दान और दानी
डॉ. गौतम सचदेव
सेठ धनीराम अपनी माता जी की पहली बरसी के उपलक्ष्य में ग़रीबों में कम्बल बाँट रहे थे । ख़बर सुनते ही उनके घर के बाहर सैकड़ों की भीड़ जमा हो गई । सेठ जी ने सबसे लाइन बनाने को कहा, लेकिन कोई इसके लिये तैयार नहीं हुआ । जब उन्होंने धमकी दी कि सिर्फ़ लाइन में लगने वालों को ही कम्बल दिये जाएँगे, तब जाकर धक्का-मुक्की करते लोगों ने उनका कहना माना । सेठ जी को चूँकि केवल एक सौ एक कम्बल ही बाँटने थे, इस लिये उन्होंने आगे खड़े एक सौ एक लोगों को नम्बर लगी पर्चियाँ थमा दीं । कई लोग शोर मचाने लगे कि हम सबसे पहले आये थे, हमें भी पर्ची दो । हमें लाइन में लगने की सज़ा क्यों दे रहे हैं ? काफ़ी हो-हल्ला करने के बाद भी जब उन लोगों को नम्बर वाली पर्चियाँ नहीं मिलीं, तो वे बड़े निराश हुए, लेकिन वे इस आशा में फिर भी खड़े रहे कि शायद सेठ जी का विचार अब भी बदल जाये ।
सेठ धनीराम के नौकर ने कम्बल लाकर रख दिये थे । सेठ जी ने कम्बल बाँटने शुरू किये । ज्योंही लाइन में खड़ा पर्चीधारी आगे बढ़कर नम्बर वाली पर्ची दिखाता, त्योंही सेठ जी उससे पर्ची लेते और कम्बल पकड़ा देते । कम्बल पाने वाले उनको और उनकी दिवंगत माता जी को दुआएँ देते जा रहे थे । कोई कहता – जुग जुग जियो दाता । कोई आसमान की ओर हाथ उठाकर कहता – परमात्मा आपको लम्बी उमर दे । कोई उनकी माता जी के लिये प्रार्थना करता – भगवान उन्हें स्वर्ग में निवास दे । सेठ जी पुण्य की इस कमाई को लूट-लूटकर बहुत प्रसन्न हो रहे थे ।
ज्योंही आख़िरी कम्बल बँटा, त्योंही न जाने किधर से चार-पाँच लट्ठधारी गुंडे आये और छीना-झपटी करने लगे । जो लोग कम्बल लेते ही चले गये थे, वे तो बच गये, लेकिन शेष कितने ही कमज़ोर और बेसहारा लोगों के कम्बल छिन गये । भगदड़ मच गई और असहाय सेठ जी हक्के-बक्के होकर देखते रह गये ।
सेठ धनीराम के घर के पास ही ऊनी कपड़ों की एक दुकान थी । दुकानदार ने आनन-फ़ानन बाहर यह लिखकर एक बोर्ड लगा दिया – ‘हम कम्बल ख़रीदते हैं’ । जिन कम्बलधारियों के कम्बल बच गये थे, उनमें से कई ने इधर-उधर देखने और तसल्ली करने के बाद कि कहीं गुंडे तो नहीं खड़े, दुकान पर जाकर दस-दस रुपये में कम्बल बेच दिये । शाम को अँधेरा होने पर वही लट्ठधारी गुंडे आये और दुकान के पिछले दरवाज़े से चुपचाप अंदर घुस गये । उन्होंने दुकानदार को दिन में छीने हुए कम्बल सौंपे, इनाम लिया और चलते बने । दुकानदार के पास साठ-सत्तर कम्बल पहुँच चुके थे ।
अगले दिन उसी दुकानदार ने ‘सेल’ लगाई और वही कम्बल पचास-पचास रुपये में बेचने लगा । लेकिन यह क्या ! अभी वह दो-चार कम्बल ही बेच पाया था कि ग्राहक आने बंद हो गये । दरअस्ल लोगों में यह बात फैलते देर नहीं लगी थी कि दुकानदार कीड़ों द्वारा खाये कम्बल बेच रहा है, जिन में पचासों छेद हैं । दुकानदार एक तो सेठ धनीराम को पहले ही गालियाँ दे रहा था कि उन्होंने मुझसे कम्बल क्यों नहीं ख़रीदे । अब छेदों वाले कम्बलों को ख़रीदकर पछताने की बजाय वह उन्हें ज़ोर-ज़ोर से कोसने लगा – बड़े धर्मात्मा बनने चले हैं ! सड़े हुए कम्बल देकर दानी बन रहे हैं ! भला दान में क्या ऐसी चीज़ें दी जाती हैं ?
बेचारे धनीराम क्या जानें कि उन्होंने अपने जिस मित्र की दुकान से कम्बल ख़रीदे थे, उसने उन्हें पूरे दाम लेकर ऐसे छलनी कम्बल बेचे थे ।
डॉ. गौतम सचदेव