Archive for the ‘ग़ज़ल/नज़्म’ Category

गणतंत्र दिवस पर शाहिद मिर्ज़ा ‘शाहिद’ की ग़ज़ल

जनवरी 26, 2010

गणतंत्र दिवस पर “महावीर” और “मंथन” की ओर से
शुभ कामनाएं

Indian Flag

भारत से पत्रकार

शाहिद मिर्ज़ा ‘शाहिद’ की ग़ज़ल

जश्ने-जम्हूरी हमें यूं भी मनाना चाहिये
क़ौमी यकजहती का इक सूरज उगाना चाहिये

दर्द तेरे ज़ख्म का उभरे मेरे दिल में अगर
आंख में तेरी, मेरा आंसू भी आना चाहिये

वो जो कल बिस्मिल भगत अशफाक़ के सीनों में था
नौजवानों में वही जज़्बा पुराना चाहिये

फिर यहां टैगोर का गूंजे फिज़ां में राष्ट्रगान
फिर यहां इक़बाल का क़ौमी तराना चाहिये

साज़िशों से जो झुकाना चाहते हैं, अब उन्हें
और ऊंचा ये तिरंगा कर दिखाना चाहिये

शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

प्राण शर्मा जी की एक ग़ज़ल

दिसम्बर 26, 2008

hurricane-2

प्राण शर्मा जी की एक ग़ज़लः

चूल्हा-चौका, कपड़ा-लत्ता ख़ौफ़ है इनके बहने का
तूफ़ानों का ख़ौफ़ नहीं है ख़ौफ़ है घर के ढहने का

सब से प्यारा, सब से न्यारा जीवन मुझ को क्यों न लगे
शायद ही कोई सानी है दुनिया में इस गहने का

बेशक सब ही कोशिश कर लें बेहतर रहने की लेकिन
आएगा ऐ दोस्त सलीका किसी किसी को रहने का

जाने क्या क्या सीखा उससे जिस जिससे अंजान थे हम
खूब तजरबा रहा हमारा संग दुखों के रहने का

इतना भी कमज़ोर बनो क्यों दीमक खाई काठ लगो
मीत तनिक हो साहस तुम में दुख तकलीफ़ें सहने का

बात कोई मन की मन में ही कैसे क्यों कर रह जाए
दिल वालों की महफ़िल में जब वक्त मिले कुछ कहने का

‘प्राण’ कभी तो अपनी खातिर ध्यान ज़रा दे जीवन पर
एक यही तो घर है तेरा कुछ आराम से रहने का

‘प्राण’ शर्मा

मनोशी चैटर्जी की ग़ज़ल उन्हीं के मधुर सुरों में

दिसम्बर 2, 2008

ruins-5



यदि आप ऊपर के प्लेयर पर नहीं सुन पा रहे हो तो यहां पर क्लिक कीजिये।

यदि आपको Internet Explorer में खुलने में कठिनाई हो तो Firefox खोलिए।

दुआ में मेरी कुछ यूँ असर हो

तेरे सिरहाने हर इक सहर हो

जहां के नाना झमेले सर हैं
कहाँ किसी की मुझे ख़बर हो

यहाँ तो कुछ भी नहीं है बदला
वहाँ ही शायद नई ख़बर हो

मिले अचानक वो ख़्वाब मे कल
कहीं दुबारा न फिर कहर हो

दिलों दिलों में भटक रहे हैं
कहीं तो अब ज़िंदगी बसर हो

न याद कोई जुड़ी हो तुम से
कहीं तो ऐसा कोई शहर हो

चलो चलें फिर से लौट जायें
शुरु से फिर ये शुरु सफ़र हो

मनोशी चैटर्जी

प्राण शर्मा जी की एक ग़ज़ल

नवम्बर 21, 2008

koi-pathrili-8

प्राण शर्मा जी की एक ग़ज़लः

परखचे अपने उड़ाना दोस्तो आसां नहीं
आपबीती को सुनाना दोस्तो आसां नहीं

ख़ूबियां अपनी गिनाते तुम रहो यूं ही सभी
ख़ामियां अपनी गिनाना दोस्तो आसां नहीं

देखने में लगता है यह हल्का फुल्का सा मगर
बोझ जीवन का उठाना दोस्तों आसां नहीं

रूठी दादी को मनाना माना कि आसान है
रूठे पोते को मनाना दोस्तो आसां नहीं

तुम भले ही मुस्कुराओ साथ बच्चों के मगर
बच्चों जैसा मुस्कुराना दोस्तो आसां नहीं

दोस्ती कर लो भले ही हर किसी से शौक से
दोस्ती सब से निभाना दोस्तो आसां नहीं

आंधी के जैसे बहो या बिजली के जैसे गिरो
होश हर इक के उड़ाना दोस्तो आसां नहीं

कोई पथरीली जमीं होती तो उग आती मगर
घास बालू में उगाना दोस्तो आसां नहीं

एक तो है तेज पानी और उस पर बारिशें
नाव कागज़ की बहाना दोस्तो आसां नहीं

आदमी बनना है तो कुछ ख़ूबियां पैदा करो
आदमी ख़ुद को बनाना दोस्तों आसां नहीं

प्राण शर्मा

चाँद शुक्ला हदियाबादी की ग़ज़ल

सितम्बर 27, 2008

ग़ज़ल

चाँद शुक्ला हदियाबादी
Director
“Radio Sabrang”
Poet and Broadcaster.
Voelundsgade 11 1 TV
2200 N Denmark.
Tel: 0045-35833254

मैं वोह शीशा हूँ के पत्थर से भी टकरा जाऊँगा
संग दिल के शहर में अपने को मनवा जाऊँगा

पांव रखे जब अमीरे शहर मेरे गाँव में
उसका हर चेहरा ज़माने को मैं दिखला जाऊँगा

मोम की मानिंद बरफीला ज़माना हो भले
शिद्दते एहसास की गर्मी से पिघला जाऊँगा

जानिबे मंजिल हूँ मैं रोको न मेरा रास्ता
जो भी पत्थर आयेगा रस्ते में ठुकरा जाऊँगा

अपने अश्कों से मैं सींचूँगा तेरे गुलशन के फूल
चार सू बूए मोहब्बत को मैं फैला जाऊँगा

कश्तिये दिल को समुन्दर में डुबो कर “चाँद” मैं
साहिलों के हर तमाशाई को तडपा जाऊँगा

चाँद शुक्ला हदियाबादी

प्राण शर्मा जी की दो रचनाएं

सितम्बर 21, 2008

प्राण शर्मा जी की दो रचनाएं :


प्राण शर्मा जी की रचनाएं पढ़ते हुए ऐसा लगने लगता है जैसे रचनाएं बोल रही हों।
प्राण जी एक दार्शनिक हैं और दर्शन जैसी गूढ़ रहस्यपूर्ण बातों को सरस और सरल
भाषा में लिखतें है जिससे पढ़ने वालों को समझने में परेशानी नहीं होती।
उनकी दो रचनाएं दे रहा हूं जिनमें दर्शन का व्यावहारिक पक्ष भी देखा जा सकता है
और उनका जीवन-दर्शन भी अन्तर्निहित हैः

पंछी

इस तरफ़ और उस तरफ़ उड़ता हुआ पंछी
जाने क्या क्या ढूंढता है मनचला पंछी।

छूता है आकाश की ऊंचाईयां दिन भर
सोच में डूबा हुआ इक आस का पंछी।

ढूंढता है हर घड़ी छाया घने तरू की
गर्मियों की धूप में जलता हुआ पंछी।

आ ही जाता है कभी सैयाद की ज़द में
एक दाने के लिए भटका हुआ पंछी।

बिजलियों का शोर था यूं तो घड़ी भर का
घोंसले में देर तक सहमा रहा पंछी।

था कभी आज़ाद औरों की तरह लेकिन
बिन किसी अपराध के बन्दी बना पंछी।

हाय री! मजबूरियां लाचारियां उसकी
उड़ न पाया आसमां में परकटा पंछी।

भूला अपनी सब उड़ानें, पिंजरे में फिर भी
एक नर्तक की तरह नाचा सदा पंछी।

बन नहीं पाया कभी इन्सान भी वैसा
जैसा बर्खुरदार सा बन कर रहा पंछी।

छोड़ कर तो देखिए इक बार आप इसको
फड़ फड़ा कर वेग से उड़ जाएगा पंछी।

देखते ही रह गई आंखें ज़माने की
राम जाने किस दिशा में उड़ गया पंछी।

-प्राण शर्मा

ग़ज़लः

ज़िन्दगी को ढूंढने निकला हूं मैं
ज़िन्दगी से बेख़बर कितना हूं मैं

चैन है आराम है हर चीज़ का
अपने घर में दोस्तों अच्छा हूं मैं

मुझ से ही क्यों भेद है मेरे ख़ुदा
हर किसी जैसा तेरा बंदा हूं मैं

मानता हूं आप सब के सामने
तजुरबों में दोस्तों बच्चा हूं मैं

क्यों भला अभिमान हो मुझ को कभी
दीये सा जलता कभी बुझता हूं मैं

-प्राण शर्मा

क़ातिल सिसकने क्यूं लगा – ग़ज़ल

अगस्त 31, 2008

क़ातिल सिसकने क्यूं लगा – ग़ज़ल

ग़ज़ल का हर शे’र अपने आप में संपूर्ण और स्वतंत्र होता है। यह आवश्यक नहीं कि ग़ज़ल के एक शे’र का दूसरे शे’र के साथ समविषयक हो। हाँ, ग़ज़ल के सारे अशा’र एक ही बहरो-वज़न में होने चाहिए।

सोगवारों* में मिरा क़ातिल सिसकने क्यूं लगा
दिल में ख़ंजर घोंप कर, ख़ुद ही सुबकने क्यूं लगा

(*सोगवारः- मातम/शोक करने वाले)

आइना देकर मुझे, मुंह फेर लेता है तू क्यूं
है ये बदसूरत मिरी, कह दे झिझकने क्यूं लगा

गर ये अहसासे-वफ़ा जागा नहीं दिल में मिरे
नाम लेते ही तिरा, फिर दिल धड़कने क्यूं लगा

दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन
आज आंखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूं लगा

जाते जाते कह गया था, फिर न आएगा कभी
आज फिर उस ही गली में दिल भटकने क्यूं लगा

छोड़ कर तू भी गया अब, मेरी क़िस्मत की तरह
तेरे संगे-आसतां पर सर पटकने क्यूं लगा

ख़ुश्बुओं को रोक कर बादे-सबा ने यूं कहा
उस के जाने पर चमन फिर भी महकने क्यूं लगा।

महावीर शर्मा

ग़ज़ल: हादसों के शहर में – ‘प्राण’ शर्मा

जून 27, 2008

ग़ज़ल – हादसों के शहर में

सो रहा था चैन से मैं फ़ुर्सतों के शहर में
जब जगा तो ख़ुद को पाया हादसों के शहर में

फ़ासले तो फ़ासले हैं दो किनारों की तरह
फ़ासले मिटते कहाँ हैं फ़ासलों के शहर में

दोस्तों का दोस्त है तो दोस्त बन कर ही तू रह
दुश्मनों की कब चली है दोस्तों के शहर में

थक गये हैं आप तो आराम कर लीजे मगर
काम क्या है पस्तियों का हौसलों के शहर में

मिल नहीं पाया कहीं सोने का घर तो क्या हुआ
पत्थरों का घर सही, अब पत्थरों के शहर में

हर किसी में होती है कुछ प्यारी प्यारी चाहतें
क्यों न डूबे आदमी इन ख़ुशबुओं के शहर में

धरती-अम्बर, चाँद-तारे, फूल-ख़ुशबू, रात-दिन
कैसा-कैसा रंग है इन बंधनों के शहर में

हम चले हैं ‘प्राण’ मंज़िल की तरफ़ लेकर उमंग
आप रहियेगा भले ही हसरतों के शहर में

‘प्राण’ शर्मा

‘प्राण’ शर्मा जी की एक ग़ज़ल

मई 22, 2008

मेरे दुखों में मुझ पे ये अहसान कर गए
कुछ लोग मशवरों से मेरी झोली भर गए

पुरवाईयों में कुछ इधर और कुछ उधर गए
पेड़ों से टूट कर कहीं पत्ते बिखर गए

वो प्यार के ऐ दोस्त उजाले किधर गए
हर ओर नफ़रतों के अंधेरे पसर गए

अपने घरों को जाने के क़ाबिल नहीं थे जो
मैं सोचता हूं कैसे वो औरों के घर गए

हर बार उनका शक की निगाहों से देखना
इक ये भी वजह थी कि वो दिल से उतर गए

तारीफ़ उनकी कीजिए, औरों के वास्ते
जो लोग चुपके चुपके सभी काम कर गए

यूं तो किसी भी बात का डर था नहीं हमें
डरने लगे तो अपने ही साए से डर गए

प्राण शर्मा

ग़म की दिल से दोसती होने लगी-ग़ज़ल

अप्रैल 7, 2008

ग़म की दिल से दोसती होने लगी।
ज़िन्दगी से दिल्लगी होने लगी।

जब मिली उसकी निगाहों से मिरी
उसकी धड़कन भी मिरी होने लगी।

ज़ुल्फ़ की गहरी घटा की छांव में
ज़िन्दगी में ताज़गी होने लगी।

बेसबब जब वो हुआ मुझ से ख़फ़ा
ज़िन्दगी में हर कमी होने लगी।

बह न जाएं आंसू के सैलाब में
सांस दिल की आखिरी होने लगी।

आंसुओं से ही लिखी थी दासतां
भीग कर क्यों धुनदली होने लगी।

जाने क्यों मुझ को लगा कि चांदनी
तुझ बिना शमशीर सी होने लगी।

आज दामन रो के क्यों गीला नहीं?
आंसुओं की भी कमी होने लगी।

तश्नगी बुझ जाएगी आंखों की कुछ
उसकी आंखों में नमी होने लगी।

डबडबाई आंख से झांको नहीं
इस नदी में बाढ़ सी होने लगी।

इश्क़ की तारीक गलियों में जहां
दिल जलाया, रौशनी होने लगी।

आ गया क्या वो तसव्वर में मिरे
दिल में कुछ तस्कीन सी होने लगी।

मरना हो, सर यार के कांधे पे हो
मौत में भी दिलकशी होने लगी।

महावीर शर्मा

Page copy protected against web site content infringement by Copyscape