समीक्षक:
उषा राजे सक्सेना
महेन्द्र दवेसर दीपक की पुस्तक ‘अपनी-अपनी आग’ अभी हाल ही में मेधा बुक्स ने प्रकाशित की है।
ब्रिटेन के हिंदी साहित्य जगत में महेन्द्र दवेसर ‘दीपक’ का नाम कोई नया नहीं है। दवेसर जी ब्रिटेन की साहित्यिक पत्रिका ‘पुरवाई’ में लिखते रहे है। भारत की पत्र-पत्रिकाओं में भी वे लिखते रहते हैं।‘अपनी-अपनी आग’ महेन्द्र जी का तीसरा कहानी संग्रह है इससे पूर्व उनके दो और कहानी-संग्रह आ चुके है, ‘पहले कहा होता’ और ‘बुझे दिए की आरती’। और अब यह ‘अपनी-अपनी आग’ जिसके प्रकाशन के लिए भारतीय उच्चायोग ने उन्हें ढाई सौ पाउँड का अनुदान देकर उनका मान बढ़ाया है। ‘अपनी-अपनी आग’ इस संग्रह की शीर्ष कहानी है जिसमें ‘आग’ एक प्रतीक है। आग जो हम सबके अंदर किसी न किसी रूप में दहकती रहती है जो हमे जीवित रखती है, हमें जीजिविषा प्रदान करती है। हमारा यह देह पाँच तत्वों से बना है। आग उसका ही एक तत्व है। ‘क्षिति, जल, पावक, गगन समीरा, पंच रचित यह अधम शरीरा’। इन कहानियों के केंद्र में दवेसर जी ने इस आग को नए-नए रूप में, नए-नए चेहरों, नए-नए किरदारों के माध्यम से प्रज्जवलित किए रखा है। यहाँ तक कि यह आग ‘चक्कर ही चक्कर’ और ‘अतिथि’ जैसी हास्य-व्यंग्य की हल्की-फुल्की कहानियों में भी जलती रहती है।
दवेसर जी एक ऐसे सृजक हैं, जो भावुक हैं संवेदनशील हैं। उनके जीवन में या उनके आस-पास जो कुछ घटता है वह उनके अंदर बैठे सृजक को मथता है, उत्प्रेरित करता है। वे चैन से नहीं रह पाते हैं उनके अनुभव, उनकी संवेदनाएँ उनको झकझोरती हैं और उनकी लेखनी चल पड़ती है। वे स्वयं पुस्तक की भूमिका में स्वीकारते हैं, मैं अपने जीवन के 80वें वर्ष से गुज़र रहा हूँ, मेरे पास अनुभवों का कोई अभाव नहीं हैं। वास्तव में उनके पास अनुभवों का अकूत भंडार है। उन अनुभवों को वे शब्दों में ढालते चले जाते हैं। जीवन के सुख-दुख, ईर्ष्या-द्वेष, षड़यंत, हादसे, अत्याचार, प्रतिशोध, करुणा, संघर्ष और पीड़ा उनके सरोकार हैं जो कहानियों के बुनावट में उतरते है। वे पर-पीड़ा को आत्मसात करने में सक्षम हैं। पुरुष होते हुए भी वे स्त्री के मनोभावों को, उसकी पीड़ा को, उसकी सीमाओं को, उसकी कुटिलता को, उसकी सरलता-सहजता को, उसके छले जाने को, पाठकों तक शब्दों के माध्यम से कहानियों में ढालकर पहुँचाते है।
दवेसर जी की अधिकांश कहानियाँ नायिका प्रधान होती हैं। ‘अपनी-अपनी आग’ की कहानियाँ शिल्प-सुघड़ या किसी वाद से जुड़ी कहानियाँ नहीं हैं, लेकिन इनमें एक बेचैन धड़कती हुई ज़िंदगी है जो अपने अफ़साने पाठकों से पढ़वा लेती है। यही इन कहानियों की खूबी है। कहानियों की भाव-भूमि ब्रिटेन है। इन कहानियों में दवेसर जी ने परंपराओं महत्वकांक्षाओ और उनसे उपजी त्रासद परिस्थितियों के बीच पिसते मनुष्य को, विभिन्न किरदारों और घटनाओं द्वारा क्षय होते मानवीय संबंधों की पड़ताल करने की कोशिश की हैं।
पुस्तक ‘अपनी-अपनी आग’ में दस कहानियाँ हैं। ‘बीस पाउँड’ ‘आधा गुनाह’ ‘नहीं’ ‘चक्कर ही चक्कर’ ‘ईबू’ ‘अतिथि’ ‘अपनी-अपनी आग’ ‘एक सूखी बदली’ ‘सुरभि’ ‘प्यासे प्रश्न’ आदि। आग की तपिश पुस्तक की तकरीबन हर कहानी में किसी-न-किसी रूप में दहकती है कहीं रूढियों में जकड़े माँ-बाप द्वारा बेटी के छले जाने की पीड़ा में, तो कहीं परमिस्सिव सोसाइटी में औरत के यौन, स्वछंद व्यौहार से आती गुनाह की ग्लानि में, तो कहीं मृदुला जैसी शीलवंती पत्नि के प्रतिशोध में, तो कही रिश्तों में आते जा रहे खोखलेपन में, तो कहीं ईबू जैसे नन्हें बालक के भविष्य में अड़चने डालनेवाले समाज और व्यवस्था के घेराबंदी में, तो कहीं सुरभि जैसी निर्दोष, कोमलह्रदया किशोरी के तथा-कथित बाप द्वारा शोषण में, तो कहीं कैलाश और मधु के प्यासे प्रश्नों में। कैसी विडंबना है सनातन काल से मनुष्य सुख की खोज में भटक रहा है, वह चाहे कितना भी हाथ-पाँव मारे पर वह कहीं भी सुखी नहीं रह पाता है। कभी वह स्वयं महत्वकांक्षाओं के मकड़जाल बुनता है तो कभी परिवेश, समाज, कानून या व्यवस्था उसकी राह में रोड़े अटकाते हैं।
समय की सीमा है अतः मैं दो कहानियों पर कुछ विस्तृत चर्चा कर अपना वक्तव्य समाप्त करुंगी।
संग्रह की पहली कहानी ‘बीस पाउँड’ ब्रिटेन में जन्मी सोलह वर्ष की समीना अख्तर की है जिसने अभी-अभी ओ-लेवेल की परीक्षा दी है उसकी आँखों में सपने है वह आगे पढना चाहती है। रूढ़ संस्कारों में जकड़े अम्मी-अब्बू के लिए समीना उनके बुढापे की इन्श्योरेंस है वे उसकी शादी पाकिस्तान में रहनेवाले, पचाससाला अपढ़-गवाँर दो बच्चों के बाप अरशद के साथ इस लिए करना चाहते हैं कि वह उस घर में इतनी अमीर हो जाएगी कि एक दिन जब वे बूढ़े हो जाएँगे तो वह उनकी देख-भाल कर सकेगी। समीना की अम्मी बुड्ढे से शादी करने के लिए उसे इमोशनल ब्लैकमेल करती हैं। समीना अपने से दो साल बड़ी सहेली बलजीत के पास निस्तार के लिए पहुँती है पर वह तो खुद उसी आग में जल रही होती है। बलजीत के दार जी बलजीत और उसके प्रेमी का कत्ल कर सकते हैं पर उसका उसके मनपसंद लड़के से ब्याह नहीं कर सकते। बलजीत घर से भाग कर अपने प्रेमी से शादी कर लेती है। समीना बलजीत का सहारा लेकर घर से भागती है पर विडंबना यह है कि बल्ली और जग्गी तो शादी के बाद हनीमून के लिए चले जाएँगे पर वह कहाँ जाएगी? बलजीत और जग्गी हनीमून पर जाते हुए उसे ठेंगा दिखा देते हैं। पल भर में मित्रता की उष्मा खतम हो जाती है। समीना अकेली पड़ जाती है, अब अपने शहर बर्मिंघम में रहने का मतलब, फिर से उसी नारकीय स्थिति में पहुँच जाना जहाँ से वह निस्तार के लिए भागी थी। अल्लाह पर भरोसा रख समीना लंदन पहुँच कर पिकैडिली सर्कस की भीड़ में खो जाना चाहती है। पर उसका ज़मीर उसे उस भीड़ से अलग करता है, वह बिकना नहीं चाहती है। कड़कड़ाती ठंड है तेज़ तिरछी हवा है भूख है, आँखे नीद से बोझिल है, कहाँ जाए समीना? पुलिस वार्निंग देती है। समीना मन ही मन चाहती है कि पुलिस उसे जेल में ठूँस दे ताकि उसे रात भर को छत मिल जाए। तभी युवा पत्रकार योगेश चोपड़ा की नज़र उस देसी लड़की पर पड़ती है जिसकी आँखों में आँसू है चेहरे पर लाचारी है। लड़की भूखी है वह उसे बीस पाउँड देकर विमेन्स हाँस्टल याने ‘शेल्टर’ में जाने को कहता है। घर से भागी समीना शेल्टर में जाने से घबड़ाती है। योगेश को भाई कह कर द्रवित करती है और वह उसे अपने घर ले जाने को राज़ी कर लेती है। जैसा कि आम होता है योगेश की पत्नि प्रीति को योगेश का आधी रात को एक अंजान खूबसूरत लड़की का घर लाना नागवार लगता है। वह योगेश को जली-कटी सुनाती है और समीना को देह व्यापार करनेवाली औरत मान कर उसे रंडी का खिताब देती है। समीना बंद दरवाज़े से बाहर आती आवाज़ें सुनती है। वह निर्दोष है परिस्थितियों की मारी, बिना कुछ पूछे योगेश की पत्नि उसे कटघरे में खड़ा कर लांछित करती है। चोट खाई समीना, एक बार फिर दिगभ्रमित, अकेली और लाचार महसूस करती है। उसका आत्मसम्मान जोश मारता है वह योगेश के दिए बीस पाउँड का नोट एक फूलदान के नीचे दबा कर एक छोटा सा नोट लिख जाती है, ‘थैंक यू ब्रदर मेरे लिए आपको बहुत कुछ सुनना पड़ा। मैं छोड़ रही हूँ यह रैन बसेरा।’ वह फिर सड़क पर आ जाती है।
पुस्तक: ‘अपनी-अपनी आग’
लेखक: महेन्द्र दवेसर दीपक
प्रकाशक: मेधा बुक्स
x-11, नवीन शाहदरा,
नई दिल्ली-110032
टेलीफोन: 91-(011)-2116672
फैक्स: 91-(11)-22321818
ई मेल: medhabooks@gmail.com
मूल्य: 200 रुपये
कहानी के अंत में योगेश दुखी होता है तो उसकी पत्नि प्रीति रिलीव्ड कि चलो अच्छा हुआ छुट्टी मिली… पर समीना का क्या हश्र हुआ? कहानीकार ने सबीना को जागरूक तो बनाया पर उसे आज की प्रगतिशील लड़कियों की तरह चतुर और सजग नहीं बनाया कि अपनी रक्षा वह स्वयं कर सके।
संग्रह की एक और मानवीय संवेदनाओं से भरपूर, प्रभावशाली और पाठक को उद्वेलित करनेवाली, भावप्रवण कहानी है ‘ईबू’। इस कहानी के केंद्र में एक नन्हाँ बालक ‘वरजा’ है जिसकी माँ तूफ़ानी सुनामी को भेट चढ़ चुकी है, और है कोमल-ह्रदया अविवाहित, लोक-सेवा को समर्पित, डा. शेफाली। डा. शेफाली मानवता के नाते अपनी सहकर्मी मित्र सुंदरी के साथ इंडोनेसिया के एक गाँव मोलाबो आती है जिसे तीन-दिन पहले सुनामी लहरों के तांडव ने तहस-नहस कर दिया है। वहीं वह नन्हें वरजा से मिलती है। वरजा की माँ को सुनामी लील गई, बाप की मृत्यु तो पहले ही हो चुकी थी। अनाथ वरजा का भोला-भाला चेहरा डॉ. शेफाली के मातृत्व को झकझोरता है। वरजा जब उसे ईबू कहकर पुकारता है तो उसका अंग-अंग थिरकने लगता है। वह वरजा को इस हद तक प्यार करने लगती है कि अविवाहित होते हुए भी उसे गोद लेने का निर्णय ले लेती है किंतु क्या वह उसे गोद ले पाती है? क्या उसे वह सुरक्षित घर दे पाती है? धर्म के ठेकेदार, कानून, समाज, मनुष्य की सुरक्षा, प्रगति और विकास के लिए बनाई गईं व्यवस्था किस तरह एक संवरते हुए अबोध बालक की जिंदगी में कुटिलता से दखल देकर उसके सारे संभावनाओं को नष्ट कर देती है। इंसान कितना बेइमान, संकीर्ण, फ़सादी खुदगर्ज़, नृशंस, अत्याचारी और भावशून्य हो सकता है इसे नन्हें अनाथ वरजा की कहानी ‘ईबू’ पढ़ कर जाना जा सकता है।
आज का वक्त सांस्कृतिक एवं साहित्यिक वैचारिकता के संकट का समय है। दवेसर जी का यह संग्रह चरित्रों और परिवेशों का आत्मावलोकन है। संग्रह की तमाम कहानियों को पढ़ कर महसूस होता है कि दवेसर जी अपनी कहानियों में जीने की कोशिश करते हैं और पाठक में सकारात्मक और वैचारिक ऊर्जा भरते है। संग्रह की सभी कहानियाँ पठनीय है। कहानियों की भाषा सहज और सरल है।
दवेसर जी आपकी लेखनी इसी तरह चलती रहे। निश्चय ही ‘अपनी-अपनी आग’ का हिंदी जगत में भरपूर स्वागत होगा।
समीक्षक: उषा राजे सक्सेना
प्रेषक: महावीर शर्मा
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अच्छा लगा समीक्षा पढ़ कर.
इस पुस्तक से परिचय कराने हेतु आभार।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
AAJ KEE CHARCHIT KAHANIKAR ,KAVYITRI AUR AALOCHAK USHA RAJE SAXENA NE
KAHANI VIDHA MEIN LOKPRIYTA KEE AUR AGRASAR MAHENDRA DWESAAR DEEPAK
KE SADYAPRAKASHIT KAHANI SANKALAN “APNEE APNEE AAG” KEE KAHANIYON KAA
SAVISTAAR AAKLAN KIYAA HAI.SAMEEKSHA SURUCHIPOORN BAN PADEE HAI.DWESAR
AUR USHA JEE KO DHERON BADHAAEEYAN .
महेन्द्र दवेसर दीपक की पुस्तक
‘अपनी-अपनी आग’ पर समीक्षा
Ek anubhav ka vistaar zahir kate hue sahitya ke daire ko bhi vishalta de raha hai. Ushaji ki lekhni se lekhak ki kahani ke kirdaar aur sajeev hote hue dikhai pade. Badhayi shri mahendra Davesarji ko aur Ushaji ko.
Mahavirji aapke is Manch par UK ke aur rachnakaron se mulakaat hoti rahegi isi umeed se
Shubhkamnaon sahit
Devi Nangrani
is pustak kaa parichay karavane ke liye aabhaar aur deepak jee ko badhaai
बहुत अच्छा लगा इसे पढकर –
आ. महावीर जी
आप हमेशा उत्तम सामग्री प्रस्तुत करते हैँ
ये कितनी बडी बात है –
– लावण्या