Archive for the ‘ग़ज़ल/नज़्म’ Category

अधूरी हसरतें – ग़ज़ल

फ़रवरी 8, 2008

अधूरी हसरतें – ग़ज़ल

कुछ अधूरी हसरतें अश्के-रवाँ में बह गये
क्या कहें इस दिल की हालत, शिद्दते-ग़म सह गये।

गुफ़तगू में फूल झड़ते थे किसी के होंट से
याद उनकी ख़ार बन, दिल में चुभो के रह गये।

जब मिले हम से कभी, इक अजनबी की ही तरह
पर निगाहों से मिरे दिल की कहानी कह गये।

यूं तो तेरा हर लम्हा यादों के नग़मे बन गये
वो ही नग़मे घुट के सोज़ो-साज़ दिल में रह गये।

दिल के आईने में उसका, सिर्फ़ उसका अक्स था
शीशा-ए-दिल तोड़ डाला, ये सितम भी सह गये।

दो क़दम ही दूर थे, मंज़िल को जाने क्या हुआ
फ़ासले बढ़ते गये, नक़्शे-क़दम ही रह गये।

ख़्वाब में दीदार हो जाता तिरी तस्वीर का
नींद अब आती नहीं, ख़्वाबी-महल भी ढह गये।
महावीर शर्मा

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इस ज़िन्दगी से दूर – ग़ज़ल

नवम्बर 28, 2007

इस ज़िन्दगी से दूर – ग़ज़ल

इस ग़ज़ल का मतला (पहला शेअर) उन लोगों को समर्पित है जो ज़िन्दगी के ढलान
पर हैं। जिस्म और ज़हन पूरी तरह साथ नहीं दे पाते। मस्तिष्क से शब्द निकल कर
देर तक ज़ुबान को चाट चाट कर मुंह से निकलते हैं, या फिर ख़ामोशी से मस्तिष्क के
शब्दकोश की अंधेरी कोठरी में वापस चले जाते हैं। ख़ुद को भी उसी सफ़ में देख रहा हूँ।

इस ज़िन्दगी से दूर, हर लम्हा बदलता जाए है,
जैसे किसी चट्टान से पत्थर फिसलता जाए है।

अगले दो अशआर उन लोगों को समर्पित करता हूं जो बुढ़ापे में तन्हाई के कैदख़ाने की
सलाखों से जूझते रहते हैं।

अपने ग़मों की ओट में यादें छुपा कर रो दिए
घुटता हुआ तन्हा, कफ़स में दम निकलता जाए है।

कोई नहीं अपना रहा जब, हसरतें घुटती रहीं
इन हसरतों के ही सहारे दिल बहलता जाए है।

………………..
तपती हुई सी धूप को हम चांदनी समझे रहे
इस गर्मिये-रफ़तार में दिल भी पिघलता जाए है।

जब आज वादा-ए-वफ़ा की दासतां कहने लगे,
ज्यूं ही कहा ‘लफ़्ज़े-वफ़ा’, वो क्यूं संभलता जाए है।

इक फूल बालों में सजाने, खार से उलझे रहे,
वो हैं कि उनका फूल से भी, जिस्म छिलता जाए है।

दौलत जभी आए किसी के प्यार में दीवार बन,
रिश्ता वफ़ा का बेवफ़ाई में बदलता जाए है।

महावीर शर्मा

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बुढ़ापा!

मार्च 14, 2007

बुढ़ापा!

जवाँ जब वक़्त की दहलीज़ पर आंसू बहाता है,
बुढ़ापा ज़िंदगी को थाम कर जीना सिखाता है।

पुराने ख़्वाब को फिर से नई इक ज़िंदगी देकर,
अधूरे से पलों को फिर कहानी में सजाता है।

तजुर्बे उम्र भर के चेहरे की झुर्रियां बन कर,
किताबे-ज़िंदगी में इक नया अंदाज़ लाता है।

किसी के चश्म पुर-नम दामने-शब में अंधेरा हो,
बुझे दिल के अंधेरे में शमां फिर से जलाता है।

क़दम जब भी किसी के बहक जाते हैं जवानी में,
बुज़ुर्गों की दुआ से रासते पर लौट आता है।

महावीर शर्मा

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जब वतन छोड़ा……महावीर शर्मा

जनवरी 23, 2007

जब वतन छोड़ा……

महावीर शर्मा

जब वतन छोड़ा, सभी अपने पराए हो गए

आंधी कुछ ऐसी चली नक़्शे क़दम भी खो गए

खो गई वो सौंधि सौंधी देश की मिट्टी कहां ?

वो शबे-महताब दरिया के किनारे खो गए

बचपना भी याद है जब माँ सुलाती थी मुझे

आज सपनों में उसी की गोद में हम सो गए

गुल्लि डंडा खेलते, खिड़की किसी की टूटती

भागने का वो नज़ारा, पांव मोटर हो गए

दोस्त लड़ते जब कभी तो फिर मनाते प्यार से

आज क्यूं उन के बिना ये चश्म पुरनम हो गए!

किस कदर तारीक है दुनिया मिरी उन के बिना

दर्द फ़ुरक़त का लिए हम दिल ही दिल में रो गए

था मिरा प्यारा घरौंदा, ताज से कुछ कम न था

गिरती दीवारों में यादों के ख़ज़ाने खो गए

हर तरफ़ ही शोर है, ये महफ़िले-शेरो-सुखन

अजनबी सी भीड़ में फिर भी अकेले हो गए

महावीर शर्मा

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ग़ज़ल ‘याद है…..’महावीर शर्मा

जनवरी 3, 2007

भूल कर ना भूल पाए, वो भुलाना याद है
पास आये, फिर बिछड़ कर दूर जाना याद है

हाथ ज़ख्मी हो गए, इक फूल पाने के लिए
प्यार से फिर फूल बालों में सजाना याद है

ग़म लिए दर्दे-शमां जलती रही बुझती रही
रौशनी के नाम पर दिल को जलाना याद है

सूने दिल में गूंजती थी, मदभरी मीठी सदा
धड़कनें जो गा रही थीं, वो तराना याद है

ज़िन्दगी भी छांव में जलती रही यादें लिये
आग दिल की आंसुओं से ही बुझाना याद है

रह गया क्या देखना, बीते सुनहरे ख़्वाब को
होंट में आंचल दबा कर मुस्कुराना याद है

जब मिले मुझ से मगर इक अजनबी की ही तरह
अब उमीदे-पुरसिशे-ग़म को भुलाना याद है
महावीर शर्मा

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“ मुहब्बत ” ?महावीर शर्मा

नवम्बर 21, 2006

“ मुहब्बत ” ?

मुहब्बत लफ़्ज़ सुनते ही हर दिल में एक ख़याली बिजली सी कौंध जाती है।
शायरों ने अपने अपने अंदाज़ में मुहब्बत का इज़हार किया है। तो मुलाहज़ा फ़रमाइयेः

बहज़ाद साहब मुहब्बत की पहचान इस अंदाज़ में कराते हैं;

"अश्कों को मिरे लेकर दामन पर ज़रा जांचो,
जम जाये तो ये खूँ है, बह जाये तो पानी है।"

मुहब्बत और मजबूरी का दामन और चोली का साथ है। इस बारे में;

"मजबूरी-ए-मुहब्बत अल्लाह तुझ से समझे,
उनके सितम भी सहकर देनी पड़ी दुआएं।"

आगे वो कहते हैं कि इश्क़ का ख़याल इबादत में भी पीछा नहीं छोड़ताः

"अब इस को कुफ़्र कहूं या कहूं कमाल-ए-इश्क़
नमाज़ में भी तुम्हारा ख़याल होता है?"

मुब्बत की हद्द कहां तक पहुंच जाती हैः

"जान लेने के लिये थोड़ी सी ख़ातिर करदी,
रात मुहं चूम लिया शमा ने परवाने का।"

ग़ालिब का ये शेर तो आपके ज़हन में न जाने कितनी बार गुज़रा होगाः

"इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने।

अर्श मलसियानी का ये शेर शायद पसंद आयेः

"तवाज़ुन ख़ूब ये इश्क़-ओ-सज़ाए-इश्क़ में देखा,
तबियत एक बार आई, मुसीबत बार बार आई।"

सवाल पैदा होता है कि 'मुहब्बत' है कौन सी बला?
इक़बाल साहब के इस शेर पर ग़ौर कीजियेगाः

"मुहब्बत क्या है? तासीर-ए-मुहब्बत किस को कहते हैं?
तेरा मजबूर कर देना, मेरा मजबूर हो जाना।"

और अदम साहब भी ढूंढते नज़र आते हैं;

"वो आते हैं तो दिल में कुछ कसक मालूम होती है,
मैं डरता हूं कहीं इसको मुहब्बत तो नहीं कहते!"

उन्हें तसल्लीबख़्श जवाब नहीं मिलाः

"ऐ दोस्त मेरे सीने की धड़कन को देखना,
वो चीज़ तो नहीं है,मुहब्बत कहें जिसे!"

कहते हैं कि इश्क़ अंधा होता है, लेकिन इससे भी आगे हैः

"इश्क़ नाज़ुक है बेहद,
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता।"

एक ज़माना था कि इश्क़ के मारों की ज़ुबान पर दाग़ साहब का ये शहर बेसाख़्ता निकल जाता थाः

दिल के आईने में है तसवीर-ए-यार,
जब ज़रा गर्दन झुकाई, देख ली।"

मेरे बांके जवान दोस्तो, इस शेर को ज़रूर याद रखनाः

"मुहब्बत शौक़ से कीजे मगर इक बात कहता हूं,
हर ख़ुश-रंग पत्थर गौहर-ओ-नीलम नहीं होता।"

और ये भी याद रखना जैसा कि इक़बाल साहब ने ताक़ीद की हैः

"ख़ामोश ऐ दिल ! भरी महफ़िल में चिल्लाना नहीं अच्छा,
अदब पहला क़रीना है मुहब्बत के क़रीनों में।"

आखिर में फ़ैज़ साहब के इस शेर के साथ ख़त्म करता हूं जिसमें मानो सारी कायनात एक तरफ़ और मुहब्बत ???

"और क्या देखने को बाक़ी है,
आपसे दिल लगा के देख लिया!"

महावीर शर्मा

हर इक हाथ में पत्थर क्यूं है

मार्च 7, 2006

सुदर्शनफ़ाकिर” की एक ग़ज़ल

आज के दौर में दोस्त ये मंज़र क्यूं है
ज़ख़्म हर सर पे हर इक हाथ में पत्थर क्यूं है

जब हक़ीक़त है कि हर ज़र्रे में तू रहता है
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यूं है

अपना अंजाम तो मालूम है सब को फिर भी
अपनी नज़रों में हर इन्सान सिकंदर क्यूं है

ज़िंदगी जीने के क़ाबिल ही नहीं अबफ़ाकिर”
वर्ना हर आंख में अश्कों का समंदर क्यूं है
सुदर्शनफ़ाकिर”

वैलंटाइन डे

फ़रवरी 14, 2006

वैलंटाइन डे

आज दिन है प्रेमियों का, प्यार की बातें करो
तुम कहो, कुछ वो कहें, इज़हार की बातें करो ।

कीमती वो हार जो हाथों में है वो, फेंक दो
बाहें गले में डालकर, इस हार की बातें करो ।

गुलों ने रंग जिससे है चुराया चुपके चुपके
उस गुलबदन के होंट और रुख़सार की बातें करो ।

दो दिलों की धड़कनें मिल, गीत सा गाने लगें जब
शाने पे सर को रख कर, इकरार की बातें करो ।

जफ़ाओं को भूल जाना, है इश्क़ का सलीक़ा
राह-ए-मुहब्बत में वफ़ा-ए- यार की बातें करो ।

महावीर शर्मा

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‘दहकते सांसों से’ महावीर शर्मा

नवम्बर 5, 2005
‘ दहकते सांसों से ’

जवानी जब करवट बदलती है तो बुढ़ापे के मुहाने पर लाकर पटक देती है।
इंसान यादों की चादर ओढ़ कर कुछ पुराने बिखरे हुए लम्हों को खोजता है।
————————————-

दहकते सांसों से आह निकलती है।
ज़िंदगी आज क्यूं करवट बदलती है ?

पतझड़ की सूनी इक डाली की तरह,
ज़िंदगी बिन पत्तों की तरह ढलती है।

दिन तो तसव्वर में ही बीत जाता है,
शब ग़मे-हिज्र की आग में जलती है।

तिरी निगाहों का आदी बन गया हूं,
जो हर लम्हे, हर बात में बदलती है।

तिरी जफ़ाओं में इक ज़लज़ला देखा,
जिसमें प्यार की बुनियाद दहलती है।

दूर होकर आज भी तू पास ही है,
तिरी सूरत आंसुओं में पिघलती है।

ज़िंदगी वक्त के क़ैदी की तरह चुप है,
पलकों में छुपाने की सज़ा मिलती है।

महावीर शर्मा

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शब गुज़र ना जाये !

मार्च 24, 2005

इन्तज़ार! (उर्दू में एक बेतुकी  कविता)

शब गुज़र ना जाये, है इन्तज़ारए-यार का
बस शौक़ है हमें तो दीदारे-यार का।

मन्ज़र जुदाईयों का देखा गया ना हम से
छुटता नहीं है दामन, अब ख्याले-यार का।

गोशाये-तन्हाई में तारीकी हर समत
दीदार होगा कैसे तस्वीरे-यार का।

डर है कहीं छीन ले अख्त्यारे-तसव्वर
तसव्वर ही है सहारा दिले-दाग़दार का।

तूफ़ान से तो लड़ने में लुत्फ़ ही और है
ले कर सहारा बह चले विसाले-यार का।

देखा है एक बारगी जलवाये-हुस्न-यार
भूलेगा नज़ारा कूचाये-यार का।

ग़ैरों की बात का एतबार क्या करें
अब तो भरोसा ना रहा वफ़ाये-यार का।

इस लड़खड़ाती ज़िन्दगानी के सफ़र में
मिल जाये किसी मोड़ पर जलवाये-यार का।

ज़िन्दगी की शाम पर मिल जाये एक बार
रूह करेगी शुक्रिया अहसाने-यार का।।
महावीर शर्मा

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