सुकवि प्राण शर्मा की ‘सुराही’ – एक ईमानदार और स्वस्थ दिशा-बोधक कृति

सुकवि प्राण शर्मा की ‘सुराही’ – एक ईमानदार और स्वस्थ दिशा-बोधक कृति

– डॉ० कुँवर बेचैन

भारतीय साहित्य में काव्य के क्षेत्र में मुक्तक परम्परा बहुत पुरानी है। कारण यह है कि प्रबंध काव्य में कवि को किसी बाहरी कथावस्तु पर आश्रित रह कर सृजन करना होता है जब कि मुक्तक काव्य में कवि को अपनी निजी अनुभूतियों को नितांत अपनी तरह व्यक्त करने की पूरी स्वतंत्रता होती है। प्रबंध में कवि को अपनी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिये भी कथावस्तु के किसी विशेष प्रसंग की तलाश करनी पड़ती। या कोई नया प्रसंग बनाना पड़ता है। मुक्तक में किसी मध्यस्थ की तलाश नहीं करनी पड़ती। उसमें तो यदि कोई मध्यस्थ होता भी है तो वह केवल शब्द ही होता है। लेकिन इनमे भी शब्द और अर्थ, शब्द और भाव, शब्द एवं विचार का सम्बंध शरीर और आत्मा एक साथ हैं। आत्मा ‘फुर्र’ हुई तो सरीर निष्प्राण रह जायेगा। इसी लिए मुक्तकों में भी सभी कावञ-विधाओं की कतरह शब्द औ भाव एक दूसरे में ऐसे गुंथे होते हैं जैसे शरीर और आत्मा।

इसी मुक्तक-परंपरा में दोहों, चतुष्पदियों, रुबाइयों तथा कवित्त-सवैयों का प्रमुख स्थान रहा है। लेकिन सभी में चतुष्पदियों का लेखन इतनी अधिक मात्रा में हुआ कि ‘मुक्तक’ शब्द के उच्चारण से ही किसी ‘चतुष्पदी’ का आभास होने लगता है। यही नहीं मुक्तक ‘चतुष्पदी’ का ही दूसरा नाम हो गया। भारत के मूल निवासी और अब इंगलैंड में रह रहे सुकवि श्री प्राण शर्मा इसी मुक्तक काव्य की परम्परा के प्रमुख कवि हैं। वैसे मुक्तकों में समान्यतः अलग-अलग विचारों को और अलग-अलग भावानुभूतियों को अलग-अलग मुक्तकों में कहा जाता है। यूं समझिये कि प्रत्येक मुक्तक की विषय-वस्तु अलग होती है। किंतु सुखद आश्चर्य है कि प्राण शर्मा जी ने अपनी चतुष्पदियों में एक ही विषय को विभिन्न कोणों से अभिव्यक्त किया है और उनके ये भाव-विचार जब शृंखलाबद्ध होकर उनके मुक्तकों में आते हैं तब इन मुक्तकों की क्रमबद्धता एक भाव-कथा या विचार-कथा बन जाती है और इस प्रकार उनकी मुक्तक-रचना मुक्तक काव्य का आनंद तो देती ही है, साथ ही प्रबंध-रचना के काव्य-सौंदर्य की ओर भी पाठक का ध्यान आकृष्ट करती है। उनका ‘सुराही’ काव्य इसका एक सन्दर और महत्वपूर्ण उदाहरण है।

यह सूचना देते हुए हर्ष होता है कि 14 जून 2008 के दिन ब्रिटेन की’हर मेजेस्टी महारानी एलिज़ाबेथ’ के जन्म-दिवस पर श्रीमती वन्दना सक्सेना पूरिया को ब्रिटिश ट्रेड एवं भारत में पूंजी निवेशन के लिए ओ.बी.ई (O.B.E) से सम्मानित किया गया जिस पर हर भारतीय को गर्व होना चाहिए। श्रीमती पूरिया जी जानी मानी लेखिका श्रीमती उषा राजे सक्सेना और श्री के.बी.एल सक्सेना जी की सुपुत्री हैं। श्रीमती पूरिया जी का जीवनी संबंधी लेख आगामी पोस्टों में प्रकाशित किया जाएगा।
‘महावीर’ ब्लॉग परिवार की ओर से श्रीमती पूरिया जी को अनेकानेक बधाई।

‘सुराही’ में कवि ने ‘सुरा’ के महत्व को प्रतिपादित किया है, ऐसा लगता है किंतु सजग और सहृदय पाठक जानते हीहैं कि कवि यदि वास्तव में कवि है तो वह शुद्ध अभिधात्मक नहीं होता। वह लक्षणा, व्यंजना और प्रतीक आदि के महत्व को जानता है और इन सब का अन्योक्ति-परक प्रयोग भी करता चलता है। प्राण शर्मा के मुक्तक, विशेषकर सुराही के मुक्तक कुछ इसी प्रकार की अभिव्यक्ति-संपदा के मालिक हैं। ‘सुराही’ केवल सुराही नहीं है जिसमें केवल ‘सुरा’ ही भरी है वरन् वह ऐसी ‘सुरा’ है, ऐसी प्रेम-सुरा है, ऐसी भक्ति-सुरा है जिसके पीने से सारे छल-कपट एक तरफ हो जाते हैं औरपस सुरा को पीने वाला इन सबको एक किनारे करता हुआ अपने लक्ष्य की ओर उन्मुख होकर निरंतर प्रेम-सुधा बरसाता हुआ चलता रहता है और तब वह ‘राही’ नहीं ‘सु-राही’ बन जाता है, एक अच्छा राही जो घनानन्द की
भाषा में कह उठता हे –

‘अति सूधौ सनेह कौ मारग है
जहाँ नैकु सयानप, बांक नहीं।’

अतः श्री प्राण शर्मा का ‘सुराही’ काव्य ‘सुरा-ही’ नहीं हे वरन् वह ‘सु-राही’ है जो उनका अनुसरण कर रहा है जिन्होंने प्रेम का मार्ग दिखाया औरऐसे व्यक्तियों के लिये अनुकरणीय बन रहा है जो इस प्रेम-पथ पर आ खड़े हुए हैं। उनके लिये इस ‘सुराही’ का सोमरस उस शराब के तरह जो ठीक से पकी नहीं है, जलाने वाला नहीं है, ईर्ष्या-द्वेष में झुलसाने वाला नहीं है, झगड़ों में उलझाने वाला नहीं है वरन् वह ‘सोम’ (चन्द्रमा) की शीतलता और उसकीचाँदनी में स्नान कराने वाला रस हे। रस प्रत्येक इन्द्रिय की प्यास है और रस प्यास को तृप्त करता है, यदि वही जलाने वाला हो गया तो फिर वह रस कहाँ रहा? इसीलिये वह एक मुक्तक में यह कहते हैं –

बेतुका हर गीत गाना छोड़ दो
शोर लोगों में मचाना छोड़ दो
गालियां देने से अच्छा है यही
सोमरस पीना-पिलाना छोड़ दो

क्योंकि प्राण शर्मा जानते हैं कि जिसने ‘सोमरस’ पिया, जिसने प्रेम-रस का पान कर लिया वह भला गाली कैसे दे सकता है? झगड़ा कैसे कर सकता है? प्राण शर्मा के लिये तो ‘सोमरस’ ज़िनदगी का पर्याय है, आत्मा की अनुकृति है, ज्ञान का रूप है। यही नहीं वह मदभरे संगीत की छलकन और मदुर गान की अनुगूँज है जो तन-मन और आत्मा को नहलाने में सक्षम है। कवि ने ‘सुराही’ काव्य के प्रथम मुक्तक में यही घोषणा कर दी है –

ज़िन्दगी है, आत्मा है, ज्ञान है
मदभरा संगीत है औ’ गान है
सारी दुनिया के लिये यह सोमरस
साक़िया, तेरा अनूठा दान है

ज़िन्दगी सोमरस है, ज्ञान सोमरस है, संगीत और गान भी सोमरस हैं। एक-एक बूँद रस लेकर पीकर देखो तो …….। सारी व्यक्तिगत चिंताएँ काफ़ूर हो जायेंगी, ज़िन्दगी को जीने का सलीका आ जायेगा, आत्मा का परमात्मा-जगत में पदार्पण होने लगेगा, ज्ञान के आलोक में हम प्रकाशित होने लगेंगे, संगीत हमारे हृदय में नयी तरंगें भर देगा और गान हमें एक नयी ‘लय’ में ले जायेगा और ‘प्रलय’ से बचायेगा। यही संदेश है प्राण शर्मा की ‘सुराही’ का। जैसे मधुशाला में शराब पिलाने वाल ‘साक़िया’ है और पीने वाले रिंद हैं ऐसे ही संसार की मधुशाला में जो प्रेम छलकाने वाले हैं वे ‘साक़िया’ ही हैं और जो प्रेम पाकर झूमने वाले हैं वे ‘रिंद’ हैं।

सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से विचार करें तो समाज में बड़ी वषमता हैं। कोई ऊंचा, कोई नीचा; कोई बहुत अमीर है, तो कोई बहुत निर्धन! कहने को ही ‘साम्यवाद’ और ‘समाजवाद’ है। किंतु यदि ‘साक़ी’ सच्चा और ईमानदार है तो वह सबको बराबरी का दर्जा देगा। कवि ने ‘साक़ी’ के प्रतीक से आज के राजनितिज्ञों को दिशा-निर्देश देते हुए ये दितनी सुन्दर पंक्तियां कही हैं –

सबको बराबर मदिरा का प्याला आयेगा
इक जैसा ही मदिरा को बाँटा जायेगा
इसका ज़्यादा, उसको कम मदिरा ऐ साक़ी
मधुशाला में ऐसा कभी न हो पायेगा

हमारे समाज में कितने ही लोग, लाखों-करोड़ों लोग अभी ऐसे हैं जिन्हें वह जीवन-स्तर नहीं मिला जिनके वे हक़दार हैं। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी आवश्यक आवश्यक्ताओं की पूर्ति करने से वे वंचित रहे। उनहें यदि कहीं शरण मिली भी तो वहां, जहां दीवारों पर ‘काले धब्बे’ थे, जैसे वे काले धब्बे न होकर उनके हिस्से में आया वह गहन अँधेरा था जिसे लोगों ने दुर्भाग्यवश ‘दुर्भाग्य’ की संज्ञा दी। जबकि इसमें भाग्य का इतना हस्तक्षेप नहीं था जितना कि उजालों के व्यवस्थापकों का। ईश्वर और भाग्य को दोष देकर उन्होंने आम आदमीका ध्यान अपने उस दुष्कृत्य से हटा दिया जिसके वास्तविक दोषी वे ख़ुद थे। इन्होंने अभावग्रस्त लोगों को केवल ‘मकड़ी के जाले’ दिये। ‘मकड़ी के जाले’ अर्थात समस्याओं का जाल दे दिया जिसमें वे उलझते चले गये। वही रोटी की समस्या। इस संसार की मधुशाला में जहाँ सब पर छलकना था, सबको बराबरी का दर्जा मिलना था, कहाँ मिला? साक़ी (राजनीतिज्ञों एवं व्यवस्थापकों) ने बाँटने में गड़बड़ी की, पक्षपात किया। कितने ही ‘मद्यप’ अपने ख़ाली गिलास लिये खड़े के खड़े रह गये। अभावग्रस्तों को कुछ नहीं मिला। उनके हिस्से में ‘काले धब्बे’ और ‘मकड़ जाल’ को तकते रहने की सज़ा मिली। सुकवि प्राण शर्मा ने इस व्यथा-कथा को बड़े ही सुन्दर शब्दों में सांकेतिक प्रतीकों में इस प्रकार कहा है कि देखते ही बनता है –

दीवारों पर धब्बे काले तकते-तकते
कोनों में मकड़ी के जाले तकते-तकते
इस निर्धन मद्यप ने दिल पर पत्थर रखकर
रात गुज़ारी खाली प्याले तकते – तकते

सचमुच प्राण शर्मा की यह कृति, उनके मुक्तक बहुत कुछ सोचने को मजबूर करते हैं और ‘चिंता’ को ‘चिणतन’ तक ले जाकर उसे इक सही दिशा देते हैं, ऐसी दिशा जहाँ केवल भाव या विचार कल्पना में ही न रह जाये, वरन् उसे कार्यान्वित करने का संकल्प हो और सब को ‘समभाव’ से देखने का मनोरथ हो। ऐसी स्वस्थ दिशा-बोधक कृति को जो आम आदमी की व्यथा-कथा कहते हुए उसके ‘शुभ’ की चिंता में निमग्न है, मेरा प्रणाम!

– २ एफ-५१, नेहरू नगर
ग़ाज़ियाबाद (उ०प्र०) भारत
फोनः ०१२०-२७९३०५७, २७९३२४८

प्रेषकः महावीर शर्मा
***** ****** ******
पाठकों के रसास्वादन के लिए ‘सुराही’ के कुछ चुने हुए मुक्तक (क़ता) प्रस्तुत हैं : –

ज़िंदगी है, आत्मा है, ज्ञान है
मदभरा संगीत है औ’ गान है
सारी दुनिया के लिए ये सोमरस
साक़िया, तेरा अनूठा दान है

कौन कहता है कि पीना पाप है
कौन कहता है कि यह अभिशाप है
गुण सुरा के शुष्क जन जाने कहां
ईश पाने को यही इक जाप है।

क्या निराली मस्ती लाती है सुरा
वेदना पल में मिटाती है सुरा
मैं भुला सकता नहीं इसका असर
रंग कुछ ऐसा चढ़ाती है सुरा

क्या नज़ारे है छलकते प्याला के
क्या गिनाऊँ गुण तुम्हारी हाला के
जागते-सोते मुझे ऐ साक़िया
ख्वाब भी आते हैं तो मधुशाला के

साक़िया तुझको सदा भाता रहूं
तेरे हाथों से सुरा पाता रहूं
इच्छा पीने की सदा जिंदा रहे
और मयख़ाने तेरे आता रहूं

देवता था वो कोई मेरे जनाब
या वो कोई आदमी था लाजवाब
इक अनोखी चीज़ थी उसने रची
नाम जिसको लोग देते हैं शराब

मधु बुरी उपदेश में गाते हैं सब
मैं कहूं छुप-छुप के पी आते हैं सब
पी के देखी मधु कभी पहले न हो
खामियाँ कैसे बता पाते हैं सब

जब चखोगे दोस्त तुम थोड़ी शराब
झूम जाओगे घटाओं से जनाब
तुम पुकार उट्ठोगे मय की मस्ती में
साक़िया, लाता- पिलाता जा शराब

जब भी जीवन में हो दुख से सामना
हाथ साक़ी का सदा तू थामना
खिल उठेगी दोस्त तेरी जिंदगी
पूरी हो जाएगी तेरी कामना

बेझिझक होकर यहां पर आइए
पीजिए मदिरा हृदय बहलाइए
नेमतों से भरा है मधु का भवन
चैन जितना चाहिए ले जाइए

मैं नहीं कहता पियो तुम बेहिसाब
अपने हिस्से की पियो लेकिन जनाब
ये अनादर है सरासर ऐ हुज़ूर
बीच में ही छोड़ना आधी शराब

नाव गुस्से की कभी खेते नहीं
हर किसी की बद्दुआ लेते नहीं
क्रोध सारा मस्तियों में घोल दो
पी के मदिरा गालियां देते नहीं।

बेतुका हर गीत गाना छोड़ दो
शोर लोगों में मचाना छोड़ दो
गालियां देने से अच्छा है यही
सोम-रस पीना-पिलाना छोड़ दो

प्रीत तन-मन में जगाती है सुरा
द्वेष का परदा हटाती है सुरा
ज़ाहिदों, नफ़रत से मत परखो इसे
आदमी के काम आती है सुरा

बिन किए ही साथियों मधुपान तुम
चल पड़े हो कितने हो अनजान तुम
बैठकर आराम से पीते शराब
और कुछ साक़ी का करते मान तुम

ज़ाहिदों की इतनी भी संगत न कर
ना- नहीं की इतनी भी हुज्जत न कर
एक दिन शायद तुझे पीनी पड़े
दोस्त, मय से इतनी भी नफ़रत न कर

मस्तियाँ दिल में जगाने को चला
ज़िंदगी अपनी बनाने को चला
शेख जी, तुम हाथ मलते ही रहो
रिंद हर पीने- पिलाने को चला

दिन में ही तारे दिखा दे रिंद को
और कठपुतली बना दे रिंद को
ज़ाहिदों का बस चले तो पल में ही
उँगलियों पर वे नचा दें रिंद को

पीजिए मुख बाधकों से मोड़कर
और उपदेशक से नाता तोड़ कर
जिंदगी वरदान सी बन जाएगी
पीजिए साक़ी से नाता जोड़कर

मधु बिना कितनी अरस है जिंदगी
मधु बिना इसमें नहीं कुछ दिलक़शी
छोड़ दूं मधु, मैं नहीं बिल्कुल नहीं
बात उपदेशक से मैंने ये कही

मन में हल्की-हल्की मस्ती छा गई
और मदिरा पीने को तरसा गई
तू सुराही पर सुराही दे लुटा
आज कुछ ऐसी ही जी में आ गई

खोलकर आंखें चलो मेरे जनाब
आजकल लोगों ने पहने है नकाब
होश में रहना बड़ा है लाज़िमी
दोस्तों, थोड़ी पियो या बेहिसाब

ओस भीगी सी सुबह धोई हुई
सौम्य बच्चे की तरह सोई हुई
लग रही है कितनी सुंदर आज मधु
मद्यपों की याद में खोई हुई

मस्त हर इक पीने वाला ही रहे
ज़ाहिदों के मुख पे ताला ही रहे
ध्यान रखना दोस्तों इस बात का
नित सुरा का बोलबाला ही रहे

प्रेषकः महावीर शर्मा

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8 Comments »

  1. आदरणीय महावीर जी ,
    इस प्रस्तुति के लिये
    बहुत बहुत शुक्रिया
    -लावण्या

  2. 2
    MEET Says:

    ये तो हद है. आप का बहुत बहुत आभार.

  3. बहुत गजब!!

    आपका बहुत बहुत आभार इस उम्दा प्रस्तुति के लिए. प्राण साहब की किताब कैसे हासिल हो सकती है, यह बताईयेगा.

  4. आदरणीय सर ,
    लेख और मुक्तक पढ़ कर आनन्द आगया ।
    यहाँ पर हमेशा कुछ नया और अच्छा पढ़ने को मिलता हैं ।
    सर आपकी नय़ी गज़ल बहुत दिनों से पढ़ने को नहीं मिली , आपकी गज़ल का इन्त्जार में ,
    सादर ,
    हेम ज्योत्स्ना

  5. 5

    श्रधेय महावीर जी
    “कुंवर जी” का गुरुवर “प्राण शर्मा जी” की “सुराही” पर लिखा सार गर्भित लेख पढ़ कर आनंद आ गया.” सुराही” एक अनमोल काव्य कृति है जिसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं दी जा सकती. बच्चन जी की मधुशाला से भी नही क्यों की ये एक विषय वस्तु होते हुए भी उस से एक दम भिन्न शैली में अपनी बात कहती है और ज़िंदगी के कितने ही रंग समेटतीहै. ऐसी अभूतपूर्व रचना के लिए प्राण साहेब को बारम्बार नमन.
    नीरज

  6. साहित्यक रचनाओं पर केन्द्रित जितने भी ब्लॉक हैं, उसमें आपका ब्लॉग विशिष्ट स्थान रखता है। कारणा आप जिस अपनेपन से कृतियों का परिचय देते हैं, वह बहुत कम देखने को मिलता है।

  7. समीर लाल जी ने ऊपर प्रतिक्रिया देते हुए पूछा कि- ‘प्राण साहब की किताब कैसे हासिल हो सकती है…?’ उन्हें यह कृति मिल पायी या नहीं…मैं यह तो नहीं जानता! हाँ, यह जानता हूँ कि मुझे यह अनमोल (अब शायद दुर्लभ भी) कृति मिल गयी है…Eureka…I have found it!

    अब मज़े ले के पढ़ रहा हूँ…कभी डूबता हूँ, कभी उतराता हूँ…‘सुराही’ के सागर में!

    और हाँ… मुक्तक साहित्य पर शोध-दिशा में पहल करने के शिवोद्देश्य से, मैं आरम्भिक दौर में जो संदर्भ-सूची तैयार कर रहा हूँ उसमें इसे सहर्ष शामिल कर लिया है! ख़ुशी है कि मेरे खोजी अभियान ने दिनानुदिन आगे बढ़ते हुए क्रम में मुझे श्री प्राण शर्मा सरीखे विद्वान तक भी पहुँचा दिया…उनके सार्थक सृजन को सलाम!

  8. ‘मुक्तक विशेषांक’ हेतु रचनाएँ आमंत्रित-

    देश की चर्चित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक त्रैमासिक पत्रिका ‘सरस्वती सुमन’ का आगामी एक अंक ‘मुक्‍तक विशेषांक’ होगा जिसके अतिथि संपादक होंगे सुपरिचित कवि जितेन्द्र ‘जौहर’। उक्‍त विशेषांक हेतु आपके विविधवर्णी (सामाजिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक, धार्मिक, शैक्षिक, देशभक्ति, पर्व-त्योहार, पर्यावरण, शृंगार, हास्य-व्यंग्य, आदि अन्यानेक विषयों/ भावों) पर केन्द्रित मुक्‍तक/रुबाई/कत्अ एवं तद्‌विषयक सारगर्भित एवं तथ्यपूर्ण आलेख सादर आमंत्रित हैं।

    इस संग्रह का हिस्सा बनने के लिए न्यूनतम 10-12 और अधिकतम 20-22 मुक्‍तक भेजे जा सकते हैं।

    लेखकों-कवियों के साथ ही, सुधी-शोधी पाठकगण भी ज्ञात / अज्ञात / सुज्ञात लेखकों के चर्चित अथवा भूले-बिसरे मुक्‍तक/रुबाइयात/कत्‌आत भेजकर ‘सरस्वती सुमन’ के इस दस्तावेजी ‘विशेषांक’ में सहभागी बन सकते हैं। प्रेषक का नाम ‘प्रस्तुतकर्ता’ के रूप में प्रकाशित किया जाएगा। प्रेषक अपना पूरा नाम व पता (फोन नं. सहित) अवश्य लिखें।
    इस विशेषांक में एक विशेष स्तम्भ ‘अनिवासी भारतीयों के मुक्तक’ (यदि उसके लिए स्तरीय सामग्री यथासमय मिल सकी) भी प्रकाशित करने की योजना है।

    मुक्तक-साहित्य उपेक्षित-प्राय-सा रहा है; इस पर अभी तक कोई ठोस शोध-कार्य नहीं हुआ है। इस दिशा में एक विनम्र पहल करते हुए भावी शोधार्थियों की सुविधा के लिए मुक्तक-संग्रहों की संक्षिप्त समीक्षा सहित संदर्भ-सूची तैयार करने का कार्य भी प्रगति पर है।इसमें शामिल होने के लिए कविगण अपने प्रकाशित मुक्तक/रुबाई/कत्‌आत के संग्रह की प्रति प्रेषित करें! प्रति के साथ समीक्षा भी भेजी जा सकती है।

    प्रेषित सामग्री के साथ फोटो एवं परिचय भी संलग्न करें। समस्त सामग्री केवल डाक या कुरियर द्वारा (ई-मेल से नहीं) निम्न पते पर अति शीघ्र भेजें-

    जितेन्द्र ‘जौहर’
    (अतिथि संपादक ‘सरस्वती सुमन’)
    IR-13/6, रेणुसागर,
    सोनभद्र (उ.प्र.) 231218.
    मोबा. # : +91 9450320472
    ईमेल का पता : jjauharpoet@gmail.com
    यहाँ भी मौजूद : jitendrajauhar.blogspot.com


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