Archive for the ‘कविता’ Category

‘लिख चुके प्यार के गीत बहुत’

सितम्बर 10, 2008

कविता पुरानी है किंतु कुछ शब्दों में संशोधन करके यहां दुबारा लिख रहा हूं। पुरानी
टिप्पणियां भी यथावत् नीचे दी गई हैं।

*** *** *** ***

लिख चुके प्यार के गीत बहुत कवि अब धरती के गान लिखो।
लिख चुके मनुज की हार बहुत अब तुम उस का अभियान लिखो ।।

तू तो सृष्टा है रे पगले कीचड़ में कमल उगाता है,
भूखी नंगी भावना मनुज की भाषा में भर जाता है ।
तेरी हुंकारों से टूटे शत्‌ शत्‌ गगनांचल के तारे,
छिः तुम्हें दासता भाई है चांदी के जूते से हारे।

छोड़ो रम्भा का नृत्य सखे, अब शंकर का विषपान लिखो।।

उभरे वक्षस्थल मदिर नयन, लिख चुके पगों की मधुर चाल,
कदली जांघें चुभते कटाक्ष, अधरों की आभा लाल लाल।
अब धंसी आँख उभरी हड्‍डी, गा दो शिशु की भूखी वाणी ,
माता के सूखे वक्ष, नग्न भगिनी की काया कल्याणी ।

बस बहुत पायलें झनक चुकीं, साथी भैरव आह्‍वान लिखो।।

मत भूल तेरी इस वाणी में, भावी की घिरती आशा है,
जलधर, झर झर बरसा अमृत युग युग से मानव प्यासा है।
कर दे इंगित भर दे साहस, हिल उठे रुद्र का सिहांसन ,
भेद-भाव हो नष्ट-भ्रष्ट, हो सम्यक्‌ समता का शासन।

लिख चुके जाति-हित व्यक्ति-स्वार्थ , कवि आज निधन का मान लिखो।।

महावीर शर्मा

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छोटी सी बिंदिया ! -3 क्षणिकाए

जून 22, 2008

छोटी सी बिंदिया ! -3 क्षणिकाएं

– महावीर शर्मा

दुलहन

अलसाये नयनों में निंदिया, भावों के झुरमुट मचलाए

घूंघट से मुख को जब खोला, आंखों का अंजन इतराए

फूल पर जैसे शबनम चमके,दुलहन के माथे पर बिंदिया।

मुस्काए माथे पर बिंदिया।

मुजरा

तबले पर ता थइ ता थैया, पांव में घुंघरू यौवन छलके

मुजरे में नोटों की वर्षा, बार बार ही आंचल ढलके

माथे से पांव पर गिर कर, उलझ गई घुंघरू में बिंदिया

सिसक उठी छोटी सी बिंदिया !

सीमा के रक्षक

दूर दूर तक हिम फैली थी, क्षोभ नहीं था किंचित मन में

गर्व से ‘जय भारत’ गुञ्जारा, गोली पार लगी थी तन में

सूनी हो गई मांग प्रिया की, बिछड़ गई माथे से बिंदिया।

छोड़ गई कुछ यादें बिंदिया।

– महावीर शर्मा

स्वतन्त्रता-दिवस पर शुभकामनाएं

अगस्त 14, 2007

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रामधारी सिंहदिनकर

ध्वज-वंदना

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नमो, नमो, नमो।

नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो !
नमो नगाधिराजश्रृंग की विहारिणी !
नमो अनंत सौख्य-शक्ति-शील-धारिणी!
प्रणय-प्रसारिणी, नमो अरिष्ट-वारिणी!
नमो मनुष्य की शुभेषणा-प्रचारिणी!
नवीन सूर्य की नयी प्रभा,नमो, नमो!

हम किसी का चाहते तनिक, अहित, अपकार।
प्रेमी सकल जहान का भारतवर्ष उदार।
सत्य न्याय के हेतु
फहर फहर केतु
हम विचरेंगे देश-देश के बीच मिलन का सेतु
पवित्र सौम्य, शांति की शिखा, नमो, नमो!

 

तार-तार में हैं गुंथा ध्वजे, तुम्हारा त्याग!
दहक रही है आज भी, तुम में बलि की आग।
सेवक सैन्य कठोर
हम चालीस करोड़ *
कौन देख सकता कुभाव से ध्वजे, तुम्हारी ओर
करते तव जय गान
वीर हुए बलिदान,
अंगारों पर चला तुम्हें ले सारा हिन्दुस्तान!
प्रताप की विभा, कृषानुजा, नमो, नमो!

रामधारी सिंहदिनकर

प्रेषक- महावीर शर्मा

( * जिस समय यह काविता लिखी गयी थी, उस समय भारत की जन-संख्या चालीस करोड़ थी।)

खिले एक डाली पर दो फूल !

जुलाई 10, 2007

जब मैं चौथी क्लास में था (१९४३), उर्दू की एक ग़ज़ल का यह शेर पढ़ा थाः

दो फूल साथ फूले, किस्मत जुदा जुदा है
नौशे के एक सर पे, इक क़ब्र पर चढ़ा है

यह ग़ज़ल मशहूर गायक स्वः मनोहर बरवे (१९१०-१९७२) ने भी गायी थी।

आगे चल कर मैंने इसी प्रत्यय को लेकर हिंदी में एक कविता लिखी, जो नीचे दे रहा हूं:-

खिले एक डाली पर दो फूल !

आई एक बासंती बाला, पड़ती जल बूंदें अलकों से
विकसित सुमनों की सुवास पा, नयनों से ढकती पलकों से
कुछ खोल नयन फिर हाथ बढ़ा, दो सुमनों से एक तोड़ लिया
डलिया के रखे फूलों में एक और सुमन भी जोड़ लिया
मदिर चाल से चली , पवन से लहरा उठा दुकूल ।

पहुंची गौरी के मंदिर में, श्रद्धा से मस्तक नत करके
माँ को फिर फूल किये अर्पित , अपने को भी विस्मृत कर के
गौरी की पूजा में आकर, वह सुमन भाग्य पर इठलाया
मुस्का कर कहने लगा अहा ! कितना स्वर्णिम अवसर पाया
उस डाली पर मिलता मुझ को, प्रति पग पर एक शूल ।

डाली से नीचे गिरा फूल, अगले दिन जब आंधी आई
मिट्टी पर पड़ कर सूख गया, मुख की मञ्जुलता मुरझाई
वह बाला पुनः वहां आई, नव विकसित सुमन चयन करने
पैरों के नीचे कुचल गया, तो लगा फूल आहें भरने
जिस ने जीवन दिया अंत में, मिली वही फिर धूल ।

खिले एक डाली पर दो फूल !!
महावीर शर्मा

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गीत तो गाए बहुत!

जून 18, 2007

गीत तो गाए बहुत जाने अजाने
स्वर तुम्हारे पास पहुंचे या ना पहुंचे कौन जाने!

उड़ गए कुछ बोल जो मेरे हवा में
स्यात् उनकी कुछ भनक तुम को लगी हो,
स्वप्न की निशि होलिका में रंग घोले
स्यात् तेरी नींद की चूनर रंगी हो,

भेज दी मैं ने तुम्हें लिख ज्योति पाती,
सांझ बाती के समय दीपक जलाने के बहाने।

यह शरद का चांद सपना देखता है
आज किस बिछड़ी हुई मुमताज़ का यों,
गुम्बदों में गूंजती प्रतिध्वनि उड़ाती
आज हर आवाज़ का उपहास यह क्यों?

संगमरमर पर चरण ये चांदनी के
बुन रहे किस रूप की सम्मोहिनी के आज ताने।

छू गुलाबी रात का शीतल सुखद तन
आज मौसम ने सभी आदत बदल दी,
ओस कण से दूब की गीली बरौनी,
छोड़ कर अब रिमझिमें किस ओर चल दीं,

किस सुलगती प्राण धरती पर नयन के,
यह सजलतम मेघ बरबस बन गए हैं अब विराने।

प्रात की किरणें कमल के लोचनों में
और शशि धुंधला रहा जलते दिये में,
रात का जादू गिरा जाता इसी से
एक अनजानी कसक जगती हिये में,

टूटते टकरा सपन के गृह-उपगृह,
जब कि आकर्षण हुए हैं सौर-मण्डल के पुराने।

स्वर तुम्हारे पास पहुंचे या न पहुंचे कौन जाने!

महावीर शर्मा

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बीती रात का सपना – लावण्या

जनवरी 9, 2007

अंतर्मन की चिट्ठाकार लावण्या जिनकी रचनाएं अनेक जालघरों में सुशोभित हैं,
उनकी भावपूर्ण कविता ‘बीती रात का सपना’ प्रस्तुत हैः

बीती रात का सपना
लावण्या

बीती रात का सपना, छिपा ही रह जाये,
तो वो, सपना, सपना नहीँ रहता है!
पायलिया के घूँघरू, ना बाजेँ तो,
फिर,पायल पायल कहाँ रहती है?
बिन पँखोँ की उडान आखिरी हद तक,
साँस रोक कर देखे वो दिवा- स्वप्न भी,
पल भर मेँ लगाये पाँख, पँखेरु से उड,
ना जाने कब, ओझल हो जाते हैँ !
मन का क्या है ? सारा आकाश कम है
भावोँ का उठना, हर लहर लहर पर,
शशि की तम पर पडती, आभा है !

रुपहली रातोँ मेँ खिलतीँ कलियाँ जो,
भाव विभोर, स्निग्धता लिये उर मेँ,
कोमल किसलय के आलिँगन को,
रोक सहज निज प्रणयन उन्मन से
वीत राग उषा का लिये सजातीँ ,
पल पल मेँ, खिलतीँ उपवन मेँ !
मैँ, मन के नयनोँ से उन्हेँ देखती,
राग अहीरोँ के सुनती, मधुवन मेँ,
वन ज्योत्सना, मनोकामिनी बनी,
गहराते सँवेदन, उर, प्रतिक्षण मेँ !

सुर राग ताल लय के बँधन जो,
फैल रहे हैँ, चार याम,ज्योति कण से,
फिर उठा सुराही पात्र, पिलाये हाला,
कोई आकर, सूने जीवन पथ मेँ !
यह अमृत धार बहे, रसधार, यूँ ही,
कहती मैँ,, यह जग जादू घर है !
रात दिवा के द्युती मण्डल की,
यह अक्षुण्ण अमित सीमा रेखा है

लावण्या

कौन ये? दीपा जोशी

मार्च 16, 2006
कौन ये ?
कौन बन प्रणय नाद
विरह वेदना को तोड़ता
है कौन जो श्वासों की डोर
तोड़कर फिर जोड़ता।

कौन बन अश्रु
तृषित लोचनों में डोलता
है कौन जो लघु प्रणों में
बन रुधिर दौड़ता 

कौन बन संगीत
मधु मिलन गीत बोलता
है कौन जो पिघल श्वासों में
मन के भेद खोलता 

कौन बन दीप
चिर तिमिर को घोलता
है कौन जो निस्पंद उर को
फिर जीवन की ओर मोड़ता….

दीपा जोशी 

वैलंटाइन डे

फ़रवरी 14, 2006

वैलंटाइन डे

आज दिन है प्रेमियों का, प्यार की बातें करो
तुम कहो, कुछ वो कहें, इज़हार की बातें करो ।

कीमती वो हार जो हाथों में है वो, फेंक दो
बाहें गले में डालकर, इस हार की बातें करो ।

गुलों ने रंग जिससे है चुराया चुपके चुपके
उस गुलबदन के होंट और रुख़सार की बातें करो ।

दो दिलों की धड़कनें मिल, गीत सा गाने लगें जब
शाने पे सर को रख कर, इकरार की बातें करो ।

जफ़ाओं को भूल जाना, है इश्क़ का सलीक़ा
राह-ए-मुहब्बत में वफ़ा-ए- यार की बातें करो ।

महावीर शर्मा

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देवी नांगरानी की दो रचनाएं

जनवरी 15, 2006

 देवी नांगरानी की दो रचनाएं

  टूटे हुए उसूल थे, जिनका रहा गुमाँ ॥
  दीवार दर को ना सही अहसास कोई पर
  दिल नाम का जो घर मेरा यादें बसी वहाँ॥
  नश्तर चुभोके शब्द के, गहरे किये है जख्म
  जो दे शफा सुकून भी, मरहम वो है कहाँ?
  झोंके से आके झाँकती है ये खुशी कभी
  बसती नहीं है जाने क्यों बनके वो मेहरबाँ॥
  खामोश तो जुबान पर आँखें न चुप रही
  नादान ऐसा भी कोई समझे न वो जुबाँ॥
  इन गर्दिशों के दौर से देवी न बच सकें
  जब तक जमीन पर है हम, ऊपर है आसमाँ॥
  देवी

  
   चक्रव्यूह   
  लड़ाई लड़ रही हूं मैं भी अपनी

  शस्त्र उठाये बिन, खुद को मारकर
  जीवन चिता पर लेटे॥
  गाँधी का उदाहरण, सत्याग्रह, बहिष्कार
  तज देना सब कुछ अपने तन, मन से
  ऐसा ही कुछ मैं भी
  कर रही हूँ खुद से वादा
  अपने अँदर के कुरूक्षेत्र में॥
  मैं ही कौरव, मैं ही पाँडव
  चक्रव्यूह जो रिश्तों का है
  निकलना मुझको ही है तोड़ उन्हें !
  पर ये नहीं मैं कर सकती
  क्योंकि मैं अर्जुन नहीं हूँ
  यही है मान्यता मेरी,
  अपने प्यारों का विनाश
  नहीं ! नहीं है सँभव
  हाँ दूसरा रास्ता जोड़कर
  खुद को खुद से मैं
  मजबूत करू अब वो जरिया
  मेरा तन, एक किला
  जिसकी दीवारें मजबूत है
  छेदी नहीं जा सकती
  क्योंकि
  पहरा पुख्ता है
  पहरेदार, एक नहीं है पाँच
  काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहँकार
  व वासना के मँडराते भँवरे
  जो स्वास में भरकर अपने अँदर लेती हूँ
  हर उस वासना को,
  जो आँख दिखाती है
  कान सुनाता है,
  उनको अपने भर लेती हूँ
  मेरी इच्छा, मेरी अनिच्छा
  बेमानी है सब शायद
  इसलिये कि, मैं अकेली,
  इनसे नहीं लड सकती॥
  पल भर को तो मैं
  कमजोर बन जाती हूँ
  मानने लगती हूँ
  खुद को अति निर्बल !
  पर अब, गीता ज्ञान
  का पाठ पढ़ा है, और
  जब्त कर लिया है
  उस विचार को
  "सब अच्छा हो रहा है
  जो भी होगा अच्छा होगा
  जो गया कल बीत
  वो भी अच्छा था "
  प्राणी मात्र बन मैं
  अच्छा सोच सकती हूं
  अच्छा सुन सकती हूँ
  अच्छा कर सकती हूँ
  यह प्रकृति मेरे बस में है
  पर,
  मेरे मोह के बँधन है अति प्रबल
  और सामने उनके, मैं फिर भी निर्बल !!
  अब,
  समय आया है मैं तय करूँ
  वह राह जो मेरे सफर को मँजिल
  तक का अँजाम दे
  कहीं पाँव न रुक पाए
  कहीं कोई पहरेदार
  मेरी राह की रुकावट न बने॥
  पर, फिर भी उन्हें जीतना
  मुश्किल जरूर है, नामुमकिन नहीं !
  मैं निर्बलता के भाव मन से निकाल चुकी हूँ
  मैं, सबल, प्रबल और शक्तिमान हूँ
  क्योंकि मैं मनुष्य हूँ, चेतना मेरी सुजाग है
  जागरण का आवरण ओढ़ लिया है मैंने
  कारण जिसके, मैं रिश्ते के हर
  चक्रव्यूह को छेदकर पार जा सकती हूँ॥
  सारथी बना लिया है अपने मन को
  कभी न वो ही मुझसे, ना ही मैं भी उससे
  दूर कभी है रहते
  बिना साथ सार्थक नहीं हो सकता
  मेरी सोच का सपना
  दुनियाँ की हर दीवार को
  बिना छेदे, बिना तोड़े उस पार जाना
  जहाँ विदेही बनकर मेरा मन
  विचरण करता है, सँग मेरे
  अपने उस आराध्य के ध्यान में॥
  
देवी

“बचपन”सुभद्रा चौहान

नवम्बर 14, 2005

बाल दिवस के अवसर पर श्रीमती सुभद्रा चौहान की एक कविताः

"बचपन"
सुभद्रा चौहान

बारबार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया, ले गया तू जीवन की सब से मस्त खुशी मेरी।।

चिन्ता रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भुला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊंच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ो में रानी।।

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अंगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचा कर सूना घर आबाद किया।।

रोना और मचल जाना भी क्या आनन्द दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती से आँसू जयमाला पहनाते थे।।

मैं रोई, माँ काम छोड़ कर, आई मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम गीले गालों को सुखा दिया।।

दादा ने चन्दा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे।।

यह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बस़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई।।

लाजभरी आंखें थीं मेरी मन में उमंग रंगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी।।

दिल में एक चुभन सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी।।

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तू ने।
अरे! जवानी के फन्दे में मुझको फंसा दिया तू ने।।

सब गलियां उसकी भी देखीं उसकी खुशियां न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रंग-रलियों की स्मृतियां भी प्यारी हैं।।

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरूषार्थ, ज्ञान का उदय मोहने वाला है।।

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिन्ता के चक्कर में पड़ कर जीवन भी है भार बना।।

आजा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शान्ति।
व्याकुल व्यथा मिटाने वाली वह अपनी प्राकृत विश्रान्ति।।

वह भोली सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप।।

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नन्दन वन-सी फूल उठी वह छोटी सी कुटिया मेरी।।

‘माँ ओ’ कह कर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थी।
कुछ मुंह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लाई थी।।

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुंह पर थी आहृलाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा।।

मैंने पूछा ‘यह क्या लाई’ ? बोल उठी वो ‘मां काओ’।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा – ‘तुम्हीं खाओ’।।

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मञ्जुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया।।

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूं, तुतलाती हूं।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूं।।

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया।।

सुभद्रा चौहान