएगा कभी
आज फिर उस ही गली में दिल भटकने क्यूं लगा
बेहद सुन्दर …बहुत बहुत पसंद आई यह .
श्बुओं को रोक कर बादे-सबा ने यूं कहा
उस के जाने पर चमन फिर भी महकने क्यूं लगा।
Bahut Sunder.
Aadarniye Mahavir jee Sir,
Bahut dino baad aapki ghazal padne ko mili.
Ghazal bahut achchi lagi.
Saadar
Hemjyotsana
दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन
आज आंखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूं लगा
आदरणीय महावीर जी
प्रणाम…बहुत दिनों के बाद आप की रचना पढने को मिली…हमेशा की तरह बेहद असरदार ग़ज़ल…आनंद आ गया.
नीरज
bahut sundar ghazal likhi hai.
आदरणीय महावीर जी
बहुत ही बढ़िया गजल है .. मन खुश हो गया पढ़कर ..
एक एक पंक्ति बहुत कुछ समेटे हुए..
सोगवारों में मिरा क़ातिल सिसकने क्यूं लगा
दिल में ख़ंजर घोंप कर, ख़ुद ही सुबकने क्यूं लगा
ये शब्द तो जीवन के कई अनुभवों का निचोड़ हैं ..
गर ये अहसासे-वफ़ा जागा नहीं दिल में मिरे
नाम लेते ही तिरा, फिर दिल धड़कने क्यूं लगा
दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन
आज आंखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूं लगा
जाते जाते कह गया था, फिर न आएगा कभी
आज फिर उस ही गली में दिल भटकने क्यूं लगा
मजा आ गया
bahut khoob….
दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन
आज आंखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूं लगा
kya baat hai..
Kya kehne ..Bahut dino baad aapka likha padha aur wo bhee bahut khoob !
आदरणीय शर्मा जी,
अर्से के बाद आपकी ग़ज़ल पढ़ने को मिली। बहुत खूब ,बहुत बढ़ियां… हार्दिक बधाई ।
डा. रमा द्विवेदी
Aadarniya Sharma jee,
Bahut dinon ke baad aapkee
gazal padhne ko milee.lagaa
ki jaese khizan mein faza chha
gayee ho.Ek-ek sher ne jadoo
bikhera hai ,dimaag par hee nahin
dil par bhee.Gazal padgte hee
munh se nikla ki Ashaar hon to
aese.Sach maaniye ki mazaa
aa gaya.Bahut-bahut badhaee .
Pran Sharma
दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन
आज आंखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूं लगा
जाते जाते कह गया था, फिर न आएगा कभी
आज फिर उस ही गली में दिल भटकने क्यूं लगा
आपकी इस खुबसुरत गज़ल में मैं कुछ अशआर लिख़ना चाहुंगी शर्मा साहब!कि,
“आग तो बुझ ही गइ, पानी जो बरसा है यहाँ’
“उठते धुएँ से ये शोला दहेकने क्यूं लगा”