अक्टूबर 14th, 2009 के लिए पुरालेख

पंकज सुबीर की कहानी- ‘जब दीप जले आना’

अक्टूबर 14, 2009

“महावीर” और “मंथन” की टीम की तरफ से आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं.

diwali lamps

‘जब दीप जले आना’ –कहानी

पंकज सुबीर

Subeer Pankajवो लड़की आज भी उसी प्रकार खिड़की में नज़र आ रही है । दोनों तरफ खड़े ग़ुलमोहर के पेड़ों के ठीक बीच बनी हुई वह खिड़की दूर से देखने पर किसी चित्र की तरह नार आती है । उस मकान के जितने दूर से होकर वह रोज़ गुजरता है उतनी दूर से किसी की चीज़ के  बारे में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है, ठीक ठाक रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता । उस मकान का एक पार्श्व उस ओर से दिखाई देता है जिस तरफ से वह निकलता है ।

कंटीले तारों की घेरदार बाड़ के  उस  तरफ  कुछ छोटे फूलदार पौधे लगे हैं । उसके बाद खड़े हैं गुलमोहर के दो पेड़ । जिसके बीच से नजर आती है मकान की वह दीवार जिसमें वह खिड़की बनी है । गहरे नीले रंग से पुती हुई खिड़की । इसी खिड़की पर शायद हाथों की टेक लगा कर उसी प्रकार खड़ी रहती है वह लड़की । रोज़ बिना नागा किसी नियम की तरह ।

एक माह हो गया है शिरीष को यहाँ आये तब से ही वह रास्‍ते कालेज आते और जाते समय इस दृष्य को  देख रहा है । ये नियम कभी नहीं टूटता । जिस सड़क से होकर वह गुजरता है उसके बाद एक बडा सा खाली मैदान है और उसके बाद है वह खिड़की वाला मकान । जो धीरे धीरे शिरीष के लिये कौतुहल और उत्सुकता का पर्याय बनता जा रहा है ।

मकान के ठीक समांनातर पर आकर शिरीष ने मकान की ओर  देखा । लडक़ी उसी प्रकार वहां थी, शिरीष को लगा कि वह लड़की मुस्कुरा रही है, फिर उसे अपने ही विचार पर हंसी आ गई । भला इतनी दूर से नज़र आ भी सकता है कि किसी के चेहरे पर किस प्रकार के भाव हैं ? यहां से तो उस लड़की की पीली फ्राक पर बने हुए लाल फूल भी ठीक ठीक दिखाई नहीं  देते हैं । पीली फ्राक ….? लाल फूल ….? चलते चलते शिरीष को अचानक झटका सा लगा, ये तो उसने कभी सोचा ही नहीं । एक माह से रोज़ वो लड़की इसी फ्राक में नज़र आ रही  है । उसने ठिठक कर मकान की ओर  देखा लड़की उसी प्रकार वहां थी । जरूर ही यह कोई पेंटिंग है जो किसी चित्रकार ने मकान की इस तरफ वाली दीवार पर बना दी है । उसने गौर से खिड़की की तरफ देखा और कुछ देर तक देखता रहा, लड़की इस बार उसे बिल्कुल स्थिर किसी पेंटिंग की तरह नज़र आई । उसने मुस्कुराते हुए अपने ही सर पर चपत लगाई ”फिजूल ही  एक पेंटिंग के चक्कर में एक महीने से परेशान है”  । और आगे बढ़ गया ।

शाम को जब कालेज से लौट रहा था तो अपनी सुबह की खोज पर मुस्कुराते हुए उसने खिड़की की ओर देखा एक बार फिर उसके पैर जम गये । लड़की खिड़की पर नहीं थी । एक माह में ये पहली बार हुआ है कि शिरीष को वह लड़की खिड़की पर  नहीं दिखाई  दी है । सुबह की उसकी खोज पर पानी फिर गया ।

कमरे पर लौटकर उसका किसी काम में मन नहीं लगा, एक ग्लास पानी पीकर पलंग पर  आकर  लेट गया । खिड़की के बाहर दिन के रात में परिवर्तित होने की क्रियाऐं चल रही हैं । आज पहली बार उस लड़की ने शिरीष को उलझन में डाल दिया है । एक विचित्र सा रहस्यमय आकर्षण उसे उस खिड़की की ओर खींच रहा है क्या यही प्रेम है ? फिर उसे अपने  ही फिज़ूल के विचार पर हंसी आ गई । इतनी दूर से नार आने वाली एक धुंधली सी आकृति भला प्रेम कैसे हो सकती है । मगर फिर है क्या आखिर ? क्यों खिंचाव सा महसूस हो रहा है उसे । कुछ तो है ।

लेटे लेटे ही शिरीष ने तय कर लिया कि  दीपावली के दिन वह जाएगा उस लड़की से मिलने । अगले सप्ताह दीपावली है,  दीपावली की छुट्टियों में घर जाने का उसका कोई कार्यक्रम नहीं है, यहाँ रहकर पढ़ाई करना चाह रहा है वह । दीपावली के दिन जाएगा वह उस लड़की से मिलने । और किसी दिन जाएगा तो शायद उस घर के लोग अन्यथा ले लें लेकिन दीपावली को कोई भी अन्यथा नहीं लेगा । उस लड़की से मिलना इस लिए भी ज़रूरी है क्योंकि वह लड़की अब उसकी पढ़ाई में बाधक बन रही है । निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से आया है वह, उसके माता पिता ने खुद के काफी सारे सपनों को स्थगित करते हुए उसे उसके सपने पूरे करने भेजा है यहां । वह किसी भी कारण  इन सपनों के खंडित टुकड़े लेकर पराजित योद्धा की तरह वापस नहीं लौटना चाहता ।

अगले  दिन जब शिरीष वहां  से गुज़रा तो लड़की वहीं थी, उसी प्रकार अपनी लाल फूलों वाली पीली फ्राक पहने हुए । मगर आज शिरीष को कोई तनाव  नहीं है दीपावली के दिन वह इस गुत्थी को सुलझा ही लेगा । शिरीष खिड़की की ओर देखकर मुस्कुराया आज फिर उसे लगा कि वह लड़की भी मुस्कु रा रही है । लड़की के मुस्कुराते ही खिड़की के दोनों तरफ खड़े गुलमोहर  के हरे भरे पेड़ भी मुस्कुराने लगे हैं । कंटीले तार के पास कतार में खड़े गुलाब के पोधों में चटक चटक कर कुछ कलियाँ फूल बनने लगी हैं और दिन की धूप ज़र्द से अचानक सफेद होकर चांदनी बनती जा रही है, हवाओं में धीमी धीमी घंटियां बजने लगी हैं, मानो कोई भेड़ों का  रेवड़ पास से होकर गुजर रहा हो । शिरीष स्तब्ध सा खड़ा उस खिड़की की ओर देखता रहा उसे लगा मानो मकान के पहिये लग गए हैं और वह मकान मैदान  को पार करता हुआ धीरे-धीरे  उसकी ओर बढता  आ रहा है । ”ए भाई अब चलो भी, रास्ता घेर कर क्यों  खडे हो ?” पीछे से किसी की आवाज़ सुनकर शिरीष की तंद्रा टूटी । ठंडी सांस छोड़ते हुए वह अपनी राह पर बढ़ गया ।

बीच के सात दिन बड़ी उहापोह में गुजरे शिरीष के । कई बार लगता कि कालेज जाते समय मुड जाए उस घर की ओर । मगर मर्यादाओं के प्रश् पैरों में गुंथ कर थाम लेते । क्या कहेगा वहाँ जाकर ? किसको जानता है वो वहाँ ? दीपावली का दिन ऐसा लगा मानो वर्षों  के इंताज़ार के बाद आया । जैसे समय का पहिया किसी रेतीले टीले में  फंसकर सुस्त हो गया  हो । उस पर भी दीपावली  का पूरा दिन काटना उसके लिए किसी युग को काटने  के समान हो गया । शाम  ढले जब सूर्य ने अपनी सत्ता मावस के अंधेरे असमान पर टिमटिमाते सितारों को सौंप कर अस्ताचल में विदा ली तो अंधेरे को चुनौती देते हुए जगमगा उठे हजारों हजार दीपक  । शिरीष ने कमरे से बाहर आकर देखा तो चारों तरफ पृथ्वी पर सितारे उतरे हुए थे । अंधेरा अपना साम्राज्य पसारना चाह रहा था पर विफल होकर कहीं अटका हुआ था । शिरीष ने घड़ी देखी आठ बज रहे हैं बाज़ार से मिठाई वगैरह खरीदने में आधा घंटा तो लग ही जाएगा । तब तक लक्ष्मी पूजन भी हो जाएगी तब ही जाना ठीक रहेगा । सोचता हुआ वह कमरे पर ताला लगा कर निकल पड़ा । बाजार से मिठाई खरीद कर लौटने में उसकी उम्मीद से ज्यादा समय लगा गया कितनी भीड़ थी दुकान पर आधे घंटे में उसका नंबर आया । मिठाई और शुभकामना संदेश खरीद कर लौट पड़ा वह ।

तिराहे पर आकर उसके पैर ठिठक गए यहाँ से ही तो एक रास्ता उस नीली खिड़की वाले मकान की ओर गया है । कुछ देर तक ठहर कर  सोचता रहा फिर सधे कदमों से उस मकान की ओर  जाने वाले रास्ते पर बढ़ गया ।  छोटा सा मकान खामोशियों में  डूबा हुआ था गेट के दोनों तरफ दीपकों की पंक्तियाँ  झिलमिला रहीं थीं जो कतार में मकान से जुड़ी पगडंडी को घेरते हुए मकान तक गईं थीं । मकान का वह पार्श्व जहाँ वह खिड़की है सामने से नज़र नहीं आ रहा था । गेट खोलकर शिरीष  अंदर आया और झिझकते कदमों से आगे बढ़ा।

”कौन ?”  गेट के खुलने और बंद होने की आवाज़ से अंदर से एक स्त्री स्वर आया ।

”जी मैं हूं शिरीष” अपने ही  उत्तर के अटपटेपन को महसूस किया शिरीष ने ।

कुछ देर में दरवाज़ा खुला, एक अधेड उम्र की महिला दरवाजे पर खड़ीं थीं । स्थिति असहज बनने से पहले ही शिरीष ने उनके हाथ में मिठाई का डब्बा तथा शुभकामना संदेश थमा कर उनके पैर छू लिए ”दीपावली की शुभकामानाएं आंटी”। ”बस बस ,खुश रहो । आओ, अंदर आओ” कहते हुए वे दरवाजे से हट गईं ।

अंदर आकर शिरीष ने देखा चारों तरफ ख़ामोशी बिछी हुई है ”तुम बैठो बेटा मैं अभी आती हूं ”  कह कर वो महिला अंदर चली गईं । कुछ  देर बाद एक प्लेट में नाश्ता वगैरह लेकर लौटीं । टेबल पर रखते हुए बोलीं ”लो बेटा दीपावली की मिठाई खाओ”।

मिठाई का एक छोटा सा टुकड़ा उठाते हुए कहा शिरीष ने ”और कोई नहीं है घर में ?”।

”मैं यहाँ अकेली ही रहती हूँ ” महिला का उत्तर सुनकर शिरीष को ऐसा लगा मानो कोई बड़ा पटाखा उसके ठीक पास ही चल गया हो । उसने देखा सामने दीवार पर एक लड़की की फोटो लगी है, उसने अटकते हुए पूछा ”और ये ? ” ।

” ये मेरी बेटी थी, दो साल पहले नहीं रही । ” महिला ने ठंडे स्वर में उत्तर दिया ।

महिला का एक एक शब्द शिरीष को किसी कुंए में गूंजता प्रतीत हो रहा था ”दोनो पैरों से विकलांग थी सुधा, मगर दोनो ऑंखें सपनों से भरी रहतीं थीं हमेशा । जैसे जैसे बडी होने लगी उसके सपने प्रेम की दस्तक सुनने की प्रतीक्षा में सुनहले रुपहले होने लगे । खिड़की पर बैठकर घंटों रास्ते की ओर देखती रहती । मानो किसी की प्रतीक्षा कर रही हो । किसी से प्रेम करना चाहती थी वह, और इसी लिए अपने जीवन में प्रेम की प्रतीक्षा करती रहती थी । दीपावली के दिन बाहर पगडंडी के दोनों तरफ कतार से दीपक लगवाती, मैं पूछती तो कहती ”इससे आने वाले को लगता है कि उसका स्वागत में पलके बिछीं हुईं हैं कोई उसके आने की प्रतिक्षा कर रहा है । सपने देखने वाली उसकी ऑंखें दो साल पहले अचानक बुझ गईं” कहते कहते महिला का कंठ रुंध गया ।

शिरीष अवचेतन से वर्तमान में लौटा और बोला ”सॉरी आंटी मुझे पता नहीं था”।

”कोई बात नहीं बेटा, मिठाई तो लो तुम तो कुछ ले ही नहीं रहे” महिला ने अपने को संभालते हुए कहा ”नहीं आंटी अब मैं चलूंगा, और भी जगह जाना  है मिलना है” कहते हुए शिरीष उठ कर खड़ा हो गया । महिला उसे गेट तक छोड़ने आईं । जब विदा लेकर वह चलने लगा तो पीछे से महिला की आवाज़ आई ”बेटा” । सुनकर शिरीष ठिठक कर पलटा  और बोला ”जी आंटी ” ।

वो महिला कुछ न बोली बस शिरीष की ओर देखती रही । शिरीष  भी चुपचाप खड़ा कुछ देर तक महिला के निचले होंठ और ठुड्डी में होते हुए कंपन तथा पलकों के भीगते किनारों को देखता रहा, फिर अचानक महिला ने कांपते स्वर में शिरीष की ओर देखते हुए पूछा

”क्या तुम्हें भी नज़र आई थी वह ?”

(समाप्त)

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अगला अंक: २१ अक्तूबर २००९
प्राण शर्मा की दो लघुकथाएँ
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