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भारत से सुकेश साहनी की दो लघुकथाएं

अप्रैल 21, 2010

प्रतिमाएं
-सुकेश साहनी

उनका काफिला जैसे ही बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के नज़दीक पहुँचा, भीड़ ने घेर लिया। उन नग-धड़ंग अस्थिपंजर-से लोगों के चेहरे गुस्से से तमतमा रहे थे। भीड़ का नेत्तृव कर रहा युवक मुट्ठियाँ हवा में लहराते हुए चीख रहा था, मुख्यमंत्री—मुर्दाबाद ! रोटी कपड़ा दे न सके जो, वो सरकार निकम्मी है! प्रधानमंत्री !—हाय!हाय!1” ुख्यमंत्री ने लती ुई नजरों से हां िलाधिकारी ेखा। आनन-फानन ें प्रधानमंत्री ाढ़ग्रस्त क्षेत्र के वाई िरीक्षण िए हेलीकाप्टर ्रबंध िया या। हां ्थिति ँभालने के िए मुख्यमंत्री वहीं ुक गए।

हवाई निरीक्षण से लौटने पर प्रधानमंत्री दंग रह गए। अब वहां असीम शांति छायी हुई थी। भीड़ का नेतृत्व कर रहे युवक की विशाल प्रतिमा चौराहे के बीचों बीच लगा दी गई थी। प्रतिमा की आँखें बंद थी, होंठ भिंचे हुए थे और कान असामान्य रूप से छोटे थे। अपनी मूर्ति के नीचे वह युवक लगभग उसी मुद्रा में हाथ बाँधे खड़ा था। नंग-धड़ंग लोगों की भीड़ उस प्रतिमा के पीछे एक कतार के रूप में इस तरह खड़ी थी मानो अपनी बारी की प्रतीक्षा में हो। उनके रुग्ण चेहरे पर अभी भी असमंजस के भाव थे।

मुख्यमंत्री सोच में पड़ गए थे। जब से उन्होंने इस प्रदेश की धरती पर कदम रखा था, जगह-जगह स्थानीय नेताओं की आदमकद प्रतिमाएँ देखकर हैरान थे। सभी प्रतिमाओं की स्थापना एवं अनावरण मुख्यमंत्री के कर कमलों से किए गए होने की बात मोटे-मोटे अक्षरों में शिलालेखों पर खुदी हुई थी। तब वे लाख माथापच्ची के बावजूद इन प्रतिमाओं को स्थापित करने के पीछे का मकसद एकदम स्पष्ट हो गया था। राजधानी लौटते हुए प्रधानमंत्री बहुत चिंतित दिखाई दे रहे थे।

दो घंटे बाद ही मुख्यमंत्री को देश की राजधानी से सूचित किया गया-आपको जानकर हर्ष होगा कि पार्टी ने देश के सबसे महत्त्वपूर्ण एवं विशाल प्रदेश की राजधानी में आपकी भव्य,विशालकाय प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया है। प्रतिमा का अनावरण पार्टी-अध्यक्ष एवं देश के प्रधानमंत्री के कर-कमलों से किया जाएगा। बधाई !

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पिंजरे
-सुकेश साहनी

उसके कदमों की आहट से चौंककर नीलू ने आँखें खोलीं, उसे पहनाकर धीरे से दुम हिलाई और फिर निश्चिन्त होकर आँखें बंद कर लीं। चारों पिल्ले एक दूसरे पर गिरते पड़ते माँ की छाती से दूध पी रहे थे। वह मंत्रमुग्ध-सा उन्हें देखता रहा।
नीलू के प्यारे-प्यारे पिल्लों के बारे में सोचते हुए वह सड़क पर आ गया। सड़क पर पड़ा टिन का खाली डिब्बा उसके जूते की ठोकर से खड़खड़ाता हुआ दूर जा गिरा । वह खिलखिलाकर हँसा। उसने इस क्रिया को दोहराया, तभी उसे पिछली रात माँ द्वारा सुनाई गई कहानी याद आ गई, जिसमें एक पेड़ एक धोबी से बोलता है, “धोबिया, वे धोबिया! आम ना तोड़—-उसने सड़क के दोनों ओर शान से खड़े पेड़ों की ओर हैरानी से देखते हुए सोचा—पेड़ कैसे बोलते होंगे,—कितना अच्छा होता अगर कोई पेड़ मुझसे भी बात करता! पेड़ पर बैठे एक बंदर ने उसकी ओर देखकर मुँह बनाया और फिर डाल पर उलटा लटक गया। यह देखकर वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।
खुद को स्कूल के सामने खड़ा पाकर वसह चौंक पड़ा। घर से स्कूल तक का लम्बा रास्ता इतनी जल्दी तय हो गया, उसे हैरानी हुई । पहली बार उसे पीठ पर टँगे भारी बस्ते का ध्यान आया। उसे गहरी उदासी ने घेर लिया। तभी पेड़ पर कोयल कुहकी। उसने हसरत भरी नज़र कोयल पर डाली और फिर मरी-मरी चाल से अपनी कक्षा की ओर चल दिया।
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भारत से सुकेश साहनी की दो लघुकथाएं

फ़रवरी 10, 2010
सुकेश साहनी
जन्म : 5 सितम्बर, 1956(लखनऊ)
शिक्षा : एम.एस-सी. (जियोलॉजी), डीआईआईटी (एप्लाइड हाइड्रोलॉजी) मुम्बई से।
कृतियां : डरे हुए लोग, ठण्डी रजाई (लघुकथा-संग्रह), मैग्मा और अन्य कहानियां, (कहानी-संग्रह), अक्ल बड़ी या भैंस (बालकथा-संग्रह), लघुकथा संग्रह पंजाबी,गुजराती,मराठी एवं अंग्रेजी में भी उपलब्ध। मैग्मा कहानी सहित अनेक लघुकथाएँ, जर्मन भाषा में अनूदित। अनेक रचनाएँ पाठयक्रम में शामिल `रोशनी´ कहानी पर दूरदर्शन के लिए टेलीफिल्म।
अनुवाद : खलील जिब्रान की लघुकथाएँ, पागल एवं अन्य लघुकथाएँ, विश्व प्रसिद्ध लेखकों की चर्चित कहानियाँ।
सम्पादन : हिन्दी लघुकथा की पहली वेब साइट http://www.laghukatha.com का वर्ष 2000 से सम्पादन। आयोजन, महानगर की लघुकथाएँ, स्त्री-पुरुष संबंधों की लघुकथाएँ, देह व्यापार की लघुकथाएँ, बीसवीं सदी : प्रतिनिधि लघुकथाएँ, समकालीन भारतीय लघुकथाएँ, बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ ।
सम्मान : डॉ.परमेश्वर गोयल लघुकथा सम्मान 1994,माता शरबती देवी पुरस्कार 1996, डॉ. मुरली मनोहर हिन्दी साहित्यिक सम्मान 1998, बरेली कालेज, बरेली-स्वर्ण जयन्ती सम्मान 1998, माधवराव सप्रे सम्मान 2008 ।
सम्प्रति : भूगर्भ जल विभाग में हाइड्रोलॉजिस्ट।

दीमक
सुकेश साहनी

“किसन !—” बड़े साहब ने चपरासी को घूरते हुए पूछा, “तुम मेरे कक्ष से क्या चुराकर ले जा रहे थे?”
“ कुछ नहीं साहब।”
“झूठ मत बको!—” बड़े साहब चिल्लाए, “चौकीदार ने मुझे रिपोर्ट किया है, तुम डिब्बे में कुछ छिपाकर ले जा रहे थे—क्या था उसमें? सच-सच बता दो नहीं तो मैं पुलिस में तुम्हारे खिलाफ—”
“नहीं—नहीं साहब! आप मुझे गलत समझ रहे हैं—” किसन गिड़गिड़ाया, “मैं आपको सब कुछ सच-सच बताता हूँ—मेरे घर के पास सड़क विभाग के बड़े बाबू रहते हैं, उनको दीमक की जरूरत थी, आपके कक्ष में बहुत बड़े हिस्से में दीमक लगी हुई है । बस—उसी से थोड़ी-सी दीमक मैं बड़े बाबू के लिए ले गया था। इकलौते बेटे की कसम !—मैं सच कह रहा हूँ ।”
“बड़े बाबू को दीमक की क्या जरूरत पड़ गई !” बड़े साहब हैरान थे।
“मैंने पूछा नहीं,” अगर आप कहें तो मैं पूछ आता हूँ ।”
“नहीं—नहीं,” मैंने वैसे ही पूछा, “—अब तुम जाओ।” बड़े साहब दीवार में लगी दीमक की टेढ़ी-मेढ़ी लंबी लाइन की ओर देखते हुए गहरी सोच में पड़ गए।
“मिस्टर रमन!” बड़े साहब मीठी नज़रों से दीवार में लगी दीमक की ओर देख रहे थे, “आप अपने कक्ष का भी निरीक्षण कीजिए, वहां भी दीमक ज़रूर लगी होगी, यदि न लगी हो तो आप मुझे बताइए, मैं यहाँ से आपके केबिन में ट्रांसफर करा दूँगा। आप अपने खास आदमियों को इसकी देख-रेख में लगा दीजिए, इसे पलने-बढ़ने दीजिए । आवश्यकता से अधिक हो जाए तो काँच की बोतलों में इकट्ठा कीजिए, जब कभी हम ट्रांसफर होकर दूसरे दफ्तरों में जाएँगे, वहाँ भी इसकी ज़ररूरत पड़ेगी।”
“ठीक है, सर! ऐसा ही होगा—” छोटे साहब बोले।
“देखिए—” बड़े साहब का स्वर धीमा हो गया-“हमारे पीरियड के जितने भी नंबर दो के वर्क-आर्डर हैं, उनसे सम्बंधित सारे कागज़ात रिकार्ड रूम में रखवाकर वहाँ दीमक का छिड़काव करवा दीजिए—न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।”
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विजेता
सुकेश साहनी

“बाबा, खेलो न!”
“दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँ तुम्हें ढूँढ रही होगी।”
“माँ को पता है- मैं तुम्हारे पास हूँ । वो बिल्कुल परेशान नहीं होगी। पकड़म-पकड़ाई ही खेल लो न !”
“बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है ।”
“मुझे नहीं खेलना उनके साथ । वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते ।” अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला, “मेरा खाना तो माँ बनाती है , तुम्हारी माँ कहाँ है?”
“मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गयी थी।” नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कराकर कहा ।
“बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नज़दीक आकर उसका झुर्रियों भरा चेहरा अपने नन्हें हाथों में भर लिया,” अब तुम्हें अपना खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं, मै माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!”
“दोस्त!” बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, “अपना काम खुद ही करना चाहिए—और फिर—अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ—है न !”
“और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।”
“तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगें ।” बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा । बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।
कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गये। बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पटटी बाँधने लगा ।
पटटी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया- मोतियाबिन्द के आपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिल्कुल खत्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेजी से क्षीण होती जा रही थी।
“बाबा,पकड़ो—पकड़ो!” बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था।
उसने बच्चे को हाथ पकड़ने के लिए हाथ फैलाए तो एक विचार उसके मस्तिक में कौंधा- जब दूसरी आँख से भी अंधा हो जाएगा—तब?—तब?—वह—क्या करेगा?—किसके पास रहेगा?—बेटों के पास? नहीं—नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया—हर बार अपमानित होकर लौटा है—तो फिर?—
“मैं यहाँ हूँ—मुझे पकड़ो!”
उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से कदम बढ़ाए—हाथ से टटोलकर देखा—मेज—उस पर रखा गिलास—पानी का जग—यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई—और –और—यह रहा बिजली का स्विच—लेकिन —तब—मुझ अंधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी?—होगी—तब भी रोशनी की ज़रुरत होगी—अपने लिए नहीं—दूसरों के लिए—मैंने कर लिया—मैं तब भी अपना काम खुद कर लूँगा!”
“बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए—तुम हार गए—तुम हार गए!” बच्चा तालियाँ पीट रहा था।
बूढ़े की घनी सफेद दाढ़ी के बीच होंठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी।
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आगामी अंक:
बुद्धवार, 17 फरवरी 2010

यू.के. से प्राण शर्मा
की दो लघुकथाएं