“मेरा बेटा लौटा दो!!”

“मेरा बेटा लौटा दो!!”-
(एक सत्य घटना पर आधारित कहानी)

महावीर शर्मा

लखनऊ में खटीक समुदाय की बस्ती से दूर जंगल में रामू की माँ चिलला चिल्ला कर दहाड़ रही थी, ” मेरा बेटा लौटा दो! मेरे रामू को लौटा दो!” रामू के बापू और साथियों ने जंगल का चप्पा चप्पा छान डाला, पर बालक का कोई पता नहीं चला। रामू की माँ का हाल बेहाल हो
रहा था। पति ने अपनी मैली सी धोती के पल्ले से आंखों से गिरते आंसुओं को पोंछा। पत्नी को
दिलासा दे कर,घर लौट आए।

रात हो चुकी थी। बाहर जरा सा भी खड़का सा सुनाई देता तो रामू की माँ दौड़ कर दरवाजे पर कहती ‘मेरा रामू आगया!” बस मृग-तृष्णा का छलावा दोनों के साथ खेल खेलता रहता।
कुछ दिन ऐसे ही बीत गए। रामू सारे दिन काम से थका हारा खटिया में लेट गया। आंखें बंद की तो उस भयानक रात की घटना किसी हॉरर फ़िल्म की तरह आंखों की पलकों के पीछे चल रही थी।

‘उमंगों से भरे वर्ष 1947 ने इतिहास में एक नया अध्याय लिख दिया था। इनसान का वीभत्स रूप भी देखा था। इनसान के मस्तिष्क, हृदय और आत्मा के बिगड़ते हुए संतुलन को भी देखा था। धर्म के नाम पर सीमा के दोनों ओर “हर हर महादेव” और “अल्लाह हू अकबर” के नारों
की गूंज में बालकों, स्त्रियों यहां तक बूढ़ों तक को निर्दयता से बलि दी जा रही थी। उसी वर्ष तो हमारे रामू ने इस लहू से भरी लाल रंग की धरती पर जन्म लिया था।

‘गरीबी की चादर ओढ़े इकलौते रामू के साथ सुख-दुख के मिले-जुले जीवन के दिन बीत रहे थे। रामू के भविष्य के लिए न जाने कितने मनसूबे बनाते थे। भौंरिया तो काम के समय भी रामू को सीने से चिपकाए रहती थी। रात को अपनी गोद में ही सीने से लगा कर सोती थी। यही झुग्गी हमारे महल से कम नहीं लगती थी जब आंगन में एक बरस के नन्हें से रामू की किलकारी में जीवन के सारे दुख समा जाते।

एक अंधेरी रात में हवा नें आंधी का रूप धारण कर लिया था। इस आंधी और किवाड़ के में हार जीत की बाज़ी लगी हुई थी। यूं तो ऐसी तेज़ हवाओं के तो हम आदी हो चुके थे। भौंरिया रामू को गोद में चिपकाए हुए सो गई थी। सारे दिन के जिस्म-तोड़ काम ने शरीर को इतना थका दिया था कि किवाड़ की खड़खड़ाहट और तेज़ हवा की सांय सांय भी हमारी नींद को उखाड़ ना सकी।

अचानक से किवाड़ खुले और एक ही झपट्टे में एक खूंख्वार भेड़िया रामू को गोद से छीन कर जंगल की ओर भाग गया। ये सब इतनी फुर्ती से हुआथा कि हम दोनों हड़बड़ा कर खड़े तक भी ना हो पाए थे। हम चीखने चिल्लाने लगे, दौड़ कर भेड़िये के पीछे भागे, शोर सुन कर
बस्ती के लोग अपनी लालटैन ले लेकर साथ हो लिए, पर भेड़िया रामू को ले कर दूर बीहड़ जंगल में लापता हो गया था।
भौंरिया तो बेटे के वियोग में पागल सी हो गई थी। हम दोनों हर रोज़ दूर दूर तक इस जंगल की कांटों भरी झाड़ियों को हटा हटा कर ढूंढते रहते, हाथ कांटों से लहूलुहान हो जाते थे। जितना प्रयत्न करते, सफलता उतनी ही दूर हो जाती। भौंरिया के धैर्य का बांध टूट गया। पागलों की
तरह जंगल में इधर उधर भाग भाग कर दहाड़ दहाड़ कर चिल्लाती -‘ अरे भेड़िये, मेरे लाल को वापस दे दे। तुझे मानस का मांस ही चाहिए ना? ले मैं सामने खड़ी हूं, मेरे अंग अंग को नोच कर खा जा पर मेरे रामू को लौटा दे!’साथ में आए मुखिया ने कहा, ‘ रामू की माँ! भेड़िये और मानव
का तो पुराना बैर है, रामू तो भेड़िये का कभी का आहार बन चुका होगा।’ भौंरिया फूट फूट कर रो पड़ी।’
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इस घटना को 6 वर्ष बीत गए। लोग रामू को भूल से गए। रामू के माँ और बापू ने दिल पर पत्थर रख अपनी रोज की दिनचर्या को सामान्य बनाने का प्रयत्न करते रहते।

दोनों काम से हारे थके सांय झुग्गी के बाहर बैठे हुए थे। रामू के बापू ने बीड़ी सुलगाई ही थी कि सामने वाली बुढ़िया लाठी टेकती हुई मुस्करा कर दोनों के सामने बैठ गई।
अरे, दोनों के लिए बड़ी खुसखबरी ले कर आई हूं। दुनिया चाहे ना माने पर मेरा दिल तो यही गवाही देवे है कि वह रामू ही है।’
दोनों सकते में आगए। कुछ क्षणों तक तो बुढ़िया का मुंह ही तकते रहे, कुछ समझ नहीं आ रहा था। रामू की माँ एक दम तेजी से कहने लगी,’ताई, पहेलियां मत बुझा, मेरा हिया फटा जा रहा है, साफ साफ बता कहां है वो?’
‘अरी मैं ठीक से बैठ तो जाऊं। रामू के बापू, जरा एक बीड़ी तो सुलगाइयो।’
बीड़ी का सुट्टा लगा कर बुढ़िया ने कहना शुरू किया,’ तू तो जाने ही है कि तेरा ताऊ अखबार बांच लेवे है। बता रहे थे कि छापे में लिखा था कि कुछ वकत हुआ, बलरामपुर के अस्पताल में एक बच्चा भरती हुआ है जिसकी चाल-ढाल, आदतें, हाव-भाव ही नहीं हाथ पैर तक के भी
भेड़िये की तरह हैं।’

दोनों सवेरे ही बलरामपुर के अस्पताल पहुंच गए। एक नर्स से बात हुई, अपनी दारुण-कथा सुनाई। नर्स उनके हाव-भाव को आंकने की कोशिश कर ही थी। दोनों रो रहे थे। दोनों को वहीं बैठा कर, अंदर जा कर डाक्टर को बताया कि एक दम्पति इस बालक के माता-पिता होने का दावा कर रहे हैं। नर्स ने यह भी कहा कि यह भी हो सकता है कि यह दोनों एक घड़न्त कहानी बना कर अखबार वालों से इस कहानी को भुनाने की कोशिश कर रहे हों।
डाक्टर ने दोनों को बुला कर सीधा प्रश्न किया, ‘तुम किस आधार पर कहते हो कि यह तुम्हारा ही बेटा है?” भौंरिया भावों के बहाव में रोती हुई कहने लगी, ‘डाक्टर जी, मेरा दिल कहता है कि वह मेरा रामू ही है।’ डाक्टर कुछ कहना चाह रहा था कि रामू के बापू ने कहा,
‘मालिक ! रामू के माथे पर जनम का निसान है और उसकी दाईं जांघ पर जनम का नीला निसान भी है।’डाक्टर ने मुस्कराते हुए कहा, ‘जाओ, नर्स के साथ जाकर अपने रामू से मिल लो पर उससे सतर्क रहना।’

देखते ही भौंरिया की ममता उमड़ पड़ी। बालक को गले से लगा लिया। नर्स विस्मित हो गई कि वही रामू जिसको पकड़ने के लिए एक युद्ध सा करना पड़ता था,चुपचाप इस औरत के गले लगा हुआ था। रामू का बापू धोती के पल्ले से खुशी के आंसू पोंछ रहा था। अब ग़ौर से देखा तो दोनों का हृदय द्रवित हो गया। घुटनों और हाथों में गट्ठे पड़े हुए थे। गर्दन के पीछे दांतों के निशान थे। बोलने के नाम पर केवल भेड़ियों की तरह हुवा-हुवा करता। साथ ही रखे हुए कटोरे में मुंह डाल कर जानवरों की तरह ही पीता था। नर्स ने कहा,’ अब इसकी दवा का समय है, तुम बाहर बैठो, मैं अभी आती हूं। ‘

नर्स को दोनों ने 6 वर्ष पहली घटना विस्तार से सुनाई। नर्स का दिल भी पिघल सा गया। नर्स ने बताया,’1954 के इसी साल में थोड़े समय की बात है, इस बालक को लखनऊ के स्टेशन के थर्ड-क्लास वेटिंग-रूम में देखा गया था। लोग इस से डरते थे। बड़ी कठिनाई से इसे पकड़ कर
17 जनवरी को यहां लाया गया था।’
दोनों की उत्सुक्ता बढ़ रही थी, ‘वह कैसा लगता था उस वकत?’ नर्स जारी रही, ‘वह मानव की संगत पसंद नहीं करता था। हां, चिड़ियाघर में ले जाते तो भेड़ियों को देख कर उत्तेजित हो जाता था। खाने की वस्तुओं को टुकड़े टुकड़े कर डालता हे।हड्डियों को घंटों तक चबाता रहता था। इसी लिए डाक्टर कहते हैं कि लगता है इसे भेड़ियों ने पाला था। कोई भी नहीं कह सकता था वह किसी भी रुप से मानवीय हो। सिर पर गुथे हुए बाल जटाएं बन चुकी थीं, चारों हाथ पैरों से जानवरों की तरह ही चलता था। ज्यों ही कपड़े पहनाते तो फाड़ डालता। रात को भेड़ियों की तरह ‘हुवाने’ की आवाज़ें करता। हंसना तो जानता ही न था। हां, रात के समय उसकी आंखें चमकती थीं। मांस को दूर से ही सूंघ कर पहचान लेता था।’

‘जब वह आया था, कच्चा मांस और फल खाता था। अब यहां दूसरे रोगियों को देख देख कर पकाई हुई सब्जियां और रोटी भी खाने लगा है। बिजली के इलाज से इसे लाभ हुआ है। पहले हाथ पैरों को फैलाता तक नहीं था पर अब पहले से अच्छा है।’ दोनों सुन कर आंसुओं को थाम ना सके।
नर्स ने कहा, ‘उसका पूरा हाल ना ही सुनो तो अच्छा होगा। इसे तुम घर ले जाकर संभाल नहीं पाओगे। यहां देखभाल, दवा, इलाज की उचित व्यवस्था है। बस आकर जब भी चाहो, देख जाया करो।’ दोनों इस से सहमत थे।

रामू मानवीय गुणों को पूरी तरह स्वीकार ना कर पाया। मां बाप १४ वर्षों तक नियम पूर्वक अस्पताल में जाकर अपने ममत्व को सींचते रहे। रामू की हालत बिगड़ने लगी। दवा और इलाज का असर खत्म हो गया। 20 अप्रेल 1968 की रात रामू की अंतिम रात बन गई। कुछ
मानवीय और कुछ पशु-पालित भेड़ियों के गुणों का समन्वित रूप साथ ले कर आंखें हमेशा के लिए बंद कर ली।

बेटे की चिता से अस्थियां इकट्ठी की, भीगी आंखों से राख के पात्र को सीने से लगाया। जाकर उसी बीहड़ जंगल की हवा में अस्थि-विसर्जित करते हुए हुए कहा, “ऐ भेड़ियों, हम तुम्हारे ऋणी हैं। हमारे रामू को तुम्हीं ने तो पाला था!!”
महावीर शर्मा


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3 Comments »

  1. 1

    जंगल बूक शायद इसी घटना पर आधारीत है !

  2. आशिष जी
    आपकी टिप्पणी के लिए बहुत धन्यवाद!
    उक्त कहानी ‘जंगल बुक’ से बिल्कुल भिन्न है। रुडयार्ड किपलिंग लिखित ‘The Jungle Book’ सन् 1894 में लिखी गई थी, जब कि इस कहानी का रामू कल्पित नहीं है। रामू 20 अप्रेल 1968 के दिन मृत्यु को प्राप्त हुआ था। उसके माता-पिता के नाम नहीं पता लग
    सका। अतः रामू की माँ को एक कल्पित नाम देना पड़ा। अंगरेज़ी दैनिक ‘The Hindu’ दिनांक 10 फरवरी 2004 में भी रामू के विषय में समाचार दिया गया था।
    महावीर

  3. बहुत हृदय स्पर्शी कहानी है. बहुत सुंदर. आँख भर आई पढ़ते पढ़ते.


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