भारत से डॉ. मधु संधु की दो लघुकथाएं

मई 19, 2010

डॉ. मधु संधु

शिक्षा : एम. ए.  पी.एच. डी.(हिंदी)
पी.एच.डी. का विषय : सप्तम दशक की हिन्दी कहानी में महिलाओं का योगदान
सम्प्रति :गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर एवं विश्विद्यालय अनुदान की बृहद शुद्ध परियोजना की प्रिंसिपल इन्वेस्टीगेटर
(२०१०-२०१२)
प्रकाशित साहित्य:
कहानी संग्रह :
(१) नियति और अन्य कहानियां, दिल्ली, शब्द संसार, २००१, (२) आवाज़ का जादूगर, नेशनल, (प्रकाशाधीन).
कहानी संकलन :
(३) कहानी शृंखला, दिल्ली, निर्मल, २००३.
गद्य संकलन: (४) गद्य त्रायी, अमृतसर, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, २००७.
आलोचनात्मक एवं शोधपरक साहित्य :
(५) कहानीकार निर्मल वर्मा, दिल्ली, दिनमान, १९८२. (६) साठोत्तर महिला कहानीकार, दिल्ली, सन्मार्ग, १९८४, (७) कहानी कोष, (१९५१-१९६०) दिल्ली, भारतीय ग्रन्थम, १९९२, (८) महिला उपन्यासकार, दिल्ली, निर्मल, २०००. (९) हिन्दी लेखक कोष, (सहलेखिका) अमृतसर, गुरु नानक देव वि.वि., २००३, (१०) कहानी का समाजशास्त्र, दिल्ली, निर्मल, २००५. (११) कहानी कोष, (१९९१-२०००) दिल्ली, नेशनल, २००९.
सम्पादन : (१२) प्राधिकृत (शोध पत्रिका) अम्रृतसर, गुरु नानक देव वि.वि., २००१-०४).
समकालीन भारतीय साहित्य, हंस, गग्नचल, परिशोध, प्राधिकृत, वितस्ता, कथाक्रम, संचेतना, हरिगंधा, परिषद पत्रिका, पंजाब सौरभ आदि अनेक उच्च कोटि की पत्रिकाओं में सौ के आसपास शोध पत्र तथा सैंकड़ों आलेख, कहानियां, लघु कथाएं एवं कवितायें प्रकाशित. पच्चास से अधिक शोध प्रबन्धों एवं शोध अनुबंधों का निर्देशन.

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लघुकथा

‘हिन्दी दिवस’

पूरे दिवस से विद्वजन आमंत्रित करके इस बार हिन्दी दिवस का आयोजन राजधानी में बड़ी धूमधाम से किया गया. राष्ट्र भाषा निदेशक ने लगभग सभी राज्यों से हिंदी संस्थानों के मुखियाओं, विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागाध्यक्षों को आमंत्रित किया. तीन दिन लगातार समारोह चला. सारी ऑडियो-वीडियो रिकार्डिंग की गई. समाचार पत्रों ने जमकर कवरेज दी.

पंजाब के प्रतिनिधि ने ठोक बजा कर कहा -हिन्दी भाषा तब तक जीवित रहेगी, जब तक रामचरित मानस और गुरुग्रंथ साहिब हैं. इसं अमर कृतियों के कारण हिन्दी भी अमर रहेगी.
गुजरात के प्रवक्ता बूले – जिस भाषा में नामदेव और तुलसी की कृतियाँ उपलब्ध हैं, उस पर कभी आंच नहीं आ सकती.
डी. ए. वी. संस्था के प्राचार्य का अभिमत था -सत्यार्थ प्रकाश और रामचरित मानस हिन्दी और हिन्दुस्तान का सर सदैव ऊँचा रखेंगे.
बंगाल मौशाय ने बुलंद स्वर में कहा -मानस और गीतांजलि हिन्दी और हिन्दुस्तान का पर्याय बन चुके हैं.
यू.पी. के पंडित जी ने मंच ठोक कर कहा -मानस और गोदान हिन्दी का प्राण तत्व हैं.
सरकारी पैसे पर मारीशस चक्कर लगा कर लौटे एक विद्वान बोले- रामचरित मानस और लाल पसीना हिन्दी के अमर ग्रन्थ हैं.
राजस्थान के विद्वान ने कहा -हिन्दी के महिला साहित्य का सूत्रपात मीराबाई द्वारा ही होता है. मीरा विश्व की प्रथम विद्रोहिणी थी, प्रथम फेमिनिस्ट थी. उसके कारण यह आधी दुनिया का प्रतिनिधित्व करता है.

हिमाचल वालों ने यह श्री निर्मल वर्मा को दिया. बिहार ने फणीश्वर नाथ रेणु का नाम लिया और लम्ब चौड़े टी.ए.डी.ए. बिलों के साथ विदाई समारोह संपन्न हो गया.

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लघुकथा

लेडी डॉक्टर
जनवरी की बर्फीली सर्दी थी. बुखार-जुकाम से निढाल सा लौटकर वह धूप में फैली उसी चारपाई पर लेट गया, जहां माँ पड़ी थी.
बहन ने पानी का गिलास पकड़ाते पूछा, “भैया तबियत ज्यादा खराब लगती है. दवा समझा दें, मैं समय पर देती रहूँगी.”
“पर दवा मिली कहाँ? दोनों डॉक्टर किसी मीटिंग पर गए थे.” स्वर में निराशा ही नहीं, हताशा भी थी.
माँ विस्मित थी, “लल्ला मैं अभी डॉक्टर को कांख का गूमड़ दिखा कर आ रही हूँ, इतनी जल्दी निकल गई क्या?”
“तो क्या मैं लेडी डॉक्टर के पास जाता.” आहात मर्दानगी में वह बौखला उठा.

डॉ. मधु संधु,
प्रोफ़ेसर,
हिन्दी विभाग, गुरुनानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर – १४००५, पंजाब, भारत.

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यू.के. से फ़हीम अख़्तर की लघुकथा – लाल कुर्सी

मई 13, 2010

फ़हीम अख़्तर
जन्म:कोलकाता, भारत.
शिक्षा तथा संक्षिप्त जीवन चित्रण: १९८५ में मौलाना आज़ाद कॉलेज से बी.ए. (ऑनर्स) प्रथम श्रेणी में पास किया. १९८८ में कलकत्ता विश्विद्यालय से एम.ए. पास किया.
आप सी.पी.आई(एम) पार्टी के कार्यकर्त्ता की हैसियत से अनेक भाषण दिए. आपकी पहली कहानी १९८८ में ऑल इंडिया रेडियो से प्रसारित की गई थी. आपकी कहानिया दुनिया के विभिन्न देशों में छप चुकी हैं.
१९९३ में फ़हीम अख्तर इंगलैंड आगये और यहीं के होकर रह गए.
आजकल आप प्रशासकीय सेवा में रजिस्टर्ड सोशल वर्कर के रूप में रत हैं.

लाल कुर्सी
फ़हीम अख़्तर
लन्दन, यू.के.

जूली और उसके शौहर दोनों मार्केट में घूम रहे थे कि अचानक जूली कि नज़र उस कुर्सी पर पड़ी जो बेहद बड़ी और लाल कपड़ों में पूरी तरह ढकी हुई थी. जूली के आग्रह पर उसका शौहर उस कुर्सी को ख़रीदने को तैयार हो गया.

अब जूली का अधिकतर समय उस कुर्सी पर ही गुज़रता. चाहे टेलीविज़न देखना हो, किताब पढ़नी हो या फिर चाय पीनी हो. जूली कुर्सी पर इस तरह फ़िदा हो गई थी कि वो यह अक्सर भूल जाती कि उसका शौहर भी घर पर है और ज़िन्दा है. शौहर की मृत्यु के बाद जूली बिलकुल ही अकेली हो गई थी. सुब्ह उठती और नाश्ता वगैरह करके या तो बिंगो क्लब चली जाती या फिर घर के क़रीब चर्च से सटे क्लब में समय गुज़ारती. यही अब उसकी दिनचर्या थी.

आज जूली को पीठ में बहुत शदीद दर्द महसूस हुआ. डॉक्टर को दिखाने के बाद उसकी परेशानी में कुछ और भी बढ़ोतरी हो गई थी. डॉक्टर को शुब्हा था कि ये दर्द कोई मामूली दर्द नहीं बल्कि किसी जानलेवा मर्ज़ की भूमिका है. डॉक्टर ने जूली को मशवरा दिया कि वो अधिक जाँच-मुआइना के लिए अस्पताल में किसी विशेषज्ञ ससे संपर्क करे. डॉक्टर ने एक्सरे के बाद रिपोर्ट को पढ़ा और जुली को अम्बोधित करते हुए कहा “जूली मुझे दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि तुम्हारी रीढ़ की हड्डी में कैंसर है.”
जूली ने मुस्कुराते हुए पूछा, तो इसका इलाज क्या है?
डॉक्टर ने बताया, तुम्हें शायद ऑपरेशन कराना पड़े.
जूली और कोई सवाल किए बिना घर रवाना हो गई. घर पहुँच कर जूली रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गई.

कई हफ़्ते गुज़रने के बाद आज  जूली से बिस्तर पर लेटा नहीं जा रहा था. उसका दर्द इतना तीव्र था कि उसका बिस्तर पर लेटना बहुत मुश्किल हो गया. चुनांचा आज उसने कुर्सी पर ही रात गुज़ारने की ठान ली.

सुबह हो चुकी थी जूली अभी तक कुर्सी पर नींद में गुम थी कि अचानक कूड़ा उठाने वाली लॉरी की आवाज़ और ख़ाकरोबों के शोर ने उसको गहरी नींद से जगा दिया. जूली ने दरवाज़ा खोलकर कूड़ा उठाने वाली लॉरी को गुज़रते हुए देखा और दरवाज़े से अपनी डाक उठाकर घर के अन्दर आ गई और दिनचर्या के मुताबिक हर रोज़ की तरह तैयार होकर सामने क्लब में दिन का समय गुज़ारने चली गई.

इस तरह कई दिन बीत गए. एक दिन जब जूली क्लब नहीं गई तो क्लब चलाने वाले पादरी ने जूली के एक क़रीबी दोस्त को फ़ोन करके जूली के बारे में पूछा कि जूली क्यों क्लब नहीं आती? तो उसने पादरी को बताया कि जूली कई रोज़ से उससे मिली ही नहीं है.

पादरी ने क्लब बन्द करने के बाद जूली के घर  जाकर दरवाज़े पर दस्तक दी, काफ़ी देर दस्तक देने के बाद जूली की तरफ़ से  कोई जवाब नहीं मिला तो पादरी को परेशानी और भी बढ़ गई.

आख़िर काफी देर के प्रतीक्षा करने के बाद परेशानी की स्थिति में पादरी ने पुलिस को फोन पर खबर दी.
कुछ ही क्षणों के बाद पुलिस की गाड़ी आ पहुंची. एक मर्द और एक औरत पुलिस अधिकारी गाड़ी से उतरे और दरवाज़े पर दस्तक दी. जब उन्हें भी कोई जवाब नहीं मिला तो उनहोंने एक भारी लोहे की सलाख से दरवाज़े को तोड़ दिया. इतनी देर पुलिस के घर में दाख़िल होते ही पादरी भी वहां आ गया और वो उनके साथ घर में दाख़िल हो गया.

जूली लाल कुर्सी पर बैठी सो रही थी. पुलिस वालों ने जूली को उठाने की कोशिश की मगर लाल कुर्सी का साथ नहीं छोड़ा. आज मौत के बेरहम हाथों में जूली का रिश्ता लाल कुर्सी से हमेशा-हमेशा के लिए तोड़ दिया था.

फ़हीम अख़्तर

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‘मदर्स डे’ पर प्रसिद्ध कवि डॉ. कुंअर बेचैन की कविता – ‘मां’

मई 9, 2010

आज अमेरिका और कनाडा आदि देशों में मदर्स-डे मनाया जा रहा है. उसके उपलक्ष में प्रसिद्ध कवि ‘डॉ. कुंअर बेचैन’ जी की ‘मां’ पर लिखी एक कविता-

मां’

डॉ. कुंअर बेचैन

कभी उफनती हुई नदी हो,  कभी नदी का उतार हो मां
रहो किसी भी दिशा-दिशा में,  तुम अपने बच्चों का प्यार हो मां

नरम-सी बांहों में खुद झुलाया,  सुना के लोरी हमें सुलाया
जो नींद भर कर कभी न सोई,  जनम-जनम की जगार हो मां

भले ही दुख को छुपाओ हमसे,   मगर हमें तो पता है सब कुछ
कभी थकन हो, कभी दुखन हो,  कभी बदन में बुखार हो माँ

जो तुमसे बिछुड़े, मिले हैं कांटे,  जो तुम मिलीं तो मिलीं हैं कलियाँ
तुम्हारे बिन हम सभी हैं पतझर,  तुम्हीं हमारी बहार हो मां

हरेक मौसम की आफ़तों से,  बचा लिया है उढ़ा के आँचल
हो सख्त जाड़े में धूप तुम ही,  तपन में ठंडी फुहार हो मां

ये सारी दुनिया है एक मंदिर,  इसी ही मंदिर की आरती में
हो धर्मग्रंथों के श्लोक-सी तुम,  हृदय का पावन विचार  हो मां

न सिर्फ मैं ही वरन् तुम्हारे,  ये प्यारे बेटे, ये बेटियां सब
सदा-सदा ही ऋणी रहेंगे,  जनम-जनम का उधार हो मां

कि जब से हमने जनम लिया है,  तभी से हमको लगा है ऐसा
तुम्हीं हमारे दिलों की धड़कन,  तुम्हीं हृदय की पुकार हो मां

तुम्हारे दिल को बहुत दुखाया,  खुशी ज़रा दी, बहुत रुलाया
मगर हमेशा हमें क्षमा दी,  कठोर को भी उदार हो मां

कहा है जो  कुछ यहां बड़ों ने,  ‘कुंअर’ उसे कुछ यूं कह रहा है
ये सारी दुनिया है इक कहानी,  तुम इस कहानी का सार हो मां

– डॉ. कुंअर बेचैन –
२ एफ – ५१, नेहरू नगर, ग़ाज़ियाबाद, उ.प्र., भारत

यू.के. से प्राण शर्मा की कहानी – तीन लँगोटिया यार

मई 5, 2010

तीन लँगोटिया यार
– प्राण शर्मा

राजेंद्र ,राहुल और राकेश लँगोटिया यार हैं. तीनों के नाम ” र ” अक्षर से शुरू होते हैं. ज़ाहिर है कि उनकी राशि तुला है. कहते हैं कि जिन लोगों की राशि एक होती है उनमें बहुत समानताएँ  पायी जाती हैं. राजेंद्र,राहुल और राकेश में भी बहुत समानताएँ हैं. ये दीगर बात है कि राम और रावण की राशि भी एक थी यानी तुला थी, फिर भी दोनो में असमानताएं थीं. राम में गुण ही गुण थे और रावण में अवगुण ही अवगुण. एक उद्धारक था और दूसरा संहारक. एक रक्षक था और दूसरा भक्षक.

यदि राजेन्द्र, राहुल और राकेश में समानताएँ हैं तो कोई चाहने पर भी उन्हें असमानताओं में तबदील नहीं कर सकता है. सभी का मानना है  कि उनमें समानताएँ हैं तो जीवन भर समानताएँ ही रहेंगी. इस बात की पुष्टि कुछ साल पहले चंडीगढ़ के जाने-माने ज्योतिषाचार्य महेश चन्द्र ने भी की थी. राजेंद्र, राहुल और राकेश के माथों की रेखाओं को देखते ही उन्होंने कहा था- “कितनी अभिन्नता है तुम तीनों में! भाग्यशाली हो कि विचार, व्यवहार और स्वभाव में तुम तीनों ही एक जैसे हो..जाओ बेटो, तुम तीनों की मित्रता अटूट रहेगी. सब के लिए उदाहरण बनेगी तुम तीनों की मित्रता.”

राजेंद्र, राहुल और राकेश की अटूट मित्रता के बारे में ज्योतिषाचार्य महेश चन्द्र के भविष्यवाणी करने या नहीं करने से कोई अंतर नहीं पड़ता था क्योंकि उनकी मित्रता के चर्चे पहले से ही घर-घर में हो रहे हैं. मोहल्ले के सभी माँ-बाप अपनी-अपनी संतान को राजेंद्र,राहुल और राकेश के नाम ले-लेकर अच्छा बनने की नसीहत देते हैं, समझाते हैं-“अच्छा इंसान बनना है तो राजेंद्र,राहुल और राकेश जैसा मिल-जुलकर रहो. उन जैसा बनो और उन जैसे विचार पैदा करो. किसीसे दोस्ती हो तो उन जैसी.”

राजेंद्र ,राहुल और राकेश एक ही स्कूल और एक ही कॉलिज में पढ़े. साथ-साथ एक ही बेंच पर बैठे. बीस की उम्र पार कर जाने के बाद भी वे साथ-साथ उठते-बैठते  हैं.हर जगह साथ-साथ आते-जाते हैं. कन्धा से कन्धा मिलाकर चलते हैं. मुस्कराहटें बिखेरते हैं. रास्ते में किसीको राम-राम और किसी को जय माता की कहते हैं. बचपन जैसी  मौज-मस्ती अब भी बरकरार है उनमें. कभी किसीकी तोड़-फोड़ नहीं करते हैं वे. मोहल्ले के सभी बुजुर्ग लोग उनसे खुश हैं. किसीको कोई शिकायत नहीं है उनसे. मोहल्ले भर की सबसे ज़्यादा चहेती  मौसी आनंदी का तो कहना है- “कलयुग में ऐसे होनहार और शांतिप्रिय बच्चे, विश्वास नहीं होता  है .

है आजकल के युवकों में उन के जैसी खूबियाँ? आजकल के युवकों को समझाओ तो आँखें दिखाते हैं. पढ़ाई न लिखाई और शर्म भी है उन्होंने बेच खाई.

माँ-बाप की नसीहत के बावजूद मोहल्ले के कुछेक लड़के शरारतें करने से बाज़ नहीं आते हैं. ऊधम मचाना उनका रोज़ का काम है . जब से राजेन्द्र,राहुल और राकेश की अटूट मित्रता के सुगंध घर-घर में फैली है तब से उनके गिरोह का का पहला मकसद है उनकी मित्रता की अटूटता को छिन्न-भिन्न करना. इसके लिए उन्होंने कई हथकंडे अपनाए हैं. लेकिन हर हथकंडे में उनको असफलता का सामना करना पड़ा है. फिर भी वे निराश नहीं हुए हैं.उनके हथकंडे जारी हैं.

चूँकि राजेंद्र, राहुल और राकेश की चमड़ियों के रंगों में असमानता है यानि राजेंद्र का रंग गोरा है ,राहुल का रंग भूरा है और राकेश का रंग काला है, इसलिए इन शरारती लड़कों को उनके रंगों को लेकर उन्हें आपस में लड़वाने की सूझी है. तीनो को आपस में लड़वाने का काम गिरोह के मुखिया सरोज को सौंपा गया है. ऐसे मामलों में वो एक्सपर्ट माना जाता है.

एक दिन रास्ते में राजेंद्र मिला तो सरोज ने मुस्कराहट बिखेरते हुए उसे गले से लगा लिया. दोनो में बातों का सिलसिला शुरू हो गया. इधर-उधर की कई बातें हुई उनमें. अंत में बड़ी आत्मीयता और शालीनता से सरोज बोला -“अरे भईया ,तुम दूध की तरह गोरे  – चिट्टे हो. किन भूरे-काले से दोस्ती किये बैठे हो ? तुम्हारी दोस्ती उनसे रत्ती भर नहीं मिलती  है. आओ हमारी संगत में. फायदे में रहोगे.”
जवाब में राजेंद्र ने अपनी आँखें ही तरेरी थीं. सरोज मुँह लटका कर मुड़ गया था.

जब राहुल और राकेश को  इस बात का पता राजेंद्र से लगा तो तीनो ही झूमकर एक सुर में गा उठे–“आँधियों के चलने से क्या पहाड़ भी डोलते हैं?”

शायद ही ऐसी शाम होती जब राजेंद्र,राहुल और राकेश की महफ़िल नहीं जमती. शायद ही ऐसे शाम होती जब तीनों मिलकर अपने- अपने नेत्र शीतल नहीं करते. शाम के छे बजे नहीं कि वे नमूदार हुए नहीं. गर्मियों में रोज गार्डेन और सर्दियों में फ्रेंड्स कॉर्नर  रेस्टोरंट में. घंटों ही साथ-साथ बैठकर बतियाना उनकी आदत में शुमार है. कहकहों और ठहाकों के बीच कोई ऐसा विषय नहीं होता है जो उनसे अछूता रहता हो. उनके नज़रिए में वो विषय ही क्या जो बोरिंग हो और जो खट्टा,मीठा और चटपटा न हो.

आज के दैनिक समाचार पत्र ” नयी सुबह” में समलिंगी संबंधों पर प्रसिद्ध लेखक रोहित यति का एक लंबा लेख है. काफी विचारोत्तेजक है. राजेंद्र ,राहुल और राकेश ने उसे रस ले-लेकर पढा है. उन्होंने सबसे पहले इसी विषय पर बोलना बेहतर समझा है.

“जून के गर्म-गर्म महीने में ऐसा गर्म विषय होना ही चाहिए डिस्कस करने के लिए. मैं कहीं गलत तो नहीं कह रहा हूँ?” राजेंद्र के इस कथन से सहमत होता राकेश कहता है- ” तुम ठीक कहते हो. ये मैटर, ये सब्जेक्ट हर व्यक्ति को डिस्कस करना

चाहिए. लेख आँखें खोलने वाला है . उसमें कोई ऐसी बात नहीं जिससे किसीको एतराज़ हो. सच तो ये है कि इस प्रक्रिया से कौन नहीं गुज़रता है ? मैं हैरान होता हूँ

आत्मकथाओं को लिखने वालों पर कि वे किस चतुराई से इस सत्य को छिपा जाते हैं. क्या कोई आत्मकथा लिखने वाला इस प्रक्रिया से नहीं गुज़रता है? अरे,उनसे तो वे लोग सच्चे और ईमानदार हैं जो सरेआम कबूल करते हैं कि वे समलिंगी सम्बन्ध रखते हैं.” राकेश अपनी राय को इस ढंग से पेश करता है कि राजेंद्र और राहुल के ठहाकों से आकाश गूँज उठता है. आस-पास के बेंचों पर बैठे हुए लोग उनकी ओर देखने लगते हैं लेकिन राजेंद्र,राहुल और राकेश के ठहाके जारी रहते हैं. ठहाकों में राहुल याद दिलाता है -” तुम दोनो को क्या वो दिन याद है जिस दिन हम तीनों नंगे-धड़ंगे बाथरूम   में घुस गये थे. घंटों एक -दूसरे पर पानी भर-भरकर पिचकारियाँ चलाते रहे थे. कभी किसी अंग  पर और कभे किसी अंग पर. ऊपर से लेकर नीचे तक कोई हिस्सा नहीं छोड़ा था हमने. कितने बेशर्म हो गये थे हम. क्या-क्या छेड़खानी नहीं की थी हमने उस समय!”

” सब याद है प्यारे राहुल जी . पानी में छेड़खानी का मज़ा ही कुछ और होता है. “राकेश जवाब में रोमांचित होता हुआ राहुल का हाथ चूमकर कहता है.
” मज़ा तो असल में हमें नहाने के बाद आया था , राजेंद्र राकेश से मुखातिब होकर बोलता है,” जब तुम्हारी मम्मी ने धनिये और पनीर के परांठे खिलाये थे हमको. क्या लज्ज़तदार परांठे थे ! उनकी सुगंध अब भी मेरे  मन में समायी हुई है. याद है कि घर के दस जनों के परांठे हम तीनों ही खा गये थे. सब के सब इसी ताक में बैठे रहे कि कब हम उठें और कब वे खाने के लिए बैठे . बेचारों की हालत देखते ही बनती थी “.
” उनके पेटों में चूहे जो दौड़ रहे थे , भईया ,भूख की मारे मोटे-मोटे चूहे .” राहुल के संवाद में कुछ इस तरह की नाटकीयता थी कि राजेंद्र और राकेश की हँसी के फव्वारे  फूट पड़ते हैं.
” उस दोपहर हम घोड़े बेचकर क्या सोये थे कि चार बजे के बाद जागे थे . गुल्ली- डंडे का मैच खेलने नहीं जा सके थे हम. अपना- अपना माथा पीटकर रह गये थे.” रुआंसा होकर राकेश कहता है-
” बचपन के दिन भी क्या खूब थे !”  घरवालों के चहेते थे हम . पूरी  छूट  थी हमको . कभी किसी की मार नहीं थी. किसीकी प्रताड़ना नहीं थी. पंछियों की तरह आजाद  थे हम .” राजेंद्र की इस बात का प्रतिवाद करता है राहुल- “माना कि आप पर किसी की मार नहीं थी, किसी की प्रताड़ना नहीं थी लेकिन आप दोनो ही जानते हैं कि मेरे चाचा की मुझपर  मार भी थी और प्रताड़ना भी. छोटा होने के नाते पिता जी उनको भाई से ज्यादा बेटा मानते हैं और वे पिता जी के प्यार का नाजायज फायदा उठाते हैं. उनके गुस्से का नजला मुझपर ही गिरता  है .

एक बात मैंने आपको कभी नहीं बताई. आज बताता हूँ. एक दिन मेरे चाचा ने मुझे इतना पीटा कि मैं  अधमरा हो गया.  हुआ यूँ  कि उन्होंने अपने एक मित्र को एक कौन्फिडेन्शल लेटर भेजा मेरे हाथ. उनके मित्र का दफ्तर घर से दूर था.तपती दोपहर थी. मैं भागा-भागा उनके दफ्तर पहुंचा. मेरे पहुँचने से पहले मेरे चाचा का मित्र किसी काम के सिलसिले में कहीं और जा चुका था. सोच में पड़ गया  कि मैं अब क्या करूँ? पत्र वापस ले जाऊं या चाचा के दोस्त के दफ्तर में छोड़ दूं? आखिर मैं पत्र छोड़कर लौट आया”.
” फिर क्या हुआ?” राजेंद्र और राकेश ने जिज्ञासा में पूछा.
” फिर वही हुआ जिसकी मुझे आशंका थी. ये जानकार कि मैं कौन्फिडेन्शल लेटर किसी और के हाथ थमा आया हूँ ,चाचा की आँखें लाल-पीली हो गयीं. वे मुझपर बरस पड़े. एक तो कहर की गर्मी थी, उस पर उनकी डंडों की मार . मेरी दुर्गति कर दी उन्होंने. घर में बचाने वाला कोई नहीं था.छोटा भाई खेलने के लिए गया हुआ था.पिता जी काम पर थे और माँ किसी सहेली के घर में गपशप मारने के लिए गयी हुई थीं.”
” आह! ”  राजेंद्र और राकेश की आँखों में आंसू छलक जाते हैं.
“कल की बात सुन लीजिये. आप जानते ही हैं कि मेरे चाचा नास्तिक हैं आजकल वे इसी कोशिश में हैं कि मैं भी किसी तरह नास्तिक बन जाऊं. मुझे समझाने लगे -” भतीजे,मनुष्य का धर्म ईश्वर को पूजना नहीं है. ईश्वर का अस्तित्व है ही कहाँ कि उसको पूजा जाए. पूजना है तो अपने शरीर को पूज. इस हाड़-मांस की देखभाल करेगा तो स्वस्थ रहेगा. स्वस्थ रहेगा तो तू लम्बी उम्र पायेगा. मेरी बात समझे कि नहीं समझे? ले,तुझे एक तपस्वी की आप बीती सुनाता हूँ उसे सुनकर तेरे विचार अवश्य बदलेंगे, मुझे पूरा विश्वास है”.
थोड़ी देर के लिए अपनी बात को विश्राम देकर राहुल कहना शुरू करता है- “चाचा ने जबरन मुझे अपने पास बिठाकर तपस्वी की आपबीती सुनायी. वे  सुनाने लगे-” भतीजे, एक तपस्वी था. तप करते-करते वो सूखकर कांटा हो गया था. एक राहगीर ने उसे झंझोड़ कर उससे पूछा- प्रभु, आप ये क्या कर रहे हैं?
” तपस्या कर रहा हूँ. आत्मा और परमात्मा को एक करने में लगा हुआ हूँ.”. तपस्वी ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया.
” प्रभु, अपने शरीर की ओर तनिक ध्यान दीजिये. देखिये,सूखकर काँटा हो गया है. लगता है कि आप कुछ दिनों के ही महमान हैं इस संसार के. ईश्वर का तप करना छोड़िये और अपने शरीर की देखभाल कीजिये.”
तपस्वी ने अपने शरीर को देखा. वाकई उसका हृष्ट-पुष्ट शरीर सूखकर काँटा हो गया था. उसने तप करना छोड़ दिया. वो जान गया कि ईश्वर होता उसका शरीर यूँ दुबला-पतला नहीं होता, हृष्ट-पुष्ट ही रहता. भतीजे, इंसान समेत धरती पर जितनी जातियाँ हैं, चाहे वो मनुष्य जाति हो या पशु जाति ,किसी की भी उत्पत्ति ईश्वर ने नहीं की है. हरेक की उत्पत्ति कुदरती तरीकों से ही मुमकिन हुई है. हमारा रूप ,हमारा आकार और हमारा शरीर सब कुछ कुदरत की देन है,ईश्वर की नहीं.”

” सभी नास्तिक ऐसे ही उल्टी-सीधी बातें करके औरों को नास्तिक बनाते हैं,” राजेंद्र बोल पड़ता है, ” तुम्हारे चाचा ने फिर कभी ईश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था को ठेस पहुंचाने की कोशिश की तो उन्हें ये प्रसंग जरूर सुनाना- ” चाचा,आप जैसा ही एक नास्तिक था. ईश्वर है कि नहीं ,ये जांच करने के लिए वो जंगल के पेड़ पर चढ़कर बैठ गया, भूखा ही. ये सोचकर कि अगर ईश्वर है तो वो अवश्य ही उसकी भूख मिटाने को आएगा.
नास्तिक देर तक भूखा बैठा रहा. उसे रोटी खिलाने के लिए ईश्वर नहीं आया. उसने सोचा कि वो आयेगा भी कैसे?उ सका अस्तित्व हो तब न? अचानक नास्तिक ने देखा कि डाकुओं का एक गिरोह उसके पेड़ के नीचे आकर लूट का मालवाल आपस में बांटने लगा है.

मालवाल बाँट लेने के बाद डाकुओं को भूख लगी,जोर की. कोई राहगीर अन्न की पोटली भूल से पेड़ के नीचे छोड़ गया था. उनकी नज़रें पोटली पर पड़ीं.पोटली में भोजन था. उनके चेहरों पर खुशियों की लहर दौड़ गयी. वे भोजन पर टूट पड़े. अनायास एक डाकू चिल्ला उठा-” ठहरो,ये भोजन हमें नहीं खाना चाहिए. मुमकिन है कि इसमें विष मिला हो और हमारी हत्या करने को किसीने साजिश रची हो. अपने साथी की बात सुनकर अन्य डाकुओं में भी शंका जाग उठी. सभी इधर-उधर और ऊपर-नीचे देखने लगे..एक डाकू को पेड़ की घनी डाली पर बैठा एक व्यक्ति नज़र आया. वो चिल्ला उठा-” देखो,देखो,वो इंसान छिप कर बैठा है. सभी डाकुओं की नज़र ऊपर उठ गयीं. सभीको एक घनी डाली पर बैठा एक व्यक्ति दिखाई दिया. सभी का शक विश्वास में तब्दील हो गया कि यही धूर्त है कि जिसने भोजन में विष मिलाया है. सभी शेर की तरह गर्जन कर उठे-
” कौन है तू? ऊपर बैठा क्या कर रहा है?”
” मैं नास्तिक हूँ . यहाँ बैठकर मैं ईश्वर के होने न होने की जांच कर रहा हूँ, भूखा रहकर. मैं ये देखना चाहता हूँ कि अगर संसार में ईश्वर है तो वो मुझ भूखे को कुछ न कुछ खिलाने के लिए अवश्य आयेगा यहाँ.”

नास्तिक ने सच -सच कहा लेकिन डाकू उसका विश्वास कैसे कर लेते ? वे चिल्लाने लगे-” झूठे,पाखंडी और धूर्त. नीचे  उतर .”
नास्तिक नीचे उतरा ही था कि उसकी शामत आ गयी.तमाचे पर तमाचा उसके गालों पर पड़ना  शुरू हो गया. एक डाकू अपनी दायीं भुजा में उसकी गर्दन दबाकर उसे आतंकित करते हुए पूछने लगा-” बता,ये पोटली किसकी है? तू किसका जासूस है? किसने तुझे हमारी ह्त्या करने के लिए भेजा है?”
” ये मेरी पोटली नहीं है.” नास्तिक गिड़ गिड़ाया. मेरा विश्वास कीजिये कि मैं किसीका जासूस नहीं हूँ . मैं आप सबके पाँव पड़ता हूँ . मैं निर्दोष हूँ. मुझपर दया कीजिये. मुझे छोड़ दीजिये .”
“अगर ये भोजन तेरा नहीं है और तूने इसमें विष नहीं मिलाया है तो पहले तू इसे खायेगा..ले खा.” एक डाकू ने एक रोटी उसके मुँह में ठूंस दी.पलक  झपकते ही नास्तिक अजगर की तरह उसे निगल गया.

डाकुओं से छुटकारा पाकर नास्तिक  भागकर  सीधा मंदिर  में गया. ईश्वर की मूर्ति के आगे नाक रगड़ कर दीनता भरे स्वर में बोला -” हे भगवन ,तेरी महिमा  अपरम्पार है.तूने मेरी आँखों पर पड़े नास्तिकता के परदे को हटा दिया है. मेरी तौबा ,फिर कभी तेरी परीक्षा  नहीं लूँगा.”

” लेकिन राजेंद्र,ईश्वर के अस्तित्वहीन होने के बारे में मेरे चाचा की एक और दलील है. वो ये कि इस ब्रह्माण्ड का रचयिता अगर ईश्वर है तो उसका भी रचयिता कोई होगा. वो कौन है? वो दिखाई क्यों नहीं देता है?” राहुल ने गंभीरता में कहा .

” तुम अपने चाचा की ये बात रहने दो कि अगर ईश्वर है तो उसका भी रचयिता कोई होगा. एक शंका कई शंकाओं को जन्म देती है. सीधी सी बात है कि धरती ,आकाश,बादल ,नदी,पहाड़.सागर,सूरज,चाँद,सितारे,पंछी,जानवर  इतना सब कुछ किसी इंसान की उपज तो है नहीं. किसी अलौकिक शक्ति की उपज है. उस अलौकिक शक्ति का नाम ही ईश्वर है. रही बात कि वो दिखाई क्यों नहीं देता तो हवा और गंध  भी दिखाई कहाँ देते हैं.? उनके अस्तित्व को नास्तिक क्यों नहीं नकारते हैं ? अरे भाई, इस संसार में कोई नास्तिक-वास्तिक नहीं है. संकट आने पर नास्तिक भी ईश्वर के नाम की माला अपने हाथ में ले लेता है . वो भी उसके रंग में रंगने लगता है. दोस्तो, ईश्वर के रंग में रंगने से मुझे याद आया है कि वह भी मुझ जैसा है.”

“मतलब ?” राहुल और राकेश कौतूहल  व्यक्त करते हैं.
” कल रात को मुझको सपना आया . मैंने देखा कि मेरे चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश था . वो प्रकाश था ईश्वर के रंग-रूप का. वाह,क्या रंग-रूप था ! गोरा -चिट्टा .मेरे जैसा .”

बताते-बताते राजेंद्र के मुख पर मुस्कान फैल जाती है.
” गोरा-चिट्टा ,तुम्हारे जैसा ? राहुल प्रतिवाद  करता है.
” सच कहता हूँ. ईश्वर रंग-रूप बिलकुल  मेरे जैसा है. ”
” अरे भाई, उसका रंग गोरा-चिट्टा नहीं है , भूरा है, मेरे जैसा..मेरे सपने में तो ईश्वर कई बार आ चुका है. मैंने हमेशा उसको भूरा देखा है. ”
” तुम मान क्यों नहीं लेते कि वो गोरा-चिट्टा है.?”
” तुम भी क्यों नहीं मान लेते कि वो भूरा है?”
” गोरे-चिट्टे को भूरा कैसे मान लूं मैं ?”
” गलत. बिलकुल गलत. तुम दोनो ही गलत कहते हो.”  राकेश जो अब तक खामोश बैठा राजेंद्र और राहुल की बातें सुन रहा था भावावेश में आकर बोल उठता  है ,” तुम दोनो की बातों में रंगभेद की बू आ रही है. तुम मेरे रंग को तो खारिज  ही कर रहे हो . मेरी बात भी सुनो. न तो वो गोरा है और न ही भूरा. वो तो काला है ,काला. बिलकुल मेरे रंग जैसा. मैं भी सपने में ईश्वर को कई बार देख चुका हूँ. अलबत्ता  रोज ही उसको देखता  हूँ .  क्या तुम दोनों के पास उसके गोरे या भूरे होने का कोई प्रमाण है?  नहीं है न?  मेरे पास प्रमाण है उसके  काले होने का . भगवान् कृष्ण काले थे. अगर ईश्वर गोरा या भूरा है तो कृष्ण को भी गोरा  या भूरा होना चाहिए था.
राकेश के बीच में पड़ने से मामला गरमा  जाता  है. तीनों की प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती है. अपनी-अपनी बात पर तीनों अड़ जाते हैं. कोई तस से मस नहीं होता है. राजेंद्र राहुल का कंधा झकझोर कर कहता है- तुम गलत कहते हो ” और राकेश दोनों के कंधे  झकझोर कर कहता है- ” तुम दोनो ही गलत कहते हो .”
ईश्वर का कोई रंग हो या ना हो लेकिन होनी अपना रंग दिखाना शुरू कर देती है. विनाश काले विपरीत बुद्धि . अज्ञान ज्ञान पर हावी हो जाता है. जोश का अजगर होश की मछली  निगलने लगता है. राहुल ,राजेंद्र और राकेश की रक्त वाहिनियों में उबाल आ जाता है.

देखते ही देखते तीनों का वाक् युद्ध हाथापाई में तब्दील हो जाता है. हाथापाई घूंसों में बदल जाती है. घूसों के वज्र बरसने की भयानक गर्जना सुनकर आसपास के पेड़ों पर अभी-अभी लौटे परिंदे आतंकित होकर इधर-उधर उड़ जाते हैं. परिंदे तो उड़ जाते हैं लेकिन तमाशबीन  ना जाने कहाँ-कहाँ से आकर इकठ्ठा हो जाते हैं . तमाशबीन  राजेंद्र, राहुल और राकेश की ओर से बरसते  घूसों का आनंद यूँ लेने लगते हैं जैसे मुर्गों  की जंग  हो. कई तमाशबीन तो आग में घी का काम करते हैं. अपने-अपने रंग के अनुरूप वे ईश्वर का रंग घोषित करके तीनों को भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.
शुक्र हो कुछ शरीफ  लोगों का. उनके बीच में पड़ने से राजेंद्र ,राहुल और राकेश में युद्ध थमता है. तीनों ही लहूलुहान हैं. क्योंकि तीनों ही दोस्ती के लिए खून बहाने का कलेजा रखते हैं. लंगोटिए यार जो हैं .
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यू.के. से डॉ. गौतम सचदेव की लघुकथा

अप्रैल 28, 2010

दान और दानी

डॉ. गौतम सचदेव

सेठ धनीराम अपनी माता जी की पहली बरसी के उपलक्ष्य में ग़रीबों में कम्बल बाँट रहे थे । ख़बर सुनते ही उनके घर के बाहर सैकड़ों की भीड़ जमा हो गई । सेठ जी ने सबसे लाइन बनाने को कहा, लेकिन कोई इसके लिये तैयार नहीं हुआ । जब उन्होंने धमकी दी कि सिर्फ़ लाइन में लगने वालों को ही कम्बल दिये जाएँगे, तब जाकर धक्का-मुक्की करते लोगों ने उनका कहना माना । सेठ जी को चूँकि केवल एक सौ एक कम्बल ही बाँटने थे, इस लिये उन्होंने आगे खड़े एक सौ एक लोगों को नम्बर लगी पर्चियाँ थमा दीं । कई लोग शोर मचाने लगे कि हम सबसे पहले आये थे, हमें भी पर्ची दो । हमें लाइन में लगने की सज़ा क्यों दे रहे हैं ? काफ़ी हो-हल्ला करने के बाद भी जब उन लोगों को नम्बर वाली पर्चियाँ नहीं मिलीं, तो वे बड़े निराश हुए, लेकिन वे इस आशा में फिर भी खड़े रहे कि शायद सेठ जी का विचार अब भी बदल जाये ।

सेठ धनीराम के नौकर ने कम्बल लाकर रख दिये थे । सेठ जी ने कम्बल बाँटने शुरू किये । ज्योंही लाइन में खड़ा पर्चीधारी आगे बढ़कर नम्बर वाली पर्ची दिखाता, त्योंही सेठ जी उससे पर्ची लेते और कम्बल पकड़ा देते । कम्बल पाने वाले उनको और उनकी दिवंगत माता जी को दुआएँ देते जा रहे थे । कोई कहता – जुग जुग जियो दाता । कोई आसमान की ओर हाथ उठाकर कहता – परमात्मा आपको लम्बी उमर दे । कोई उनकी माता जी के लिये प्रार्थना करता – भगवान उन्हें स्वर्ग में निवास दे । सेठ जी पुण्य की इस कमाई को लूट-लूटकर बहुत प्रसन्न हो रहे थे ।

ज्योंही आख़िरी कम्बल बँटा, त्योंही न जाने किधर से चार-पाँच लट्ठधारी गुंडे आये और छीना-झपटी करने लगे । जो लोग कम्बल लेते ही चले गये थे, वे तो बच गये, लेकिन शेष कितने ही कमज़ोर और बेसहारा लोगों के कम्बल छिन गये । भगदड़ मच गई और असहाय सेठ जी हक्के-बक्के होकर देखते रह गये ।

सेठ धनीराम के घर के पास ही ऊनी कपड़ों की एक दुकान थी । दुकानदार ने आनन-फ़ानन बाहर यह लिखकर एक बोर्ड लगा दिया – ‘हम कम्बल ख़रीदते हैं’ । जिन कम्बलधारियों के कम्बल बच गये थे, उनमें से कई ने इधर-उधर देखने और तसल्ली करने के बाद कि कहीं गुंडे तो नहीं खड़े, दुकान पर जाकर दस-दस रुपये में कम्बल बेच दिये ।   शाम को अँधेरा होने पर वही लट्ठधारी गुंडे आये और दुकान के पिछले दरवाज़े से चुपचाप अंदर घुस गये । उन्होंने दुकानदार को दिन में छीने हुए कम्बल सौंपे, इनाम लिया और चलते बने । दुकानदार के पास साठ-सत्तर कम्बल पहुँच चुके थे ।

अगले दिन उसी दुकानदार ने ‘सेल’ लगाई और वही कम्बल पचास-पचास रुपये में बेचने लगा । लेकिन यह क्या ! अभी वह दो-चार कम्बल ही बेच पाया था कि ग्राहक आने बंद हो गये । दरअस्ल लोगों में यह बात फैलते देर नहीं लगी थी कि दुकानदार कीड़ों द्वारा खाये कम्बल बेच रहा है, जिन में पचासों छेद हैं । दुकानदार एक तो सेठ धनीराम को पहले ही गालियाँ दे रहा था कि उन्होंने मुझसे कम्बल क्यों नहीं ख़रीदे । अब छेदों वाले कम्बलों को ख़रीदकर पछताने की बजाय वह उन्हें ज़ोर-ज़ोर से कोसने लगा – बड़े धर्मात्मा बनने चले हैं ! सड़े हुए कम्बल देकर दानी बन रहे हैं ! भला दान में क्या ऐसी चीज़ें दी जाती हैं ?

बेचारे धनीराम क्या जानें कि उन्होंने अपने जिस मित्र की दुकान से कम्बल ख़रीदे थे, उसने उन्हें पूरे दाम लेकर ऐसे छलनी कम्बल बेचे थे ।

डॉ. गौतम सचदेव

भारत से सुकेश साहनी की दो लघुकथाएं

अप्रैल 21, 2010

प्रतिमाएं
-सुकेश साहनी

उनका काफिला जैसे ही बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के नज़दीक पहुँचा, भीड़ ने घेर लिया। उन नग-धड़ंग अस्थिपंजर-से लोगों के चेहरे गुस्से से तमतमा रहे थे। भीड़ का नेत्तृव कर रहा युवक मुट्ठियाँ हवा में लहराते हुए चीख रहा था, मुख्यमंत्री—मुर्दाबाद ! रोटी कपड़ा दे न सके जो, वो सरकार निकम्मी है! प्रधानमंत्री !—हाय!हाय!1” ुख्यमंत्री ने लती ुई नजरों से हां िलाधिकारी ेखा। आनन-फानन ें प्रधानमंत्री ाढ़ग्रस्त क्षेत्र के वाई िरीक्षण िए हेलीकाप्टर ्रबंध िया या। हां ्थिति ँभालने के िए मुख्यमंत्री वहीं ुक गए।

हवाई निरीक्षण से लौटने पर प्रधानमंत्री दंग रह गए। अब वहां असीम शांति छायी हुई थी। भीड़ का नेतृत्व कर रहे युवक की विशाल प्रतिमा चौराहे के बीचों बीच लगा दी गई थी। प्रतिमा की आँखें बंद थी, होंठ भिंचे हुए थे और कान असामान्य रूप से छोटे थे। अपनी मूर्ति के नीचे वह युवक लगभग उसी मुद्रा में हाथ बाँधे खड़ा था। नंग-धड़ंग लोगों की भीड़ उस प्रतिमा के पीछे एक कतार के रूप में इस तरह खड़ी थी मानो अपनी बारी की प्रतीक्षा में हो। उनके रुग्ण चेहरे पर अभी भी असमंजस के भाव थे।

मुख्यमंत्री सोच में पड़ गए थे। जब से उन्होंने इस प्रदेश की धरती पर कदम रखा था, जगह-जगह स्थानीय नेताओं की आदमकद प्रतिमाएँ देखकर हैरान थे। सभी प्रतिमाओं की स्थापना एवं अनावरण मुख्यमंत्री के कर कमलों से किए गए होने की बात मोटे-मोटे अक्षरों में शिलालेखों पर खुदी हुई थी। तब वे लाख माथापच्ची के बावजूद इन प्रतिमाओं को स्थापित करने के पीछे का मकसद एकदम स्पष्ट हो गया था। राजधानी लौटते हुए प्रधानमंत्री बहुत चिंतित दिखाई दे रहे थे।

दो घंटे बाद ही मुख्यमंत्री को देश की राजधानी से सूचित किया गया-आपको जानकर हर्ष होगा कि पार्टी ने देश के सबसे महत्त्वपूर्ण एवं विशाल प्रदेश की राजधानी में आपकी भव्य,विशालकाय प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया है। प्रतिमा का अनावरण पार्टी-अध्यक्ष एवं देश के प्रधानमंत्री के कर-कमलों से किया जाएगा। बधाई !

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पिंजरे
-सुकेश साहनी

उसके कदमों की आहट से चौंककर नीलू ने आँखें खोलीं, उसे पहनाकर धीरे से दुम हिलाई और फिर निश्चिन्त होकर आँखें बंद कर लीं। चारों पिल्ले एक दूसरे पर गिरते पड़ते माँ की छाती से दूध पी रहे थे। वह मंत्रमुग्ध-सा उन्हें देखता रहा।
नीलू के प्यारे-प्यारे पिल्लों के बारे में सोचते हुए वह सड़क पर आ गया। सड़क पर पड़ा टिन का खाली डिब्बा उसके जूते की ठोकर से खड़खड़ाता हुआ दूर जा गिरा । वह खिलखिलाकर हँसा। उसने इस क्रिया को दोहराया, तभी उसे पिछली रात माँ द्वारा सुनाई गई कहानी याद आ गई, जिसमें एक पेड़ एक धोबी से बोलता है, “धोबिया, वे धोबिया! आम ना तोड़—-उसने सड़क के दोनों ओर शान से खड़े पेड़ों की ओर हैरानी से देखते हुए सोचा—पेड़ कैसे बोलते होंगे,—कितना अच्छा होता अगर कोई पेड़ मुझसे भी बात करता! पेड़ पर बैठे एक बंदर ने उसकी ओर देखकर मुँह बनाया और फिर डाल पर उलटा लटक गया। यह देखकर वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।
खुद को स्कूल के सामने खड़ा पाकर वसह चौंक पड़ा। घर से स्कूल तक का लम्बा रास्ता इतनी जल्दी तय हो गया, उसे हैरानी हुई । पहली बार उसे पीठ पर टँगे भारी बस्ते का ध्यान आया। उसे गहरी उदासी ने घेर लिया। तभी पेड़ पर कोयल कुहकी। उसने हसरत भरी नज़र कोयल पर डाली और फिर मरी-मरी चाल से अपनी कक्षा की ओर चल दिया।
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यू.के. से प्राण शर्मा की दो लघुकथाएं

अप्रैल 14, 2010


मेहमान
-प्राण शर्मा

घर में आये मेहमान से मनु ने आतिथ्य धर्म निभाते हुए पूछा-” क्या पीयेंगे,ठंडा या गर्म?”
” नहीं, कुछ भी नहीं.” मेहमान ने अपनी मोटी गर्दन हिला कर कहा.
” कुछ तो चलेगा?”
” कहा न, कुछ भी नहीं.”
” शराब?”
” वो भी नहीं.”
” ये कैसे हो सकता है, मेरे हजूर? आप हमारे घर में पहली बार पधारे हैं. कुछ तो चलेगा ही.”
मेहमान इस बार चुप रहा.
मनु दूसरे कमरे में गया और शिवास रीगल की मँहगी शराब की बोतल उठा लाया. शिवास रीगल की बोतल को देखते ही मेहमान की जीभ लपलपा उठी पर उसने पीने से इनकार कर दिया, मनु के बार-बार कहने पर आखिर मेहमान ने एक छोटा सा पैग लेना स्वीकार कर ही लिया. उस छोटे से पैग का नशा उस पर कुछ ऐसा तारी हुआ कि देखते ही देखते वो आधी से ज्यादा शिवास रीगल की मँहगी शराब की
बोतल खाली कर गया. मनु का दिल बैठ गया.
झूमता-झामता मेहमान रुखसत हुआ. गुस्से से भरा मनु मेज पर मुक्का मारकर चिल्ला उठा-

” मैंने तो इतनी मँहगी शराब की बोतल उसके सामने रख कर दिखावा किया था. हरामी आधी से ज्यादा गटक गया. गोया उसके बाप का माल था.”
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मैं भी मुँह में जबान रखता हूँ
-प्राण शर्मा

चूँकि कुछ लोगों का हाज़मा ठीक नहीं रहता है और दूसरों की खुशियाँ वे पचा नहीं पाते हैं इसलिए पहुँच जाते हैं डा.नवीन के पास. डा. नवीन भी उनकी कुछ इधर की और कुछ उधर की बातों का खूब रस लेते हैं. इलाक़े में नये-नये हैं. अपनी सर्जरी चलानी है इसलिए उनको कईयों की गोसिप भी सुननी पड़ती है. उनको अपनी सर्जरी में बैठे-बैठे ही पता चल जाता है की किसकी बेटी या किसका बेटा आजकल किसके इश्क के चक्कर में है?

खरबूजा खरबूजे को देख कर रंग पकड़ता है. डा. नवीन भी उन जैसे बन गये हैं जो इधर -उधर की बातें करके रस लेते हैं. जब कभी वे किसी रास्ते या पार्टी में मुझ जैसे घनिष्ठ बने मित्र से मिल जाते हैं तो अपने नाम को पूरी तरह से चरितार्थ करते हैं यानी कोई न कोई नवीन बात सुनाये बिना नहीं रह पाते हैं.

कल शाम की ही बात थी. अपनी सर्जरी के बाहर डा. नवीन मिल गये. जल्दी में थे.फिर भी एक किस्सा सुना ही गये. कहने लगे-
“कुछ लोग अजीब किस्म के होते हैं. उन्हें अपनी चिंता कम और दूसरों की चिंता ज्यादा सताती है. सुबह एक रोगी बैठते ही बोला-
” डाक्टर साब, अभी-अभी जो रोगी आपसे मिलकर गया है, उसे रोग-वोग कुछ नहीं है. अच्छा-भला है. बेईमान बहाना-वहाना कर के आपसे सिक नोट ले जाता है .”
” अच्छा, आपके बारे में भी वो यही बात कह कर गया था .”
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यू.के. से महेंद्र दवेसर “दीपक” की लघुकथा – ‘त्रिशूल’

अप्रैल 7, 2010

महेन्द्र दवेसर “दीपक
जन्म: नई देहली¸14 दिसम्बर 1929
शिक्षा तथा संक्षिप्त जीवन चित्रण: 1947 में विभाजन के समय डी. ए. वी. कॉलेज, लाहौर में F.Sc (Final) के विद्यार्थी। प्रभाकर (पंजाब विश्वविद्यालय, 1950)। पंजाब युनीवर्सिटी कैम्प कॉलेज, नई देहली में एम. ए. – अर्थशास्त्र (Final) के विद्यार्थी – 1952। परीक्षा पूर्व भारतीय विदेश मंत्रालय की विदेश सेवा में चयन पश्चात जाकार्ता, इंडोनेशिया में भारतीय दूतावास में नियुक्ति।
1952-56 तक जाकार्ता, इंडोनेशिया में निवास। विदेश सेवा अवधि में इंडोनेशिया सरकार के अनुरोध पर भारत सरकार की विशेष आज्ञा पर Radio Republic Indonesia (Voice of Indonesia) के संचालन तथा प्रसारण का अतिरिक्त भार संभाला। रेडियो जाकार्ता से दैनिक समाचारों, चर्चाओं, वार्ताओं और इंडोनेशिया जीवन-संबन्धी अपनी लिखी कहानियों का प्रसारण किया जो बहुत प्रशंसित हुआ। 1956 में स्वदेश वापसी। मेरी कहानियां स्कूल, कॉलेज की पत्रिकाओं में छपीं और प्रशंसित हुईं। 1956-1959: भारत सरकार के संभरण मंत्रालय में नियुक्ति। इस अवधि में छुट-पुट कहानियां समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में छपती रहीं। जुलाई, 1971 में भारतीय हाइ कमिशन, लंदन में नियुक्ति। 1971 से लंदन में निवास। 1976 से अंतर्राष्ट्रीय समाचार एजेंसी (Reuters World Service) में Senior Technical Buyer के पद पर नियुक्ति। 1992 में नौकरी से अवकाश-ग्रहण। पुन: लेखन-कार्य में जुट गया। मैं जीवन के 80 वर्ष पार कर चुका हूं और विचार से आगे बढ़ रहा हूं कि अभी भी बहुत करने की क्षमता मुझमें बाक़ी है।
प्रकाशित रचनायें: कहानी-संग्रह –- (1) पहले कहा होता (2003), (2) बुझे दीये की आरती (2007), *(3) अपनी अपनी आग (2009)
*इस पुस्तक को ‘डॉक्टर लक्षमीमल्ल सिंघवी सम्मान योजना’ के अंतर्गत संचालित प्रतियोगिता में वर्ष 2009 का 250 पाउंड का अनुदान घोषित किया गया है।
मेरी कहानियां लंदन से प्रकाशित “पुरवाई” और भारतीय पत्रिकाओं “वर्तमान साहित्य”, “गगनांचल”, “अक्षर संगोष्ठि” आदि में छपती रही हैं। “रचना समय” (भोपाल) द्वारा प्रकाशित “समुद्र पार रचना संसार” नामक प्रवासी भारतीय कहानी संकलन और “वर्तमान साहित्य” के प्रवासी महाविशेषांक में भी मेरी कहानियां सम्मिलित हुई हैं और समीक्षकों द्वारा प्रशंसित भी हुई हैं।

त्रिशूल
– महेंद्र दवेसर ‘दीपक’

समय अनंत का फूल भी है, त्रिशूल भी ! फूल वह, जिसकी सुगंध यदि अंतर में उतर जाए तो उम्र भर मन को सहलाती रहे!! . . . और त्रिशूल ऐसा कि कभी कभी इसके घाव इतिहास बन जाते हैं और फिर भी नहीं भरते!!!
सेठ बलवंतराय को इस फूल और त्रिशूल, दोनों का यह ताज़ा अनुभव हुआ है!
यह कोई जिज्ञासा थी या अपनी मिट्टी की पुकार जो देश-विभाजन के ३५ वर्ष बाद उन्हें पाकिस्तान ले गयी. पहले उन्होंने रावलपिंडी में अपना पुराना घर देखा. फिर अजनबी हो गयी आसपास की गलियों, मुहल्लों की ख़ाक छानी और आ खड़े हुए अपनी पुरानी दुकान ‘सुपर स्पोर्ट्स’ के सामने! यह दुकान बलवंत सेठ के स्वर्गीय पिता सेठ यशवंतराय ने तीस के दशक में शुरू की थी जब दुनिया भर में मंदी का दौर चल रहा था. उनका परिश्रम रंग लाया और बिज़नेस धड़ल्ले से चल निकला. आज कौन है इसका मालिक, कौन मैनेजर है और यह कैसी चल रही है??? यह प्रश्न बलवंत सेठ को दुकान के भीतर खींच लाये. तब उनहोंने देखा कि स्वर्गीय बाउजी के वे
तख्तपोश, उसपर बिछी सफ़ेद चादर और गाव-तकिया अब वहां नहीं थे और न ही था वह हुक्का जिसकी गुड़गुड़ दुकान में गूंजा करती थी. अब इस एयरकंडीशंड दुकान में
इन सबका स्थान शीशम से बने शानदार मेज़ और गद्देदार कुर्सिओं ने ले लिया था और इस फर्नीचर की पिछली दीवार पर अब भी टंगी हुई थी बलवंत सेठ के अपने स्वर्गीय बाउजी . . . सेठ यशवंतराय की वही पुरानी तस्वीर! . . . वे निहाल हो गए!
इस दुकान का मालिक निकला बलवंत सेठ का पुराना मित्र और सहपाठी, मुहम्मद अकरम. बाउजी के दिनों में ही वह उनके आधीन दुकान का मैनेजर बना. वफ़ादार इतना कि ज़रुरत पड़ने पर बाउजी कि चिलम तक भर दिया करता. बाउजी हज़ार बलवंत को कहते कि बेटा तुम भी अकरम के साथ बैठकर दुकान का कुछ कम-धंधा सीख लिया करो, मगर बिगड़े नवाब को अपने फ़ुटबाल और क्रिकेट से फ़ुर्सत मिलती, तब न! जब भी कभी बलवंतराय दुकान में आ बैठता तो बाहर ‘यार, यार’ बुलाये जाने वाले साहिबज़ादे ‘छोटे सेठजी’ की उपाधि से संबोधित होते!
इस अचानक हुई मुलाक़ात के बाद अकरम अपने पुराने यार के गले मिला और उनकी ख़ूब आवभगत की. घंटों दोनों मित्रों के बीच ग़प-शप चलती रही, पुरानी यादें ताज़ा होती रहीं. फिर अचानक अकरम साहिब फॉर्मल हो गए और दुकान की चाबियाँ बलवंत की ओर बढ़ाते हुए बोले , “छोटे सेठ, आप न आते, तो न आते! बरसों आपकी दुकान मुझे चलानी पड़ती. अब आप आ गए हैं तो संभालिये अपनी अमानत. मैं अमानत में ख़यानत नहीं कर सकता. आप इसे रखिये या बेचिए, आपकी मर्ज़ी. अगर दुकान आपके पास रहती है तो आप मुझे नौकरी में रखें या निकल दें. कहिये, मेरे लिए क्या हुक्म है?”

बलवंत सेठ भौचक्के रह गए. फिर ज़रा सोचकर बोले, “अकरम मियाँ, मुझे शर्मिंदा न कीजिये. बरसों से यह दुकान आप चलाते आ रहे हैं, अब आपका इस पर पूरा हक़ है. हमें इसका मुआवज़ा मिल चुका है और वहां भारत में हम ‘सुपर स्पोर्ट्स (इंडिया)’ के नाम से एक दूसरी दुकान चला रहे हैं जो आपकी दुआ से ज़ोरों पर चल रही है. वैसे भी मैं यहाँ घूमने आया था, अपनी दुकान वापस लेने थोड़ी आया था?”

बलवंत सेठ की उसी शाम की फ़्लाईट थी. वह होटल जाने के लिए उठ खड़े हुए और जाते जाते उन्होंने फ़र्माइश कर डाली,” अकरम मियाँ, एतराज़ न हो तो बाउजी की यह तस्वीएर मैं साथ लिए जाता हूँ. अब आपका इससे क्या काम?”
“नहीं जनाब, यह तस्वीर मेरी दुआ-ए-ख़ैर है. इसके साए तले मेरे काम में बरकत हुई है. अब यह दुकान का हिस्सा है. दुकान आपकी, तो यह तस्वीर भी आपकी. नहीं तो यह अब यहाँ से नहीं हिलेगी!”

अकरम का इनकार भी कितना प्यारा था! जब ये दोस्त एयरपोर्ट पर विदा हुए, दोनों की आँखें भीगी हुई थीं. बलवंत सेठ का प्लेन इंदिरा गाँधी एयरपोर्ट पर उतरा. आशा थी कि उनका इकलौता बेटा धनवंत उन्हें लेने के लिए वहां मौजूद होगा. लेकिन न वह स्वयं आया न उसने कार ही भेजी. उन्होंने टैक्सी ली और घर पहुँच गए. . घर आकर उन्होंने पत्नी, सरोज से एयरपोर्ट पर बेटे की ग़ैरमौजूदगी का कारण पूछा, तो वे भी हैरान हो गयीं. फ़्लाईट नंबर आदि तो उसे ठीक से समझा दिए गए थे तो वह फिर क्यों नहीं आया?
भारत विभाजन के समय धनवंत कोई दस वर्ष का था. इकलौता बेटा था, ख़ूब लाड-प्यार से पाला गया था. उसे पढ़ा लिखा कर वकील बनाया. उसकी शादी पर लाखों लुटाये और विवाह के चार महीने बाद, बहू और बेटा, दोनों अलग हो गए. ठीक है, आजके युग में बच्चों की आज़ादी में दख़ल देना उचित नहीं है. बेटे की प्रैक्टिस ख़ूब चल निकली है. मियाँ-बीवी, दोनों के पास अपनी अपनी कारें भी हैं. फिर बेटे के एयरपोर्ट न आने या कार न भेजने का कोई भी उचित कारण या बहाना बलवंत सेठ की समझ में नहीं आ रहा था.
उचित कारण अगले दिन सामने आया. पिता के हाथ में किसी दूसरे वकील के नाम से सीने में घोंपा गया था यह त्रिशूल! एक रजिस्टर्ड नोटिस था. दो महीने के भीतर पुश्तैनी कारोबार में और कारोबार से जमा पूँजी का आधा हिस्सा माँगा गया था.
कब भरेगा यह घाव?

महेन्द्र दवेसर “दीपक”
स्वरचित, अप्रकाशित
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भारत से आचार्य संजीव ‘सलिल’ की दो लघुकथाएं

मार्च 31, 2010

गाँधी और गाँधीवाद

आचार्य संजीव ‘सलिल’

बापू आम आदमी के प्रतिनिधि थे. जब तक हर भारतीय को कपड़ा न मिले, तब तक कपड़े न पहनने का संकल्प उनकी महानता का जीवत उदाहरण है. वे हमारे प्रेरणास्रोत हैं’ -नेताजी भाषण फटकारकर मंच से उतरकर अपनी मंहगी आयातित कार में बैठने लगे तो पत्रकारों ने उनसे कथनी-करनी में अन्तर का कारण पूछा.

नेताजी बोले

– ‘बापू पराधीन भारत के नेता थे. उनका अधनंगापन पराये शासन में देश की दुर्दशा दर्शाता था, हम स्वतंत्र भारत के नेता हैं. अपने देश के जीवनस्तर की समृद्धि तथा सरकार की सफलता दिखाने के लिए हमें यह ऐश्वर्य भरा जीवन जीना होता है. हमारी कोशिश तो यह है की हर जनप्रतिनिधि को अधिक से अधिक सुविधाएं दी जायें.’

‘ चाहे जन प्रतिनिधियों की सुविधाएं जुटाने में देश के जनगण क दीवाला निकल जाए. अभावों की आग में देश का जन सामान्य जलाता रहे मगर नेता नीरो की तरह बांसुरी बजाते ही रहेंगे- वह भी गाँधी जैसे आदर्श नेता की आड़ में.’ – एक युवा पत्रकार बोल पड़ा.

अगले दिन से उसे सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो गया.

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निपूती भली थी

आचार्य संजीव ‘सलिल’

बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली. अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया.

अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आंखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली. उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए, तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुंह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि

देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आयी.

उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूंदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सत्ता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे.

दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीड़ाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे. नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुंह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुंह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गा कर ख़ुद को धन्य मान रहा था.

अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता के मुँह से निकला-

‘ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी.

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भारत से रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ की दो लघुकथाएं

मार्च 24, 2010

ऊँचाई

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, “लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्‌ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?”

मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।

घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खान खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, “सुनो” -कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।
वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।”

उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- “रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।”
मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- “ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?”

“नहीं तो” – मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

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जाला

रामेश्वर काम्बोजहिमांशु

नीलांजना का बुखार था कि छूटने का नाम नहीं ले रहा था। खाँसी का दौरा पड़ता तो साँस जैसे रुक जाती। ऐसे कष्ट से बेहतर है कि मौत आ जाए। क्या सुख मिला है इस घर में? रात–दिन बाँदी की तरह खटो फिर भी ज़रा–सा सुख नहीं। पति समीर को काम से ही फुर्सत नहीं, दो घड़ी पास में बैठकर बात तो क्या करेंगे? आज सुबह से ही गायब हैं।

बुखार और तेज हो गया है। रह–रहकर उसका जी रोने को चाह रहा है। आँखें मुँदी जा रही हैं। सब कुछ धुँधला नज़र आ रहा है। वह जैसे एक ऊँचे पहाड़ से नीचे लुढ़क गई है। उसकीचीख निकल गई। वह घिघियाई…मैं नहीं बचूँगी।’’

उसके माथे पर कोई ठण्डे पानी की पट्टी रख रहा है। वह सुबक रही है। किसी ने रूमालसेउसकी आँखें पोंछ दी हैं। कुछ उँगलियाँ उसके बालों को सहला रही हैं। उसे अजीब–सा सुकून मिल रहा है। वह सहलाने वाली उँगलियों को दोनों हाथों से दबोच लेती है।

जब उसकी आँख खुली–दो कोमल हाथ उसका माथा सहला रहे थे। उसकी दृष्टि सामने दीवार पर लगी घड़ी पर पड़ी, साफ दिख रहा है…..बारह बज गए, रात के बारह बजे!

उसने गर्दन घुमाई। सिरहाने समीर बैठा है। घोर उदासी चेहरे पर पुती है। आज तक उसको इतना उदास कभी नहीं देखा।

‘‘अब कैसी हो नीलांजना?’’ उसने भर्राई आवाज़ में पूछा।

‘‘मैं ठीक हूँ समीर। तुम पास में हो तो मुझे कुछ नहीं हो सकता……’’ नीलांजना के होठों पर मुस्कान बिखर गई।

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