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यू.के. से प्राण शर्मा की कहानी – तीन लँगोटिया यार

मई 5, 2010

तीन लँगोटिया यार
– प्राण शर्मा

राजेंद्र ,राहुल और राकेश लँगोटिया यार हैं. तीनों के नाम ” र ” अक्षर से शुरू होते हैं. ज़ाहिर है कि उनकी राशि तुला है. कहते हैं कि जिन लोगों की राशि एक होती है उनमें बहुत समानताएँ  पायी जाती हैं. राजेंद्र,राहुल और राकेश में भी बहुत समानताएँ हैं. ये दीगर बात है कि राम और रावण की राशि भी एक थी यानी तुला थी, फिर भी दोनो में असमानताएं थीं. राम में गुण ही गुण थे और रावण में अवगुण ही अवगुण. एक उद्धारक था और दूसरा संहारक. एक रक्षक था और दूसरा भक्षक.

यदि राजेन्द्र, राहुल और राकेश में समानताएँ हैं तो कोई चाहने पर भी उन्हें असमानताओं में तबदील नहीं कर सकता है. सभी का मानना है  कि उनमें समानताएँ हैं तो जीवन भर समानताएँ ही रहेंगी. इस बात की पुष्टि कुछ साल पहले चंडीगढ़ के जाने-माने ज्योतिषाचार्य महेश चन्द्र ने भी की थी. राजेंद्र, राहुल और राकेश के माथों की रेखाओं को देखते ही उन्होंने कहा था- “कितनी अभिन्नता है तुम तीनों में! भाग्यशाली हो कि विचार, व्यवहार और स्वभाव में तुम तीनों ही एक जैसे हो..जाओ बेटो, तुम तीनों की मित्रता अटूट रहेगी. सब के लिए उदाहरण बनेगी तुम तीनों की मित्रता.”

राजेंद्र, राहुल और राकेश की अटूट मित्रता के बारे में ज्योतिषाचार्य महेश चन्द्र के भविष्यवाणी करने या नहीं करने से कोई अंतर नहीं पड़ता था क्योंकि उनकी मित्रता के चर्चे पहले से ही घर-घर में हो रहे हैं. मोहल्ले के सभी माँ-बाप अपनी-अपनी संतान को राजेंद्र,राहुल और राकेश के नाम ले-लेकर अच्छा बनने की नसीहत देते हैं, समझाते हैं-“अच्छा इंसान बनना है तो राजेंद्र,राहुल और राकेश जैसा मिल-जुलकर रहो. उन जैसा बनो और उन जैसे विचार पैदा करो. किसीसे दोस्ती हो तो उन जैसी.”

राजेंद्र ,राहुल और राकेश एक ही स्कूल और एक ही कॉलिज में पढ़े. साथ-साथ एक ही बेंच पर बैठे. बीस की उम्र पार कर जाने के बाद भी वे साथ-साथ उठते-बैठते  हैं.हर जगह साथ-साथ आते-जाते हैं. कन्धा से कन्धा मिलाकर चलते हैं. मुस्कराहटें बिखेरते हैं. रास्ते में किसीको राम-राम और किसी को जय माता की कहते हैं. बचपन जैसी  मौज-मस्ती अब भी बरकरार है उनमें. कभी किसीकी तोड़-फोड़ नहीं करते हैं वे. मोहल्ले के सभी बुजुर्ग लोग उनसे खुश हैं. किसीको कोई शिकायत नहीं है उनसे. मोहल्ले भर की सबसे ज़्यादा चहेती  मौसी आनंदी का तो कहना है- “कलयुग में ऐसे होनहार और शांतिप्रिय बच्चे, विश्वास नहीं होता  है .

है आजकल के युवकों में उन के जैसी खूबियाँ? आजकल के युवकों को समझाओ तो आँखें दिखाते हैं. पढ़ाई न लिखाई और शर्म भी है उन्होंने बेच खाई.

माँ-बाप की नसीहत के बावजूद मोहल्ले के कुछेक लड़के शरारतें करने से बाज़ नहीं आते हैं. ऊधम मचाना उनका रोज़ का काम है . जब से राजेन्द्र,राहुल और राकेश की अटूट मित्रता के सुगंध घर-घर में फैली है तब से उनके गिरोह का का पहला मकसद है उनकी मित्रता की अटूटता को छिन्न-भिन्न करना. इसके लिए उन्होंने कई हथकंडे अपनाए हैं. लेकिन हर हथकंडे में उनको असफलता का सामना करना पड़ा है. फिर भी वे निराश नहीं हुए हैं.उनके हथकंडे जारी हैं.

चूँकि राजेंद्र, राहुल और राकेश की चमड़ियों के रंगों में असमानता है यानि राजेंद्र का रंग गोरा है ,राहुल का रंग भूरा है और राकेश का रंग काला है, इसलिए इन शरारती लड़कों को उनके रंगों को लेकर उन्हें आपस में लड़वाने की सूझी है. तीनो को आपस में लड़वाने का काम गिरोह के मुखिया सरोज को सौंपा गया है. ऐसे मामलों में वो एक्सपर्ट माना जाता है.

एक दिन रास्ते में राजेंद्र मिला तो सरोज ने मुस्कराहट बिखेरते हुए उसे गले से लगा लिया. दोनो में बातों का सिलसिला शुरू हो गया. इधर-उधर की कई बातें हुई उनमें. अंत में बड़ी आत्मीयता और शालीनता से सरोज बोला -“अरे भईया ,तुम दूध की तरह गोरे  – चिट्टे हो. किन भूरे-काले से दोस्ती किये बैठे हो ? तुम्हारी दोस्ती उनसे रत्ती भर नहीं मिलती  है. आओ हमारी संगत में. फायदे में रहोगे.”
जवाब में राजेंद्र ने अपनी आँखें ही तरेरी थीं. सरोज मुँह लटका कर मुड़ गया था.

जब राहुल और राकेश को  इस बात का पता राजेंद्र से लगा तो तीनो ही झूमकर एक सुर में गा उठे–“आँधियों के चलने से क्या पहाड़ भी डोलते हैं?”

शायद ही ऐसी शाम होती जब राजेंद्र,राहुल और राकेश की महफ़िल नहीं जमती. शायद ही ऐसे शाम होती जब तीनों मिलकर अपने- अपने नेत्र शीतल नहीं करते. शाम के छे बजे नहीं कि वे नमूदार हुए नहीं. गर्मियों में रोज गार्डेन और सर्दियों में फ्रेंड्स कॉर्नर  रेस्टोरंट में. घंटों ही साथ-साथ बैठकर बतियाना उनकी आदत में शुमार है. कहकहों और ठहाकों के बीच कोई ऐसा विषय नहीं होता है जो उनसे अछूता रहता हो. उनके नज़रिए में वो विषय ही क्या जो बोरिंग हो और जो खट्टा,मीठा और चटपटा न हो.

आज के दैनिक समाचार पत्र ” नयी सुबह” में समलिंगी संबंधों पर प्रसिद्ध लेखक रोहित यति का एक लंबा लेख है. काफी विचारोत्तेजक है. राजेंद्र ,राहुल और राकेश ने उसे रस ले-लेकर पढा है. उन्होंने सबसे पहले इसी विषय पर बोलना बेहतर समझा है.

“जून के गर्म-गर्म महीने में ऐसा गर्म विषय होना ही चाहिए डिस्कस करने के लिए. मैं कहीं गलत तो नहीं कह रहा हूँ?” राजेंद्र के इस कथन से सहमत होता राकेश कहता है- ” तुम ठीक कहते हो. ये मैटर, ये सब्जेक्ट हर व्यक्ति को डिस्कस करना

चाहिए. लेख आँखें खोलने वाला है . उसमें कोई ऐसी बात नहीं जिससे किसीको एतराज़ हो. सच तो ये है कि इस प्रक्रिया से कौन नहीं गुज़रता है ? मैं हैरान होता हूँ

आत्मकथाओं को लिखने वालों पर कि वे किस चतुराई से इस सत्य को छिपा जाते हैं. क्या कोई आत्मकथा लिखने वाला इस प्रक्रिया से नहीं गुज़रता है? अरे,उनसे तो वे लोग सच्चे और ईमानदार हैं जो सरेआम कबूल करते हैं कि वे समलिंगी सम्बन्ध रखते हैं.” राकेश अपनी राय को इस ढंग से पेश करता है कि राजेंद्र और राहुल के ठहाकों से आकाश गूँज उठता है. आस-पास के बेंचों पर बैठे हुए लोग उनकी ओर देखने लगते हैं लेकिन राजेंद्र,राहुल और राकेश के ठहाके जारी रहते हैं. ठहाकों में राहुल याद दिलाता है -” तुम दोनो को क्या वो दिन याद है जिस दिन हम तीनों नंगे-धड़ंगे बाथरूम   में घुस गये थे. घंटों एक -दूसरे पर पानी भर-भरकर पिचकारियाँ चलाते रहे थे. कभी किसी अंग  पर और कभे किसी अंग पर. ऊपर से लेकर नीचे तक कोई हिस्सा नहीं छोड़ा था हमने. कितने बेशर्म हो गये थे हम. क्या-क्या छेड़खानी नहीं की थी हमने उस समय!”

” सब याद है प्यारे राहुल जी . पानी में छेड़खानी का मज़ा ही कुछ और होता है. “राकेश जवाब में रोमांचित होता हुआ राहुल का हाथ चूमकर कहता है.
” मज़ा तो असल में हमें नहाने के बाद आया था , राजेंद्र राकेश से मुखातिब होकर बोलता है,” जब तुम्हारी मम्मी ने धनिये और पनीर के परांठे खिलाये थे हमको. क्या लज्ज़तदार परांठे थे ! उनकी सुगंध अब भी मेरे  मन में समायी हुई है. याद है कि घर के दस जनों के परांठे हम तीनों ही खा गये थे. सब के सब इसी ताक में बैठे रहे कि कब हम उठें और कब वे खाने के लिए बैठे . बेचारों की हालत देखते ही बनती थी “.
” उनके पेटों में चूहे जो दौड़ रहे थे , भईया ,भूख की मारे मोटे-मोटे चूहे .” राहुल के संवाद में कुछ इस तरह की नाटकीयता थी कि राजेंद्र और राकेश की हँसी के फव्वारे  फूट पड़ते हैं.
” उस दोपहर हम घोड़े बेचकर क्या सोये थे कि चार बजे के बाद जागे थे . गुल्ली- डंडे का मैच खेलने नहीं जा सके थे हम. अपना- अपना माथा पीटकर रह गये थे.” रुआंसा होकर राकेश कहता है-
” बचपन के दिन भी क्या खूब थे !”  घरवालों के चहेते थे हम . पूरी  छूट  थी हमको . कभी किसी की मार नहीं थी. किसीकी प्रताड़ना नहीं थी. पंछियों की तरह आजाद  थे हम .” राजेंद्र की इस बात का प्रतिवाद करता है राहुल- “माना कि आप पर किसी की मार नहीं थी, किसी की प्रताड़ना नहीं थी लेकिन आप दोनो ही जानते हैं कि मेरे चाचा की मुझपर  मार भी थी और प्रताड़ना भी. छोटा होने के नाते पिता जी उनको भाई से ज्यादा बेटा मानते हैं और वे पिता जी के प्यार का नाजायज फायदा उठाते हैं. उनके गुस्से का नजला मुझपर ही गिरता  है .

एक बात मैंने आपको कभी नहीं बताई. आज बताता हूँ. एक दिन मेरे चाचा ने मुझे इतना पीटा कि मैं  अधमरा हो गया.  हुआ यूँ  कि उन्होंने अपने एक मित्र को एक कौन्फिडेन्शल लेटर भेजा मेरे हाथ. उनके मित्र का दफ्तर घर से दूर था.तपती दोपहर थी. मैं भागा-भागा उनके दफ्तर पहुंचा. मेरे पहुँचने से पहले मेरे चाचा का मित्र किसी काम के सिलसिले में कहीं और जा चुका था. सोच में पड़ गया  कि मैं अब क्या करूँ? पत्र वापस ले जाऊं या चाचा के दोस्त के दफ्तर में छोड़ दूं? आखिर मैं पत्र छोड़कर लौट आया”.
” फिर क्या हुआ?” राजेंद्र और राकेश ने जिज्ञासा में पूछा.
” फिर वही हुआ जिसकी मुझे आशंका थी. ये जानकार कि मैं कौन्फिडेन्शल लेटर किसी और के हाथ थमा आया हूँ ,चाचा की आँखें लाल-पीली हो गयीं. वे मुझपर बरस पड़े. एक तो कहर की गर्मी थी, उस पर उनकी डंडों की मार . मेरी दुर्गति कर दी उन्होंने. घर में बचाने वाला कोई नहीं था.छोटा भाई खेलने के लिए गया हुआ था.पिता जी काम पर थे और माँ किसी सहेली के घर में गपशप मारने के लिए गयी हुई थीं.”
” आह! ”  राजेंद्र और राकेश की आँखों में आंसू छलक जाते हैं.
“कल की बात सुन लीजिये. आप जानते ही हैं कि मेरे चाचा नास्तिक हैं आजकल वे इसी कोशिश में हैं कि मैं भी किसी तरह नास्तिक बन जाऊं. मुझे समझाने लगे -” भतीजे,मनुष्य का धर्म ईश्वर को पूजना नहीं है. ईश्वर का अस्तित्व है ही कहाँ कि उसको पूजा जाए. पूजना है तो अपने शरीर को पूज. इस हाड़-मांस की देखभाल करेगा तो स्वस्थ रहेगा. स्वस्थ रहेगा तो तू लम्बी उम्र पायेगा. मेरी बात समझे कि नहीं समझे? ले,तुझे एक तपस्वी की आप बीती सुनाता हूँ उसे सुनकर तेरे विचार अवश्य बदलेंगे, मुझे पूरा विश्वास है”.
थोड़ी देर के लिए अपनी बात को विश्राम देकर राहुल कहना शुरू करता है- “चाचा ने जबरन मुझे अपने पास बिठाकर तपस्वी की आपबीती सुनायी. वे  सुनाने लगे-” भतीजे, एक तपस्वी था. तप करते-करते वो सूखकर कांटा हो गया था. एक राहगीर ने उसे झंझोड़ कर उससे पूछा- प्रभु, आप ये क्या कर रहे हैं?
” तपस्या कर रहा हूँ. आत्मा और परमात्मा को एक करने में लगा हुआ हूँ.”. तपस्वी ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया.
” प्रभु, अपने शरीर की ओर तनिक ध्यान दीजिये. देखिये,सूखकर काँटा हो गया है. लगता है कि आप कुछ दिनों के ही महमान हैं इस संसार के. ईश्वर का तप करना छोड़िये और अपने शरीर की देखभाल कीजिये.”
तपस्वी ने अपने शरीर को देखा. वाकई उसका हृष्ट-पुष्ट शरीर सूखकर काँटा हो गया था. उसने तप करना छोड़ दिया. वो जान गया कि ईश्वर होता उसका शरीर यूँ दुबला-पतला नहीं होता, हृष्ट-पुष्ट ही रहता. भतीजे, इंसान समेत धरती पर जितनी जातियाँ हैं, चाहे वो मनुष्य जाति हो या पशु जाति ,किसी की भी उत्पत्ति ईश्वर ने नहीं की है. हरेक की उत्पत्ति कुदरती तरीकों से ही मुमकिन हुई है. हमारा रूप ,हमारा आकार और हमारा शरीर सब कुछ कुदरत की देन है,ईश्वर की नहीं.”

” सभी नास्तिक ऐसे ही उल्टी-सीधी बातें करके औरों को नास्तिक बनाते हैं,” राजेंद्र बोल पड़ता है, ” तुम्हारे चाचा ने फिर कभी ईश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था को ठेस पहुंचाने की कोशिश की तो उन्हें ये प्रसंग जरूर सुनाना- ” चाचा,आप जैसा ही एक नास्तिक था. ईश्वर है कि नहीं ,ये जांच करने के लिए वो जंगल के पेड़ पर चढ़कर बैठ गया, भूखा ही. ये सोचकर कि अगर ईश्वर है तो वो अवश्य ही उसकी भूख मिटाने को आएगा.
नास्तिक देर तक भूखा बैठा रहा. उसे रोटी खिलाने के लिए ईश्वर नहीं आया. उसने सोचा कि वो आयेगा भी कैसे?उ सका अस्तित्व हो तब न? अचानक नास्तिक ने देखा कि डाकुओं का एक गिरोह उसके पेड़ के नीचे आकर लूट का मालवाल आपस में बांटने लगा है.

मालवाल बाँट लेने के बाद डाकुओं को भूख लगी,जोर की. कोई राहगीर अन्न की पोटली भूल से पेड़ के नीचे छोड़ गया था. उनकी नज़रें पोटली पर पड़ीं.पोटली में भोजन था. उनके चेहरों पर खुशियों की लहर दौड़ गयी. वे भोजन पर टूट पड़े. अनायास एक डाकू चिल्ला उठा-” ठहरो,ये भोजन हमें नहीं खाना चाहिए. मुमकिन है कि इसमें विष मिला हो और हमारी हत्या करने को किसीने साजिश रची हो. अपने साथी की बात सुनकर अन्य डाकुओं में भी शंका जाग उठी. सभी इधर-उधर और ऊपर-नीचे देखने लगे..एक डाकू को पेड़ की घनी डाली पर बैठा एक व्यक्ति नज़र आया. वो चिल्ला उठा-” देखो,देखो,वो इंसान छिप कर बैठा है. सभी डाकुओं की नज़र ऊपर उठ गयीं. सभीको एक घनी डाली पर बैठा एक व्यक्ति दिखाई दिया. सभी का शक विश्वास में तब्दील हो गया कि यही धूर्त है कि जिसने भोजन में विष मिलाया है. सभी शेर की तरह गर्जन कर उठे-
” कौन है तू? ऊपर बैठा क्या कर रहा है?”
” मैं नास्तिक हूँ . यहाँ बैठकर मैं ईश्वर के होने न होने की जांच कर रहा हूँ, भूखा रहकर. मैं ये देखना चाहता हूँ कि अगर संसार में ईश्वर है तो वो मुझ भूखे को कुछ न कुछ खिलाने के लिए अवश्य आयेगा यहाँ.”

नास्तिक ने सच -सच कहा लेकिन डाकू उसका विश्वास कैसे कर लेते ? वे चिल्लाने लगे-” झूठे,पाखंडी और धूर्त. नीचे  उतर .”
नास्तिक नीचे उतरा ही था कि उसकी शामत आ गयी.तमाचे पर तमाचा उसके गालों पर पड़ना  शुरू हो गया. एक डाकू अपनी दायीं भुजा में उसकी गर्दन दबाकर उसे आतंकित करते हुए पूछने लगा-” बता,ये पोटली किसकी है? तू किसका जासूस है? किसने तुझे हमारी ह्त्या करने के लिए भेजा है?”
” ये मेरी पोटली नहीं है.” नास्तिक गिड़ गिड़ाया. मेरा विश्वास कीजिये कि मैं किसीका जासूस नहीं हूँ . मैं आप सबके पाँव पड़ता हूँ . मैं निर्दोष हूँ. मुझपर दया कीजिये. मुझे छोड़ दीजिये .”
“अगर ये भोजन तेरा नहीं है और तूने इसमें विष नहीं मिलाया है तो पहले तू इसे खायेगा..ले खा.” एक डाकू ने एक रोटी उसके मुँह में ठूंस दी.पलक  झपकते ही नास्तिक अजगर की तरह उसे निगल गया.

डाकुओं से छुटकारा पाकर नास्तिक  भागकर  सीधा मंदिर  में गया. ईश्वर की मूर्ति के आगे नाक रगड़ कर दीनता भरे स्वर में बोला -” हे भगवन ,तेरी महिमा  अपरम्पार है.तूने मेरी आँखों पर पड़े नास्तिकता के परदे को हटा दिया है. मेरी तौबा ,फिर कभी तेरी परीक्षा  नहीं लूँगा.”

” लेकिन राजेंद्र,ईश्वर के अस्तित्वहीन होने के बारे में मेरे चाचा की एक और दलील है. वो ये कि इस ब्रह्माण्ड का रचयिता अगर ईश्वर है तो उसका भी रचयिता कोई होगा. वो कौन है? वो दिखाई क्यों नहीं देता है?” राहुल ने गंभीरता में कहा .

” तुम अपने चाचा की ये बात रहने दो कि अगर ईश्वर है तो उसका भी रचयिता कोई होगा. एक शंका कई शंकाओं को जन्म देती है. सीधी सी बात है कि धरती ,आकाश,बादल ,नदी,पहाड़.सागर,सूरज,चाँद,सितारे,पंछी,जानवर  इतना सब कुछ किसी इंसान की उपज तो है नहीं. किसी अलौकिक शक्ति की उपज है. उस अलौकिक शक्ति का नाम ही ईश्वर है. रही बात कि वो दिखाई क्यों नहीं देता तो हवा और गंध  भी दिखाई कहाँ देते हैं.? उनके अस्तित्व को नास्तिक क्यों नहीं नकारते हैं ? अरे भाई, इस संसार में कोई नास्तिक-वास्तिक नहीं है. संकट आने पर नास्तिक भी ईश्वर के नाम की माला अपने हाथ में ले लेता है . वो भी उसके रंग में रंगने लगता है. दोस्तो, ईश्वर के रंग में रंगने से मुझे याद आया है कि वह भी मुझ जैसा है.”

“मतलब ?” राहुल और राकेश कौतूहल  व्यक्त करते हैं.
” कल रात को मुझको सपना आया . मैंने देखा कि मेरे चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश था . वो प्रकाश था ईश्वर के रंग-रूप का. वाह,क्या रंग-रूप था ! गोरा -चिट्टा .मेरे जैसा .”

बताते-बताते राजेंद्र के मुख पर मुस्कान फैल जाती है.
” गोरा-चिट्टा ,तुम्हारे जैसा ? राहुल प्रतिवाद  करता है.
” सच कहता हूँ. ईश्वर रंग-रूप बिलकुल  मेरे जैसा है. ”
” अरे भाई, उसका रंग गोरा-चिट्टा नहीं है , भूरा है, मेरे जैसा..मेरे सपने में तो ईश्वर कई बार आ चुका है. मैंने हमेशा उसको भूरा देखा है. ”
” तुम मान क्यों नहीं लेते कि वो गोरा-चिट्टा है.?”
” तुम भी क्यों नहीं मान लेते कि वो भूरा है?”
” गोरे-चिट्टे को भूरा कैसे मान लूं मैं ?”
” गलत. बिलकुल गलत. तुम दोनो ही गलत कहते हो.”  राकेश जो अब तक खामोश बैठा राजेंद्र और राहुल की बातें सुन रहा था भावावेश में आकर बोल उठता  है ,” तुम दोनो की बातों में रंगभेद की बू आ रही है. तुम मेरे रंग को तो खारिज  ही कर रहे हो . मेरी बात भी सुनो. न तो वो गोरा है और न ही भूरा. वो तो काला है ,काला. बिलकुल मेरे रंग जैसा. मैं भी सपने में ईश्वर को कई बार देख चुका हूँ. अलबत्ता  रोज ही उसको देखता  हूँ .  क्या तुम दोनों के पास उसके गोरे या भूरे होने का कोई प्रमाण है?  नहीं है न?  मेरे पास प्रमाण है उसके  काले होने का . भगवान् कृष्ण काले थे. अगर ईश्वर गोरा या भूरा है तो कृष्ण को भी गोरा  या भूरा होना चाहिए था.
राकेश के बीच में पड़ने से मामला गरमा  जाता  है. तीनों की प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती है. अपनी-अपनी बात पर तीनों अड़ जाते हैं. कोई तस से मस नहीं होता है. राजेंद्र राहुल का कंधा झकझोर कर कहता है- तुम गलत कहते हो ” और राकेश दोनों के कंधे  झकझोर कर कहता है- ” तुम दोनो ही गलत कहते हो .”
ईश्वर का कोई रंग हो या ना हो लेकिन होनी अपना रंग दिखाना शुरू कर देती है. विनाश काले विपरीत बुद्धि . अज्ञान ज्ञान पर हावी हो जाता है. जोश का अजगर होश की मछली  निगलने लगता है. राहुल ,राजेंद्र और राकेश की रक्त वाहिनियों में उबाल आ जाता है.

देखते ही देखते तीनों का वाक् युद्ध हाथापाई में तब्दील हो जाता है. हाथापाई घूंसों में बदल जाती है. घूसों के वज्र बरसने की भयानक गर्जना सुनकर आसपास के पेड़ों पर अभी-अभी लौटे परिंदे आतंकित होकर इधर-उधर उड़ जाते हैं. परिंदे तो उड़ जाते हैं लेकिन तमाशबीन  ना जाने कहाँ-कहाँ से आकर इकठ्ठा हो जाते हैं . तमाशबीन  राजेंद्र, राहुल और राकेश की ओर से बरसते  घूसों का आनंद यूँ लेने लगते हैं जैसे मुर्गों  की जंग  हो. कई तमाशबीन तो आग में घी का काम करते हैं. अपने-अपने रंग के अनुरूप वे ईश्वर का रंग घोषित करके तीनों को भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.
शुक्र हो कुछ शरीफ  लोगों का. उनके बीच में पड़ने से राजेंद्र ,राहुल और राकेश में युद्ध थमता है. तीनों ही लहूलुहान हैं. क्योंकि तीनों ही दोस्ती के लिए खून बहाने का कलेजा रखते हैं. लंगोटिए यार जो हैं .
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‘मेरी प्यारी बेटी’ – महावीर शर्मा

दिसम्बर 2, 2009

‘मेरी प्यारी बेटी’
-महावीर शर्मा

साभार:  ‘कादम्बिनी’ मार्च २००६ (‘एक बेटी का अभागा पिता’ के नाम से)

लन्दन
15 जुलाई, 2005

मेरी प्यारी बेटी
मेरे इस पत्र की तिथि देख कर तुम सोचती होगी कि इससे दो दिन पहले ही तो फ़ोन पर बात हुई थी,फिर यह पत्र क्यों?… बेटी, इस पत्र में जो कुछ लिख रहा हूं, वह फोन पर सम्भव नहीं था। इस पत्र की प्रेरणा मुझे दो बातों से मिली। सुबह सड़क पर गिरे कुछ काग़ज़ मिले जिन में किसी पिता के मर्म-स्पर्शी उद्‌गार भरे थे। ऐसा लगा जैसे कि उसकी आत्मा उन्हीं काग़ज़ों के पुलिंदे के इर्द-गिर्द भटक रही हो। दूसरे, स्वः पं० नरेन्द्र शर्मा की इन पंक्तियों को पढ़ कर हृदय विह्वल हो उठा:
‘ सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बांधूँ,
किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ !
जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे !
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे ?
….. कितना साम्य था उन फेंके हुए काग़ज़ों के शब्दों और इस कविता की पंक्तियों में! बेटी, इंग्लैण्ड की राजधानी लन्दन और कैनेडा की राजधानी औटवा की दूरी ने तुम सब को देखने की अभिलाषा को जैसे किसी अन्जान वादी में भटका दिया हो – मैं स्वास्थ्य के कारण और तुम कार्य-वश तथा अवकाश के अभाव के कारण, दोनो ही अपने अपने शहर को नहीं छोड़ पाते।

तुम जिस प्राइमरी स्कूल में पढ़ती थीं, उसी के पास वुडसाइड पार्क ट्यूब स्टेशन के साथ वुडसाइड एवेन्यू पर प्रायः घूमने जाता हूं जहां दोनो ओर सुन्दर वृक्षों की शृंखला है और रास्ते में वही स्कूल तुम्हारे बचपन की यादें ताज़ा करता रहता है। उसी समय पर एक पुलिस ऑफिसर भी प्रतिदिन गश्त पर मिल जाता है। बड़ा मिलनसार और स्वभाव से हंस-मुख है। वह मजाकिया भी है। आज रोज़ की तरह सुबह सैर के लिये उसी वुडसाइड एवेन्यू पर जा रहा था कि काग़ज़ों के एक पुलिंदे पर पाँव की हल्की-सी ठोकर लगी। मैं वहीं रुक गया। अपनी छड़ी से उसे हिलाया और झुक कर उठा लिया। देख ही रहा था कि इस में क्या है, वही पुलिस ऑफिसर भी पास आ गयाः‘ हैलो सीनियर! क्या कोई खज़ाना मिल गया है?” वह मुस्कुरा कर बोला।

पैन्शनर (सीनियर सिटीज़न) होने के नाते वह मुझे मज़ाक में सीनियर ही कह कर सम्बोधित करता था। मैं ने भी परिहास की भाषा में उत्तर दियाः ‘ आप ही देख कर बताओ कि कहीं किसी आतंकवादी का रखा हुआ बम तो नहीं है?’ पुलिंदे को देख कर हंसते हुए
कहने लगाः ‘ लोग wildes-letter-1.jpgइतने सुस्त और लापरवाह हो गये हैं कि रद्दी के काग़ज़ बराबर में रखे हुए डस्ट बिन (कूड़े-दान) तक में भी नहीं डाल सकते ! लाओ, मैं ही डाल देता हूं।” मैं उन काग़ज़ों को अपने हाथों में उलट-पलट ही रहा था कि देखा पत्रों के साथ एक विवाह प्रमाण-पत्र भी था। मैं ने उसका ध्यान इस की ओर आकर्षित किया। कुछ क्षणों के लिये तो वह स्तब्ध रह गया। उसके चेहरे पर आर्द्रता का भाव झलक उठा, “ये किसी की धरोहर है। मैं इसे पुलिस-स्टेशन में जमा करवा दूंगा।” मेरी उत्सुकता और भी बढ़ गई। मैंने उन पत्रों को देखने की इच्छा प्रकट की तो उसने कहा कि यह बंडल क्योंकि तुम्हें ही मिले हैं, तुम पुलिस-स्टेशन जा कर देख सकते हो और यदि छः मास तक किसी ने भी इसके स्वामित्व का दावा नहीं किया तो हो सकता है कि यह तुम्हारी ही संपत्ति मानी जाए।

उत्सुकतावश मैं दोपहर के समय पुलिस-स्टेशन चला गया। संयोगवश स्वागत-कक्ष में वही ऑफिसर ड्यूटी पर था। औपचारिक कार्यवाही के पश्चात मैं एक एकांत कोने में बैठ कर पढ़ता रहा। बेटी! ये मुड़े-तुड़े पुराने साधारण से दिखनेवाले काग़ज़ एक हृदय-स्पर्शी पत्रों का एक संग्रह था जिस में कुछ पत्र प्रथम विश्वयुद्ध में युद्धस्थल से किसी सैनिक ‘राइफलमैन जॉर्ज वाइल्ड‘ ने अपनी इकलौती प्यारी बेटी ‘ऐथल ’ के नाम लिखे थे। कैसी विडंबना है! उसके उद्‌गार, उसके अरमान, उसकी सिसकती वेदना- आज भग्न-स्वप्न की तरह सड़क के किनारे इन काग़ज़ों में सिसक रहे थे! पत्र, पेंसिल से पीले काग़ज़ों पर लिखे हुए थे। इन पत्रों में आतताइयों का वर्णन था। वह अभागा सैनिक ऐसे स्थान पर था, जिसे ‘नो मैन्सलैण्ड’ कहा जाता था, जहां केवल चूहे थे। औषधियों का अभाव था, बीमारियों का बाहुल्य था और वे वनस्पतियां थीं जो फुंसी-फोड़े, अंधौरी और ददौरी आदि के अतिरिक्त कुछ नहीं देती थीं।

वह अपनी बेटी को सांत्वना देते हुए लिखता है- ‘ मेरी बेटी! तुम भाग्यशाली हो। उन व्यक्तियों की ओर दृष्टि डाल कर देखो जिनके पिता, भाई, पति, पुत्र-पुत्री… युद्ध की वीभत्स-घृणित-भूख को मिटा ना सके। इसीलिये ही कहता हूं कि तुम कितनी भाग्यवान हो कि अभी भी तुम्हारा पिता इन पत्रों को लिखने के लिये जीवित है।’

बेटी ऐथल को अपने अंतिम पत्र में लिखता है- ‘मैं हर समय घर लौटने का स्वप्न देखता रहता हूं कि तुम और शारलौट (उनकी पत्नी) दरवाज़े पर मेरी बाट निहारते होंगे और मैं गले लगा कर, रो-रो कर अपने दमित उद्‌गार और उन यातना भरे क्षणों को खुशियों के आँसुओं के सैलाब में बहा दूं! किन्तु ईश्वर ही जानता है कि भविष्य में तुम से मिलने की यह आकांक्षा पूरी हो सकेगी या नहीं। मैं सदैव आशान्वित जीवन में जीता हूं।’

किंतु दुर्भाग्य और आशा के युद्ध में दुर्भाग्य ही जीत गया। 19 नवम्बर 1917 के दिन शत्रु के एक लड़ाकू-वायुयान के आक्रमण में घायल होने के कारण फ्रांस में न. 63, ‘केज़ुअलटी क्लीयरिंग स्टेशन’ में भर्ती हो गया। डॉक्टर और सर्जन उसे बचा न सके। 10 दिन के बाद अपनी प्यारी बेटी और प्रिया शारलॉट से मिलने की अधूरी अभिलाषा अपने साथ ले कर इस वैषम्य भरे संसार से 39 वर्ष की आयु में सदैव के लिये विदा ले ली!

उनकी पत्नी को युद्ध कार्यालय की ओर से एक औपचारिक सूचना मिली कि तुम्हारे पति जो लन्दन रेजिमेण्ट की 9वीँ बटालियन में सैनिक था, के शव को बेल्जियम में ‘हैरिंगे मिलिट्री कब्रिस्तान‘ में अंतिम संस्कार सहित दफ़ना दया गया।

इन पत्रों के साथ एक अखबार की कतरन भी थी जिसमें पश्चिमी रण-स्थल का नक्शा था। साथ ही था जॉर्ज वाइल्ड तथा शारलॉट एलिज़ाबेथ हॉकिन्स के विवाह का प्रमाण-पत्र जिसके अनुसार उन दोनो का विवाह 8 जुलाई 1900 में लन्दन के चेल्सी क्षेत्र में सेंट सिमंस चर्च में समपन्न हुआ था।

आज इन अमूल्य लेख्य-पत्रों को ठोकरों में स्थान मिला। पुलिस ने साल्वेशन आर्मी और अन्य संस्थाओं से संपर्क किया है किंतु इन दु:ख भरे दस्तावेज़ों के उत्तराधिकारी की खोज में अभी सफलता नहीं मिली।

(बेटी, कभी कभी न जाने क्यों मेरे मन में नकारात्मक विचार आ जाते हैं कि क्या मेरे पत्रों का भी यही हाल होगा ?)

प्यार भरे आशीर्वाद सहित
तुम्हारे डैडी

यह पत्र मिलते ही मेरी बेटी ने फौरन् ही टेलीफोन किया और कहा, ‘डैडी, जिस प्रकार आपने लंदन के वातावरण में भी मुझे इस योग्य बना दिया कि आपके हिंदी में लिखे पत्र पढ़ सकती हूं और समझ भी सकती हूं, उसी प्रकार मैं आपके नाती को हिंदी भाषा सिखा रही हूं ताकि बड़ा हो कर वह भी अपने नाना जी के पत्र पढ़ सके। आपके सारे पत्र मेरे लिये अमूल्य निधि हैं। मेरी वसीयत के अनुसार आपके पत्रों का संग्रह उत्तराधिकारी को वैयक्तिक संपत्ति के रूप में मिलेगा!’

सुन कर मेरे आंसुओं का वेग रुक ना पाया! मेरी पत्नी ने टेलीफोन का चोंगा हाथ से ले लिया…!

महावीर शर्मा

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(नोट: काफी भाग-दौड़ के बाद ये पत्र जार्ज की तीसरी पीढ़ी के व्यक्ति तक पहुंचा दिए गए.)

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भारत से रूप सिंह चंदेल की कहानी – “भेड़िये”

सितम्बर 16, 2009

श्री रूप सिंह चंदेल जी का संक्षिप्त परिचय:

chandelRS१२ मार्च, १९५१ को कानपुर के गाँव नौगवां (गौतम) में जन्मे वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चन्देल कानपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. हैं।

* अब तक उनकी ३९ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें ७ उपन्यास  जिसमें से ‘रमला बहू’, ‘पाथरटीला’, ‘नटसार’ और ‘शहर गवाह है’ –  चर्चित रहे हैं, १० कहानी संग्रह, ३ किशोर उपन्यास, १० बाल कहानी संग्रह, २ लघुकथा संग्रह, यात्रा संस्मरण, आलोचना, अपराध विज्ञान, २ संपादित पुस्तकें सम्मिलित हैं।

* इनके अतिरिक्त बहुचर्चित जीवनीपरक पुस्तक ‘दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ (जीवनी)  संवाद प्रकाशन, मेरठ से २००८ प्रकाशित से प्रकाशित हुई थी।

* उन्होंने महान रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास ‘हाजी मुराद’ का हिन्दी में पहली बार अनुवाद किया है जो २००८ में ‘संवाद प्रकाशन’ मेरठ से प्रकाशित हुआ था।

* हाल में लियो तोल्स्तोय पर उनके रिश्तेदारों, मित्रों, सहयोगियों, लेखकों और रंगकर्मियों द्वारा लिखे संस्मरणों का अनुवाद किया है जो ’संवाद प्रकाशन’ से ही ’लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार’ से शीघ्र प्रकाश्य है.

सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन

चिट्ठे- रचना समय, वातायन और रचना यात्रा

संप्रति: roopchandel@gmail.com
roopschandel@gmail.com

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कहानी

भेड़िये

रूपसिंह चन्देल

ठंड कुछ बढ़ गई थी. बौखलाई-सी हवा हू-हू करती हुई चल रही थी. उसने शरीर पर झीनी धोती के ऊपर एक पुरानी चादर लपेट रखी थी, लेकिन रह-रहकर हवा के तेज झोंके आवारा कुत्ते की तरह दौड़ते हुए आते और चादर के नीचे धोती को बेधते हुए बदन को झकझोर जाते. वह लगातार कांप रही थी और कांपने से बचने के लिए उसने दोनों हाथ मजबूती से छाती से बांध लिए थे; और दांतों को किटकिटाने से बचाने के लिए होठों को भींच रखा था.

‘भिखुआ आ जाता तो, कितना अच्छा होता.’ वह सोचने लगी –’किसी तरह छिप-छिपाकर दोनों उस शहर से दूर चले जाते, जहां वे उन्हें ढूंढ़ न पाते. आज चौथा दिन है उसे गए— न कोई चिट्ठी , न तार, जबकि जाते समय उसने कहा था कि तीसरे दिन वह जरूर आ जाएगा. बापू की तबीयत अगर ज्यादा खराब हुई तो उन्हें साथ लेता आएगा.’

मेनगेट के पास खड़े पीपल के पेड़ से कोई परिंदा पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ा, तो बिल्डिंग के अंधेरे कोने में छिपे कई चमगादड़ एक साथ बाहर निकल भागे. वह चौंक उठी और उन्हें देखने लगी. क्षण-भर बाद वे फिर अंधेरे कोनों में जा छिपे. तभी उसे लगा, जैसे कोई आ रहा है. उसने इधर-उधर देखा, कोई दिखाई नहीं पड़ा.

‘पता नहीं वह सिपाही कहां गुम हो गया— कह रहा था — अभी बुला लाता है थानेदार को. साहब सो रहे होंगे. रात भी तो काफी हो चुकी है. साहब लोग ठहरे—- आराम से उठेंगे, तब आएंगे—-’

उसे इस समय भिखुआ की याद कुछ अधिक ही आ रही थी. ’उसे जरूर आ जाना चाहिए था. हो सकता है, बापू की तबीयत कुछ ज्यादा खराब हो गई हो. न वह उन्हें ला पा रहा होगा, न आप आ पा रहा  होगा. लेकिन उसे उसकी चिंता भी तो करनी ही चाहिए थी. जबकि उसने उस दिन उसे बता दिया था कि उनमें से एक — महावीरा को उसने सड़क के मोड़ वाली पान की दुकान पर खड़े देखा था.’

“तू नाहक काहे कू डरती है रे. उनकी अब इतनी हिम्मत नाय कि तोको लै जांय. मुफ्त मा नाय लाया था तोको. पूरे पांच हजार गिने थे—ऊ का नाम —- शिवमंगला को. बाद में ’कोरट’ में अपुन ने रजिस्ट्री भी तो करवा ली थी. अब अपुन को कौन अलग करि सकत है ?” भीखू ने उसके गाल थपथपाते हुए कहा था.

“तू कछू नाई जानत, भीखू, वो कितने जालिम हैं. शिवमंगला जो है न, यो सबते अपन को मेरा मामा बताउत है. वैसे भी यो मामा है, दूर-दराज का. मेरे बापू की लाचारी और मजबूरी का फायदा उठाकर इसी पापी ने मेरी पहली शादी करवाने का ढोंग किया था, बूढ़े बिरजू के साथ. खुद एक हजार लेकर, एक हजार बापू को दिए थे. और उसके बाद, मां और बापू के मरने के बाद, यो महावीरा के साथ मिलकर —- सातवीं बार तेरे हाथ मेरे को—–” वह रोने लगी थी.

“भूल भी जा अब पुरानी बातों को, सोनकी. अब कोई चिंता की बात नईं. मैं पुलिस-थाने को सब बता दूंगा. तू काहे को फिकर करती ?” उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरता हुआ भीखू बोला, तो वह निश्चिंत हो सोचने लगी थी कि दुनिया में अब कोई तो है उसका, जो उसे चाहने लगा है. उससे पहले शिवमंगला ने जिसके साथ भी उसे बांधा, साल-डेढ़ साल से अधिक नहीं रह पाई थी वह उसके साथ.

शिवमंगला पहले ही उससे कह देता, “साल-डेढ़ साल रह ले. जमा-पूंजी जान ले, कहां कितनी है. उसके बाद मैं एक दिन आऊंगा—तुझे लेने. सारी पूंजी बांध, चल देना. न-नुकर की, तो तड़पा-तड़पाकर मारूंगा.”

****

और वह चाबी-भरे खिलौने की तरह उसका कहना मानने को मजबूर होती रही सदैव. चौथे मरद के साथ जमना चाहा, तो पुलिस को साथ लेकर वह जा पहुंचा और उसको यह कहकर पकड़वा दिया कि वह उसकी इस अनाथ भांजी– सोनिया — को भगा लाया है. तब उसने चाहा था कि पुलिस को सब कुछ बता दे, लेकिन महावीरा ने कान के पास धीरे से कहा था, “अगर मुंह खोला—- तो समझ लेना—-.”

वह उनके साथ घिसटती चली गई थी, पांचवें के पास जाने के लिए. एक शहर से दूसरे शहर भटकती रही है वह, क्योंकि कभी भी उन्होंने उसे एक ही शहर में दूसरी बार नहीं बेचा. हर बार, जब तक कोई ग्राहक उन्हें नहीं मिलता, शिवमंगला खुद हर रात उसके शरीर से खेलता रहता. कभी-कभी इस खेल में महावीरा को भी शामिल कर लेता. वह कराहती, तड़पती, लेकिन शिवमंगला भूखे भेड़िये की तरह उसके शरीर को नोचता रहता और तब वह उस यातना से मुक्ति पाने के लिए कुछ दिनों के लिए ही सही, किसी-न-किसी के हातों बिक जाना बेहतर समझती.

***

खट—खट—खट  ! गेट की ओर कुछ कदमों की आहट सुनाई पड़ी. कोई ट्रक चिघ्घाड़ता हुआ सड़क पर गुजरा. उसकी रोशनी में उसने चार सिपाहियों को अपनी ओर आते देखा. वह कुछ संभलकर बैठ गई. सोचा, शायद थानेदार साहब आ रहे हैं.

“तू यहां किसलिए—-ऎं !” चारों उसके सामने खड़े थे. वह सिपाही, जो थाने पहुंचते ही उसे मिला था और जिससे उसने थानेदार को बुलाने के लिए कहा था, उनके साथ था.

“हुजूर, मैं थानेदार साब को—- कुछ बतावन खातिर—-” कांपती हुई वह खड़ी हो गई.

“क्या बताना है ? इस समय वो कुछ नहीं सुनेंगे— सुबह आना.” लंबी मूंछोंवाला, जो आगे खड़ा था ओवरकोट पहने, गुर्राकर बोला.

“हुजूर, वो—वो– मेरे पीछे पड़े हैं. मैं –मैं…” उसकी जुबान लटपटा गई.

“तू उनके पीछे पड़ जा न—हा—हा—हा—हा—-.”

“दुबे, क्या इरादा है, मिलवा दिया जाए इसे थानेदार साब से ?” लंबी मूंछोंवाले के पीछे खड़े सिपाही ने, जिसके होंठ मोटे थे और उसने भी ओवरकोट पहन रखा था, बोला. शेष तीनों उसकी ओर देखने लगे. टिमटिमाते बल्ब की रोशनी में चारों ने आंखों ही आंखों में कुछ बात की और वापस मुड़ गए.

“अभी बुलाकर लाते हैं थानेदार साब को. तू यहीं बैठ.” जाते-जाते एक बोला.

चारों चले गए, तो वह आश्वस्त हुई थी कि थानेदार को जरूर बुला देंगे. वह फिर बैठ गई उसी प्रकार और सोचने लगी कि कैसे और क्या कहेगी वह थानेदार से. लेकिन जैसे भी हो, वह उसे सब कुछ बता देगी—- बचपन से अब तक क्या बीती है उस पर —- सब कुछ. धीरे-धीरे वह पुरानी स्मृतियों में खोने लगी. हवा का क्रोध कुछ शांत होता-सा लगा, लेकिन ठंड ज्यों-की-त्यों थी.

****

बापू ने बहुत सोच-विचारकर उसका नाम रखा था — सोनिया. एक कहानी बताई थी उन्होंने कभी उसे– जिस दिन वह पैदा हुई थी, बाप को मालिक के खेत में हल जोतते समय सोने का कंगन मिला था.बापू ने चुपचाप वह कंगन मालिक को दे दिया था. उनका कहना था कि जिसके खेत में उन्हें कंगन मिला है, उस पर उसी का अधिकार बनता है. मालिक ने उसके बदले दस रुपये इनाम दिए थे बापू को. वह उसी से खुश था—-“बेटी भाग्यवान है. तभी तो सोना मिला था मुझे. मैं इसका नाम सोनिया रखूंगा.” और उस दिन से ही वह सोनिया और दुलार-प्यार में सोना हो गई थी.

लेकिन बापू की कल्पना कितनी खोखली सिद्ध हुई थी. उसके जन्म के बाद घर की हालत और खस्ता होती चली गई थी. मां बीमार रहने लगी थी. काम करने वाला अकेला बापू– वह भी मजूर— और खाने वाले तीन. जब वह छः-सात साल की थी, तभी से बापू के साथ काम पर जाने लगी थी और जिन हाथों को पाटी और कलम-बोरकला पकड़ना था, वे खुरपी और हंसिया पकड़ने लगे थे. वह बड़ी होती गई—- मां चारपाई पकड़ती गई और बापू का शरीर कमजोर होता गया था. बापू उसे लेकर चिंतित रहने लगा था — उसके विवाह के लिए. कहां से लाएगा दहेज, जब खाने के लाले पड़े हों ! और तभी एक दिन मां की तबीयत अधिक बिगड़ गई थी.बापू इधर-उधर भटकता रहा था पैसों के लिए. उस दिन यही इसका दूर-दराज का मामा— शिवमंगला आया था बापू के पास और कुछ व्यवस्था करने का आश्वासन दे गया था.

दूसरे दिन वह बिरजू के साथा आया. कोठरी के अंदर कुछ गुपचुप बातें हुईं और फिर उसने देखा कि बिरजू बापू को सौ-सौ के दस नोट पकड़ा गया था. मां का इलाज शुरू हो गया था . वह कुछ ठीक भी होने लगी थी. लगभग पंद्रह दिन बीत गए कि बिरजू फिर आया, शिवमंगला के साथ. उस दिन बापू ने उसे बताया कि उन्होंने बिरजू के साथ उसकी शादी तय कर दी है. वह आज उसे लेने आया है.

आंखें छिपाते हुए बापू बोला था, “सोना बेटा, मैंने बहुत बड़ा पाप किया है, जिसकी सजा मुझे भगवान देगा. लेकिन बेटा, यह पाप मुझे तेरी मां के लिए करना पड़ा है. तू मुझे माफ कर देना, बेटा.”

वह बापू से लिपटकर रोई थी फूट-फूटकर. बापू उसके सिर पर हाथ फेरता रहा था, फिर बिरजू से बोला था, “पाहुन, मेरी सोना अभी छोटी है. पंद्रह साल की है. बड़े कष्टों में मैंने इसे पाला है. इसे आप कष्ट न देना.”

चलने से पहले बिरजू ने बापू को आश्वस्त किया था—

जब तक सोना बिरजू के पास रही, मानसिक कष्ट तो उसे भोगने पड़े, लेकिन जीवन की सुख-सुविधा के तमाम साधन उसने जुट रखे थे उसके लिए.

दो साल वह उसके पास रही थी. इन्हीं दो वर्षों में पहले मां और बाद में बापू के चल बसने का समाचार उसे मिला था.

और दो वर्षों बाद— एक दिन शिवमंगला के धमकाने पर उसे बिरजू का घर छोड़ना पड़ा था. उसके बाद शुरू हो गया था उसके बसने और उजड़ने का सिलसिला.

भीखू को बेचते समय भी शिवमंगला ने उसे चेता दिया था कि डेढ़-दो साल से अधिक नहीं रहना है इसके पास. एक दिन वह आएगा और उसे ले जाएगा. शुरू में कुछ महीने वह यह सोचकर रहती रही कि एक दिन उसका साथ भी छोड़ना पड़ेगा. अधिक माया-मोह बढ़ाना ठीक नहीं समझा उसने, लेकिन भीखू का निश्छल प्यार धीरे-धीरे उसे बांधता चला गया और वह महसूस करने लगी कि वह भीखू को कभी छोड़ नहीं पाएगी. इतना प्यार उसे किसी ने न दिया था—चौथे ने भी नहीं. सभी उससे किसी खरीदे माल की तरह जल्दी -से-जल्दी, अधिक-से-अधिक कीमत वसूल कर लेना चाहते. भीखू को उसने सबसे अलग पाया था. जिस अपनत्व-प्यार के लिए वह तरसती आई थी, भीखू ने उसे दिया था. और इसलिए उसने उस दिन अपने अंधे अतीत का एक-एक पृष्ठ खोलकर रख दिया था उसके सामने.

सुनकर भीखू ने जो कुछ कहा था, उससे उसने महसूस किया था कि उसके कष्टों के दिन बीत गए. उसका जीवनतरु अब नई रोशनी में पल्लवित,विकसित और पुष्पित हो सकेगा. भावातिरेकवश वह भीखू के सामने झुक गई थी, उसकी चरणरज माथे से लगाने के लिए, लेकिन भीखू ने उसे पहले ही पकड़ लिया था, “सोना, मैं तुझ पर कोई एहसान थोड़े ही कर रहा हूं. अनपढ़-गंवार जरूर हूं, लेकिन हूं तो इनसान. इनसान होने के नाते उन भेड़ियों से तुझे बचाना मेरा फर्ज है. मेरे पैर छुकर तू मुझे महान मत बना. मैं बस, इनसान ही रहना चाहता हूं.”

प्यार से आंसू उमड़ पड़े थे उसके—- उस क्षण उसने निर्णय किया था —- अब वह उनके डराने-धमकाने के सामने नहीं झुकेगी. भीखू को छोड़कर वह कभी नहीं जाएगी.

उस दिन पान की दुकान के पास दिखने के बाद महावीरा जब दोबारा उसे नहीं दिखा, तो वह कुछ निश्चिंत -सी हो गई थी. कुछ भय भीखू ने कम कर दिया था— और जब भीखू गांव जाने लगा, तब वह बोली थी, “मेरी ज्यादा चिंता न करना तुम. बापू को—-” बात बीच में ही रोक दी थी, क्योंकि डर तब भी उसके अंदर अपने पंजे गड़ा रहा था.

“चिंता तो रहेगी ही, सोना. अगर कोई खतरा दिखे तो पुलिस-थाने की मदद ले लेना.”

शायद भीखू को भी इस बात का डर सता रहा था कि उसके जाने के बाद वे आ सकते हैं—-.

लेकिन जैसे-जैसे एक-एक दिन भीखू के जाने के बाद बिना किसी संकट के कटते चले गए, सोना बिलकुल निश्चिंत होती गई. कोठरी का दरवाजा सांझ ढलने के साथ ही वह बंद कर लिया करती थी. आज भी दरवाजा बंद कर वह भीखू का इंतजार कर रही थी. शायद आखिरी बस से आ जाए—- और जब दरवाजे पर दस्तक हुई, तो दौड़कर उसने दरवाजा खोला. लेकिन भीखू नहीं, सामने शिवमंगला खड़ा था.मुंह से शराब की बदबू छोड़ता हुआ.

“तो रानीजी पति का इंतजार कर रही हैं—-” वह कमरे में घुस आया. वह एक ओर हट गयी. शिवमंगला निश्चिंततापूर्वक चारपाई पर बैठ गया. उसे अवसर मिल गया था. वह तीर की तरह वहां से भाग निकली . सीधे थाने में जाकर ही दम लिया .

****

खट—खट—-खट—-खट—-

उसके कान फिर चौकन्ने हो गए. एक सिपाही चला आ रहा था.

“चलो, थानेदार साब बुला रहे हैं.”

वह उसके पीछे हो चली– ठंड से दोहरी होती हुई.

****

रात-भर चारों सिपाही एक के बाद एक उसके शरीर को नोचते – झिंझोंड़ते रहे. वह चीखती-चिल्लती और तड़पती रही और वे हिंस्र पशु की भांति उसे चिंचोंड़ते रहे— उसके बेहोश हो जाने तक.—.

जब उसे होश आया, वह एक पार्क में पड़ी थी—– और शिवमंगला और महावीरा उसके पास खड़े थे, उसे घेरे. वह पूरी ताकत के साथ चीख उठी और फिर बेहोश हो गई.
******

प्राण शर्मा की कहानी- ‘पराया देश’

सितम्बर 9, 2009

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(लावण्या जी और समीर जी के अनुरोध पर प्राण शर्मा जी लम्बी कहानी ‘पराया देश’ प्रस्तुत है. यह कहानी ‘कादम्बिनी’ के दीवाली विशेषांक नवम्बर १९८३ में प्रकाशित हुई थी. ‘उषा राजे सक्सेना’, ‘रमाकांत भारती’ और ‘हिमांशु जोशी’ के प्रवासी कथा-संकलनों में यह कहानी भी शामिल हैं.)

मस्तिष्क को झंझोड़ देने वाली कहानी जिसमें स्वदेश के लिए एक प्रवासी की तड़प है, हर सुविधा के बावजूद अकेलेपन का अहसास है. इसी कशमकश और छटपटाहट के भावों को कलम के जादूगर प्राण शर्मा ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में अभिव्यक्त किये हैं. पाठक पढ़ कर कुछ क्षणों के लिए स्तब्ध हो जाता है.
मेरे दो शेर प्राण शर्मा जी, कहानी के नायक और प्रवासियों के लिए अर्पित हैं:
अपने ग़मों की ओट में यादें छुपा कर रो दिए
घुटता हुआ तन्हा, कफ़स में दम निकलता जाए है।

हर तरफ़ ही शोर है, ये महफ़िले-शेरो-सुख़न
अजनबी इस देश में हम तो अकेले हो गए !
महावीर शर्मा
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पराया देश

– प्राण शर्मा

टाइल हिल लेन के बस स्टाप से अन्य यात्रियों में एक अधेड़ उम्र की अंग्रेज महिला मेरी बस में चढ़ी. टिकेट लेते समय उसने मुझसे कहा कि वो दो स्टापों के बाद ” हर्सल  कामन ” के स्टाप पर उतरना चाहती है. कह कर वो इत्मीनान से एक खाली सीट पर बैठ गयी . मैं बस दौड़ाने लगा.

पिछले कुछ सालों से इंग्लॅण्ड के सभी शहरों की बसों में कंडक्टर की सेवाएँ समाप्त  कर दी गयी हैं. यात्रियों को टिकेट देने का काम अब ड्राईवर ही अपनी सीट पर बैठा-बैठा करता है. यात्रियों को चढ़ाना-उतारना, उन्हें टिकेट देना, बस को चलाना यानि कि पूरी बस का संचालन करना अब ड्राईवर की ही जिम्मेदारी है. बड़ी सावधानी का काम है. इसलिए उनकी  वीकली वेज  भी अच्छी है.

हर्सल  कामन तक के  रास्ते में  बस पकड़ने वाला कोई और यात्री नज़र नहीं आया मुझको. मैं भूल ही गया कि उस महिला को हर्सल कामन पर उतारना था. बस तेज स्पीड से दौड़ने लगी.
” ड्राईवर, बस रोको, मुझे ये स्टाप चाहिए.” उस महिला ने चिल्ला कर कहा. मेरे कानों के परदे जैसे फट गए. मुझको अपनी गलती का अहसास हुआ. मैंने देखा कि हर्सल कामन का
स्टाप पीछे छूट गया था. अब तो अगला स्टाप आनी वाला था. मैंने तुंरत बस रोकी. बड़े विनय से उस महिला को सोरी कहा. इंग्लॅण्ड की परम्परा है कि सोरी कहने से दूसरा व्यक्ति शांत हो जाता है लेकिन वो महिला शांत की बजाय मुझ पर बरस पड़ी. लगी लेने मेरे यूनिफार्म और बस के नंबर. डर के मारे मेरे पसीने छूटने लगे sad-male05कि कहीं वो “पर्सोनल” से मेरी शिकायत नहीं
कर दे. मैं  गिड़गिड़ा कर उस से क्षमा मांगने लगा. लेकिन वो लाल-पीली हुए जा रही थी. कुछ यात्री भी उसका साथ दे रहे थे. खुद को असहाय पाकर मैंने बड़ी नम्रता से कहा- “मैडम, हम सब इंसान है. गलती किससे  नहीं होती है?” वो मुझे “यू ब्लैक बास्टर्ड ” और ” पाकी” कहती हुई क्रोध से तिलमिलाती हुई बस से उतर गयी.

बस “पूल मेडो” के बस अड्डे पर पहुँची. मेरा चालीस मिनट का ब्रेक था. चाय पीने के लिए मैं कैंटीन चला आया. चाय का प्याला लेकर हरबंस सिंह के पास जा बैठा. सारी घटना उसे सुनाई. उस महिला का मुझको “ब्लैक बास्टर्ड” और ” पाकी”  कहना हरबंस सिंह  को मज़ाक लगा. मुझ पर हंस कर वो दूर जा बैठा और अन्य साथियों से गपशप मारने लगा.

“हम लोगों का जमीर मर गया  है” सोचते हुए मैं मन ही मन में रुआंसा हो गया. नीचे आकर अन्य मनस्क सा ‘पूल मेडो’ का चक्कर लगाने लगा. मैं उस घटना को भूलना चाह रहा था लेकिन भूल नहीं पा रहा था. उस महिला का अशिष्ट और जला-भुना व्यवहार और उस पर हरबंस सिंह की उपेक्षा मुझी बार-बार कचोट रही थी. यहाँ अँगरेज़ युवकों का हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी लोगों को ” पाकी” कहना आम है. लेकिन आज एक भद्र और सभ्य दिखने वाली महिला के मुख से ऐसे घिनौने शब्द सुनकर मैं विचलित हुए बिना नहीं रह सका. मन-मस्तिष्क में असंख्य सुईयों का चुभना मैंने महसूस किया. बड़ी कठिनाई से दोबहर के दो बजे मैंने ड्यूटी समाप्त की. ओवर टाइम लिया हुआ था. उसे वापस कर घर पहुंचा. मैं धड़ाम से कुर्सी में जा धंसा.

बच्चे स्कूल में थे. सुषमा भी काम पर थी. कुर्सी में धंसा-धंसा मैं छत को निहारने लगा. न जाने कब गहरी सोच में डूब गया मैं. इंग्लॅण्ड में क्या रखा है? इससे तो अच्छा अपना भारत देश ही है. माना कि वहां कुछ आर्थिक विषमताएं हैं लेकिन कोई ‘ब्लैक बास्टर्ड’ या ‘पाकी’ कहने वाला तो नहीं है. जहाँ मान  नहीं, इज्ज़त नहीं, वहां रहना ही क्यों? ये धन, ये गाड़ियां किस काम की? आपमान का जीवन भोगने से तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना अच्छा है. किसी ने सच कहा है कि पराये देश में सुख और आराम से जीने से अपने देश की गरीबी और मौत कहीं ज्यादा अच्छी है.

सोलह साल पहले मैं और मेरी पत्नी अटल इरादा लेकर भारत से इंग्लॅण्ड में आये थेकि यहाँ पांच साल रह कर,खूब धन कमाकर भारत लौट जायेंगे. खूब धन कमा लिया है लेकिन दोनो अभी तक यहीं पड़े हैं दोनो, ब्लैक बास्टर्ड और पाकी सुनने के लिए. भारत वापस जाने के लिए पत्नी से कई बार तकरार भी होती है. मेरी बात का कोई असर नहीं होता है,  न पत्नी के सामने और न ही बेटों-बेटी  के सामने. किसी ने सच ही कहा है कि पति का जोर तब तक ही पत्नी पर है जब तक औलाद बड़ी न हो जाए.

भारत में भाई-बहन, यार-दोस्त आदि सभी याद करते हैं. लिखते हैं- “अब तो भारत लौट आओ ,कितना समय हो गया है तुम सबको विदेश में रहते हुए…. लगता है, तुम लोगों ने अपना देश भुला दिया है. “क्या करूँ, मैं भारत जाने को तैयार हूँ लेकिन सुषमा भारत जाने की नेक सलाह पर नाक-भौं चढ़ा लेती है. हर बार वो टका सा जवाब देती है–” हमें नहीं जाना भारत. यहीं सुखी हैं हम. आप भी खूब हैं, लोग कितना खर्च करके अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए इंग्लॅण्ड में भेजते हैं और एक आप हैं कि यहाँ पढ़ रहे अपने बच्चों को उखाड़ कर भारत ले जाना चाहते हैं. सरला अगले साल “ऐ लेवल” करके यूनीवर्सिटी में चली जायेगी. उमेश और दिनेश भी पढ़ाई में अच्छे है. भारत में वे न इधर के रहेंगे और न ही उधर के. आपभारत जाना चाहते हैं तो शौक से जाइये. हम यहीं अच्छे हैं.” सरला, उमेश और दिनेश भी अपनी माँ की बात में “हाँ” मिलाने लगते हैं. उमेश तो उछल कर कहता है -“पापा, हम इंडिया नहीं जाएँगे, नहीं जायेंगे. वहां तो मक्खियाँ ही मक्खियाँ हैं . मक्खियों में आप जाकर रहिये.

इंग्लॅण्ड के टी.वी. पर भारत के पिछड़े इलाकों की गरीबी और गंदगी दिखा-दिखा कर ये अँगरेज़ हमारे बच्चों में भारत के प्रति कितनी हेयता की भावना पैदा कर रहे हैं. भारत सरकार न जाने क्यों इन लोगों को भारत के पिछड़े  इलाकों की तस्वीरें लेने देती हैं? पिछड़े इलाके सही लेकिन ज़मीर तो ऊंचा है .

” अरे, बेटे, भारत तो स्वर्ग है, स्वर्ग. सुन्दरता का दूसरा नाम है भारत. चलो, मेरे साथ. मैं दिखाऊंगा तुम्हें उसकी सुन्दरता.”

” लेकिन पापा, अँग्रेज कौम का खाना-पीना, रहना-सहना और उठाना-बैठना सलीके का है. कितनी सफाई इस कौम में. भारत के लोग गंदे हैं, गंदे. आपने ही तो एक बार कहा था कि भारत में कई लोग दीवारों से सट-सट कर पेशाब करना शुरू कर देते हैं. “उमेश का अंतिम वाक्य सुनकर सरला और दिनेश के हंसी का फव्वारा फूट पड़ता है.

मैं उनकी हंसी पर ध्यान न देकर कहता हूँ- “ये मत भूलो कि हम भारतीय हैं. हम यहाँ हजारों साल रह लें लेकिन रंग से भारतीय ही रहेंगे. अँगरेज़ हम कभी न बन पायेंगे और न ही अँगरेज़ लोग हमें अँगरेज़ के रूप में स्वीकार करेंगे. हम प्रवासी भारतीय ही कहलवाएंगे. यहाँ की संस्कृति, यहाँ की सभ्यता के प्रभाव हम अपना सब कुछ खो रहे हैं . अँगरेज़ लोग लगभग दो सौ वर्ष भारत में रहे लेकिन वे भारतीय रंग में नहीं रंगे. हम हैं कि कुछ ही सालों में अँग्रेजी रंग में रंग गए हैं. भारतीय नवयुवक तो अब अपने नामों से ही घृणा करने लगे हैं. कोई जानी है और कोई स्टीवन. आनंद अपने को एंडी कहलवाता है. हरि अपना नाम हैरी बताता है और कपूर अपने को कूपर कहलवाना अधिक पसंद करता है. बेटो,ये मत समझना कि मैं कोई उपदेश दे रहा हूँ. मैं तुम को समझा रहा हूँ, एक बाप की हैसियत से. अपना देश अपना होता है और पराया देश पराया. मेरी इस बात को समझोगे तो फायदे  में रहोगे. भारत में रह कर अँगरेज़ इस बात को समझे. आप भी समझो”.

मेरी किसी बात का असर न तो बच्चों पर पड़ता है और न ही पत्नी पर. सब की एक ही रट है कि वे भारत नहीं जायेंगे. इंग्लॅण्ड में रहेंगे सदा के लिए. सरला उल्टे मुझे ही समझाने लगती है-“पापा, आप भारत जाकर, कुछ सालों में ही आपको खाने-पीने के लाले पड़ जायेंगे. यहाँ फिर दौड़े आयेंगे आप.”

कुछ सोच कर वो मुझसे प्रश्न करती है-“आप यहाँ किसलिए आये थे” ? खुद ही उसका उत्तर देने लगती है- “धन के लिए न. धन कमा लिया तो इसका मतलब ये तो नहीं कि आप बोरिया-बिस्तर बांधकर नौ-दो ग्यारह हो जाएँ यहाँ से. ये तो स्वार्थ हुआ न. जिस देश ने आपको खाने के लिए भोजन दिया, रहने के लिए घर दिया, घूमने के लिए गाड़ी दी, धन से आपकी तिजोरी भर दी, उस देश से चले जाना, विमुख हो जाना, क्या आप इसको उचित समझते हैं?”

मैं कुछ कह नहीं पाता  हूँ. मुझे निरुत्तर देखकर सरला फूली नहीं समाती है. इन गोरों के चिमचों को कैसे समझाया जाए कि पराया देश तो पराया देश देश ही है. सदा के लिए पराये देश में टिकना अपनी सभ्यता और संस्कृति से हाथ धोना है. लेकिन ये बच्चे मानते ही नहीं हैं. मेरे ही नहीं सब के बच्चों का यही हाल है. अपने को ब्लैक बास्टर्ड और पाकी कहलवाना सहन कर लेंगे पर अपने देश में बसना इन्हें पसंद नहीं. कभी-कभी पत्नी और बच्चों की बातों से इतना तंग आ जाता हूँ कि सोचता हूँ कि मैं अकेला ही भारत लौट जाऊं. फिर सोचता हूँ कि अगर अकेला भारत मैं लौट गया तो वहां सगे-संबन्धी और यार-दोस्त पूछेंगे कि पत्न्नी-बच्चे कहाँ छोड़ आये? इसी उलझन और कश्मकाश में भारत लौटने का इरादा टाल जाता हूँ. वर्ना यहाँ के भेद भरे जीवन में रखा ही क्या है. हाल के रिपोर्ट के अनुसार इंग्लॅण्ड में रंगभेद  की समस्या इतनी जटिल हो रही है कि यहाँ की पुलिस भी अब अपराध के मामले में एशियन और काले लोगों से ज़्यादा पूछताछ करती है.

दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आती है. मेरी विचार-श्रृंखला टूट जाती है. थकी नज़रों से मैं घड़ी देखता हूँ. सवा चार बज रहे हैं. सुषमा और बच्चे लौंज में प्रवेश करते हैं. मुझे कुर्सी में अस्तव्यस्त सा धंसा देखकर शुष्मा मुझसे पूछती है-

“बड़े उखड़े -उखड़े हो .क्या तबीअत ठीक नहीं?”

” कुछ नहीं.” मैं अनमने भाव से कहता हूँ.

” कुछ तो जरूर है?” अपना बैग टेबल पर रखते हुए वह फिर मुझसे पूछती है.

” कहा न, कुछ नहीं ”

” आप कुछ छिपा रहे हैं. बताएं न, क्या बात है ?” वह कोट उतार कर पास वाली कुर्सी पर बैठ जाती है और कुछ क्षणों तक मेरा उतरा हुआ चेहरा पढ़ते हुए कहती है- “लगता है कि आज फिर किसी पैसेंजर से आपकी तू-तू , मैं-मैं हो गयी है.

” हाँ.” मैं रुंधे स्वर में स्वीकार करता हूँ.”

” क्या बात हुई?”

मैं सारी घटना सुषमा को सुनाता हूँ. सुनते ही वो जोर खिलखिलाकर हंस पड़ती है-

“आप तो यूँ ही छोटे सी बात को दिल से लगा लेते हैं..” उसका इस तरह से हंसना मुझे अच्छा नहीं लगता है. मैं घायल शेर की तरह बिफर पड़ता हूँ- “तुम हर बात को टाल जाती हो. अंग्रेजियत क्या हुई कि तुम लोग मानसिक रूप से गुलाम हो गए हो उसके. तुम लोगों की सोच मर गयी है. मैं अब भी कहता हूँ कि इस देश में ज़्यादा दिन टिकना ठीक नहीं है. वह और टाइम था जब यहाँ हर एक को काम मिलता था. अब लाखों बेकार हैं. गोरों को नौकरियां मिलती नहीं, हमारे बच्चों को कहाँ से मिलेंगी? गोरों को पहले ही हमसे चिढ़ है कि हमारे पास दो-दो कारें हैं, रहने को अपना घर है और अच्छा बैंक बैलेंस है. एक बार हालत खराब हो गए, साम्प्रदायिक दंगे छिड़ गए तो हम सब को अपनी-अपनी कमाई यहीं छोड़कर भागना पड़ेगा. तब हमें अपना देश याद आएगा. मेरी बात अपने पल्ले बांधो. बच्चों को लेकर हम भारत चलते  हैं.”

सुषमा गुस्से भरी नज़रों से मेरी ओर देखती है. सदा की तरह इस बार भी उस पर मेरी बात का असर नहीं पड़ता है. वो असंयत होकर कहती है- “तौबा, इतनी भावुकता! आप भारत की संस्कृति ओर सभ्यता की बात करते हैं, सब संस्कृतियाँ और सभ्यताओं का मेल-जोल  हो रहा है अब. हमारी तरह हजारों-लाखों लोग यही सोच कर इंग्लॅण्ड में आये थे कि धन कमाकर पांच सालों में वे लौट जायेंगे. सुविधाएँ पाकर सभी यहाँ रह गए हैं. रही भेद-भाव की बात, सो मैं आपसे पूछती हूँ कि भारत इससे अछूता है? क्या वहां साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते? वहां तो एक प्रांत के लोग दूसरे प्रांत के लोगों से भी मिल-जुल कर नहीं रहते हैं. आपस में इतना अलगाव है कि मराठी अपना मकान पंजाबी को किराये पर देने के लिए तैयार नहीं है और पंजाबी मराठी को नहीं. कौन है वहां सच्चा भारतीय? सभी साम्प्रदायिक हैं. सभी प्रांतीयता के संकुचित दायरे में बंधे हैं. आये दिन वहां से किसी न किसी साम्प्रदायिक दंगे की खबर सुनने में आती है. यहाँ कभी कोई छोटी सी घटना हो भी जाती है तो आप शोर मचाने लगते हैं. आप भारत में गणित के अध्यापक थे. हिसाब लगाकर बताईये कि यहाँ पर साम्प्रदायिक दंगे अधिक होते हैं या वहां पर? अब भारत में जाइये और देखिये वहाँ पर अंग्रेजियत के चमत्कार. दांतों तले उंगली दबा लेंगे आप. नयी पीढ़ी की न तो अपनी भाषा है और न ही अपना लिबास ही. और तो और बड़ों के प्रति आदर और सत्कार की भावना भी उनमें मर सी गयी है. भारत को आज़ादी मिले कितने साल हो गये हैं लेकिन गरीबी वहीँ की वहीं है. लोग अब भी बेचैन हैं. किसी को सुख-शांति नहीं है. मंहगाई का बोलबाला है. गुज़ारा मुश्किल से हो रहा है. पढ़े-लिखे युवक-युवतियों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं. धक्के खाने पड़ रहे हैं उन्हें. कोई काम आसानी से नहीं बनता है. रिश्वत का दैत्य मुंह खोले खडा है. क्या आप वो दिन भूल गये हैं जब आपको अपने पासपोर्ट के लिए दौड़-धूप  करनी पड़ी थी. रिश्वत  देने के लिए आप क्लर्क से लड़ पड़े थे. उससे हाथा-पाई होते-होते बची थी आपकी. सब कुछ जानते-समझते हुए भी आप सच्चाई से आँखें मूंदते हैं. यहाँ की सुख-सुविधाओं से मैं अपने बच्चों को वंचित नहीं होने दूंगी. मैं ही क्या कोई माँ ऐसा नहीं होने देगी. लोग इस देश में आने के लिए तरसते हैं. आप हैं कि —————-”

बोलते -बोलते सुषमा उठ खड़ी होती है और किचन में चाय बनाने  के लिए चली जाती है. आज पहली  बार मैंने उसे अपने दिल का गुबार निकालते हुए देखा. उसकी बातों से मैं इतना गुमसुम हो गया कि मुझे इतनी खबर भी नहीं रही कि बच्चे उठकर कब ऊपर चले गये. मुझे उसका आभास तभी होता है जब सुषमा किचन से उन्हें आवाज़ देती है-

” सरला, दिनेश और उमेश नीचे आओ .चाय तैयार है.”

सरला, दिनेश और उमेश नीचे आते हैं. सुषमा टेबल पर चाय,बिस्कुट, सैंडविच  आदि सजा देती है. तीनों बच्चे मुझे अब तक कुर्सी में धंसा देखकर मेरे पास आते हैं और गुदगुदी करने लगते हैं, “उठो न पापा, चाय ठंडी हो रही है .”

इतने में मैं देखता हूँ कि सुषमा भी मेरे पास खड़ी है और बड़े प्यार-मनुहार से कह रही है- “अगर आप इस देश से इतना ही तंग आ गये हैं तो एक दिन यहाँ से हम चले जायेंगे. बस बच्चों की शिक्षा पूरी और अपने पैरों पर उन्हें खड़ा हो जाने दें.”

मैं सोचने लगता हूँ कि सुषमा कितनी होशियार बनती है ! आज वो बच्चों की शिक्षा पूरी और उनको अपने पैरों पर खड़ा हो जाने की बात करती है, कल उनके ब्याहों के बहाने बनाने लगेगी. और फिर उनके बाल-बच्चों के——–.

-प्राण शर्मा

कहानी: ‘आनंदवादी’ – महावीर शर्मा

अगस्त 26, 2009

आनंदवादी

-महावीर शर्मा

मैं  बहुत हँसता था। हँसना, हँसाना और आनंद के भौतिक पहलूको ही जीवन का आधार मानता था। कहा करता था – सृष्टि की उत्पत्ति जब आनंद-विभु से ही हुई है तो आनंद में ही निवास करना जीवन का सार है। लोग ब्रह्म-आनंद की बात करते तो बात काट देता कि इस अमूर्त,काल्पनिक अव्यावहारिक शून्यमनस्कता का समक्ष-आनंद के सामने कोई क्रियात्मक मूल्य नहीं है।गर्व से कहता था मैं आनंदवादी हूं। काव्य-कहानियों में निराशा और जीवन का नकारात्मक पहलू मुझे साहित्य में प्रदूषण की भांति लगता था।

आराम कुर्सी पर बैठे हुए हाथ में पकड़ी हुई पुस्तक का पन्ना उलटते हुए अनायास ही मस्तिष्क के किसी कोने में छुपी हुई अतीत की स्मृतियों ने ३५ वर्ष पुराने टाईम-ज़ोन में धकेल दिया। पुस्तक के पन्नों में शब्द लुप्त से हो गए। ऐसा लगा जैसे इन पन्नों में चल- चित्र की रीलें चल रही हो। मेरी हँसी, मेरी मुस्कान, आनंद-विभु से बनी हुई सृष्टि –  सब ‘झबिया’ की गोद में नन्हे से ‘ललुआ’ की पथराई आँखों से ढुलके हुए दो आँसुओं में समाये जा रहे हों।

पुरानी घटनाएं सजीव हो उठी। दिल्ली का वही पुल तो है जिसके नीचे सड़क के दोनों ओर फुटपाथों पर एक ओर ११ और दूसरी ओर १० व्यक्ति जीवन- यातना भुगत रहे हैं। शयनागार, रसोई, कारोबारालय, चौपाल – सभी कुछ इसी में समाये हुए हैं। ना दरवाज़े हैं, ना खिड़की हैं, ताले का तो प्रश्न ही नहीं होता। इन लोगों की जाति क्या है? ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रीय,शूद्र या दलित वर्ग में तो यह लोग आ नहीं सकते। जाति-वर्गित लोगों को तो लड़ाई झगड़ा करने का, ऊंच और नीच दिखाने का, फूट डलवा कर देश में दंगा फ़साद करवाने का और फिर अवैध युक्तियों से अपने बैंक बैलेंस को फुलाने का, अनेक सामाजिक, असामाजिक, वैध या अवैध अधिकार हैं।

इन २१ व्यक्तियों को तो ऐसा एक भी अधिकार नहीं है तो इनकी जाति कैसे हो सकती है! तो फिर ये लोग कौन हैं? इनके नाम हैं – भिखारी, कोढ़ी, लंगड़ा, अंधा, भूखा-नंगा, अपंग, भुखमरा, कंगला, और गरीब होने के कारण इनके तीन नाम और भी हैं क्योंकि कहते हैं,
“गरीबी तेरे तीन नाम: लुच्चा, गुंडा, बेईमान!!”

हां, उन्हीं लोगों के बीच में जो बैठी हुई जवान सी औरत है, उसका नाम है ‘झबिया’। उसकी गोद में जो नन्हा सा बालक है, उसे ये लोग ‘ललुआ’ कह कर पुकारते हैं। पिता का नाम ना ही पूछा जाए तो उचित होगा क्योंकि कभी कभी कुछ विषम स्थिति में असली नाम बताना किसी गोपनीय मृत्यु-दण्ड जैसे अंजाम तक भी पहुंचा सकता है।
झबिया की क्या मजाल है कि कह सके कि उसकी गोद में इस हड्डियों के ढांचे पर पतली सी खाल का आवरण लिए हुए नन्हे से बच्चे का पिता नगर के प्रतिष्ठित नेता का जवान सुपुत्र है।
*** *** *** ***

उस दिन अमावस्या की रात थी जब वह अपनी चमचमाती सी कार खड़ी करके बाहर निकला था तो झबिया ने केवल इतना ही कहा था,
“साब, भूकी हूं, कुछ पैसे दे दो। भगवान आपका भला करे!”
शराब का हलका सा नशा, अंधी जवानी का जोश और नेतागीरी के आगे गिड़गिड़ाता हुआ कानून -बस उसने झबिया को घसीट कर कार में खींच लिया। झबिया ने तो केवल भूखे पेट भरने को दो रोटी के लिए कुछ पैसे मांगे थे, ना कि यह मांगा था कि अपने उदर में उसका बच्चा लेकर उसको भी भूख से मरता देखती रहे!

गर्मियों की चिलचिलाती हुई धूप, बरसात की तूफानी बौछारें और कंपकंपा देने वाली सर्दियां इन पुलों के नीचे रहने वाले बिन वोटों के नागरिकों के जीवन को अगले मौसम को सौंप कर चल देती हैं।
इस बार तो ठण्ड ने कई वर्षों का रिकार्ड तोड़ डाला। ये कंपकंपाते हुए अभागे बिजली के खम्बों की रोशनी पर टकटकी लगाए हुए हैं। शायद इतनी दूर से बिजली के बल्ब से ही कुछ गर्मी उन तक पहुंच जाए!

हिमालय की पर्वत-शृंखलाओं से शिशिर ऋतु की डसने वाली बर्फीली शीत लहर गगनचुम्बी अट्टालिकाओं से टक्कर खाती हुई हार मानकर खिसियाई बिल्ली की तरह इन जीवित लाशों पर टूट पड़ी। इन निरीह निस्सहाय अभागों ने बचाव के लिए कुछ यत्न करने का प्रयास किया जैसे कंपकंपी, चिथड़े, कोई फटी पुरानी गुदड़ी या फिर एक दूसरे से सट कर बैठ जाना। इससे अधिक वे कर भी क्या सकते थे? सभी के दांत ठण्ड से कटकटा रहे थे जैसे सर्दी ध्वनि का रूप लेकर अपने प्रकोप की घोषणा कर रही हो। कुछ शोहदे बिगड़ैल छोकरे राह चलते हुए छींटाकशी से अपना ओछापन दिखाने से नहीं मानते :
“ऐसा लगता है जैसे मृदंग या पखावज पर कोई ताल चगुन पर बज रही है।”

इन ठिठुरे हुए बेचारों के कानों के पर्दे सर्दी के कारण जम चुके हैं, कुछ सुन नहीं पाते कि ये छोकरे क्या कुछ कहकर हँसते हुए चले गए। यदि सुन भी लेते तो क्या करते? बस अपने भाग्य को कोस कर मन मसोस कर रह जाते!

झबिया की गोद में ललुआ ठिठुर कर अकड़ सा गया है, ना ठीक तरह से रो पाता है, ना ही ज्यादा हिल-डुल पाता है। माँ उसे सर्दी से बचाने के लिए अपने वक्ष का कवच देकर जोर से चिपका लेती है। ललुआ माँ के दूध-रहित स्तनों को काटे जा रहा है। बड़ी बड़ी बिल्डिंगों से हार कर बड़े आवेग से एक बार फिर यह बर्फानी हवा का झोंका इन पराजित निहत्थों पर भीषण प्रहार कर अपनी खीज उतार रहा है।

एक गाड़ी इस हवा के झोंके की तीव्र गति को पछाड़ती हुई सड़क पर पड़े हुए बर्फीली पानी पर सरसराती हुई चली जाती है। कार के पहियों से उछलती हुई छुरी की तरह बर्फीली पानी की बौछारों से इन लोगों के दातों की कटकटाहट भयंकर नाद का रूप ले लेती हैं। ललुआ ने अकस्मात ही झबिया के वक्ष को काटना, चूसना बंद कर दिया, आंखें खुली पड़ी हैं, माँ की ओर टिकी हुई हैं जैसे पूछ रहा हो,
“माँ, मुझे क्यों पैदा किया था?”

झबिया उसे हिलाती-डुलाती है किंतु ललुआ के शरीर में कोई हरकत नहीं है। वह दहाड़ कर चीख़ उठती है। सभी की आंखें उसकी ओर घूम जाती हैं, बोलना चाहते हैं पर बोलने की शक्ति तो शीत-लहर ने छीन ली है!!

पुस्तक के पन्नों पर ऐसा लग रहा है जैसे ललुवा पथराई आंखों से ढुलके हुए दो आंसू को गिराते हुए कह रहा होः “मेरी आंखों में डाल कर ज़रा हँस कर तो दिखाओ!! तुम तो आनंदवादी हो! अरे, तुम क्या जानो कि जीवन की गहराईयों की तह में कितनी पीड़ा है!”

मैंने पुस्तक साथ की मेज़ पर रख दी और आंखें मूंद लीं!!!

महावीर शर्मा

रक्षाबँधन का नेह पत्र -मिनी का गोलू के नाम

अगस्त 5, 2009

‘मंथन’ और ‘महावीर’ के संपादकों और पंकज सुबीर की ओर से
राखी के मंगलमय पर्व
पर सभी बहनों और भाईयों को शुभकामनाएं

Subeer Pankaj

रक्षाबँधन का नेह पत्र -मिनी का गोलू के नाम

कहानी : पंकज सुबीर

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तुमको लिख रही हूँ तब मन बहुत उदास है । उदास है रक्षांबधन के एक सप्ताह पहले । इस दिन का कभी कितना इंतजार रहता था । लेकिन आज यही दिन जब देहरी पर खड़ा है तो मन में उदासी छा रही है । तब शायद पांच साल की थी मैं जब तुम्हारा जन्म हुआ था । कितनी उल्लासित थी मैं ? पूरे मोहल्ले को दौड़ दौड़ कर बता आई थी कि मेरा भी भाई आ गया है । इस साल से मैं भी राखी बाधूंगी । बताने का भी एक कारण  था । उसके पिछले साल जब राखी आई थी, और मैं सुबह बाहर बैठी अपनी गुड़िया के कपडे बदल रही थी कि तभी पड़ोस में रहने वाली मेरी सहेली चिंकी आ गई थी । खूब सुंदर कपड़े पहनकर, तय्यार होकर आई थी वो । मेरे पूछने पर उसने आंखे मटका मटका कर बताया था कि वो आज अपने भैया को राखी बांधेगी फिर उसको पैसे मिलेंगे चाकलेट मिलेगी । ‘राखी…..?’ मैं दौड़ती हुई अंदर गई थी और मम्मी से लड़ पड़ी थी कि मुझे क्यों नही तैयार किया राखी के लिये । हंसते हुए कहा था माँ ने, ‘तू किसे राखी बांधेगी ? तेरा भाई कहाँ है ?’। उदास सी मैं वापस चली आई थी बाहर। मेरी उदासी देख कर मम्मी ने शाम को पापा के हाथ पर मुझसे राखी बंधवा दी थी, पापा ने मुझे चाकलेट और पैसे भी दिये थे। मैं खुशी खुशी चाकलेट और पैसे चिंकी को दिखाने गई थी । चिंकी ने पूरी बात सुनकर कहा था ‘हट पागल, कहीं पापा को भी राखी बांधी जाती है ? राखी तो भाई को बांधी जाती है ।’ चिंकी की बात सुनकर मेरी सारी खुशी काफूर हो गई थी । उस दिन शायद पहली बार मैंने पीपल के नीचे रखे सिंदूर पुते हुए गोल मटोल पत्थरों से कुछ मांगा था । ‘मुझे भी एक भाई दे दो, राखी बांधने के लिये ।’

और फिर  तुम आ गए थे । जैसे ही पापा ने अस्पताल से आकर मुझे कहा था ‘मिनी, तुम्हारा छोटे भाई आया है ।’ मैं खुशी से झूम उठी थी । घर से दौड़ती हुई निकली तो पूरे मोहल्ले में चिल्ला चिल्ला कर बता आई थी कि मेरा भी भाई आ गया है अब मैं भी राखी बांधूगी । उस राखी पर जब मैंने तुम्हारी नाजुक मैदे की लोई समान कलाई पर राखी बांधी थी तो ऐसा लगा था मानो सारे जमाने की खुशियां मुझे मिल गईं हों । तुम्हारी नन्हीं नन्हीं उंगलियों से छुआकर मम्मी ने जो चाकलेट मुझे दी थी वो मैंने कई दिनों तक नहीं खाई थी । स्कूल बैग के पॉकेट मैं वैसे ही रखी रही थी वो। सबको वो चाकलेट इस प्रकार निकाल कर बताती थी मानो कोई ओलम्पिक का मैडल हो । और गर्व से कहती थी ये चाकलेट मेरे भाई ने मुझे दी है, पता है मैंने तो उसके हाथ पर राखी भी बांधी थी । उस एहसास को आज भी याद करती हूँ तो ऐसा लगता है मानो में फिर से उसी उम्र में पहुंच गई हूं । फिर उसके बाद आने वाले रक्षाबंधन, अब तो यूं लगता है जैसे सपनों का कोई सुनहरा अध्याय था जो पढ़ते पढ़ते अचानक समाप्त हो गया । हर साल रक्षाबांधन पर मुझे एक नई ड्रेस मिलती थी । मुझे भी नहीं पता कि रोज उठने के नाम पर नखरे करने वाली मैं, उस दिन सुबह सुबह कैसे उठ जाती थी । मम्मी अभी उठी भी नहीं होती थीं कि मैं पहुंच जाती ‘मुझे मेरी नई ड्रेस दे दो, मैं नहाने जा रही हूँ, गोलू को राखी बांधनी है ।’

गोलू ये नाम भी तो मैंने ही रखा था तुम्हारा । गोल मटोल आंखें और गेंद के समान गोल चेहरा देखकर ये नाम रख दिया था ‘गोलू ‘। मम्मी डांटती ‘अभी सुबह से पहन लेगी तो राखी बांधने तक गंदे कर लेगी कपडे’ । मगर मुझे चैन कहां होता था? मेरे लिये तो अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य सामने होता था, गोलू को राखी बांधने का ।

कुछ और साल बीते, मैं भी कुछ बड़ी हुई और तुम भी कुछ बड़े हुए । अब रक्षाबंधन पर मेरा काम ये हो गया कि मैं पहले तुमको राखी बाँधती और फिर तुमको गोद में उठा कर पूरे मोहल्ले का चक्कर लगाने निकल पड़ती । हर पहचान वाले को रोककर कर बताती ‘अंकल देखो मैंने गोलू को राखी बांधी है ।’ हाँ पीपल के नीचे रखे उन गोल मटोल पत्थरों के पास जाना कभी नहीं भूलती थी । कई बार मम्मी से पूछा कि मम्मी ये पीपल के नीचे कौन से भगवान हैं, पर उन्हें भी नहीं पता था । इसमें मुझे ये परेशानी आती थी कि जब पीपल के पास जाकर हाथ जोड़ती तो ये समझ में नहीं आता था कि कौन से भगवान  का नाम लूं । पीपल के चबूतरे पर तुमको बैठा कर जब में हाथ जोड़ती तो तुम गोल गोल आंखों से मुझे टुकुर टुकुर ताकते रहते ।

फिर हम कुछ और बडे हुए । और अब हममें झगड़े शुरू हो गए । तुम्हें शुरू से ही केवल वो ही चीजें खेलने के लिए चाहिये होती थीं जो मेरी होती थीं । जब तक तुम छोटे वे तब तक तो में खुद ही अपनी चीजें तुमको खेलने को दे देती थी लेकिन जब तुम बडे होने लगे और मेरी चीजों के लिये जिद करने लगे तो में भी जिद्दी होने लगी । मम्मी का ये कहना मुझे बिल्कुल नहीं पसंद आता था ‘दे दे मिनी,  तू बड़ी है वो छोटा है’ । ‘छोटा है तो क्या, मैं नहीं देने वाली अपनी चीजें।’

मेरी वो मन पसंद गुडिया जो पापा ने मुझे दिल्ली से लाकर दी थी । उस दिन जब स्कूल से लौटी तो देखा कि उसके घने सुनहरे बाल किसी ने बेदर्दी से इस प्रकार काटे हैं कि अब सर पर घांस फूस की तरह एक गुच्छा बचा है। करने वाले तुम ही थे । बहुत रोई थी मैं, तुमको अकेले में एक मुक्का भी मारा था । बहुत दिनों तक सोचती रही कि  जैसे इंसानों के बाल कटने के बाद फिर बढ़ जाते हैं उसी प्रकार गुड़िया  के भी बढ़ जाएंगे मम्मी की नजर बचा कर उसके सर में तेल की मालिश भी करती रही, पर बालों को नहीं बढ़ना था सो नही बढे ।

समय बीतता रहा और हम बढ़ते रहे । इस बढने के साथ ये भी होता रहा कि तुम्हारे और मेरे के झगड़े भी बढ़ते रहे । बीच में पिसती रहीं मम्मी । मैं कहती कि तम गोलू का पक्ष लेती हो और तुम कहते कि तुम दीदी की तरफदारी करती हो । तब कहाँ पता था मुझे कि माँ तो सुलह का पुल होती है वो पक्षपात कभी नहीं करती । मां ‘तरफ’ कभी नहीं होती, माँ तो परिवार नाम के वृत्त का केन्द्र होती है। परिधि पर खडे परिजनो में हरेक को यही लगता है कि मां उससे कुछ दूर है तथा दूसरे के कुछ पास है किन्तु केन्द्र ऐसा कब होता है यदि वो किसी के दूर और किसी के पास होगा तो केन्द्र कहाँ रहेगा ।

फिर और समय बीता, मैं कॉलेज पहुंची और पापा ने मुझे कॉलेज आने जाने के लिये मोपेड दिलवा दी । तुम्हारी नजर उस पर भी रहने लगी । जैसे ही मैं कॉलेज से आती तुम मम्मी से जिद करने लगते कि मुझे मैदान का एक चक्कर लगाने के लिये गाड़ी  चाहिए । हार कर मुझे चाबी देनी पड़ती और फिर कभी तुम इण्डीकेटर  तोड लाते, तो कभी एक के बजाय चार पांच चक्कर लगा कर उसका पूरा पेट्रोल खत्म करके चुपचाप उसे लाकर खडी क़र देते । फिर मैं हंगामा मचाती और जोर शोर से झगड़ा होता ।

कॉलेज की मेरी पढाई खत्म होने को थी जब तुम कॉलेज में पहुचे थे । उस समय तक हमारे झगड़ो की जगह अबोले ने ले ली थी अब हम झगडते नही थे बल्कि एक दूसरे से बोलना बंद कर देते थे । कई बार दो दो, तीन तीन महीनों तक नहीं बोलते थे ।

अब जब ये रक्षाबांधन आया है तब भी वही स्थिति है, हममें बोलचाल बंद है । मेरी उदासी का कारण ये नहीं है बल्कि ये है कि इस घर में मेरा ये आखिरी सावन है, दिसम्बर में मैं विदा हो जाऊंगी यहां से । विदा हो जाऊंगी घर से, मम्मी से, पापा से, तुमसे, पीपल से और सबसे । चली जाऊंगी एक अन्जाने देश कुछ अन्जाने लोगों के बीच । बहुत सारी यादें साथ ले जाऊंगी और बहुत सी छोड़ जाऊंगी । यादें उस पहले रक्षा बंधन की, यादें उस पहली चाकलेट की ।

जब से मेरी शादी की तारीख पक्की हुई है तब से मैं एक बोझिल उदासी को घर में सांस लेते देख रही हूँ । पापा इन दिनों मेरा बहुत खयाल रखने लगे हैं । और मम्मी ….। उनको तो जाने क्या हो गया है । चुपचाप कभी किचिन में तो कभी बरामदे में बैठी रोती रहती हैं । कुछ पूछती हूं तो कुछ भी नहीं बोलतीं, बस पानी भरी आंखों से मुझे देखती रहती  हैं।  उस दिन जब शाम को घर आई तो देखा मम्मी और पापा बरामदे में ही बैठे हैं । मम्मी की आंखें आंसुओ से भरी हैं । पापा की आंखे भी गीली हैं । मैं जैसे ही पास पहुंची  पापा मुझे सीने से लगा कर फूट फूट कर रो पडे । पहली बार देखा पापा को रोते, वो भी इस तरह ।

गोलू, सब कुछ छूट रहा है मेरा यहीं। अब टीवी के रिमोट कंट्रोल  पर तुम्हारा ही कब्जा रहेगा । मेरी पढ़ने की टेबिल जिसको लेकर हमेशा ही तुम्हारे साथ मेरा झगड़ा हुआ अब वो तुम्हारी हो जाएगी । टेबल की दराज में मेरा कुछ सामान रखा है उसे वैसे ही रखे रहने देना । उसमें मेरी वो गुड़िया भी है जिसके बाल तुमने काट दिये थे । पहली राखी पर तुमने जो चाकलेट दी थी उसका रैपर भी वहीं रखा है, एक माचिस की डिबिया में बंद । एक फोटो भी है जो शायद दूसरी या तीसरी राखी पर खिंचवाया था तुमको राखी बांधने के बाद  । और ऐसा ही बहुत सामान है । उसे मत हटाना, जब कभी  आऊंगी तो इनको देखकर याद ताजा कर लिया करूंगी । जब तुम्हारी शादी हो जायेगी और तुम्हारी बिटिया होगी तो ये बाल कटी गुडिया उसको दूंगी और कहूंगी ‘ये है तेरे शैतान बाप की करतूत….. ।’

गोलू, पढ़ती आई हूँ कि शादी के बाद लड़की का पूरा जीवन बदल जाता है, मेरा क्या होना है नहीं जानती । आने वाला जीवन कुहासे में ढंका है, पास जाऊंगी तब ही पता चलेगा वहाँ क्या है । पर तुम्हारे साथ, मम्मी पापा के साथ, इस घर में बिताये  जीवन की बहुत अच्छी यादें मेरे साथ हैं । इन यादों का आधार ही मेरे उस जीवन का सम्बल होगा । और ये यकीन तो है ही कि दुख में, परेशानी में, मेरा वो कल का नन्हा गोल मटोल गोलू मेरे साथ होगा । मेरी इच्छा है कि ये रक्षाबंधन हम उसी प्रकार मनाएँ जैसे बचपन में मनाते थे दिन भर धींगा मस्ती करते हुए । अबोला होने के कारण पत्र लिख रही हूँ । कोई दूसरी लड़की तुम्हें पत्र लिखती तो उसे प्रेम पत्र कहते, लेकिन ये तुम्हारी बहन लिख रही है इसलिये ये नेह पत्र है । रक्षाबँधन का नेह पत्र-मिनी का गोलू के नाम ।

तुम्हारी दीदी-मिनी

प्राण शर्मा की लघु-कथा और तेजेंद्र शर्मा की कविता

जुलाई 22, 2009

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प्राण शर्मा की लघु-कथा
पिंजरे के पंछी
—प्राण शर्मा

चंद्र प्रकाश के चार साल के बेटे को पंछियों से बेहद प्यार था। वह अपनी जान तक न्योछावर करने को तैयार रहता। ये सभी पंछी उसके घर के आंगन में जब कभी आते तो वह उनसे भरपूर खेलता। उन्हें जी भर कर दाने खिलाता। पेट भर कर जब पंछी उड़ते तो उसे बहुत अच्छा लगता।

एक दिन बेटे ने अपने पिता जी से अपने मन की एक इच्छा प्रकट की। – “पिता जी, क्या चिड़िया, तोता औ कबूतर की तरह मैं नहीं उड़ सकता?”
“नहीं।” पिता जी ने पुत्र को पुचकारते हुए कहा।
“क्यों नहीं?”
“क्योंकि बेटे, आपके पंख नहीं हैं।”
“पिता जी, क्या चिड़िया, तोता और कबूतर मेरे साथ नहीं रह सकते हैं? क्या शाम को मैं उनके साथ खेल नहीं सकता हूं?”
“क्यों नहीं बेटे? हम आज ही आपके लिए चिड़िया, तोता औ कबूतर ले आएँगे।
जब जी चाहे उनसे खेलना। हमारा बेटा हमसे कोई चीज़ माँगे और हम नहीं लाएँ, ऐसा कैसे हो सकता है?”

शाम को जब चन्द्र प्रकाश घर लौटे तो उनके हाथों में तीन पिंजरे थे – चिड़िया, तोता और कबूतर के। तीनों पंछियों को पिंजरों में दुबके पड़े देखकर पुत्र खुश न हो सका।
बोला- “पिता जी, ये इतने उदास क्यों हैं?”
“बेटे, अभी ये नये-नये मेहमान हैं। एक-दो दिन में जब ये आप से घुल मिल जाऐंगे तब देखना इनको उछलते-कूदते और हंसते हुए?” चन्द्र प्रकाश ने बेटे को तसल्ली देते हुए कहा।

दूसरे दिन जब चन्द्र प्रकाश काम से लौटे तो पिंजरों को खाली देखकर बड़ा हैरान हुए। पिंजरों में न तो चिड़िया थी और न ही तोता और कबूतर। उन्होंने पत्नी से पूछा-“ये चिड़िया, तोता और कबूतर कहाँ गायब हो गये हैं?”
“अपने लाडले बेटे से पूछिए।” पत्नी ने उत्तर दिया।
चन्द्र प्रकाश ने पुत्र से पूछा-“बेटे, ये चिड़िया, तोता औ कबूतर कहाँ हैं?”
“पिता जी, पिंजरों में बंद मैं उन्हें देख नहीं सका। मैंने उन्हें उड़ा दिया है।” अपनी भोली ज़बान में जवाब देकर बेटा बाहर आंगन में आकर आकाश में लौटते हुए पंछियों को देखने लगा।

—प्राण शर्मा

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मेरी तुकबंदियां

तेजेंद्र शर्मा

मैं
और मेरी तुकबंदियां
हर शाम, एक दूसरे से
बातें करते हैं

मैं जानता हूं
ज़माने को कुछ नहीं
लेना देना
मेरी तुकबंदियों से।

वे मुझे लुभाती हैं
मेरा बिस्तर, मेरा तकिया
बन कर पहुंचाती हैं आराम
देती हैं रज़ाई की गर्माहट।

जेठ की तपती लू जैसे उलाहने
दुनिया भर की शिक़ायतें
नाराज़गियां, दबाव
ठण्डी बयार हैं तुकबंदियां।

उन्हें नहीं पसन्द
तो क्या हुआ..
ये मेरी अपनी हैं।
बनाती हैं मुझसे एक अबूझ रिश्ता

रात को तारों की तरह टिमटिमाती।
भोर के सूरज के साथ
जगाती हैं. चाय की प्याली बन जाती हैं।
नहीं रचतीं ढोंग महानता का
रहती हैं ख़ुश अपने आप में।

मेरी तुकबंदियां।

-तेजेंद्र शर्मा

देवी नागरानी की लघुकथा – भिक्षा-पात्र

जुलाई 6, 2009

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भिक्षा पात्र

(लघुकथा)

देवी नागरानी

दरवाज़े पर भिक्षा दते हुए देवेन्द्र नारायण सोच रहे थे, ये सिलसिला कब तक चलेगा ? पिताजी के ज़माने से चलता आ रहा है ! दरवाज़े पर आए भिक्षुक को खाली हाथ न भेजो ! और बेख्याली में भिक्षा पात्र में न पड़कर नीचे ज़मीन पर गिरी। कुछ रूखे अंदाज़ से बढ़बढ़ाते हुए कह उठे, “भई ज़रा उठा लेना, मैं जल्दी में हूँ” और अंदर चले गए ।

बरसों बीत गए और ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव जहाँ ऊँट की करवट लेकर थमे, वहाँ पासा भी पलटा । सेठ देवेन्द्र नारायण मसइलों की गर्दिश से गुज़र कर खास से आम हो गए और फिर पेट के फाके क्या नहीं कराते ? नियति कहें या परम विधान! एक दिन वो भिक्षा पात्र लेकर उसी भिक्षू के दरवाजे की चौखट पर आ खड़े हुए जिसे एक बार उन्होंने अनचाहे मन से भिक्षा दी थी । बाल भिक्षू अब सुंदर गठीला नौजवान हो गया था और कपड़ों से उसके मान-सम्मान की व्याख्यान मिलती रही । सर नीचे किये हुए सोच से घिरे देवेन्द्रनारायण अतीत में खो गए। ”
मान्यवर आप कृपया अपना पात्र सीधा रखें ताकि मैं आपकी सेवा कर पाऊँ ।” विनम्रता का भाव उनके हृदय में करुणा भरता गया और साथ में दीनता भी । नौजवान ने उनके भावों को पहचानते हुए और विनम्रता से कहा – “हम तो वही है मान्यवर बस स्थान बदल गए है और यह परिवर्तन एक नियम है जो हमें स्वीकारना है, इस भिक्षा की तरह. न हमारा कुछ है, न कुछ आपका ही है। बस लेने वाले हाथ कभी देने वाले बन जाते हैं.”।

देवी नागरानी
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वसीयत – कहानी

मई 1, 2008

वसीयत – कहानी
लेखकः
महावीर शर्मा

(साभारः सरिता, दिसंबर-प्रथम २००६)

vasiyat_thumbसुबह नाश्ते के लिये कुर्सी पर बैठा ही था कि दरवाज़े की घण्टी बज उठी। उठने लगा तो सीमा ने कहा, “आप चाय पीजिये, मैं जाकर देखती हूं।” दरवाज़ा खोला तो पोस्टमैन ने सीमा के हाथ में चिट्ठी देकर दस्तखत करने को कहा,
“किस की चिट्ठी है?” मैंने बैठे बैठे ही पूछा।
चिट्ठी देख कर सीमा ठिठक गई और आश्चर्य से बोली, ” किसी सॉलिसिटर का है। लिफ़ाफ़े पर भेजने वाले का नाम ‘जॉन मार्टिन-सॉलिसिटर्स’ लिखा है।”
यह सुनते ही मैं ने चाय का प्याला होंटों तक पहुंचने से पहले ही मेज पर रख दिया। इंग्लैण्ड में वैध रूप से आया था, और इस ६५ वर्ष की आयु में वकील का पत्र देख कर दिल को कुछ घबराहट होने लगी थी। उत्सुकता और भय का भाव लिए पत्र खोला तो लिखा था.

“जेम्स वारन, ३० डार्बी एवेन्यू , लंदन निवासी का ८५ वर्ष की आयु में २८ नवंबर २००४ को देहांत हो गया। उसकी वसीयत में अन्य लोगों के साथ आपका भी नाम है। जेम्स की वसीयत १५ दिसम्बर २००४ दोपहर के बाद ३ बजे जेम्स वारन के निवास पर पढ़ी जायेगी। आप से अनुरोध है कि आप निर्धारित तिथि पर वहां पधारें या आफिस के पते पर टेलीफोन द्वारा सूचित करें।”

“यह जेम्स वारन कौन है? सीमा ने उत्सुकता से कहा, “मेरे सामने तो आपने कभी भी इस व्यक्ति का कोई जिक्र नहीं किया।” मैं जैसे किसी पुराने टाइमज़ोन में पहुंच गया। चाय का एक घूंट पीते हुए मैं ने सीमा को बताना शुरू किया।

“उस समय मैं अविवाहित था और लंदन में रहता था। मैं कभी कभी दो मील की दूरी पर एवेन्यू पार्क में जाता था। वहां एक अंगरेज़ वृद्ध जिस की उम्र लगभग ५५ – ६० की होगी, बैंच पर अकेला बैठा रहता और वहां से गुजरने वाले हर व्यक्ति को हंस कर “गुड-मॉर्निंग” या “गुड डे” कह कर इस अंदाज़ मेंअभिवादन करता, जैसे कुछ कहना चाहता हो।

इंगलैंड में धूप की खिलखिलाती हो तो कौन उस बूढ़े की ऊलजलूल बातों में समय गंवाए ? यह सोच कर लोग उसे नज़रअंदाज़ कर चले जाते और बैंच पर अकेला बैठा होता था। मैं भी औरों की तरह आंखें नीचे किए कतरा कर चला जाता। कुछ झुटपुटा होने लगता तो पार्क की चहल पहल सूनेपन में बदलना आरम्भ हो जाती। मैं भी चलने लगता। बूढ़ा अपनी लकड़ी के सहारे धीरे धीरे चल देता।

हर रोज अंधेरा होने से पहले बूढ़ा अपनी जगह से उठता और धीरे धीरे चल देता।मैं कभी अनायास ही पीछे मुड़ कर देखता तो हाथ हिला कर “हैलो” कह कर मुस्कुरा देता। मैं भी उसी प्रकार उत्तर देकर चला जाता। यह क्रम चलता रहा। एक दिन रात को ठीक से नींद नहीं आई तो विचारों के क्रम में बारबार बूढ़े की आकृति सामने आती रही, फिर नींद लगी तो देर से सो कर उठा। सामान्य कार्यों के बाद कुछ भोजन कर कपड़े बदले और पार्क जा पहुंचा।
बूढ़ा उसी बैंच पर मुंह नीचे किए हुए बैठा हुआ था जैसे किसी घोर चिंता में डूबा हुआ हो। इस बार कतराने के बजाय मैं ने उस से कहा,”हैलो, जेंटिलमैन!”
बूढ़े ने मुंह ऊपर उठाया। उसकी नजरें कुछ क्षणों के लिए मेरे चेहरे पर अटक गई। फिर एक दम उसकी आंखों में चमक सी आगई, मुस्कुराहट से गाल फैलने से चेहरे की झुर्रियां गहरा गईं। वह बड़े उल्लासपूर्वक बोला, “हैलो, सर। आप मेरे पास बैठेंगे क्या? …” मैं उसी बैंच पर उसके पास बैठ गया। बूढ़े ने मुझ से हाथ मिलाया, जैसे कई वर्षों के बाद कोई अपना मिला हो। मैंने पूछा,” आप कैसे हैं? “जब कोई दो व्यक्ति मिलते हैं तो यह एक ऐसा वाक्य है जो स्वतः ही मुख से निकल जाता है। कुछ देर मौन ने हम को अलग रखा था पर मैंने ही फिर पूछा ,” आप पास में ही रहते हैं?”
मेरे इस सवाल पर ही उस ने बिना झिझक के कहना शुरू कर दिया, ” मेरा नाम जेम्स वारन है।३० डार्बी एवेन्यू , फिंचले में अकेला ही रहता हूं।” मैंने कहा, ” मिस्टर वारन ….”,
“नहीं, नहीं … जेम्स! आप मुझे जेम्स कह कर ही पुकारें तो मुझे अच्छा लगेगा।” जेम्स ने मेरी बात पूरी कहने से पहले ही कह दिया।
मैं जानता था कि जेम्स वारन के पास कहने को बहुत कुछ है, जिसे उस ने अंदर दबा कर रखा है। ना जाने जेम्स ने कब से अपने उद्गार दबा कर रखे होंगे, ना जाने कब से अचेतन मन में पड़ी हुई सिसकती हुई पुरानी यादें चेतना पर आने के लिये संघर्ष कर रही होंगी किंतु किस के पास इस बूढ़े की दास्तान सुनने के लिए समय है? जेम्स ने एक आह सी भरी और कहना शुरू किया,
“मैं अकेला हूं। चार बैड-रूम के मकान की भांयभांय करती हुई दीवारों से पागलों की तरह बातें करता रहता हूं।” इतना कह कर जेम्स ने चश्मे को उतारा और उसे साफ़ कर के दोबारा बोलना शुरू किया।
‘ऐथल, यानी मेरी पत्नी, केवल सुंदर ही नहीं, स्वभाव से भी बहुत अच्छी थी। हम दोनों एक दूसरे की सुनते थे। उसके साथ दुख का आभास ही नहीं होता था तो दुख की पहचान कैसे होती?। मेरी माँ उस समय जीवित थी किंतु पिता मेरे बचपन में ही स्वर्ग सिधार गए थे।
‘एक दिन पत्नी ने मुझे जो बताया उसे सुन कर मैं फूला न समाया था। पिता बनने की खबर ने मुझे ऐसे हवाई सिंहासन पर बैठा दिया जैसे एक बड़ा साम्राज्य मेरे अधीन हो। मेरी मां ने दादी बनने की खुशी में घर पर परिचितों को बुला कर पार्टी दे डाली। इस तरह ८ महीने आनंद से बीत गए। ऐथल ने अपने आफिस से अवकाश ले लिया था। मैं सारे दिन बच्चे और ऐथल के बारे में सोचता रहता।

‘एक रात जब मूसलाधार वर्षा हो रही थी। बीच बीच में कभी कभी बिजली कौंध जाती और भयानक बिजली के कड़कने की गरजन हृदय को दहला देती। वह रात वास्तव में भयावह रात बन गई। ऐथल के ऐसा तेज़ दर्द हुआ जो उस के लिए सहना कठिन था। मैंने एम्बुलैंस मंगाई और ऐथल की करहाटों व अपनी घबराहट के साथ अस्पताल पहुंच गया।
‘नर्सों ने एंबुलेंस से ऐथल को उतारा और तेजी से सी.आई.यू. में ले गईं। डॉक्टर ने ऐथल की हालत जांच कर कहा कि शीघ्र ही आप्रेशन करना पड़ेगा। अंदर डॉक्टर और नर्सें ऐथल और बच्चे के जीवन और मौत के बीच अपने औज़ारों से लड़ते रहे, बाहर मैं अपने से लड़ता रहा। काफी देर के बाद एक नर्स ने आकर बताया कि तुम एक लड़के के पिता बन गये हो। खुशी में एक उन्माद सा छागया। नर्स को पकड़ कर मैं नाचने लगा। नर्स ने मुझे ज़ोर से झंजोड़ सा दिया पर मेरा हाथ जोर से दबाए रही। कहने लगी,”मिस्टर वारन, मुझे बहुत ही दुख से कहना पड़ रहा है कि डाक्टरों की हर कोशिश के बाद भी आपकी पत्नि नहीं बच सकी।” मेरे पावों से नीचे की धरती सी खिसक गई।आज पता चला कि दुःख क्या होता है!”
जेम्स ने आंखों से चश्मा उतार कर फिर साफ किया। उसकी आंखें आंसुओं के भार को संभाल ना पाई। एक लम्बी सांस छोड़ी और इस वेदना भरी कहानी जारी करते हुए कहा, “माँ पोते की खुशी और ऐथल की मृत्यु की पीड़ा में समझौता कर जीवन को सामान्य बनाने की कोशिश करने लगी। मेरी माँ बड़ी साहसी थीं। उन्होंने बच्चे का नाम विलियम वारन रखा क्योंकि विलियम ब्लेक, ऐथल का मनपसंद लेखक था।

‘इसी तरह ८ वर्ष बीत गए। माँ बहुत बूढ़ी हो चुकी थी। एक दिन वह भी विलियम को मुझे सौंप कर इस संसार से विदा लेकर चली गई। उस दिन से विलियम के लिये मैं ही माँ, दादी और पिताके कर्तव्यों को पूरी जिम्मेदारी से निभाता। उसे प्रातः नाश्ता देकर स्कूल छोड़ कर अपने दफ्तर जाता। वहां से भी दिन के समय स्कूल में फोन पर उसकी टीचर से उसका हाल पूछता रहता। विलियम की उंगली में जरा सी चोट लग जाती तो मुझे ऐसा लगता जैसे मेरे सारे शरीर में दर्द फैल गया हो।
‘इतने लाड़ प्यार में पलते हुए वह १८ वर्ष का हो गया। ए-लैवल की परीक्षा में ए ग्रेड में पास होने की खबर सुन कर मैं इतना खुश हुआ कि सीधे ऐथल की फोटो के सामने जाकर न जाने कितनी देर तक उससे बातें करता रहा। जब ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी से ऑनर्स की डिग्री पास की तो मेरे आनंद का पारावार न था।
‘विलियम की गर्लफ्रैंड जैनी जब भी उसके साथ हमारे घर आती तो मैं खुशी से नाच पड़ता। जैनी और विलियम का विवाह उसी चर्च में संपन्न हुआ जहां मेरा और ऐथल का विवाह हुआ था। एक वर्ष के पश्चात ही वलियम और जैनी ने मुझे दादा बना दिया। उस दिन मुझे माँ और ऐथल की बड़ी याद आई। मेरी आंख भर आई! पोते का नाम जॉर्ज वारन रखा। हंसते खेलते एक साल बीत गया। इतनी कशमकश भरे जीवन में अब आयु ने भी शरीर से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया था।

“डैडी, जैनी और मुझे कंपनी एक बहुत बड़ा पद देकर आस्ट्रेलिया भेज रही है। वेतन भी बहुत बढ़ा दिया है, मकान, गाड़ी, हवाई जहाज़ की यात्रा के साथ कंपनी जॉर्ज के स्कूल का प्रबंध आदि सुविधाएं भी दे रही है”, विलियम ने बताया तो मेरी आंखें खुली ही रह गईं। यह सब सुन कर मैं धम्म से सोफे पर धंस गया तो विलियम मेरा आशय समझ मुसकरा कर कहने लगा, “डैडी, आप अकेले हो जाएंगे। हम दोनों यह प्रस्ताव अस्वीकार कर देंगे। वैसे तो यहां भी सब कुछ है।”‘मैंने अपने आपको संभाला और कहा कि वाह, मेरा बेटा और बहू इतने बड़े पद पर जारहे हैं। मेरे लिए तो यह गर्व की बात है। सच, मुझे इससे बड़ी खुशी क्या होगी?” जाने की तैयारियां होने लगीं। दिन तो बीत जाता पर रात में नींद न आती। कभी विलियम और जैनी तो कभी जार्ज के स्वास्थ्य की चिंता बनी रहती।

‘वह दिन भी आ ही गया जब लंदन एयरपोर्ट पर विलियम, जैनी और जॉर्ज को विदा कर भीगे मन से घर वापस लौटना पड़ा। विलियम और जैनी ने जातेजाते भी अपने वादे की पुष्टि की कि वे हर सप्ताह फोन करते रहेंगे और मुझ से आग्रह किया कि मैं उनसे मिलने के लिए आस्ट्रेलिया अवश्य जाऊं। वे टिकट भेज देंगे। मन में उमड़ते हुए उद्गार मेरे आंसुओं को संभाल ना पाए। जार्ज को बार बार चूमा। एअरपोर्ट से बाहर आने के बाद वापस घर लौटने के लिए दिल ही नहीं करता था। कार को दिन भर दिशाहीन घुमाता रहा। शाम को घर लौटना ही पड़ा। दीवारें खाने को आरही थीं। सामने जॉर्ज की दूध की बोतल पड़ी थी, उठा कर सीने से चिपका ली और ऐथल की तस्वीर के सामने फूट फूट कर रोया,
“देख रही है ऐथल, मैं कहा करता था लोगों को जरा सा दुख होता है तो भड़म्बा बना देते हैं। आज पता लगा कि दुख कितना तड़पा देता है।”
‘चार दिन के बाद फोन की घण्टी बजी तो दौड़ कर रिसीवर उठाया,”हैलो डैडी!”

यह स्वर सुनने के लिए कब से बेचैन था। मैं भर्राये स्वर में बोला,
“तुम सब ठीक हो न, जॉर्ज अपने दादा को याद करता है कि नहीं?” मैं यह भी भूल गया कि गोद का बच्चा क्या याद करेगा और क्या भूलेगा। जैनी से भी बात की और यह जान कर दिल को बड़ा सुकून हुआ कि वे सब स्वस्थ और कुशलपूर्वक हैं।
‘विलियम ने टेलीफोन को जॉर्ज के मुंह के आगे कर दिया, तो उसके ‘आंउ आंउ’ की आवाज़ ने कानों में अमृत सा घोल दिया। थोड़ी देर बाद फोन पर वो आवाज़ें बंद हो गईं।
‘तीन माह तक उनके टेलीफोन लगातार आते रहे, किंतु उसके बाद यह गति धीमी हो गई। मैं फोन करता तो कभी कह देता कि दरवाज़े पर कोई घंटी दे रहा है और फोन काट देता। बातचीत शीघ्र ही समाप्त हो जाती। छः महीने इसी तरह बीत गए। कोई फोन नहीं आया तो घबराहट होने लगी।
‘एक दिन मैंने फोन किया तो पता लगा कि वे लोग अब सिडनी चले गए हैं। यह भी कहने पर कि मैं उसका पिता हूं, नए किरायेदार ने उसका पता नहीं दिया। उसकी कंपनी को फोन किया तो पता चला कि उसने कंपनी की नौकरी छोड़ दी थी। यह जान कर तो मेरी चिंता और भी बढ़ गई थी। वे लोग कहां थे, काम कहां कर रहे थे, कुछ पता नहीं लगा।

‘मेरा एक मित्र आर्थर छुट्टियां मनाने तीन सप्ताह के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा था। मैं ने उसे अपनी समस्या बताई तो बोला कि वह दो दिन सिडनी में रहेगा और यदि विलियम का पता कहीं मिल गया तो मुझे फोन कर के बता देगा। आर्थर का फोन नहीं आया। तीन सप्ताहों की अंधेरी रातें अंधेरी ही रहीं। तीनों की फोटो बत्ती की रोशनी में निहारता रहता। देखता रहता कि जॉर्ज की आंखें ऐथल की तरह नीली थी, उसकी नाक विलियम और मेरी तरह की, ललाट और मुंह पर जैनी की झलक दिखाई देती थी। कल्पना-लोक में विचरता रहता, कल्पना में ही कभी उस अनजाने देश के समुद्र के किनारों पर उन्हें ढूंढता,कल्पना में ही कभी वहां के बाजारों में पागलों की तरह लोगों के चेहरे देखते रहता कि कहीं कोई चेहरा विलियम या जैनी का ना दिख जाए। यह सब मेरा पागलपन ही तो था। ‘तीन सप्ताह के पश्चात जब आर्थर वापस आया तो आशा दुख भरी निराशा में बदल गई। विलियम और जैनी उसे एक रेस्तरां में मिले थे किंतु वे किसी आवश्यक कार्य के कारण जल्दी में अपना पता, टेलीफोन नंबर यह कह कर नहीं दे पाए कि शाम को डैडी को फोन करके नया पता आदि बता देंगे। ‘उसके फोन की आस में अब हर शाम टेलीफोन के पास बैठ कर ही गुज़रती है। जिस घण्टी की आवाज़ सुनने के लिए इन छः सालों से बेज़ार हूं, वह घण्टी कभी नहीं सुनी। हो सकता है कि उसे डर लगता हो कि कहीं बाप आस्ट्रेलिया ना धमक जाए, बूढ़े से काम तो होगा नहीं, उसका काम भी करना पड़ेगा और वैसे भी बूढ़े और युवकों का मेल इस देश में कहां निभता है?”

जेम्स ने एक लंबी सांस ली। मुझ से पता पूछा तो मैं ने जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर दे दिया और बोला, “जेम्स, किसी भी समय मेरी जरूरत हो तो बिना झिझक के मुझे फोन कर देना। आइए, मैं आपको आप के घर छोड़ देता हूं। मेरी कार बराबर की गली में खड़ी है।’ “धन्यवाद! मैं पैदल ही जाऊंगा क्योंकि इस प्रकार मेरा व्यायाम भी हो जाता है।” डबडबाई आंखों से विदा लेकर अपनी छड़ी के सहारे चल दिया।

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घर आने पर देखा तो डाक में कुछ चिट्ठियां पड़ी थीं। मैंने कोर्बी टाउन के एक स्कूल में गणित विभाग के अध्यक्ष के पद के लिये इन्टर्वियू दिया था। पत्र खोला तो पता चला कि मुझे नियुक्त कर लिया गया है। नये स्कूल के लिये अपनी स्वीकृति भेज दी। जाने में केवल एक सप्ताह शेष था। जाते हुए जेम्स से विदा लेने के लिए उसके मकान पर गया पर वह वहां नहीं था। पड़ौसी से पता लगा कि अस्पताल में भरती है। इतना समय नहीं था कि अस्पताल में जाकर उसका हाल देख लूं।

एक दिन की मुलाकात मस्तिष्क की चेतना पर अधिक समय नहीं टिकी। समय के साथ मैं जेम्स को बिल्कुल भूल गया।

वकील के पत्रानुसार नियत समय पर जेम्स के घर पर पहुंच गया। उसी दरवाजे पर घण्टी का बटन दबाया जहां से ३० साल पहले जेम्स से मिले बिना ही लौटना पड़ा था। आज बड़ा विचित्र सा लग रहा था। लगभग ४५ वर्षीय एक व्यक्ति ने दरवाजा खोला। मैंने अपना और सीमा का परिचय दिया तो वकील ने भी अपना परिचय देकर हमें अंदर ले जा कर लाउंज में एक सोफे पर बैठा दिया, वहां तीन पुरुष और एक महिला पहले ही मौजूद थे। मि. मार्टिन ने हम सब का परिचय कराया। एक सज्जन आर.एस.पी.सी.ए. (दि रॉयल सोसायटी फॉर दि प्रिवेंशन आफ क्रुएल्टी टु ऐनिमल्स) का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। अन्य तीन, विलियम वारन (जेम्स वारन का पुत्र), उसकी पत्नी जैनी वारन तथा जेम्स का पौत्र जॉर्ज वारन थे जो आस्ट्रेलिया से आए थे। उनमें से कोई भी जेम्स के अंतिम संस्कार में सम्मलित नहीं हुआ था। बाईं ओर छोटे से नर्म गद्दीदार गोल बिस्तर में एक बड़ी प्यारी सी काली और सफेद रंग की बिल्ली कुंडली के आकार में सोई पड़ी थी, जिसका नाम ‘विलमा’ बताया गया।

मार्टिन ने अपनी फाइल से वसीयत के कागज़ निकाल कर पढ़ना शुरू किए। अपनी संपत्ति के वितरण के बारे में कुछ कहने से पहले जेम्स ने अपनी सिसकती वेदना का चित्रण इन शब्दों में किया था: “लगभग ४ दशक पहले मेरे अपने बेटे विलियम और उसकी पत्नी जैनी ने लंदन छोड़ कर मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया। मैं फोन पर अपने पोते और इन दोनों की आवाज़ सुनने को तरस गया। मैं फोन करता तो शीघ्र ही किसी बहाने से काट देते और एक दिन इस फोन ने मौन धारण
कर यह सहारा भी छीन लिया। किसी कारण स्थानांतरण होने पर बेटे ने मुझे नए पते या टेलीफोन नंबर की सूचना तक नहीं दी। मैं इस अकेलेपन के कारण तड़पता रहा। कोई बात करने वाला नहीं था। कौन बात करेगा, जिसका अपना ही खून सफेद हो गया हो।

‘६ साल जीभ बिना हिले पड़ी पड़ी बेजान हो गई थी कि एक दिन एक भारतीय सज्जन राकेश वर्मा ने पार्क में इस मौन व्यथा को देखा और समझा। मेरे उमड़ते हुए उद्गारों को इस अनजान आदमी ने पहचाना। विडम्बना यह रही कि वह भी व्यक्तिगत कारणवश लंदन से दूर चले गये।

‘राकेश वर्मा के साथ एक दिन की भेंट मेरे सारे जीवन की धरोहर बन यादों में एक सुकून देती रही, फिर इस भयावह अकेलेपन ने धीरेधीरे भयानक रूप ले लिया। आयु और शारीरिक रोगों के अलावा मानसिक अवसाद ने भी मुझे घेर लिया।

‘इस अभिशप्त जीवन में एक आशा की लहर मेरे मकान के बाग में न जाने कहां से एक बिल्ली के रूप में आगई। कौन जाने इसका मालिक भी देश छोड़ गया हो और इसे भी इसके भाग्य पर मेरी तरह ही अकेला छोड़ गया हो! बिल्ली को मैंने एक नाम दिया – ‘ विलमा ‘।

‘दो-तीन दिनों में विलमा और मैं ऐसे घुलमिल गए जैसे बचपन से हम दोनों साथ रहे हों। मैं उसे अपनी कहानी सुनाता और वह ‘मियाऊंमियाऊं’ की भाषा में हर बात का उत्तर देती। मुझे ऐसा लगता जैसे मैं नन्हें जॉर्ज से बात कर रहा हूं। विल्मा को खाना खिलाता, उसके साथ एक रस्सी को घुमा कर बिल्ली-चूहे का खेल खेलता तो मेरी आंखों के सामने जॉर्ज की सूरत नाचने लगती। विल्मा कभी मेरे साथ मेरे पांव की ओर सोने की जिद्द करती तो मुझे बड़ा अच्छा लगता था।
‘एक दिन वह जब बाहर गई और रात को वापस नहीं लौटी तो मैं बहुत रोया, ठीक उसी तरह जैसे जॉर्ज, विलियम और जैनी को छोड़ने के बाद दिल की पीड़ा को मिटाने के लिए रोया था। मैं रात भर विलमा की राह देखता रहा। अगले दिन वह वापस आगई। बस, यही अंतर था विलमा और विलियम में जो वापस नहीं लौटा।

मैंने उसे गोद में उठा कर बहुत प्यार किया और उससे शिकायत भी करता रहा। वह मेरे पांव में पूंछ लगा लगा कर जैसे क्षमा मांग रही हो।
‘विलमा के संग रहने से मेरे मानसिक अवसाद में इतना सुधार हुआ जो अच्छी से अच्छी दवाओं से नहीं हो पाया था। उसने मुझे एक नया जीवन दिया। वह कब क्या चाहती है, मैं हर बात समझ लेता था – ये सब वर्णन से बाहर है, केवल अनुभूति ही हो सकती है।”

विलियम, जैनी और जॉर्ज, तीनों के चेहरों पर उतार चढ़ाव कभी रोष तो कभी पश्चाताप के लक्षणों का स्पष्टीकरण कर रहे थे। जेम्स ने अपनी वसीयत में मुख्य रूप से कहा था कि मेरी सारी चल और अचल सम्पत्ति में से समस्त टैक्स तथा हर प्रकार के वैध खर्च, बिल आदि देने के बाद शेष बची धन-राशि का इस प्रकार वितरण किया जायेः

‘मिस्टर राकेश वर्मा , जिनका पुराना पता था: २३ रैले ड्राइव, वैटस्टोन, लन्दन एन २०, को दो हजार पौण्ड दिये जाएं और उनसे मेरी ओर से विनम्रतापूर्वक कहा जाए कि यह राशि उनके उस एक दिन का मूल्य ना समझा जाए जिस के कारण मेरे जीवन के मापदण्ड ही बदल गये थे। उन अमूल्य क्षणों का मूल्य तो चुकाने की सामर्थ्य किसी के भी के पास ना होगी। यह क्षुद्र रकम मेरे उद्गारों का केवल टोकन भर है। मेरे उक्त वक्तव्य से, स्पष्ट है कि विलियम वारन, जैनी वारन या जॉर्ज वारन इस सम्पत्ति के उत्तराधिकार के अयोग्य हैं।”
वकील कहते कहते कुछ क्षणों के लिए रुक गया। विलियम, जैनी और जॉर्ज की मुखाकृति पर एक के बाद एक भाव आजा रहे थे। वे कभी आंखें नीची करते हुए दांत पीसते तो कभी अपने कठोर व्यवहार पर पश्चात्ताप करते। विलियम अपने क्रोध को वश में ना रख सका और खड़े होकर सामने रखी मेज़ पर ज़ोर से हाथ मार कर जाने को खड़ा हो गया तो जैनी ने उसे समझाबुझा कर बैठा लिया। तीनो मेरी ओर वैमनस्य-भरी दृष्टि से घूरते रहे।

वकील ने पुनः वसीयत पढ़नी शुरू की तो यह जानकर सभी आश्चर्यचकित हो गये कि शेष समस्त सम्पत्ति विलमा बिल्ली के नाम कर दी गई थी और साथ ही कहा गया था कि आर.एस.पी.सी.ए. को ‘विलमा’ के शेष जीवन के पालनपोषण का अधिकार दिया जाए और इसी संस्था को प्रबंधक नियुक्त किया जाए। साथ ही एक सूची थी जिसमें विलमा को जेम्स किस प्रकार रखता था, उसका पूरा वर्णन था। आगे लिखा था,
‘विलमा के निधन पर एक स्मारक बनाया जाए। उसके बाद शेष धन को राह भटके हुए, प्रताड़ित पशुओं की दशा के सुधारने पर व्यय किया जाए।
मैंने मार्टिन से कहा, “यदि आप अनुमति दें तो ये दो हजार पौण्ड, जो वसीयत के अनुसार जेम्स वारन मुझे दे रहें हैं, इस राशि को भी ‘विलमा’ की वसीयत की राशि में ही मिला दें तो मुझे हार्दिक सुख मिलेगा।”
वकील ने कहा,” इस को विधिवत बनाने में थोड़ी अड़चन आ सकती है। हां, इसी राशि का एक चेक आर.एस.पी.सी.ए. को अपनी इच्छानुसार देना अधिक सुगम होगा।” मेरे इन शब्दों को सुनते ही विलियम लज्जा से आंखें नीची करके कुछ कहने लगा जो मैं स्पष्ट रूप से सुन नहीं सका।
अंत में औपचारिक शब्दों के साथ मार्टिन ने वसीयत बंद कर बैग में रखली। बिल्ली, जो अभी भी सारी कारवाही से अनजान सोई हुई थी, आर.एस.पी.सी.ए. के प्रतिनिधि को सौंप दी गई। इस प्रकार वकील का भी प्रतिदिन विलमा की देखरेख का भार समाप्त होगया। सब मकान से बाहर आगए।

मैंने सीमा से कहा कि मैं तुम्हें उस मकान पर लेजाता हूं जहां लंदन में विवाह से पहले रहता था। कार दस मिनट में २३ रैले ड्राइव के सामने पहुंच गई। कार एक ओर खड़ी की और ना जाने क्यों बिना सोचेसमझे ही उंगली उस मकान की घंटी के बटन पर दबा दी।
एक अंग्रेज़ बूढ़े ने छोटे से कुत्ते के साथ दरवाजा खोला। कुत्ते ने भौंकना शुरू कर दिया। मैंने उस वृद्ध को बताया कि लगभग ३० वर्ष पहले मैं इस मकान में किराएदार था। बस, इधर से गुजर रहा था तो पुरानी याद आगई…।” इस से पहले कि मैं आगे कुछ कहता, बूढ़े ने बड़े रूखेपन से कहना आरम्भ कर दिया।
” यदि तुम इस मकान को खरीदने के विचार से आए हो तो वापस चले जाओ। इन दीवारों में केरी और चार्ल्स की यादें बसी हुई हैं। चार्ल्स की माँ, मेरी पत्नि तो मुझे कब की छोड़ गई।….चार्ली अमेरिका से एक दिन अवश्य आएगा।… हां, कहीं उसका फोन ना आजाये?”
इतना कहतेकहते उस ने दरवाजा बंद कर लिया। अंदर से कुत्ता अभी भी भौंक रहा था।
सीमा की दृष्टि दरवाजे पर अटकी हुई थी, कह रही थी, “एक और जेम्स वारन !”
– महावीर शर्मा

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वैलंटाइन के अंतिम दिन

फ़रवरी 17, 2008

‘वैलंटाइन के अंतिम दिन’
महावीर शर्मा

वैलंटाइन कारागार की कोठरी में फ़र्श पर बैठा हुआ था। जीवन के अंतिम दिनों को गिनते हुए आने वाली मौत की कल्पना से हृदय की धड़कनों की गति को संभालना कठिन हो रहा था। बाहर खड़े लोग खिड़की की सलाखों में से फूल बरसा रहे थे, उसकी रिहाई के नारों से चारों दिशाएं गूंज रही थीं। उसी समय सैनिकों की एक टुकड़ी ने आकर बिना चेतावनी दिए ही इन निहत्थे लोगों पर डंडों की वर्षा कर, भीड़ को तितर बितर कर दिया।

वैलंटाइन गहरी चिंता में सिर को नीचे किए बैठा हुआ था। अचानक दरवाज़ा खुला तो देखा कि कारापाल एक युवती के साथ कोठरी के अंदर प्रवेश कर रहे थे। कारापाल ने वैलंटाइन को अभिवादन कर नम्रता के साथ कहा, ‘पादरी, यह मेरी बेटी जूलिया है। आप विद्वान हैं। आप धर्म, गणित, विज्ञान, अर्थ-शास्त्र जैसे अनेक विषयों के भंडार हैं। अपने अंतिम दिनों में यदि आप जूलिया को इस असीम ज्ञान का कुछ अंश सिखा सकें तो आजीवन आभारी रहूंगा। सम्राट क्लॉडियस की क्रूरता को कौन नहीं जानता, मैं उसके नारकीय निर्णय में तो हस्तक्षेप नहीं कर सकता किंतु आप जब तक इस कारागार में समय गुजारेंगे, उस समय तक आपकी सुविधा का पूरा ध्यान रखा जाएगा।’

वैलंटाइन की भीगी आंखें जूलिया की आंखों से टकराईं किंतु जूलिया के चेहरे के भाव-चिन्हों में कोई बदलाव नहीं आया। जेलर ने बताया कि जूलिया आंशिक रूप से अंधी है। उसे बहुत ही कम दिखाई देता है। अगले दिन की सांय का समय निश्चित होने के बाद जूलिया और जेलर चले गए। दरवाज़ा पहले की तरह बंद हो गया। इसी प्रकार जूलिया हर शाम वैलंटाइन से शिक्षा प्राप्त करती रही।

उसी समय वैलंटाइन ने ऊंचे स्वर में कहा,
“मेरे इस पवित्र अभियान को आंसुओं से दूषित ना करो। मेरी इच्छा है कि प्रेमी और प्रेमिकाएं हर वर्ष इस दिन आंसुओं का नहीं, प्रेम का उपहार दें। शोक, खेद और संताप का लेश-मात्र भी ना हो।”

यह घटना तीसरी शताब्दी के समय की है। रोमन काल में सम्राट क्लॉडियस द्वितीय की क्रूरता से दूर दूर देशों के लोग तक थर्राते थे। उसकी महत्वाकांक्षा का कोई अंत नहीं था। वह चाहता था कि एक विशाल सेना लेकर समस्त संसार पर रोमन की विजय-पताका फहरा दे। उसके समक्ष एक कठिनाई थी। लोग सेना में भर्ती होने से इंकार करने लगे क्योंकि वे जानते थे कि क्लॉडियस की वजय-पिपासा कभी समाप्त नहीं होगी, सारा जीवन विभिन्न देशों में युद्ध करते करते समाप्त हो जाएगा। अपने परिवार और प्रिय-जनों से एक बार विलग होकर कभी भी मिलने का अवसरनहीं मिलेगा।

इसी कारण, क्लॉडियस ने रोम में जितने भी विवाह होने वाले थे , रुकवा दिए। शादियां अवैध करार कर दी गईं। पति या पत्नी शब्द का अब कोई अर्थ नहीं रहा। जनता में चिंता की लहर दौड़ गई। यदि कोई विवाह करता पकड़ा जाता तो उसके साथ विवाह सम्पन्न करने वाले पादरी को भी कड़ा दण्ड दिया जाता। युवक उनकी इच्छा के विरुद्ध सेना में भर्ती कर लिए गए। कितनी ही युवतियों ने अपने प्रियतम के विरह में मृत्यु को गले लगा लिया।

प्रथा के अनुसार लड़के और लड़कियां अलग रखे जाते थे। 14 फरवरी के दिन विवाह की देवी ‘जूनो’ के सम्मान में नगर के सब व्यवसाय बंद कर दिए जाते थे। अगले दिन 15 फरवरी को ‘ल्यूपरकेलिया’ का उत्सव मनाया जाता और सांय के समय रोमन लड़कियों के नाम कागज़ की छोटी छोटी पर्चियों पर लिख कर एक

प्रेम की वेदी पर शहीद होने वालों पर मातम नहीं किया जाता, प्रेम की लौ जलाए रखते हुए गौरव और प्रेमोल्लास से उत्सव मना कर उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है।

बड़े बर्तन में रख दिए जाते। युवक बारी बारी एक पर्ची निकालते और उत्सव के दौरान वह उसी लड़की का साथी बना रहता। यदि साझेदारी प्यार में बदल जाती तो दोनों चर्च में जाकर विवाह-बंधन में बंध जाते। क्लॉडियस के इस निराधार कानून के कारण ल्यूपरकेलिया का यह त्यौहार समाप्त होगया।

वैलंटाइन ने प्रेमियों के दिलों में झांक कर उनकी व्यथा को देखा था। जानता था कि हृदयहीन क्लॉडियस का यह कानून अमानवीय था, प्रकृति के प्रतिकूल था, सृष्टि यहीं रुक जाएगी! पादरी होने के नाते, वैलंटाइन सेंट मेरियस के सहयोग से इस कानून की अवेहलना करते हुए अपने चर्च में गुप्त-रूप से युवक और युवतियों के विवाह करवाते रहे।

एक अंधेरी रात में जब चंद्रमा अपनी चांदनी के साथ शयन कर रहा था, झंझावात के साथ मूसलाधार वर्षा ने मानो सारे नगर को डुबोने की ठान ली हो। सेंट मेरियस उस रात कार्यवश कहीं दूर चले गए थे। वैलंटाइन मोमबत्ती के धीमे से प्रकाश में एक युवक और युवती के विवाह की विधि संपूर्ण ही कर पाए थे, क्लॉडियस के सैनिकों के पदचाप सुनाई दिये। वैलंटाइन ने दोनों को चर्च के पिछले द्वार से निकालने का प्रयत्न किया किंतु जब तक सैनिक आ चुके थे, दोनों वर-वधू को को एक दूसरे से अलग कर दिया गया। वे दोनों कहां गए, उनका क्या हुआ, कोई नहीं जानता।

वैलंटाइन को कारागार में डाल दिया। उसे मृत्यु-दण्ड की सज़ा दी गई। उसके जीवन लीला की समाप्ति के लिए
१४ फरवरी सन् 270 ई० का दिन निश्चित कर दिया गया।

एक दिन पहले जूलिया वैलंटाइन से मिली, आंखें रो रो कर सूज गई थीं। इतने दिनों में दोनो के दिलों में पवित्र प्रेम की लहर पैदा हो चुकी थी। उसी लहर ने उसके मनोबल को बनाए रखा। जूलिया के इन आंसुओं में दृष्टि के विकार भी बह गए थे। उसकी आंखें पहले से अधिक देखने के योग्य हो गईं। दोनों एक दूसरे से लिपट गए। वैलंटाइन ने मोमबत्ती की लौ को देख कर कहा,’ जूलिया,शमा की इस लौ को जलाए रखना। मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। एक दिन क्लॉडियस स्वयं अपने ही बनाये हुए कानून के जाल में फंस जाएगा। प्रेम कभी किसी का दास नहीं होता।’

थोड़ी देर के पश्चात जेल के दो सैनिकों ने आकर पादरी को प्रणाम किया और आदर सहित जूलिया को घर पहुंचा दिया।

वह घर में ही रही। उसकी अंतिम घड़ियों को कल्पना के सहारे आंसुओं से धोती रही।

ज़िंदगी की अंतिम रात वैलंटाइन ने कुछ कोरे कागज़ और एक कलम मंगवाए। कागजों में कुछ लिखता और फिर मोमबत्ती की लौ में जला देता। केवल एक कागज़ बचा हुआ था। उस कोरे कागज़ को आंखों से लगाया, फिर दिल के पास दबाए रखा। कलम उठाई, उस में कुछ लिखा और नीचे लिखा – “तुम्हारे वैलंटाइन की ओर से प्रेम सहित।” उसकी आंखों से दो आंसू ढुलक गए जो जमीन पर न गिर कर उस प्रेम-पत्र में समा गए। प्रहरी को बुला कर कहा, ‘ मेरे मरने के बाद यदि इस पत्र को जूलिया तक पहुंचा दो तो मरने के बाद भी मेरी आत्मा आभारी रहेगी।” प्रहरी के नेत्र सजल हो उठे, कहने लगा, ‘पादरी, आप का जीवन बहुत मूल्यवान है। अभी भी मैं कोई उपाय सोचता हूं जिससे आप को कारागार से निकाल कर किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया जाए। इस शुभ-कार्य में मुझे अपनी जान की परवाह नहीं है।’
वैलंटाइन ने रोक कर कहा, “मेरे इस कार्य में कायरता की मिलावट की बात ना करो। मेरे बाद अनेक वैलंटाइन पैदा होंगे जो प्रेम की लौ जलाए रखेंगे।” प्रहरी ने कागज़ लेकर गीली आंखों को पोंछते हुए दरवाज़ा बंद कर दिया।

अगले दिन नगर-द्वार के पास, जो आज उसकी स्मृति में पोर्टा वैलटीनी नाम से विख्यात है, अनगिनित लोगों की भीड़ थी। जनता के चारों ओर सशस्त्र सैनिक तैनात थे। सैनिक वैलंटाइन को हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़ कर मृत्यु-मंच पर ले आए। लोगों के नारों से गगन गूंज रहा था, जमीन आंसुओं से भीग गई थी। उसी समय वैलंटाइन ने ऊंचे स्वर में कहा,
‘ मेरे इस पवित्र अभियान को आंसुओं से दूषित ना करो। मेरी इच्छा है कि प्रेमी और प्रेमिकाएं हर वर्ष इस दिन आंसुओं का नहीं, प्रेम का उपहार दें। शोक, खेद और संताप का लेश-मात्र भी ना हो।” भीड़ में किसी युवक ने भर्राये हुए स्वर में कहा, ‘इस हृदय-विदारक घटना को सुन कर कौन सा पत्थर-दिल इनसान होगा जो शोक, खेद और संताप रहित इस
उत्सव को मना सकेगा।’ साथ ही एक बूढ़े ने युवक के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,’प्रेम की वेदी पर शहीद होने वालों पर मातम नहीं किया जाता, प्रेम की लौ जलाए रखते हुए गौरव और प्रेमोल्लास से उत्सव मना कर उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है।’

वैलंटाइन को मंच पर रखे हुए तख्ते पर लिटा दिया गया। चार जल्लाद हाथों में भारी भारी दण्ड लिए हुए थे। पांचवे जल्लाद के हाथ में एक पैनी धार का फरसा था। दण्डाधिकारी ने ऊंचे स्वर में वैलंटाइन से कहा,

‘वैलंटाइन, तुमने रोमन विधान की अवेहलना कर लोगों के विवाह करवा कर सम्राट क्लॉडियस का अपमान किया है। यह एक बहुत बड़ा अपराध है, पाप है जिसके लिए एक ही सज़ा है – निर्मम मृत्यु-दण्ड! तुम यदि अपने अपराध को स्वीकार कर लो तो फरसे से एक ही झटके से तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया जायेगा और तुम्हारी मौत कष्टरहित होगी। यदि अपना अपराध स्वीकार नहीं करोगे तो इस बेरहमी से मारे जाओगे कि मौत के लिए याचना करोगे पर वो सामने नाच नाच कर तुम्हारे अपराध की याद दिलाती रहेगी।”

वैलंटाइन के मुख पर भय के कोई चिन्ह दिखाई नहीं दे रहे थे। उसने दृढ़तापूर्वक कहा,

‘ मैंने कोई अपराध नहीं किया है। दो प्रेमियों को विवाह-बंधन में जोड़ना मेरा धर्म है, पाप नहीं है।” चारों ओर से एक ही आवाज़ आ रही थी – “वैलंटाइन निर्दोष है।”

दण्डाधिकारी का इशारा देखते ही चारों जल्लादों ने दण्ड को घुमा घुमा कर वैलंटाइन को मारना शुरू कर दिया। दर्शकों की चीखें निकल गई, कुछ तो इस दृश्य को देख कर मूर्छित होगए। जनता के हाहाकार, क्रंदन और चीत्कार के शोर के अतिरिक्त कुछ सुनाई नहीं देता था। एक बार तो जल्लादों के पाषाण जैसे हृदय भी पिघलने लगे। थोड़ी ही देर में सब समाप्त हो गया। वैलंटाइन का निर्जीव शव रक्त से रंगा हुआ था।
वैलंटाइन का शव रोम के एक चर्च में दफना दिया गया जो आज ‘चर्च आव प्राक्सिडिस’ के नाम से प्रसिद्ध है।

जूलिया में इतना साहस न था कि वह इस अमानवीय वीभत्स दृश्य को सहन कर सके। वह घर में ही रही। उसकी अंतिम घड़ियों को कल्पना के सहारे आंसुओं से धोती रही। उसी समय कारागार के प्रहरी ने आकर जूलिया को वैलंटाइन का लिखा पत्र देते हुए कहा, ‘पादरी ने कल रात यह पत्र आपके लिए लिखा था।’
प्रहरी आंखों को पोंछता हुआ चला गया। जूलिया ने पत्र खोला तो वैलंटाइन के अमोल आंसू के चिन्ह ऐसे दिखाई
दे रहे थे जैसे वैलंटाइन की आंखें अलविदा कह रही हों। बार बार पढ़ती रही जब तक आंसुओं से पत्र भीग भीग कर गल गया। पत्र के अंत में लिखा थाः
‘तुम्हारे वैलंटाइन की ओर से प्रेम सहित!’

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महावीर शर्मा

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