भारत से सुधा अरोड़ा की दो लघुकथाएं

परिचय : सुधा अरोड़ा
जन्म : अविभाजित लाहौर (अब पकिस्तान) में ४ अक्टूबर १९४६ को हुआ.
शिक्षा : १९६५ में श्री शिक्षायतन से बी.ए. ऑनर्स और कलकत्ता विश्वविद्याय से एम.ए. (हिंदी साहित्य).
कार्यक्षेत्र : १६५-१९६७ तक कलकत्ता विश्वविद्यालय की पत्रिका “प्रक्रिया” का संपादन, १९६९-१९७१ तक कलकत्ता के दो डिग्री कॉलेजों-श्री शिक्षायतन और आशुतोष कॉलेज के महिला विभाग जोगमाया देवी कॉलेज में अध्यापन, १९७७-१९७८ के दौरान कमलेश्वर के संपादन में कथायात्रा में संपादन सहयोग, १९९३-१९९९ तक महिला संगठन “हेल्प” से संबद्ध, १९९९ से अब तक वसुंधरा काउंसिलिंग सेंटर से संबद्ध.
कहानी संग्रह : बगैर तराशे हुए (१९६७), युद्धविराम (१९७७), महानगर की मैथिली (१९८७), काला शुक्रवार (२००३), कांसे का गिलास (२००४), मेरी तेरह कहानियां (२००५), रहोगी तुम वही (२००७)- हिंदी तथा उर्दू में प्रकाशित और २१ श्रेष्ठ कहानिया (२००९)
उपन्यास :यहीं कहीं तथा घर (२०१०)
स्त्री विमर्श : आम औरत : जिंदा सवाल (२००८),एक औरत की नोटबुक (२०१०), औरत की दुनिया : जंग जारी है…आत्मसंघर्ष कथाएं (शीघ्र प्रकाश्य)
सम्पादन : औरत की कहानी : शृंखला एक तथा दो, भारतीय महिला कलाकारों के आत्मकथ्यों के दो संकलन, ‘दहलीज को लांघते हुए’ और ‘पंखों की उड़ान’, मन्नू भंडारी : सृजन के शिखर : खंड एक
सम्मान :  उत्तर प्रदेश हिन्दी संसथान द्वारा १९७८ में विशेष पुरस्कार से सम्मानित, सन् २००८ का साहित्य क्षेत्र का भारत निर्माण सम्मान तथा अन्य पुरस्कार.
अनुवाद :  कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी तथा ताजिकी भाषाओं में अनूदित
टेलीफिल्म : ‘युद्धविराम, दहलीज़ पर संवाद, इतिहास दोहराता है, तथा जानकीनामा पर दूरदर्शन द्वारा लघु फ़िल्में निर्मित. दूरदर्शन के ‘समांतर’ कार्यक्रम के लिए कुछ लघु फिल्मों का निर्माण. फिल्म पटकथाओं (पटकथा -बवंडर), टी.वी. धारावाहक और कई रेडियो नाटकों का लेखन.
स्तंभ लेखन : १९७७-७८ में पाक्षिक ‘सारिका’ में ‘आम आदमी : जिन्दा सवाल’ का नियमित लेखन, १९९६-९७ में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर एक वर्ष दैनिक अखबार जनसत्ता में साप्ताहिक कॉलम ‘वामा’ महिलाओं के बीच काफी लोकप्रिय रहा, मार्च २००४ से मासिक पत्रिका ‘कथादेश’ में औरत की दुनिया ‘स्तंभ ने अपनी विशेष पहचान बनाई.
संप्रति : भारतीय भाषाओं के पुस्तक केंद्र ‘वसुंधरा’ की मानद निदेशक

भारत से सुधा अरोड़ा की दो लघु कथाएं:

बड़ी हत्या , छोटी हत्या
सुधा अरोड़ा

मां की कोख से बाहर आते ही , जैसे ही नवजात बच्चे के रोने की आवाज आई , सास ने दाई का मुंह देखा और एक ओर को सिर हिलाया जैसे पूछती हो – क्या हुआ? खबर अच्छी या बुरी ।
दाई ने सिर झुका लिया – छोरी ।
अब दाई ने सिर को हल्का सा झटका दे आंख के इशारे से पूछा – काय करुं?
सास ने चिलम सरकाई और बंधी मुट्टी के अंगूठे को नीचे झटके से फेंककर मुट्ठी खोलकर हथेली से बुहारने का इशारा कर दिया – दाब दे !
दाई फिर भी खड़ी रही । हिली नहीं ।
सास ने दबी लेकिन तीखी आवाज में कहा – सुण्यो कोनी? ज्जा इब ।
दाई ने मायूसी दिखाई – भोर से दो को साफ कर आई । ये तीज्जी है , पाप लागसी ।
सास की आंख में अंगारे कौंधे – जैसा बोला, कर । बीस बरस पाल पोस के आधा घर बांधके देवेंगे, फिर भी सासरे दाण दहेज में सौ नुक्स निकालेंगे और आधा टिन मिट्टी का तेल डाल के फूंक आएंगे । उस मोठे जंजाल से यो छोटो गुनाह भलो।
दाई बेमन से भीतर चल दी । कुछ पलों के बाद बच्चे के रोने का स्वर बन्द हो गया ।
0
बाहर निकल कर दाई जाते जाते बोली – बीनणी णे बोल आई – मरी छोरी जणमी ! बीनणी ने सुण्यो तो गहरी मोठी थकी सांस ले के चद्दर ताण ली ।
सास के हाथ से दाई ने नोट लेकर मुट्ठी में दाबे और टेंट में खोंसते नोटों का हल्का वजन मापते बोली – बस्स?
सास ने माथे की त्यौरियां सीधी कर कहा – तेरे भाग में आधे दिन में तीन छोरियों को तारने का जोग लिख्यो था तो इसमें मेरा क्या दोष?
सास ने उंगली आसमान की ओर उठाकर कहा – सिरजनहार णे पूछ । छोरे गढ़ाई का सांचा कहीं रख के भूल गया क्या?
…… और पानदान खोलकर मुंह में पान की गिलौरी गाल के एक कोने में दबा ली ।
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सुरक्षा का पाठ
सुधा अरोड़ा

राघव अपनी अमरीकी बीवी स्टेला और दो बच्चों – पॉल और जिनि के साथ भारत लौट रहा है, सुनकर मेरा कलेजा चौड़ा हो गया । आखिर अपना देश खींचता तो है ह। मेरा बेटा राघव तो अमरीका जाने के बाद और भी भारतीय हो गया थ। भारत में रहते चाहे उसने कभी 15 अगस्त और 26 जनवरी के कार्यक्रमों में भाग न लिया हो पर विदेश जाते ही उसने अपनी कम्पनी के भारतीय अधिकारियों को इकट्ठा कर वह इन दिनों के उपलक्ष्य में देशप्रेम के कुछ कार्यक्रम करने लगा था जिसके लिए वह मुझसे फोन पर देशप्रेम की कविताएं और राष्ट्रप्रेम के गीत पूछता और नोट करता। कार्यक्रम की शुरुआत का भाषण भी रोमन अक्षरों में देवनागरी लिखकर मैं ई मेल से उसे भेजती ।
यह अलग बात है कि मैं उसके लिए हिन्दुस्तानी लड़की ढूंढ ही रही थी कि उसने अपनी एक अमरीकी स्टेनो से शादी कर ली। और सातवें महीने ही एक बेटा भी हो गय। साल भर बाद जिनि भी, जो बस चार महीने की ही थी। उसकी तस्वीरें देखी थीं । बिल्कुल राघव की तरह गोरी चिट्टी गोल मटोल गाब्दू सी ।
हमारा चार बेडरूम का घर आबाद होने जा रहा था। एक कमरे में हम दो प्राणी थे और बाकी तीन कमरे रोज की साफ सफाई के बाद मुंह लटकाए पड़े रहते ।
तीनों कमरों का चेहरा धो पोंछकर अब चमका दिया गया था। एक कमरे में राघव के आदेश पर हमने बच्चे का झूला भी डलवा दिया था ।
राघव का परिवार एयरपोर्ट से घर लौटा तो जैसे घर में दीवाली मन रही थी। घर को देखकर राघव के चेहरे पर भी दर्प था जैसे स्टेला से कह रहा हो – देखा मेरा घर। स्टेला पहली बार आ रही थी। राघव से नज़रें मिलते ही बोली – ओह ! यू हैव अ पैलेशियल हाउस ! तुम्हारा घर तो महलों जैसा है. राघव ने मुस्कुराकर उसके कंधे पर हाथ रखा और दूसरे कमरे की ओर इशारा किया जहां हमने बच्चों के लिए दीवार पर मिकि माउस और डोनल्ड डक के चित्र दीवारों पर लगा रखे थे ।
रात को जिनि को झूले में डाल और हमारे कमरे में लगे छोटे दीवान पर पॉल के सोने का बन्दोबस्त कर वे अपने कमरे में सोने के लिए जा रहे थे। मैंने देखा तो कहा – इसे अकेले यहां ……? रात को भूख लगेगी ……तो ……
स्टेला ने मुस्कुराकर कहा – डोंट वरी मॉम ! उसे अपने समय से फीड कर दिया है । अब सुबह से पहले कुछ नहीं देना है ।
मैं राघव की ओर मुखातिब हुई – रात को रोई तो …. राघव ने मुझे सख्त स्वर में कहा – मां , आप अपने कमरे में जाकर सो रहो ……और स्टेला के कंधे को बांहों से घेर कर बेडरूम में चला गया ।
वही हुआ जिसका अन्देशा था। रात को जिनि की भीषण चीख पुकार से नींद खुलनी ही थी । बच्ची चिंघाड़ चिंघाड़ कर रो रही थी ।
पॉल मेरे कमरे में मजे से तकिया भींचे सो रहा था। मैं उठी और बच्ची को बांहों में ले आई । उसकी नैपी भीगी थी। उसे बदला। थोड़ी देर कंधे पर लगा पुचकारा, मुंह में चूसनी भी डाली पर उसका रोना जारी रहा। फिर न जाने कैसे याद आया – राघव जब बच्चा था, अपनी छाती पर उसे उल्टा लिटा देती थी। बस , वह सारी रात मेरी छाती से चिपका सोया रहता था। जिनि पर भी वही नुस्खा कारगर सिद्ध हुआ। मेरी धड़कन में उस बच्ची की धड़कनें समा गईं और वह चुपचाप सो ग। थोड़ी देर बाद मैं जाकर उसे उसके झूले में डाल आई ।
तीन दिन यही सिलसिला चलता रहा। रात को वह सप्तम सुर में चीखती। मैं उसे उठाती और कुछ देर बाद वह मेरे सीने पर उल्टे होकर सो जाती। लगता जैसे छोटा राघव लौट आया है। बीते दिनों में जीना इतना सुकून दे सकता है, कभी सोचा न था।
चौथे दिन सुबह अचानक नीन्द खुली, देखा तो राघव और स्टेला गुड़िया सी जिनि को मेरे सीने पर से उठा कर चीख रहे थे ।
तभी …… तभी हम सोच रहे थे कि आजकल जिनि के रात को रोने की आवाज़ क्यों नहीं आती है? मां, आपका जमाना गया । बच्चे को रोने देना बच्चे के फेफड़ों के लिए कितना जरूरी है, आपको नहीं मालूम। डॉक्टर की सख्त हिदायत है कि वह अपने आप रो चिल्लाकर चुप होना और सोना सीख जाएगी। आप क्यों उसकी आदतें खराब करने पर तुलीं है?
मैंने उनके रूखे ऊंचे सुर को नज़रअन्दाज करते हुए हंसकर कहा – आखिर तेरी ही बेटी है, तुझे भी तो ऐसे ही मेरे सीने पर उल्टे लेटकर नीन्द आती थी …. याद नहीं …..?
मैंने राघव को उसके पैंतीस साल पहले के बचपन में लौटाने की एक फिजूल सी कोशिश की।
मां, प्लीज स्टॉप दिस नॉनसेंस। आप बच्चों को तीस साल पहले के झूले में नहीं झुला सकतीं। उन्हें इण्डिपेण्डेंट होना बचपन से ही सीखना है …… आप अपने तौर तरीके, रीति रिवाज भूल जाइए ….
मैं चुप। याद आया अमेरिका में पॉल के जन्म के बाद हम लंबी ड्राईव पर नियाग्रा फॉल्स देखने जा रहे थे। गाड़ी में पॉल को पिछली सीट पर उसकी बेबी सीट पर तमाम जिरह बख्तर से बांध दिया गया था। रास्ते में वह दाएं बाएं बेल्ट में कसा फंसा बुक्का फाड़कर रो दिया। मैंने जैसे ही उसे उसमें से निकाल कर गोद में लेना चाहा, राघव ने कस कर डांट लगाई – अभी पुलिस पकड़ कर अन्दर कर देगी। चलती गाड़ी में बच्चे को गोद में उठाना मना है ।
मैं हाथ बांधे बैठी रही थी। नियाग्रा फॉल्स के आंखों को बेइन्तहा ठण्डक पहुंचाने वाले पानी के तेज तेज गिरने के शोर में भी मुझे पॉल के मुंह फाड़कर रोने का सुर ही सुनाई देता रहा । आज भी नियाग्रा फॉल्स की स्मृतियों में दोनों शोर गड्डमड्ड हो जाते हैं ।
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अब जिनि रोती है तो सब सोते रहते हैं पर मेरी नींद उखड़ जाती है। सोचती हूं बस, कुछ ही दिनों की बात है। राघव स्टेला पॉल और जिनि सब चले जाएंगे। तब तक मुझे सब्र करना है। जिनि के आधी रात के रोने को अपनी धड़कनों में नहीं बांधना है । उसे अभी से आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ते हुए देख रही हूं और अंधेरे में और गहराते अंधेरे को पहचानने की कोशिश करती रहती हूं ……
सचमुच कुछ समय बाद ऐसी चुप्पी छाती है कि वह सन्नाटा कानों को खलने लगता है।
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प्रेषक : महावीर शर्मा


16 Comments »

  1. 1
    sidharth Says:

    दोनों लघुकथाएं दिल को छू गई। वास्‍तव में कोई करीब से महसूस कर ही ऐसा लिख सकता है…

    आभार इन कथाओं के लिए…

  2. बहुत ही मर्मस्पर्शी लधु-कथाएँ लगीं दोनों ही…
    आपका हृदय से आभार…

  3. 4

    बहुत दिन से ब्लाग पर आ नही सकी। सुधा जी की रचनायें दिल को छू गयी। बहुत उमदा लिखती हैं। धन्यवाद

  4. ऐसी उत्कृष्ट लघुकथाएं ही, लघुकथा लेखन का विकास कर सकती हैं। सुधा जी एक सिद्धहस्त वरिष्ठ लेखिका हैं, उनके पास एक जबरदस्त खूबसूरत भाषा है और अपनी बात कहने का निराला ढ़ंग! पहली लघुकथा -‘बडी हत्या, छोटी हत्या’ इस सन्दर्भ में देखी जा सकती है। दुसरी लघुकथा भी उनके लेखन की ऊँचाई को सिद्ध करती है। लघुकथा में जो कुछ जैसे भी लिख भर देने वाले लेखकों को सुधा जी की इन लघुकथाओं से सीख लेनी चाहिए।

  5. 6

    दोनों ही रचनाएँ विशेष कथावस्तु से पाठक का परिचय कराती हैं। बड़ी ह्त्या,छोटी ह्त्या में सास का कथन ‘बीस बरस पाल पोस के आधा घर बांधके देवेंगे, फिर भी सासरे दाण दहेज में सौ नुक्स निकालेंगे और आधा टिन मिट्टी का तेल डाल के फूंक आएंगे । उस मोठे जंजाल से यो छोटो गुनाह भलो।’ ध्यान देने योग्य है। इन परिस्थितियों पर काबू पाए बिना कन्या भ्रूण ह्त्या को रोकने की कवायद जड़ों को सींचने की बजाय पत्तों को पानी पिलाने जैसी निरर्थक है। यह लघुकथा पहले खण्ड की समाप्ति पर ही अपने पूर्णत्व को पा जाती है। दूसरी लघुकथा अपनी यथार्थपरक संवेदनशील प्रस्तुति के चलते बेजोड़ है। मशीनें किस तरह आदमी के मस्तिष्क को जड़ करती जा रही हैं, इसका यह अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करती है। समकालीन लघुकथाकार सुधाजी की इन दो ही रचनाओं से काफी कुछ सीख सकते हैं।

  6. 7

    regarding sudha ji ko marmik laghukathon ke liye bahut bahut aabhar. pehli laghu katha ki ek ek line vajani hai.
    doosari kaytha bhi asarkarak hai. acchi rachnaon ke liye sudha ji aur mahaveer ji ka aabhar.

  7. 8
    Ritu Says:

    अद्भुत ! शब्द नहीं हैं तारीफ़ के ! दोनों कहानियों ने हिला कर रख दिया !

  8. 9
    ashok andrey Says:

    bahut badiya rachnaen padne ko milee mun ko chhu gaee itnee khoobsurat laghu kathaon ke liye mei Sudha jee ko badhai deta hoon

  9. 10

    सुधा अरोड़ा की दोनों लघुकथाएं अच्छी लगी. आभार प्रस्तुति हेतु…

  10. श्रद्धेय महावीर जी, सादर प्रणाम
    दोनों कहानियां दहला देने वाले ताने बाने पेश करती हैं.
    क्या 21वीं सदी में भी एक नारी,
    इस अंदाज़ में नवजात कन्या की हत्या करा सकती हैं?
    दूसरी कहानी में ’आत्मनिर्भर’ बनाने का क्या फ़ार्मूला निकाला है……
    हम रिश्तों पर आश्रित लोग कितने बेहतर हैं…..
    ये सोचकर सर गर्व से ऊंचा हो जाता है.
    दोनों रचनाओं के लिये लेखिका को बधाई.

  11. 14
    kabir zaidi Says:

    श्रद्धेय महावीर जी , मंथन पर आप भी चुन कर रचनाएँ लाते हैं . भारत में नवजात शिशु की परवरिश जिस ममत्व से की जाती है उसका बेहतरीन उदाहरण है — सुधा अरोड़ा की कहानी — सुरक्षा का पाठ . पश्चिम में ममता को भी डॉक्टरों ने मशीन से धो पोंछ डाला है . भारत की माँ की अनुकरणीय ममता को समर्पित है यह कहानी . आशा है , मंथन पर हमें ऐसी और भी कहानियां पढ़ने को मिलेंगी . आपके प्रति बहुत कृतज्ञता सहित ,

  12. 15
    rachna awasthi Says:

    Badhayee Lekhah aur sampadak donon ko ! Kya Rajasthan ke gaon me aaj bhi aisi stithi hai ki kanya ko janamte hi daab kar maar diya jaye ? agar hai to bahut chintajanak baat hai .

  13. दोनों कथाओं में ” मान ” तो हैं परंतु अलग अलग अक्स लिए
    सुधा जी को बहुत बधाई – एकदम बढ़िया लेखन के लिए
    – स स्नेह सादर,
    – लावण्या


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