यू.के.(बेलफास्ट, आयरलैंड) से दीपक ‘मशाल’ की लघु कथा

मार्च 17, 2010

“मुझे नहीं होना बड़ा”
दीपक ‘मशाल’

आज फिर सुबह-सुबह से शर्मा जी के घर से आता शोर सुनाई दे रहा था. मालूम पड़ा किसी बात को लेकर उनकी अपने छोटे भाई से फिर कलह हो गयी.. बातों ही बातों में बात बहुत बढ़ने लगी और जब हाथापाई की नौबत आ पहुँची तो मुझसे रहा नहीं गया. हालांकि बीच बचाव में मैं भी नाक पर एक घूँसा खा गया और चेहरे पर उनके झगड़े की निशानी कुछ खरोंचें चस्पा हो गयीं, मगर संतोष इस बात का रहा कि मेरे ज़रा से लहू के चढ़ावे से उनका युद्ध किसी महाभारत में तब्दील होने से बच गया. चूंकि मेरे और उनके घर के बीच में सिर्फ एक दीवार का फासला है, लेकिन हमारे रिश्तों में वो फासला भी नहीं. बड़ी आसानी से मैं उनके घर में ज़रा सी भी ऊंची आवाज़ में चलने वाली बातचीत को सुन सकता था. वैसे तो बड़े भाई अमित शर्मा और छोटे अनुराग शर्मा दोनों से ही मेरे दोस्ताना बल्कि कहें तो तीसरे भाई जैसे ही रिश्ते थे लेकिन अल्लाह की मेहरबानी थी कि उन दोनों के बीच आये दिन होने वाले आपसी झगड़े की तरह इस तीसरे भाई से कोई झगड़ा ना होता था.
जिस वक़्त दोनों भाइयों में झगड़ा चल रहा था तब अमित जी के दोनों बेटे, बड़ा ७-८ साल का और छोटा ४-५ साल का, सिसियाने से दाल्हान के बाहरी खम्भों ऐसे टिके खड़े थे जैसे कि खम्भे के साथ उन्हें भी मूर्तियों में ढाल दिया गया हो. मगर साथ ही उनकी फटी सी आँखें, खुला मुँह और ज़ोरों से धड़कते सीने की धड़कनों को देख उनके मूर्ति ना होने का भी अहसास होता था.
झगड़ा निपटने के लगभग आधे घंटे बाद जब दोनों कुछ संयत होते दिखे तो उनकी माँ, सुहासिनी भाभी, दोनों बच्चों के लिए दूध से भरे गिलास लेके आयी..

”चलो तुम लोग जल्दी से दूध पी लो और पढ़ने बैठ जाओ..” भाभी की आवाज़ से उनके उखड़े हुए मूड का पता चलता था
बड़े ने तो आदेश का पालन करते हुए एक सांस में गिलास खाली कर दिया लेकिन छोटा बेटा ना-नुकुर करने लगा..

भाभी ने उसे बहलाने की कोशिश की- ”दूध नहीं पियोगे तो बड़े कैसे होओगे, बेटा..”

”मुझे नहीं होना बड़ा” कहते हुए छोटा अचानक फूट-फूट कर रोने लगा.. ”मुझे छोटा ही रहने दो… भईया मुझे प्यार तो करते हैं, मुझसे झगड़ा तो नहीं करते..”

दीपक ‘मशाल’
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भारत से सुधा अरोड़ा की दो लघुकथाएं

मार्च 10, 2010

परिचय : सुधा अरोड़ा
जन्म : अविभाजित लाहौर (अब पकिस्तान) में ४ अक्टूबर १९४६ को हुआ.
शिक्षा : १९६५ में श्री शिक्षायतन से बी.ए. ऑनर्स और कलकत्ता विश्वविद्याय से एम.ए. (हिंदी साहित्य).
कार्यक्षेत्र : १६५-१९६७ तक कलकत्ता विश्वविद्यालय की पत्रिका “प्रक्रिया” का संपादन, १९६९-१९७१ तक कलकत्ता के दो डिग्री कॉलेजों-श्री शिक्षायतन और आशुतोष कॉलेज के महिला विभाग जोगमाया देवी कॉलेज में अध्यापन, १९७७-१९७८ के दौरान कमलेश्वर के संपादन में कथायात्रा में संपादन सहयोग, १९९३-१९९९ तक महिला संगठन “हेल्प” से संबद्ध, १९९९ से अब तक वसुंधरा काउंसिलिंग सेंटर से संबद्ध.
कहानी संग्रह : बगैर तराशे हुए (१९६७), युद्धविराम (१९७७), महानगर की मैथिली (१९८७), काला शुक्रवार (२००३), कांसे का गिलास (२००४), मेरी तेरह कहानियां (२००५), रहोगी तुम वही (२००७)- हिंदी तथा उर्दू में प्रकाशित और २१ श्रेष्ठ कहानिया (२००९)
उपन्यास :यहीं कहीं तथा घर (२०१०)
स्त्री विमर्श : आम औरत : जिंदा सवाल (२००८),एक औरत की नोटबुक (२०१०), औरत की दुनिया : जंग जारी है…आत्मसंघर्ष कथाएं (शीघ्र प्रकाश्य)
सम्पादन : औरत की कहानी : शृंखला एक तथा दो, भारतीय महिला कलाकारों के आत्मकथ्यों के दो संकलन, ‘दहलीज को लांघते हुए’ और ‘पंखों की उड़ान’, मन्नू भंडारी : सृजन के शिखर : खंड एक
सम्मान :  उत्तर प्रदेश हिन्दी संसथान द्वारा १९७८ में विशेष पुरस्कार से सम्मानित, सन् २००८ का साहित्य क्षेत्र का भारत निर्माण सम्मान तथा अन्य पुरस्कार.
अनुवाद :  कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी तथा ताजिकी भाषाओं में अनूदित
टेलीफिल्म : ‘युद्धविराम, दहलीज़ पर संवाद, इतिहास दोहराता है, तथा जानकीनामा पर दूरदर्शन द्वारा लघु फ़िल्में निर्मित. दूरदर्शन के ‘समांतर’ कार्यक्रम के लिए कुछ लघु फिल्मों का निर्माण. फिल्म पटकथाओं (पटकथा -बवंडर), टी.वी. धारावाहक और कई रेडियो नाटकों का लेखन.
स्तंभ लेखन : १९७७-७८ में पाक्षिक ‘सारिका’ में ‘आम आदमी : जिन्दा सवाल’ का नियमित लेखन, १९९६-९७ में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर एक वर्ष दैनिक अखबार जनसत्ता में साप्ताहिक कॉलम ‘वामा’ महिलाओं के बीच काफी लोकप्रिय रहा, मार्च २००४ से मासिक पत्रिका ‘कथादेश’ में औरत की दुनिया ‘स्तंभ ने अपनी विशेष पहचान बनाई.
संप्रति : भारतीय भाषाओं के पुस्तक केंद्र ‘वसुंधरा’ की मानद निदेशक

भारत से सुधा अरोड़ा की दो लघु कथाएं:

बड़ी हत्या , छोटी हत्या
सुधा अरोड़ा

मां की कोख से बाहर आते ही , जैसे ही नवजात बच्चे के रोने की आवाज आई , सास ने दाई का मुंह देखा और एक ओर को सिर हिलाया जैसे पूछती हो – क्या हुआ? खबर अच्छी या बुरी ।
दाई ने सिर झुका लिया – छोरी ।
अब दाई ने सिर को हल्का सा झटका दे आंख के इशारे से पूछा – काय करुं?
सास ने चिलम सरकाई और बंधी मुट्टी के अंगूठे को नीचे झटके से फेंककर मुट्ठी खोलकर हथेली से बुहारने का इशारा कर दिया – दाब दे !
दाई फिर भी खड़ी रही । हिली नहीं ।
सास ने दबी लेकिन तीखी आवाज में कहा – सुण्यो कोनी? ज्जा इब ।
दाई ने मायूसी दिखाई – भोर से दो को साफ कर आई । ये तीज्जी है , पाप लागसी ।
सास की आंख में अंगारे कौंधे – जैसा बोला, कर । बीस बरस पाल पोस के आधा घर बांधके देवेंगे, फिर भी सासरे दाण दहेज में सौ नुक्स निकालेंगे और आधा टिन मिट्टी का तेल डाल के फूंक आएंगे । उस मोठे जंजाल से यो छोटो गुनाह भलो।
दाई बेमन से भीतर चल दी । कुछ पलों के बाद बच्चे के रोने का स्वर बन्द हो गया ।
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बाहर निकल कर दाई जाते जाते बोली – बीनणी णे बोल आई – मरी छोरी जणमी ! बीनणी ने सुण्यो तो गहरी मोठी थकी सांस ले के चद्दर ताण ली ।
सास के हाथ से दाई ने नोट लेकर मुट्ठी में दाबे और टेंट में खोंसते नोटों का हल्का वजन मापते बोली – बस्स?
सास ने माथे की त्यौरियां सीधी कर कहा – तेरे भाग में आधे दिन में तीन छोरियों को तारने का जोग लिख्यो था तो इसमें मेरा क्या दोष?
सास ने उंगली आसमान की ओर उठाकर कहा – सिरजनहार णे पूछ । छोरे गढ़ाई का सांचा कहीं रख के भूल गया क्या?
…… और पानदान खोलकर मुंह में पान की गिलौरी गाल के एक कोने में दबा ली ।
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सुरक्षा का पाठ
सुधा अरोड़ा

राघव अपनी अमरीकी बीवी स्टेला और दो बच्चों – पॉल और जिनि के साथ भारत लौट रहा है, सुनकर मेरा कलेजा चौड़ा हो गया । आखिर अपना देश खींचता तो है ह। मेरा बेटा राघव तो अमरीका जाने के बाद और भी भारतीय हो गया थ। भारत में रहते चाहे उसने कभी 15 अगस्त और 26 जनवरी के कार्यक्रमों में भाग न लिया हो पर विदेश जाते ही उसने अपनी कम्पनी के भारतीय अधिकारियों को इकट्ठा कर वह इन दिनों के उपलक्ष्य में देशप्रेम के कुछ कार्यक्रम करने लगा था जिसके लिए वह मुझसे फोन पर देशप्रेम की कविताएं और राष्ट्रप्रेम के गीत पूछता और नोट करता। कार्यक्रम की शुरुआत का भाषण भी रोमन अक्षरों में देवनागरी लिखकर मैं ई मेल से उसे भेजती ।
यह अलग बात है कि मैं उसके लिए हिन्दुस्तानी लड़की ढूंढ ही रही थी कि उसने अपनी एक अमरीकी स्टेनो से शादी कर ली। और सातवें महीने ही एक बेटा भी हो गय। साल भर बाद जिनि भी, जो बस चार महीने की ही थी। उसकी तस्वीरें देखी थीं । बिल्कुल राघव की तरह गोरी चिट्टी गोल मटोल गाब्दू सी ।
हमारा चार बेडरूम का घर आबाद होने जा रहा था। एक कमरे में हम दो प्राणी थे और बाकी तीन कमरे रोज की साफ सफाई के बाद मुंह लटकाए पड़े रहते ।
तीनों कमरों का चेहरा धो पोंछकर अब चमका दिया गया था। एक कमरे में राघव के आदेश पर हमने बच्चे का झूला भी डलवा दिया था ।
राघव का परिवार एयरपोर्ट से घर लौटा तो जैसे घर में दीवाली मन रही थी। घर को देखकर राघव के चेहरे पर भी दर्प था जैसे स्टेला से कह रहा हो – देखा मेरा घर। स्टेला पहली बार आ रही थी। राघव से नज़रें मिलते ही बोली – ओह ! यू हैव अ पैलेशियल हाउस ! तुम्हारा घर तो महलों जैसा है. राघव ने मुस्कुराकर उसके कंधे पर हाथ रखा और दूसरे कमरे की ओर इशारा किया जहां हमने बच्चों के लिए दीवार पर मिकि माउस और डोनल्ड डक के चित्र दीवारों पर लगा रखे थे ।
रात को जिनि को झूले में डाल और हमारे कमरे में लगे छोटे दीवान पर पॉल के सोने का बन्दोबस्त कर वे अपने कमरे में सोने के लिए जा रहे थे। मैंने देखा तो कहा – इसे अकेले यहां ……? रात को भूख लगेगी ……तो ……
स्टेला ने मुस्कुराकर कहा – डोंट वरी मॉम ! उसे अपने समय से फीड कर दिया है । अब सुबह से पहले कुछ नहीं देना है ।
मैं राघव की ओर मुखातिब हुई – रात को रोई तो …. राघव ने मुझे सख्त स्वर में कहा – मां , आप अपने कमरे में जाकर सो रहो ……और स्टेला के कंधे को बांहों से घेर कर बेडरूम में चला गया ।
वही हुआ जिसका अन्देशा था। रात को जिनि की भीषण चीख पुकार से नींद खुलनी ही थी । बच्ची चिंघाड़ चिंघाड़ कर रो रही थी ।
पॉल मेरे कमरे में मजे से तकिया भींचे सो रहा था। मैं उठी और बच्ची को बांहों में ले आई । उसकी नैपी भीगी थी। उसे बदला। थोड़ी देर कंधे पर लगा पुचकारा, मुंह में चूसनी भी डाली पर उसका रोना जारी रहा। फिर न जाने कैसे याद आया – राघव जब बच्चा था, अपनी छाती पर उसे उल्टा लिटा देती थी। बस , वह सारी रात मेरी छाती से चिपका सोया रहता था। जिनि पर भी वही नुस्खा कारगर सिद्ध हुआ। मेरी धड़कन में उस बच्ची की धड़कनें समा गईं और वह चुपचाप सो ग। थोड़ी देर बाद मैं जाकर उसे उसके झूले में डाल आई ।
तीन दिन यही सिलसिला चलता रहा। रात को वह सप्तम सुर में चीखती। मैं उसे उठाती और कुछ देर बाद वह मेरे सीने पर उल्टे होकर सो जाती। लगता जैसे छोटा राघव लौट आया है। बीते दिनों में जीना इतना सुकून दे सकता है, कभी सोचा न था।
चौथे दिन सुबह अचानक नीन्द खुली, देखा तो राघव और स्टेला गुड़िया सी जिनि को मेरे सीने पर से उठा कर चीख रहे थे ।
तभी …… तभी हम सोच रहे थे कि आजकल जिनि के रात को रोने की आवाज़ क्यों नहीं आती है? मां, आपका जमाना गया । बच्चे को रोने देना बच्चे के फेफड़ों के लिए कितना जरूरी है, आपको नहीं मालूम। डॉक्टर की सख्त हिदायत है कि वह अपने आप रो चिल्लाकर चुप होना और सोना सीख जाएगी। आप क्यों उसकी आदतें खराब करने पर तुलीं है?
मैंने उनके रूखे ऊंचे सुर को नज़रअन्दाज करते हुए हंसकर कहा – आखिर तेरी ही बेटी है, तुझे भी तो ऐसे ही मेरे सीने पर उल्टे लेटकर नीन्द आती थी …. याद नहीं …..?
मैंने राघव को उसके पैंतीस साल पहले के बचपन में लौटाने की एक फिजूल सी कोशिश की।
मां, प्लीज स्टॉप दिस नॉनसेंस। आप बच्चों को तीस साल पहले के झूले में नहीं झुला सकतीं। उन्हें इण्डिपेण्डेंट होना बचपन से ही सीखना है …… आप अपने तौर तरीके, रीति रिवाज भूल जाइए ….
मैं चुप। याद आया अमेरिका में पॉल के जन्म के बाद हम लंबी ड्राईव पर नियाग्रा फॉल्स देखने जा रहे थे। गाड़ी में पॉल को पिछली सीट पर उसकी बेबी सीट पर तमाम जिरह बख्तर से बांध दिया गया था। रास्ते में वह दाएं बाएं बेल्ट में कसा फंसा बुक्का फाड़कर रो दिया। मैंने जैसे ही उसे उसमें से निकाल कर गोद में लेना चाहा, राघव ने कस कर डांट लगाई – अभी पुलिस पकड़ कर अन्दर कर देगी। चलती गाड़ी में बच्चे को गोद में उठाना मना है ।
मैं हाथ बांधे बैठी रही थी। नियाग्रा फॉल्स के आंखों को बेइन्तहा ठण्डक पहुंचाने वाले पानी के तेज तेज गिरने के शोर में भी मुझे पॉल के मुंह फाड़कर रोने का सुर ही सुनाई देता रहा । आज भी नियाग्रा फॉल्स की स्मृतियों में दोनों शोर गड्डमड्ड हो जाते हैं ।
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अब जिनि रोती है तो सब सोते रहते हैं पर मेरी नींद उखड़ जाती है। सोचती हूं बस, कुछ ही दिनों की बात है। राघव स्टेला पॉल और जिनि सब चले जाएंगे। तब तक मुझे सब्र करना है। जिनि के आधी रात के रोने को अपनी धड़कनों में नहीं बांधना है । उसे अभी से आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ते हुए देख रही हूं और अंधेरे में और गहराते अंधेरे को पहचानने की कोशिश करती रहती हूं ……
सचमुच कुछ समय बाद ऐसी चुप्पी छाती है कि वह सन्नाटा कानों को खलने लगता है।
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प्रेषक : महावीर शर्मा


यू.के. से डॉ. गौतम सचदेव की दो लघुकथाएं

मार्च 3, 2010

उपद्रवी
डॉ. गौतम सचदेव

किंग्स क्रॉस स्टेशन से बाहर निकलते ही रविन्दर सिंह बायें मुड़कर उस लगभग ख़ाली और छोटी-सी गली की ओर चल पड़ा, जहाँ उसने एक खंभे के सहारे अपनी साइकिल खड़ी की थी और हर रोज़ की तरह ज़ंजीर और ताले के द्वारा उसे खंभे से बाँध दिया था । चूँकि लंदन में साइकिल चोर ताला लगा होने पर भी प्रायः उसका अगला पहिया ही चुराकर ले जाते हैं, इस लिये रविन्दर ने अगला पहिया उतारकर पिछले के आगे रखा था और फिर दोनों पहियों में ताले वाली ज़ंजीर डाली थी । साइकिल को उसी स्थान पर छोड़कर वह रोज़ गाड़ी से केम्ब्रिज जाया करता था और पढ़ाई करने के बाद शाम को गाड़ी से ही लौटता था । वह एक फ़िल्मी गीत गुनगुना रहा था और मस्ती भरे क़दमों से ताल देता हुआ चल रहा था ।

साइकिल के पास पहुँचकर वह ज्योंही ताला खोलने के लिये झुका, उसके कानों में आवाज़ आई – एइ हालोवीन । जब तक रविन्दर मुड़कर देखता कि आवाज़ कसने वाला कौन है, उसके कानों से एक और फ़िक़रा टकराया – व्हाइ हैव यू मेड अ डोम ऑन द हैड (सिर पर गुम्बद क्यों बनाया है) ? रविन्दर समझ गया कि नस्लपरस्त आवारागर्द लड़के हैं, जो एशियाइयों पर अपमानजनक फ़िक़रे उछालते रहते हैं । उनकी ओर बिना देखे उसने चुपचाप ताला खोला और फिर साइकिल के अगले पहिये को यथास्थान फ़िट करने में जुट गया ।

अचानक किसी ने उसकी पीठ पर ठोकर मारी और वह औंधे मुँह गिरते-गिरते बचा । रविन्दर उठकर खड़ा हो गया । तीन गोरे लड़के उसके सामने खड़े थे । स्किनहेड्स के जीते-जागते नमूने, मुंडित मस्तक गुंडे, जिनकी आँखों से लगता था कि शरारत करना उनकी मनपसंद हॉबी है । एक के मुँह में सिगरेट थी, दो की उँगलियों में । “हैलो पाकी पिग” कहते हुए एक गुंडे ने हाथ मारकर रविन्दर की पगड़ी उछाल दी । इससे पहले कि रविन्दर अपनी पगड़ी उठाता, दूसरे गुंडे ने सिगरेट आगे बढ़ाकर उसे जलाना चाहा, जबकि तीसरे गुंडे ने उसे अड़ंगी देकर गिरा दिया । रविन्दर अब भी उनसे उलझना नहीं चाहता था । वह चुपचाप उठकर अपनी पगड़ी की ओर जाने लगा ।
गुंडों के लिये पगड़ी तब तक फ़ुटबॉल बन चुकी थी और फ़ुटपाथ तक पहुँच चुकी थी।
तड़ाक ।

मझोले क़द के लेकिन गठे हुए शरीर वाले रविन्दर का इस्पाती हाथ पगड़ी से खेलने वाले गुंडे के गाल पर पड़ा । यह देखकर बाक़ी दोनों गुंडे रविन्दर को पीटने के लिये हुँकारते हुए आगे बढ़े । रविन्दर ताले वाली ज़ंजीर को कुशल खिलाड़ी की तरह घुमाने लगा । एक गुंडे की कनपटी पर ताले ने बहुत गहरा घाव किया । उसने दूसरी बार ज़ंजीर को घुमाकर दूसरे गुंडे के जबड़े के पेंच ढीले कर दिये । अपने साथियों की यह हालत देखकर ज्योंही तीसरा गुंडा रविन्दर को मारने के लिये आगे बढ़ा, ज़ंजीर का भरपूर वार उसके माथे पर भी पड़ा । तीनों गुंडे घायल बाघों की तरह रविन्दर पर एक साथ झपटे, लेकिन वह ज़ंजीर को इस तरह घुमा रहा था, जैसे सुदर्शन चक्र हो । तब तक सामने के फ़्लैट वाले ने पुलिस को फ़ोन कर दिया था । पलक झपकते ही पुलिस वहाँ पहुँच गई, जिसने चारों को गिरफ़्तार कर लिया ।

चारों को मजिस्ट्रेट के आगे पेश करते हुए पुलिस ने बताया कि रविन्दर सार्वजनिक स्थान पर उपद्रव मचा रहा था और उसने एक ख़तरनाक हथियार से तीन राहगीरों को गम्भीर चोटें पहुँचाई हैं । पुलिस ने यह भी कहा कि हमें रविन्दर के मानसिक रूप से स्वस्थ होने में सन्देह है ।

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प्रतिकार
डॉ. गौतम सचदेव

नरेन्द्र डबल डेकर बस के ऊपरी तल्ले में अकेला बैठा लन्दन के दृश्य देखता जा रहा था । दो गोरी लड़कियाँ अपने जूतों से ठक-ठक करतीं ऊपर आईं और आकर नरेन्द्र के पीछ वाली सीट पर बैठ गईं । उन्होंने आते ही नरेन्द्र में ऐसी दिलचस्पी लेना शुरू किया, जैसी शैतान बच्चे चिड़ियाघर में कोई विचित्र जानवर देखने पर लेते हैं । वे उसे छेड़ने और उसका मज़ाक़ उड़ाने लगीं । नरेन्द्र ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की और पहले की तरह चुपचाप खिड़की के बाहर देखता रहा । लड़कियों को और मज़ा आया । एक ने उसके कन्धे को थपथपाया और ठठाकर हँसने लगी । दूसरी ने सीट के नीचे से अपना पैर आगे बढ़ाते हुए जूते से नरेन्द्र की टाँग पर ठोकर मारी । नरेन्द्र को बुरा लगा । उसने मुँह घुमाकर लड़कियों से पूछा – तुम्हें क्या तक़लीफ़ है ? लड़कियों को उसका सवाल सुनकर और मज़ा आया । उन दोनों में जो ज़रा बड़े क़द वाली और मुटल्ली-सी थी, उसने जवाब देने की बजाय सवाल दाग़ा – क्या तुम कॉकरोच नहीं हो ? इसके साथ ही दूसरी लड़की ने कहा – ज़मीन पर लेटकर टाँगें चलाओ न, बैठे क्यों हो ? यह कहकर दोनों लड़कियों ने नरेन्द्र को सीट से घसीटकर गिराना चाहा ।

दोनों लड़कियों ने यह नहीं देखा कि स्टॉप पर बस रूकी थी और दो-तीन सवारियाँ सीढ़ियों से ऊपर आ रही थीं । नरेन्द्र ने ख़ुद को उन लड़कियों से छुड़ाया और उठकर एकदम अगली सीट पर जा बेठा । लड़कियों के साथ हुई हाथापाई में न जाने कैसे उसके हाथ एक लड़की की घड़ी आ गई थी । उसे अच्छा लगा और उसने चुपचाप घड़ी जेब में रख ली । अगला स्टॉप आने पर लड़कियों ने बस रुकवाने के लिये घंटी बजाई । जब वे सीढ़ियाँ उतरने लगीं, तो दोनों ने पहले नरेन्द्र को कॉकरोच कहा, फिर दो उँगलियों उठाकर अश्लील इशारा किया और छलाँग लगाते हुए बस से बाहर कूद गईं ।

नरेन्द्र को अपनी नपुंसकता पर ग़ुस्सा आया, लेकिन इस बात की ख़ुशी भी हुई कि चलो, बेइज़्ज़ती करवाकर भी घड़ी तो मिल गई । दो-तीन स्टॉप बाद जब वह उतरने के लिये खड़ा हुआ, तो बजाय निकास द्वार की ओर जाने के सीधा ड्राइवर की ओर बढ़ गया और उसे घड़ी देते हुए बोला – यह शायद किसी सवारी की है । ऊपर की सीट पर पड़ी थी ।

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यू.के. से नीरा त्यागी की लघुकथा

फ़रवरी 24, 2010

गले से गले को लगाती रहे : लुभाती रहे मन सुहाती रहे
सदा होली रंगीं बनाती रही : सदा होली रंगीं बनाती रहे
प्राण शर्मा


उनकी नीली आँखों में अनगिनत किरणों की रौशनी..
नीरा त्यागी

समुद्र कि लहरें उनके पाँव को चारों तरफ से चूमती हैं..उनकी घुटनों तक मुड़ी जींस को छू कर लौट जाती हैं उन्हें दोबारा भिगोने के लिए … समुद्र ने सूरज को अपने भीतर छुपाने से पहले हाथों में ऊपर उठा रखा है ताकि सब उसे गौर से देख लें…आज की तारीख का सूरज देखने का यह आखरी मौका है… उसका रंग पीले से नारंगी हो चला है .. पर्यटक अपनी चटाई, तौलिये, फ्लास्क, छतरी, सेंडविच बॉक्स समेट रहे हैं … घोड़ेवाला बच्चों को घोड़े पर आखरी सवारी दे रहा है … आइसक्रीम वाले के पास अब सिर्फ वेनीला और मिंट फ्लेवर की आइसक्रीम बची है, तट पर चार पांच साल का लड़का रेत का महल पेरों तले रोंद कर खुश हो रहा है और उसकी बड़ी बहन उसकी दीवारें और छत बचाने कि कोशिश में उसे धक्का दे रही है…. उनकी माँ चिल्ला रही है ‘उसे रोंद लेने दो वैसे भी लहरें बहा ले जायेंगी यह महल…’ तट पर हलचल कम होने लगी है तो सामने सड़क पर बढ़ गई है और सड़क के उस पार दुकानों पर दिवाली जैसी जगमगाहट है …

रेचल पहली बार अपने गाँव से बाहर निकली है उसका गाँव यहाँ से अस्सी किलोमीटर कि दूरी पर है, इससे पहले उसने चहल-पहल गाँव में हर रविवार लगने वाले बाज़ार में देखी है. यहाँ पहली बार उसने समुद्र और शहर कि जगमगाहट देखी है. गाँव में एक ही बेकरी है, रेचल उसमें काम करती है जहाँ पर हर रोज राबर्ट लंच टाइम में सेंडविच और केक खरीदने आता था … रॉबर्ट गाँव से बाहर एक ऊन की फेक्ट्री बन रही है जिसमें क्रेन चलाने का काम करता है उसे पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी क्योंकि सोलह वर्ष के होते ही उसके पिता ने खर्चा देने से इनकार कर दिया …

रेचल को जो भी सीपी नज़र आती है वो उठा लेती है और उसे रॉबर्ट कि कमीज़ की जेब में डाल देती है… उसके क़दमों के साथ सीपियाँ छनक रही हैं पार्श्व में लहरों का संगीत सातवें स्वर में उनका साथ दे रहा है, ढेर सारा जीवन बिखरा पड़ा है गीले रेत पर पाँव के निशाँ में, लहरों में उबलते बुलबुलों में, हवा के साथ डोलते जहाज़ों में, नीले पानी में घुलती किरणों कि लाली में, आकाश में उड़ते परिंदों कि कतारों में, सड़क पर झिलमिलाती रौशनी में, कैफे से उड़ती मछली कि महक में, एम्यूजमेंट की मशीनों से आते शोर में …. वे समेट रहे हैं यह जीवन रेत में पड़ी सीपियों के साथ अपने ख़्वाबों में ….
दोनों थक कर बेंच पर बैठ जाते हैं …. रेचल का गुलाबी रंग नारंगी रौशनी में चमक रहा है. दोनों की नीली आँखे डूबते सूरज की अनगिनत किरणों को सोख रही हैं …. रेचल ने अपना सर रॉबर्ट के कन्धों पर टिका लिया है. दोनों की उम्र उनीस वर्ष है यह उनके हनीमून का आखरी दिन है… उनकी आँखों में वो सभी ख्वाब दस्तक दे रहे हैं जो प्यार के समुद्र में गोता लगाने आसमान से उतर कर आते हैं फिर नींद में बस जाते हैं … उन्होंने फैसला किया है उनके कुछ ख्वाब नींद से ज़मीन पर उतरेंगे … वह शादी कि पच्चीसवी सालगिरह यहीं मनाएंगे इसी तट पर, इसी बेंच पर, यहीं सूरज के सामने … वह दो बच्चे अगले दो वर्ष में पैदा करेंगे…उन्हे एक साथ पाल-पोस कर बड़ा करके … वह रेचल का दुनिया घूमने का सपना पूरा करेगा … वहां से लौट कर वह यूनिवेर्सिटी में दाखला लेगा और डिग्री की पढ़ाई पूरी करेगा ….

आज वो दोबारा से उसी बेंच पर बैठे हैं राबर्ट के माथे के ऊपर से सर से कुछ बाल उड़ गए हैं और रेचल के बाल कुछ ज्यादा सुनहरे हो गए हैं एक वर्ष पहले उनका तेईस वर्षीय बेटा माइकल इराक़ कि लड़ाई में मारा गया.. वह पेट्रोल से भरी लारी चला रहा था जिस पर किसी ने हेंड ग्रेनेड फेंक दिया…बेटे कि जगह उन्हे सरकार से कुछ पैसे, उसका सूटकेस और उसके दोस्तों से आखिर के दिनों में खींचे फोटो मिले … उसकी गर्भवती पत्नी एलिक्स को गहरा सदमा लगा था. छ: महीने बाद बेटे के जन्म के समय उसे ब्रेन हेमरेज हो गया…. उनकी बेटी लिज़ जो माइकल से एक साल बड़ी है बचपन में दादा के फार्म पर जाकर रहा करती, उसके दादा ने उसका यौन शोषण किया, उस दर्द से छुटकारा पाने के लिए उसने हिरोइन का सहारा लिया, जब वो माँ बनी उसे बच्ची के पिता का नाम तक ना मालूम था… अपनी बच्ची को वह बहुत प्यार करती थी .. अपने आप को काबिल माँ बनाने के लिए वह एक वर्ष रिहाब में रही….फिर भी सोशल सर्विस ने बेटी को चिल्ड्रेन होम से माँ के पास नहीं लौटने दिया .. लिज़ वर्तमान से दूर भागने के लिए फिर से जाने- पहचाने पुराने रास्तों की तरह मुड़ ली … राबर्ट और रेचल को नातिन की कस्टडी के लिए कोर्ट में केस करना पड़ा जिसे वह दो साल बाद जीत गए….

आज भी चारों तरह बहुत सारा जीवन बिखरा पड़ा है. राबर्ट की गोदी में एक जीवन आँखे मूंदे दाये हाथ का अंगूठा चूस रहा है और दूसरा जीवन रेचल और रॉबर्ट के बीच बैठा बाएं हाथ की अंगुली उठा-उठा कर मुश्किल से मुश्किल सवाल पूछ रहा है जिसका वो बारी-बारी मुस्कुरा कर जवाब दे रहे हैं … आज भी समुन्द्र उनके पेरों को चूम रहा है, सूरज को उसने हाथों में उठा रखा है … राबर्ट के हाथ रेचल के कंधे पर है उनके सपने भले ही फिर से पचीस साल के लिए सूरज के साथ समुद्र में छिप गए हैं किन्तु पचीस साल पहले किया सूरज और समुद्र से इस बेंच पर मिलने का वादा उन्होंने निभाया है… आज भी उनकी नीली आँखों में अनगिनत किरणों की रौशनी है जो उन्होंने दशकों पहले सोखी थी ..

नीर त्यागी

यू.के. से प्राण शर्मा की दो लघुकथाएं

फ़रवरी 17, 2010


“वक़्त वक़्त की बात”
प्राण शर्मा

सरिता अरोड़ा की देवेन्द्र साही से जान-पहचान कालेज के दिनों से ही है. कभी दोनों में एक-दूसरे के प्रति प्यार भी जागा था. आज देवेन्द्र साही का फिल्म उद्योग में अच्छा-खासा नाम है. फिल्म उद्योग उसके काम को अच्छी नज़र से देखता है. उसने एक नहीं, तीन-तीन हिट फ़िल्में दी हैं. उसकी फ़िल्में साफ़-सुथरी होती हैं.

सरिता अरोड़ा के के मन में इच्छा जागी कि क्यों न वो अपनी रूपवती बेटी अरुणा अरोड़ा को हीरोइन बनाने की बात देवेन्द्र साही से कहे. मन में इच्छा जागते ही उसने मुम्बई का टिकेट लिया और जा पहुँची अपने पुराने मित्र के पास.

देवेन्द्र साही सरिता अरोड़ा के मन की बात सुनकर बोला, “देखो सरिता, ये फिल्म जगत है. इसके रंग-ढंग बड़े निराले हैं. देखो -सुनोगी तो तुम दांतों तले अपनी उँगलियाँ दबा लोगी. हर हीरोइन को अपने तन पर पारदर्शी कपड़े पहनने पड़ते हैं. कभी-कभी तो उसे निर्वस्त्र भी —– “.
“तो क्या हुआ? हम सभी कौन से वस्त्र पहनकर पैदा हुए थे? सभी इस संसार में निर्वस्त्र ही तो आते है—— ”
सरिता अरोड़ा अपनी बात कहे जा रही थी और देवेन्द्र साही मुँह पर हाथ रखे सोचे जा रहा था कि क्या ये वही सरिता अरोड़ा है जो अपने तन को पूरी तरह ढक कर कालेज आया करती थी.
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“आपका क्या जाता है?”
प्राण शर्मा

मेरे मोहल्ले में तीन ऐसे मियां-बीवी के जोड़े हैं जो अपने-अपने कारनामों यानि विचारों की अभिन्नता के लिए मोहल्ले के अन्य मियां-बीवी के जोड़ों में खूब जाने जाते हैं.

मियां-बीवी का पहला जोड़ा है धनीराम जी और लक्ष्मी देवी का. इस जोड़े के जीवन का एक ही मक़सद है धन कमाना और जोड़ते ही रहना. यह जोड़ा कमाता तो बहुत है लेकिन खर्च कम करता है. खर्च करने के मामले में वह जोड़ा चमड़ी जाए, दमड़ी नहीं जाए की उक्ति को पूरी तरह चरितार्थ करता है.

एक दिन मैंने धनीराम जी से पूछ ही लिया “सुना है कि आप मियां बीवी कमाते तो बहुत हैं लेकिन खर्च कम करते हैं?”

मेरा प्रश्न सुनते ही धनीराम जी उत्तर में बोले- “हजूर, आपने सत्य सुना है. हम बुढापे के लिए जोड़ते हैं. हम भी आपसे एक बात पूछते हैं. हम अगर कम खर्च करते हैं और ज्यादा जोड़ते हैं तो आपका क्या जाता है? “

दूसरा जोड़ा है सुखीराम और आनंदी का. जैसा नाम वैसा काम. दोनों सुख और आनंद में खाते–पीते और जीते हैं. जितना कमाते हैं उतना उड़ाते हैं. छुट्टियों में में कहीं न कहीं सैर-सपाटे को निकल जाते हैं. उनका भव्य मकान और नयी-नकोर कार को देखकर कोई जलता है और कोई हाथ मलता है.

एक दिन मैंने सुखीराम जी से पूछ ही लिया- “सभी आपके अच्छे रहन-सहन से जलते हैं. ये देख-सुनकर क्या आप दुखी नहीं होते हैं?”
मेरा प्रश्न सुनते ही सुखीराम जी उत्तर में बोले – ” नहीं, बिलकुल नहीं. लोगों के जलने और हाथ मलने से हम दुखी क्यों हों? इतनी फुर्सत ही कहाँ हैं हमें. लेकिन एक बात आपसे पूछते हैं हम – “हमारा रहन -सहन अच्छा है तो आपका क्या जाता है?”

तीसरा जोड़ा है भोलेराम और सुशीला का. मोहल्ले भर में सबसे ज्यादा चर्चित जोड़ा. शादी से लेकर अब तक यानि बारह सालों में दोनों ने मिलकर ग्यारह बच्चों की कतार लगा दी है. बारहवां बच्चा भी कतार में लगने वाला है इस साल के मध्य में. अड़ोसी- पड़ोसी सभी ने दाँतों तले उँगलियाँ दबा रखी हैं.

एक दिन भोले राम जी से मैंने आश्चर्य में पूछ ही लिया- “किस चक्की का आटा खाते हैं आप ? इतने बच्चे, राम दुहाई ?”
मेरा प्रश्न सुनते ही भोले राम जी उत्तर में बोले –  ” हम तो उसी चक्की का आटा खाते हैं जिस चक्की का आटा आप खाते हैं. कैसी राम दुहाई, अपना तो यही है मनोरंजन भाई. लेकिन एक बात आपसे हम पूछते हैं -“अगर हमारे ढेर सारे बच्चे हैं तो आपका क्या जाता है ?

प्राण शर्मा

भारत से सुकेश साहनी की दो लघुकथाएं

फ़रवरी 10, 2010
सुकेश साहनी
जन्म : 5 सितम्बर, 1956(लखनऊ)
शिक्षा : एम.एस-सी. (जियोलॉजी), डीआईआईटी (एप्लाइड हाइड्रोलॉजी) मुम्बई से।
कृतियां : डरे हुए लोग, ठण्डी रजाई (लघुकथा-संग्रह), मैग्मा और अन्य कहानियां, (कहानी-संग्रह), अक्ल बड़ी या भैंस (बालकथा-संग्रह), लघुकथा संग्रह पंजाबी,गुजराती,मराठी एवं अंग्रेजी में भी उपलब्ध। मैग्मा कहानी सहित अनेक लघुकथाएँ, जर्मन भाषा में अनूदित। अनेक रचनाएँ पाठयक्रम में शामिल `रोशनी´ कहानी पर दूरदर्शन के लिए टेलीफिल्म।
अनुवाद : खलील जिब्रान की लघुकथाएँ, पागल एवं अन्य लघुकथाएँ, विश्व प्रसिद्ध लेखकों की चर्चित कहानियाँ।
सम्पादन : हिन्दी लघुकथा की पहली वेब साइट http://www.laghukatha.com का वर्ष 2000 से सम्पादन। आयोजन, महानगर की लघुकथाएँ, स्त्री-पुरुष संबंधों की लघुकथाएँ, देह व्यापार की लघुकथाएँ, बीसवीं सदी : प्रतिनिधि लघुकथाएँ, समकालीन भारतीय लघुकथाएँ, बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ ।
सम्मान : डॉ.परमेश्वर गोयल लघुकथा सम्मान 1994,माता शरबती देवी पुरस्कार 1996, डॉ. मुरली मनोहर हिन्दी साहित्यिक सम्मान 1998, बरेली कालेज, बरेली-स्वर्ण जयन्ती सम्मान 1998, माधवराव सप्रे सम्मान 2008 ।
सम्प्रति : भूगर्भ जल विभाग में हाइड्रोलॉजिस्ट।

दीमक
सुकेश साहनी

“किसन !—” बड़े साहब ने चपरासी को घूरते हुए पूछा, “तुम मेरे कक्ष से क्या चुराकर ले जा रहे थे?”
“ कुछ नहीं साहब।”
“झूठ मत बको!—” बड़े साहब चिल्लाए, “चौकीदार ने मुझे रिपोर्ट किया है, तुम डिब्बे में कुछ छिपाकर ले जा रहे थे—क्या था उसमें? सच-सच बता दो नहीं तो मैं पुलिस में तुम्हारे खिलाफ—”
“नहीं—नहीं साहब! आप मुझे गलत समझ रहे हैं—” किसन गिड़गिड़ाया, “मैं आपको सब कुछ सच-सच बताता हूँ—मेरे घर के पास सड़क विभाग के बड़े बाबू रहते हैं, उनको दीमक की जरूरत थी, आपके कक्ष में बहुत बड़े हिस्से में दीमक लगी हुई है । बस—उसी से थोड़ी-सी दीमक मैं बड़े बाबू के लिए ले गया था। इकलौते बेटे की कसम !—मैं सच कह रहा हूँ ।”
“बड़े बाबू को दीमक की क्या जरूरत पड़ गई !” बड़े साहब हैरान थे।
“मैंने पूछा नहीं,” अगर आप कहें तो मैं पूछ आता हूँ ।”
“नहीं—नहीं,” मैंने वैसे ही पूछा, “—अब तुम जाओ।” बड़े साहब दीवार में लगी दीमक की टेढ़ी-मेढ़ी लंबी लाइन की ओर देखते हुए गहरी सोच में पड़ गए।
“मिस्टर रमन!” बड़े साहब मीठी नज़रों से दीवार में लगी दीमक की ओर देख रहे थे, “आप अपने कक्ष का भी निरीक्षण कीजिए, वहां भी दीमक ज़रूर लगी होगी, यदि न लगी हो तो आप मुझे बताइए, मैं यहाँ से आपके केबिन में ट्रांसफर करा दूँगा। आप अपने खास आदमियों को इसकी देख-रेख में लगा दीजिए, इसे पलने-बढ़ने दीजिए । आवश्यकता से अधिक हो जाए तो काँच की बोतलों में इकट्ठा कीजिए, जब कभी हम ट्रांसफर होकर दूसरे दफ्तरों में जाएँगे, वहाँ भी इसकी ज़ररूरत पड़ेगी।”
“ठीक है, सर! ऐसा ही होगा—” छोटे साहब बोले।
“देखिए—” बड़े साहब का स्वर धीमा हो गया-“हमारे पीरियड के जितने भी नंबर दो के वर्क-आर्डर हैं, उनसे सम्बंधित सारे कागज़ात रिकार्ड रूम में रखवाकर वहाँ दीमक का छिड़काव करवा दीजिए—न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।”
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विजेता
सुकेश साहनी

“बाबा, खेलो न!”
“दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँ तुम्हें ढूँढ रही होगी।”
“माँ को पता है- मैं तुम्हारे पास हूँ । वो बिल्कुल परेशान नहीं होगी। पकड़म-पकड़ाई ही खेल लो न !”
“बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है ।”
“मुझे नहीं खेलना उनके साथ । वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते ।” अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला, “मेरा खाना तो माँ बनाती है , तुम्हारी माँ कहाँ है?”
“मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गयी थी।” नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कराकर कहा ।
“बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नज़दीक आकर उसका झुर्रियों भरा चेहरा अपने नन्हें हाथों में भर लिया,” अब तुम्हें अपना खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं, मै माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!”
“दोस्त!” बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, “अपना काम खुद ही करना चाहिए—और फिर—अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ—है न !”
“और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।”
“तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगें ।” बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा । बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।
कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गये। बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पटटी बाँधने लगा ।
पटटी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया- मोतियाबिन्द के आपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिल्कुल खत्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेजी से क्षीण होती जा रही थी।
“बाबा,पकड़ो—पकड़ो!” बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था।
उसने बच्चे को हाथ पकड़ने के लिए हाथ फैलाए तो एक विचार उसके मस्तिक में कौंधा- जब दूसरी आँख से भी अंधा हो जाएगा—तब?—तब?—वह—क्या करेगा?—किसके पास रहेगा?—बेटों के पास? नहीं—नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया—हर बार अपमानित होकर लौटा है—तो फिर?—
“मैं यहाँ हूँ—मुझे पकड़ो!”
उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से कदम बढ़ाए—हाथ से टटोलकर देखा—मेज—उस पर रखा गिलास—पानी का जग—यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई—और –और—यह रहा बिजली का स्विच—लेकिन —तब—मुझ अंधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी?—होगी—तब भी रोशनी की ज़रुरत होगी—अपने लिए नहीं—दूसरों के लिए—मैंने कर लिया—मैं तब भी अपना काम खुद कर लूँगा!”
“बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए—तुम हार गए—तुम हार गए!” बच्चा तालियाँ पीट रहा था।
बूढ़े की घनी सफेद दाढ़ी के बीच होंठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी।
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आगामी अंक:
बुद्धवार, 17 फरवरी 2010

यू.के. से प्राण शर्मा
की दो लघुकथाएं

भारत से रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की दो लघुकथाएँ

फ़रवरी 3, 2010
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
जन्म : 19 मार्च,1949
शिक्षा : एम ए-हिन्दी (मेरठ विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में) ,बी एड
प्रकाशित रचनाएँ : ‘माटी, पानी और हवा’, ‘अंजुरी भर आसीस’, ‘कुकडूँ कूँ’, ‘हुआ सवेरा’ (कविता संग्रह), ‘धरती के आँसू’,’दीपा’,’दूसरा सवेरा’ (लघु उपन्यास), ‘असभ्य नगर'(लघुकथा “संग्रह),खूँटी पर टँगी आत्मा( व्यंग्य –संग्रह) , भाषा -चन्दिका (व्याकरण ) ,अनेक संकलनों में लघुकथाएँ संकलित तथा गुजराती, पंजाबी, उर्दू एवं नेपाली में अनूदित।
सम्पादन : आयोजन ,नैतिक कथाएँ(पाँच भाग), भाषा-मंजरी (आठ भाग)बालमनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ एवं http://www.laghukatha.com (लघुकथा की एकमात्र वेब साइट), http://patang-ki-udan.blogspot.com/ (बच्चों के लिए ब्लॉगर)
वेब साइट पर प्रकाशन : रचनाकार ,अनुभूति, अभिव्यक्ति,हिन्दी नेस्ट,साहित्य कुंज ,लेखनी,इर्द-गिर्द ,इन्द्र धनुष ,उदन्ती ,कर्मभूमि आदि ।
प्रसारण : आकाशवाणी गुवाहाटी ,रामपुर, नज़ीबाबाद ,अम्बिकापुर एवं जबलपुर से ।
निर्देशन : केन्द्रीय विद्यालय संगठन में हिन्दी कार्य शालाओं में विभिन्न स्तरों पर संसाधक(छह बार) ,निदेशक (छह बार) एवं : केन्द्रीय विद्यालय संगठन के ओरियण्टेशन के फ़ैकल्टी मेम्बर के रूप में कार्य
सेवा : 7 वर्षों तक उत्तरप्रदेश के विद्यालयों तथा 32 वर्षों तक केन्द्रीय विद्यालय संगठन में कार्य । केन्द्रीय विद्यालय के प्राचार्य पद से सेवा निवृत्त

लघुकथा
धर्म-निरपेक्ष
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

शहर में दंगा हो गया था। घर जलाए जा रहे थे। छोटे बच्चों को भालों की नोकों पर उछाला जा रहा था। वे दोनों चौराहे पर निकल आए। आज से पहले उन्होंने एक-दूसरे को देखा न था। उनकी आँखों में खून उतर आया। उनके धर्म अलग-अलग थे। – पहले ने दूसरे को मां की गाली दी, दूसरे ने पहले को बहिन की गाली देकर धमकाया। दोनों ने अपने-अपने छुरे निकाल लिए। हड्डी को चिचोड़ता पास में खड़ा हुआ कुत्ता गुर्रा उठा। वे दोनों एक-दूसरे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। हड्डी छोड़कर कुत्ता उनकी ओर देखने लगा।
उन्होंने हाथ तौलकर एक-दूसरे पर छुरे का वार किया। दोनों छटापटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। जमीन खून से भीग गई।
कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी-बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और फिर सूखी हड्डी चबाने में लग गया।

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लघुकथा
खुशबू
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

दोनों भाइयों को पढ़ाने-लिखाने में उसकी उम्र के खुशनुमा साल चुपचाप बीत गए। तीस वर्ष की हो गई शाहीन इस तरह से। दोनों भाई नौकरी पाकर अलग-अलग शहरों में जा बसे।
अब घर में बूढ़ी माँ है और जवानी के पड़ाव को पीछे छोड़ने को मजबूर वह।
खूबसूरत चेहरे पर सिलवटें पड़ने लगीं। कनपटी के पास कुछ सफेद बाल भी झलकने लगे। आईने में चेहरा देखते ही शाहीन के मन में एक हूक-सी उठी-‘कितनी अकेली हो गई है मेरी जिन्दगी! किस बीहड़ में खो गए मिठास-भरे सपने?’
भाइयों की चिट्ठियाँ कभी-कभार ही आती हैं। दोनों अपनी गृहस्थी में ही डूबे रहते हैं। उदासी की हालत में वह पत्र-व्यवहार बंद कर चुकी है। सोचते-सोचते शाहीन उद्वेलित हो उठी। आँखों में आँसू भर आए। आज स्कूल जाने का भी मन नहीं था। घर में भी रहे तो माँ की हाय-तौबा कहाँ तक सुने?
उसने आँखें पोंछीं और रिक्शा से उतरकर अपने शरीर को ठेलते हुए गेट की तरफ कदम बढ़ाए। पहली घंटी बज चुकी थी। तभी ‘दीदीजी-दीदीजी’ की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ।
“दीदीजी, यह फूल मैं आपके लिए लाई हूँ।” दूसरी कक्षा की एक लड़की हाथ में गुलाब का फूल लिए उसकी तरफ बढ़ी।
शाहीन की दृष्टि उसके चेहरे पर गई। वह मंद-मंद मुस्करा रही थी। उसने गुलाब का फूल शाहीन की तरफ बढ़ा दिया। शाहीन ने गुलाब का फूल उसके हाथ से लेकर उसके गाल थपथपा दिए।
गुलाब की खुशबू उसके नथुनों में समाती जा रही थी। वह स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रही थी। उसने रजिस्टर उठाया और उपस्थिति लेने के लिए गुनगुनाती हुई कक्षा की तरफ तेजी से बढ़ गई।

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आगामी अंक:
बुद्धवार,१० फरवरी २०१०

भारत से सुकेश साहनी
की दो लघुकथाएं

गणतंत्र दिवस पर शाहिद मिर्ज़ा ‘शाहिद’ की ग़ज़ल

जनवरी 26, 2010

गणतंत्र दिवस पर “महावीर” और “मंथन” की ओर से
शुभ कामनाएं

Indian Flag

भारत से पत्रकार

शाहिद मिर्ज़ा ‘शाहिद’ की ग़ज़ल

जश्ने-जम्हूरी हमें यूं भी मनाना चाहिये
क़ौमी यकजहती का इक सूरज उगाना चाहिये

दर्द तेरे ज़ख्म का उभरे मेरे दिल में अगर
आंख में तेरी, मेरा आंसू भी आना चाहिये

वो जो कल बिस्मिल भगत अशफाक़ के सीनों में था
नौजवानों में वही जज़्बा पुराना चाहिये

फिर यहां टैगोर का गूंजे फिज़ां में राष्ट्रगान
फिर यहां इक़बाल का क़ौमी तराना चाहिये

साज़िशों से जो झुकाना चाहते हैं, अब उन्हें
और ऊंचा ये तिरंगा कर दिखाना चाहिये

शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

प्राण शर्मा की दो लघुकथाएं

जनवरी 20, 2010

वसंत पंचमी के शुभ अवसर पर
आप सब को शुभकामनाएं

अखबार
– प्राण शर्मा

भरत उच्च शिक्षा के लिए यू.के. में आया था .पंजाब यूनीवर्सिटी से उसने अंग्रेज़ी में एम.ए. कर रखी थी. यूँ तो वो पढ़ा-लिखा था लेकिन यहाँ के रीति-रिवाजों से अनजान था. उसके आने के कुछ दिनों के बाद ही उसके चाचा हरिकृष्ण ने उसको समझा दिया था- “भरत, इस देश की दो बातों को हमेशा याद रखना. पहली ये कि अगर तुमने
चाय के लिए एक बार न कह दी तो अँगरेज़ दुबारा तुमसे चाय पीने के लिए नहीं पूछेगा. वो वैसे भी नहीं पूछता है. दूसरी बात, उससे पढ़ने के लिए कभी अखबार नहीं माँगना. ये यू.के. है, यू.के. भारत नहीं .
एक दिन भरत ट्रेन में सफ़र कर रहा था. उसके साथ वाली खाली सीट पर एक अँगरेज़ आकर बैठ गया था. उसके हाथ में तीन-चार अखबार थे . भरत देखकर हैरान हो गया. वो अपने दिल ही दिल में कह उठा-” इतने सारे अखबार !”
अँगरेज़ ने चाय का आर्डर दिया. चाय पीने के साथ-साथ वो एक अखबार पढ़ने लगा. दूसरे अखबार उसने अपनी दायीं बगल में रख लिए.
भरत को अपने चाचा की समझाई दो बातें याद नहीं रहीं. चाय पीने की तो उसकी कोई इच्छा नहीं थी लेकिन अखबार को पढने की इच्छा उसमें जाग उठी. वो अँगरेज़ से पूछ बैठा -“क्या मैं आपका एक अखबार पढ़ सकता हूँ? ”
अँगरेज़ ने सुना-अनसुना कर दिया.
भरत को लगा कि अँगरेज़ अखबार में व्यस्त होने के कारण उसको सुन नहीं पाया है. वो उससे फिर पूछ बैठा-“क्या मैं आपका एक अखबार पढ़ सकता हूँ? ”
अँगरेज़ ने टेढ़ी नज़रों से भरत को घूरा. वो अँगरेज़ का घूरना समझा नहीं. अखबार पढ़ने की तीव्र लालसा में उसने एक बार और अँगरेज़ से बड़ी नम्रता में पूछा -” क्या मैं आपका एक अखबार पढ़ सकता हूँ? ”
” नहीं, पढ़ने की इतनी ही इच्छा है तो अपना अखबार खरीदो और पढ़ो.” अँगरेज़ भरत पर बिफर उठा.
भरत अपनी मूर्खता पर दिल ही दिल में हंसने लगा.
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नेकी कर और कुँएँ में डाल
– प्राण शर्मा

दयाराम जी को देख कर कोई भी कह सकता था कि वे दया की मूर्ति थे. बेचारे हर एक की मुसीबत में काम आते. कई यार-दोस्त उनकी दया पर निर्भर थे.
वे कभी मिलते तो सभी कह उठते-” दयाराम जी, आपकी दया अपम्पार है. आप कितने दयावान हैं. आप तो हमारे लिए भगवान् हैं, भगवान्. संकट में आपका ही सहारा है. हम सब आपके ऋणी हैं. आपका ऋण कई जन्मों तक हम उतार नहीं पायेंगे. कभी हमें भी आप अपनी सेवा करने का मौक़ा दीजिये.
दयाराम जी की धर्मपत्नी को कैंसर हो गया. उसने चारपाई को ऐसा पकड़ा कि वो उसे छोड़ने का नाम ही नहीं ले रही थी. उसकी लम्बी बीमारी से दयाराम जी आर्थिक और मानसिक रूप से टूटने लगे. वे टूटते गये और यार-दोस्त एक-एक करके ये कह कर” दयाराम जी, आपकी पत्नी कैंसर की मरीज़ है. आज नहीं तो कल उसका मरना निश्चित
है. चिंता करनी छोड़िये. भाग-दौड़ और सेवा करने से कोई लाभ नहीं होगा” पीठ दिखाते गये. धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधकों ने भी जो उनपर निर्भर थे, कहना शुरू कर दिया-
” हमारी संस्थाएं दान लेती हैं,देती नहीं.
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यू. के. से प्राण शर्मा की दो लघुकथाएं

जनवरी 13, 2010

ये  इंग्लॅण्ड है,माई ब्रोदर

–प्राण शर्मा

गोपीनाथ से लन्दन जाने वाली कोच छूट गयी थी. एक अन्य कोच ड्राईवर ने बड़ी शिष्टता से उसको अगली कोच का समय बताया.

गोपीनाथ को लगा कि उसने उस ड्राईवर को पहले भी कहीं देखा था. उसने भेजे पर जोर दिया.याद आते ही उसने बड़े प्यार से पूछा–

” भाई साहिब, आपने क्या भारत में पंजाब रोडवेज में भी काम किया था ?”

”  जी हाँ, मैं पंजाब रोडवेज में बस कन्डक्टर था.”

” क्या आपको याद है कि पांच साल पहले किसी यात्री से दिल्ली जाने वाली बस छूट गयी थी.उसने आपसे अगली बस के टाइम के बारे में पूछा था . आपने उसको ऊपर से नीचे घूरते हुए बड़ी बेरुखी से कहा था–

” पढ़े- लिखे लगते हो .वो सामने बोर्ड पर टाइम लिखा है. जाकर पढ़ लो.”

”  वो भारत की बात भारत में ही रहने दो. ये इंग्लॅण्ड है, माई ब्रोदर.”

–प्राण शर्मा

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बहु नंबर वन

प्राण शर्मा

जब रमा ससुराल ब्याही आयी तो गली की दो ” शुभ  चिन्तक” महिलायें ललिता पवार और शशिकला की भाँति उसके आसपास मंडराने लगी. एक उसकी चाची होने का अधिकार जताती और दूसरी मौसी होने का. दोनो ही रमा को उसकी सास के खिलाफ कुछ न कुछ भड़काती . वो उनकी बातों को एक कान से सुनती और दूसरे कान से निकाल देती.

धीरे-धीरे प्यारी, दुलारी और अति आज्ञाकारी रमा शुभ चिन्तक चाची और मौसी की आँखों में काला अक्षर भैंस के बराबर हो गयी . वो उनकी नज़रों में ” बहु नंबर वन ” बनी रहती बशर्ते वह उनके इशारों पर नाचती और अपनी सास को नचवाती .

रमा अब फिर चाची और मौसी की नज़रों में बहु नंबर वन बन गयी है.

दोनो की अपनी-अपनी बहु आ चुकी है. उनकी बहुओं ने गली की कई महिलाओं के बहकावे में उनकी नाकों में दम कर रखा है.

–प्राण शर्मा

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