घर में आये मेहमान से मनु ने आतिथ्य धर्म निभाते हुए पूछा-” क्या पीयेंगे,ठंडा या गर्म?”
” नहीं, कुछ भी नहीं.” मेहमान ने अपनी मोटी गर्दन हिला कर कहा.
” कुछ तो चलेगा?”
” कहा न, कुछ भी नहीं.”
” शराब?”
” वो भी नहीं.”
” ये कैसे हो सकता है, मेरे हजूर? आप हमारे घर में पहली बार पधारे हैं. कुछ तो चलेगा ही.”
मेहमान इस बार चुप रहा.
मनु दूसरे कमरे में गया और शिवास रीगल की मँहगी शराब की बोतल उठा लाया. शिवास रीगल की बोतल को देखते ही मेहमान की जीभ लपलपा उठी पर उसने पीने से इनकार कर दिया, मनु के बार-बार कहने पर आखिर मेहमान ने एक छोटा सा पैग लेना स्वीकार कर ही लिया. उस छोटे से पैग का नशा उस पर कुछ ऐसा तारी हुआ कि देखते ही देखते वो आधी से ज्यादा शिवास रीगल की मँहगी शराब की
बोतल खाली कर गया. मनु का दिल बैठ गया.
झूमता-झामता मेहमान रुखसत हुआ. गुस्से से भरा मनु मेज पर मुक्का मारकर चिल्ला उठा-
” मैंने तो इतनी मँहगी शराब की बोतल उसके सामने रख कर दिखावा किया था. हरामी आधी से ज्यादा गटक गया. गोया उसके बाप का माल था.”
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मैं भी मुँह में जबान रखता हूँ
-प्राण शर्मा
चूँकि कुछ लोगों का हाज़मा ठीक नहीं रहता है और दूसरों की खुशियाँ वे पचा नहीं पाते हैं इसलिए पहुँच जाते हैं डा.नवीन के पास. डा. नवीन भी उनकी कुछ इधर की और कुछ उधर की बातों का खूब रस लेते हैं. इलाक़े में नये-नये हैं. अपनी सर्जरी चलानी है इसलिए उनको कईयों की गोसिप भी सुननी पड़ती है. उनको अपनी सर्जरी में बैठे-बैठे ही पता चल जाता है की किसकी बेटी या किसका बेटा आजकल किसके इश्क के चक्कर में है?
खरबूजा खरबूजे को देख कर रंग पकड़ता है. डा. नवीन भी उन जैसे बन गये हैं जो इधर -उधर की बातें करके रस लेते हैं. जब कभी वे किसी रास्ते या पार्टी में मुझ जैसे घनिष्ठ बने मित्र से मिल जाते हैं तो अपने नाम को पूरी तरह से चरितार्थ करते हैं यानी कोई न कोई नवीन बात सुनाये बिना नहीं रह पाते हैं.
कल शाम की ही बात थी. अपनी सर्जरी के बाहर डा. नवीन मिल गये. जल्दी में थे.फिर भी एक किस्सा सुना ही गये. कहने लगे-
“कुछ लोग अजीब किस्म के होते हैं. उन्हें अपनी चिंता कम और दूसरों की चिंता ज्यादा सताती है. सुबह एक रोगी बैठते ही बोला-
” डाक्टर साब, अभी-अभी जो रोगी आपसे मिलकर गया है, उसे रोग-वोग कुछ नहीं है. अच्छा-भला है. बेईमान बहाना-वहाना कर के आपसे सिक नोट ले जाता है .”
” अच्छा, आपके बारे में भी वो यही बात कह कर गया था .”
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दोनों कथायें यथार्थ का चित्रण…दिखावे और बहकावे की दुनिया. बहुत अच्छी लगी दोनों ही कथायें.
दोनों कहानियों में छिपे हुए व्यंग्य को बहुत खूबी से धार दी है प्राण साहब ने । कानाफूसी की सबसे बड़ी विशेषता यही होती है कि जो भी अनुपस्थित हैं उसकी चर्चा होती है और ये बात दूसरी कहानी में बखूबी उभर के आई है । महमान नवाज़ी और उसके बाद की बातों को प्राण साहब ने अपने शब्दों में कुशलता से बांधा है । दोनों कहानियां प्रश्न भी खड़े करती हैं और गुदगुदाती भी हैं ।
दोनों ही कहानिया अच्छी लगी,
regards
सर्वप्रथम सादर प्रणाम श्रद्धेय श्री प्राण साहब का
बहुत ही अच्छी लगी दोनो ही क
थाएं | दिखावे और औपचारिकता का सटीक चित्रण द्वारा संदेश देती हुईं पहली कथा और इधर-उधर की कानॉफूसी करने वालों के भी खूब कान मरोडे हैं आपने अपनी दूसरी कथा के माध्यम से | बेहद उम्दा हैं दोनो ही कथाएं | आभार ।।
साहित्य का कोई क्षेत्र हो लघु कथाएं, कवितायेँ, ग़ज़लें प्राण साहब की लेखनी उसमें प्राण फूंक देती है…ये दोनों ही लघु कथाएं इंसानी फितरत को बहुत ख़ूबसूरती से सामने लाती हैं…सरल सीधी ज़बान में में कही दोनों लघु कथाएं अद्भुत हैं…कथाएं पढ़ कर हंसा भी और सोचने पर मजबूर भी हो गया…दोनों बातें एक साथ घटित हुईं और ये ही लेखन का चमत्कार है..जो विलक्षण है…उनकी प्रतिभा को बारम्बार नमन करता हूँ.
नीरज
अमूमन ये होता है के कथाएं तो लघु होतीं हैं मगर उसमे जो विषय होती है वो छोटी छोटी बातों से दूर रहती है , मैं कहानियों के बारे में ज्यादा नहीं जानता मगर कुछ पसंदीदा कथाकारों को पढता अवश्य हूँ , लघु कथावों में जब तक आप जिन्दगी की बारीक चीजो को शामिल नहीं करते उन्हें जगह नहीं देते तो बड़ी बहस को लघु कथा में समाप्त किया ही नहीं जा सकता ..
आज की इन दोनों कहानियों में ज़िंदगी की बारीक बातों को धान में रख कर लिखी गयी है और फिर यहाँ भी वही बात जमानत जप्त करने वाली है… सफल रही दोनों ही कहानियां अपने बिम्बों से जो कहानीकार ब्यंग के रूप में कहना चाहता है अगर वो शत प्रतिशत पढ़ने वालों तक नहीं पहुंचती है बात तो यही कहा जाता है के कहीं ना कही कोई कमी जरुर रही होगी …
दोनों लघु कथाएं सफल रही …
आपका
अर्श
बहुत खूब … दोनो ही लघु कहानियाँ लाजवाब … समाज का आईना हैं दोनो … चाँद शब्दों में हालात को हूबहू लिख दिया है ..अक्सर ऐसा होता है आप जीवन में … महँगी शराब वाली कहानी तो रोजमर्रा के जीवन में घटती ही रहती है … और फिर दूसरी कहानी भी ऐसी ही लगती है …. कसा हुवा शिल्प, विषय पर चुस्त पकड़, व्यंग की तेज़ धार …. आदरणीय महावीर जी की विशेषता है …
जब दिखावा हावी हो जाता है तो ऐसा ही होता है. आजकल मेहमान भी घर ताड़ कर ही मेहमान बनकर जाते हैं. मुफ्त का नाश्ता मिल जाय तो कौन मेहमान नहीं बनना चाहेगा.
दोहरी मानसिकता, दोहरे मानदंड शायद मनुष्य के चरित्र की स्थापित विकृतियॉं हैं जिसे कम लोग सहजता से स्वीकार पाते हैं।
Dono hi laghukathaayen manushyagat khaamiyon ki or ingit karti hain aur yahi laghu katha ka asli dharm hai ki ek chhoti see clip me hi koi bada sa sandesh de jaati hai.
Aadarneey Pran ji Ko badhai aur aapka aabhar sir.
आज आ. प्राण जी की दोनों कथाएँ पढ़कर लगा मानों जीवन की वास्तविक घटना का आँखों देखा हाल पढ़ रहे हैं
येही तो खूबी है अपने आस पास की बातों को एक सच्चा साहित्यकार ही ,
जीवन गाथा के समकक्ष ला खडा करता है
आप यूं ही लिखते रहें और हमें Gyan मिलता रहे
शुभ हो बैसाखी और आप सभी को नमस्ते सादर वन्दे
– लावण्या
व्यंग्य से भरपूर सुन्दर लघु कथाएँ
yatharth ka bakhubi chitran kiya hai……….kasa huyaa vyangya.
सटीक सार्थक व्यंग्यात्मक लघुकथाएं….
बहुत भली प्रकार से लोगों के मुखौटों को उतारा है आपने अपनी इन लघुकथाओं में…
प्राण शर्मा जी कि दोनों लघुकथाएं दर्शाती हैं झूठ की बुनियाद पर खड़ी दो कड़वी सच्चाइयां जो आज के समाज की भयानक दरारें बन गयी हैं। ‘महमान’ में मानव के ‘इंकार’ में ‘इक़रार’ और
‘इक़रार’ में ‘इंकार’ तो सामने आते ही हैं, महमान और महमान-नवाज़ – दोनों की बनावट गिने हुए शब्दों में किस ख़ूबसूरती से उभर कर आई है!
‘मैं भी मुंह में ज़ुबान रखता हूं’ में है पीठ पीछे छुरा घोंपने की इंसानी फ़ितरत! हाथ में छुरा न सही, ज़ुबान से भी तो छुरा घोंपा जा सकता है।
दोनों लघुकथाएं शानदार! प्राण जी को और महावीर जी को मेरी ओर से हार्दिक बधाई।
-महेन्द्र दवेसर ‘दीपक’
दोनों लघु कथाएं बहुत अच्छी हैं ! पढ़कर बहुत मज़ा आया । पहली कथा में दिखावा और आन्तरिकता की कमी को बखूबी दर्शाया गया है तो दूसरी में झुठमुठ का गपियाने पर ताना कसा गया है !
bahut sundar
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
Aadarniya Pran ji,
Mera Internet kharab hai. Keval aapaki laghukathayen padhkar jaldi mein tippani de raha hun sankshep mein.
Dono laghukathayen pasand aayin. Aage bhi aisi laghukathayen padhane ka saubhagya milata rahega.
Saadar
Chandel
16,अप्रैल,2010
आम ज़िंदगी में घटने वाली घटनाओं को साहित्यिक स्वरूप में ढाल कर गीत – ग़ज़ल या कथा – लघुकथा बना देना पढ़ते – सुनते वक़्त जितना सरल लगता है , लिखते हुए वह उतना ही दुष्कर होता है ।
परिणाम भी वही होता है … आम क़लमची प्रभाव छोड़ नहीं पाता ।
लेकिन मंझे हुए सृजनकार प्राणजी , जो क़लम थामने के उत्तरदायित्व को समझने की प्रेरणा अपने कृतित्व से ख़ासो-आम पाठक को हमेशा से देते आए हैं ; जब भी , जिस विधा में भी लिखते हैं — अपनी छाप छोड़ते हैं । ‘मेहमान’ और ‘मैं भी मुँह में जबान रखता हूँ’ दोनों लघुकथाओं के लिए साधुवाद !
आपकी लेखनी हमारे लिए प्रेरणा के दीप जलाती रहे … आमीन !
– राजेन्द्र स्वर्णकार
Email : swarnkarrajendra@gmail.com
Blog : http://shabdswarrang.blogspot.com
sammaniya pran saab , saadar pranam, dono lagh kathe alag rang liye, agar pehli laghu ka zikr kareto shayad ek baat he puri ho paye KI AA BAIL MUJHE MAAR ” baat ho gayi. aadamo kitne aadhambar me jeene lag gaya hai ,
2 laghu katha me mujhe aisa laga ki aadami apne naiteek kartvayo ko bhoolta ja raha hai , ek doosare ko neecha dikhane me laga hua hai, ager dono lahgu kathaon ki tulana ki jaye to dono ka saar meri nazar me hai ki AADAMI SIRF AADHAMBAR ME JEENE LAGA HAI , KHOKHLE VAZUD KO LIYE,
aabahr
priya bhai Pran jee aapki dono laghu kathaen pad kar lagaa ki aesi ghatnaaen to hum roj hee apne aas-paas ghatte hue dekhte hain lekin jis andaaj men aapne ise prastut kiya hai vo kabile taareph hai itni achchhi katha padvane ke liye mai apka aabhar vayakt karta hoon
पठनीय हैं दोनों ही लघुकथाएं! प्रभाव छोड़ने में भी सफल हैं। परन्तु पहली लघुकथा “मेहमान” में ‘महंगी शराब’ तीन बार आया है। यह अगर अन्तिम पंक्ति में ही आए तो ज्यादा अच्छा है। वैसे भी लघुकथा में शब्दों अथवा वाक्यों का दोहराव लघुकथा की शक्ति को कम करता है। आशा है, प्राण साहिब इस पर गौर करेंगे और अन्यथा न लेंगे।
Pran ji
aapki kalam ke tevar har baar aapna nishana saadhne se nahin chookte. Laghukatha ek aisi abhivyakti hai jo jan manas ko samay ki parishi mein apna manoranjan evan margdarshak bhi banti hai. shubhklamnaon sahit
प्राण जी और महावीर जी ,
चरनबंदना
दोनों लघुकथाएं बहुत अच्छी हैं ! पढ़कर बहुत मज़ा आया ।
प्राण जी को मेरी ओर से हार्दिक बधाई।
सुबह एक रोगी बैठते ही बोला-
” डाक्टर साब, अभी-अभी जो रोगी आपसे मिलकर गया है, उसे रोग-वोग कुछ नहीं है. अच्छा-भला है. बेईमान बहाना-वहाना कर के आपसे सिक नोट ले जाता है .”
” अच्छा, आपके बारे में भी वो यही बात कह कर गया था .”
इसे ही कहते हैं -‘उल्टे बांस बरेली को’
dono laghu kathayen achhi lageen .. 🙂