दाता दे दरबार विच
प्राण शर्मा
पंडित नरदेव जी नगर के प्रसिद्ध भजन गायक हैं. बहुत व्यस्त रहते हैं. खूब डिमांड है
उनकी. भजन गा गा कर यानि प्रभु का नाम ले लेकर उन्होंने अपना भव्य मकान
खड़ा कर लिया है. महीने में एक दिन वे भजन गायकी का कार्यक्रम अपने घर में भी
रखते हैं. श्रद्धालुओं की भीड़ लग जाती है. उनके बड़े कमरे में बैठने को जगह नहीं मिलती है.
एक बार मेरा मित्र मुझे पंडित नरदेव जी के घर ले गया था. उनका कीर्तन चल
रहा था. वे अपनी भजन मंडली के साथ भजन पर भजन गाये जा रहे थे. क्या
सुरीली आवाज़ थी उनकी! सुन-सुन कर श्रद्धालु जन प्रेम भाव से झूम रहे थे और
साथ ही साथ धन की बरखा भी कर रहे थे. धन की बरखा होते देख कर पंडित
नरदेव जी का भजन गाने का उत्साह दुगुना-तिगुना हुआ जा रहा था. हर
भजन की समाप्ति पर वे कहते – श्रद्धालुओ, ऐसी संगत बड़े भाग्य से मिलती है .
वातावरण में भक्ति की उफान लेती धारा को देख कर पंडित नरदेव जी ने अपने
अति लोकप्रिय भजन का सुर अलापा —
‘तन, मन, धन सब वार दे अपने दाता दे दरबार विच’.
धुन बड़ी प्यारी थी, मंत्रमुग्ध कर देने वाली. सुन कर पाषाण ह्रदय भी पिघल गये.
श्रद्धालु जन तन, मन तो नहीं वार पाए लेकिन धन वारने में कोई पीछे नहीं हटा. शायद
ही किसीकी जेब बची थी. देखा देखी मेरी जेब भी नहीं बच पाई.
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आकांक्षा
प्राण शर्मा
“अरी ,क्या हुआ जो वो पैंसठ साल का बूढ़ा खूसट है ! है तो करोड़पति न ! !
एकाध साल में बेचारा लुढ़क जाएगा. उसकी सारी की सारी संपत्ति की तू ही तो – – – तब ऐश और आराम से रहना. इंग्लॅण्ड हो या इंडिया कौन छैल–छबीला करोड़ों कीजायदाद की मालकिन का हाथ मांगने को तैयार नहीं होगा ? देखोगी, तुझसे शादी करने के लिए हजारों लड़के ही भागे आयेंगे .”
तीस साल की आकांक्षा को माँ का सुझाव बुरा नहीं लगा.
दूसरे दिन ही अग्नि के सात फेरों के बाद वो बूढ़े खूसट की अर्धांगिनी बन गयी.
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आस-पास के सच कहे गए दोनों लघुकथाओं में.. श्री प्राण जी की कलम को नमन.. आपका आभार सर..
कर्मठ और इमांदार रचनाकार प्राण शर्मा जी की धारदार ग़ज़लें और लघुकथाएँ यू.के के साहित्य जगत की श्रेष्ठ उपलब्धि है। उनकी रचनाओं में समय धड़कता है। दोनों ही लघु कथाएँ वर्तमान स्वार्थी परिवेश को संबोधित करती हैं। साधुवाद प्राण जी।
प्राण जी की लघुतम कथाएं बहुत बड़े सच की ओर संकेत करती हैं .
सत्संग और कीर्तनों में अंध भक्तों का भेड़िया धसान ऐसा ही होता है .
भजन गायक की एक आँख माता दी चौकी पर और एक नोटों की बौछार पर रहती है .
इसी तरह वे जेबें खाली करने पर उकसाते हैं .
दूसरी कहानी भी आज की व्यावहारिक स्थितियों का मुआयना करती है .
पर प्राण भाईसाब , पैंसठ की उम्र में पुरुष बूढ़ा कहाँ होता है . वह पचासी तक भी जी सकता है .
ऐसे में माँ का मकसद कामयाब नहीं होगा . मगर यह होता ज़रूर है , इसमें शक नहीं ,
आपकी कहानी से पैसंठ को पहुंचते रईस पाठक सबक ले सकते हैं .
बधाई !
सुधा जी,
रईस हो या गरीब, स्त्री हो या पुरुष,
यह मानने का तो कई कारण होता ही नहीं कि पैंसठ साल
जैसी अति-पकी आयु में व्यक्ति को बरगलाया जा सकता है
अगर उसका खुद का लालच न हो
ज्यादातर दोनों तरफ के अपने अपने लालच और अपने अपने समझौते होते हैं
जब भी ऐसे सम्बंध बनते हैं।
वरना प्रेम भाव से ख्याल रखना एक बात है, विवाह करना अलग बात है।
अपवाद जरुर होते होंगे, हैं भी
हरेक का जीवन एक सा तो नहीं ही होता है
आकांक्षा का भाग दो भी हो सकता है
“अबे ,क्या हुआ जो वो इतनी… बड़ी है तुझसे … ! है तो करोड़पति न ! !
कितने साल जियेगी… बाद में …सारी संपत्ति तेरी …..
और कौन तेरे साथ सारे समय चिपकी रहेगी,
बाहर तू कुछ भी इंतजाम रख अपना
करोड़ों की जायदाद के मालिक के साथ रहने को हजारों तैयार होंगी… नहीं?
तीस साल के युवक की आकांक्षा और महत्वाकांक्षा को बुरा न लगा ख्याल।
लोग कहते रहें उसे कुछ भी वह तो जब अपने से दुगनी उम्र की महिला की बाहों में हाथ डाले उसे एक तरह से उसे सहारा देते हुये चलता है
तो सपनों में खोया रहता है और कुछ सुनायी भी नहीं देता।
आदरणी प्राण साहब,
सादर वन्दे !
आपके आदेशानुसार दोनों लघुकथएं पढीं !
पहली लघुकथा ” दाता दे दरबार विच्च ”
को लघुकथा की श्रेणी में नहीं वरन बोद्ध कथा
की श्रेणी में रखा जाना चाहिए !
यह बहुत बोद्ध कथा अछी है । दूसरी लघुकथा
“आकांक्षा”अछी लघुकथा है । बधाई हो !
प्राण भाई, बहुत अच्छी कथाएं। असल में इस सदी का जीवन मूल्य धन हो गया है. आप की दोनों लघुकथाएं इसी सर्पीली सुरंग के अन्धेरों को चीरती दिखायी जान पड़्ती हैं। यद्यपि धन का महत्व पहले भी था पर शायद साई इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समाय वाली बात ठीक लेकिन अब तो कोई सीमा नहीं है। और ज्यादा, और ज्यादा। जितना मिल गया, उससे और ज्यादा। कितना कोई नहीं बता सकता। बस यही सारी समस्याओं की जड़ है। धन की मर्यादा खत्म हो गयी है। लोग दूसरों की मदद नहीं करते, बस संग्रह करते हैं और संग्रह संकट में अक्सर काम नहीं आता है। यह लालच जाना चाहिये।
प्राण जी, आपकी दोनों लघु कथाएँ जीवन की विडंबनाओं पर बड़े सशक्त व्यंग्य करती है. सच, आज दुनिया में अच्छे कार्यों में ‘तन-मन ‘ अनुपस्थित ही रहता है, बस ‘धन’ ही उपस्थित रहता है, वह भी ‘स्वार्थ की दुर्भावना’ से भरा हुआ. उस धन अर्पण में दिल की सच्ची श्रध्दा गायब ही रहती है. इसी तरह दूसरी कहानी भी मानवीय प्रवृति की कुरूपता का खुलासा करती है और हमें बहुत कुछ सोचने पे विवश करती है. ऎसी अच्छी कहानियों के लिए बधाई !
सच कहती लघु कथाएं
प्राण जी की बोध कथा और लघुकथा दोनों ही प्रासंगिक हैं.
कागद जी!
आजकल लघु कथा, बोध कथा, उपदेश कथा, दृष्टान्त कथा, सूक्ति कथा में अंतर समझनेवाले हैं ही कितने?, व्यथा कथा तो यह है कि अनेक घटनाओं को समाहित किये कई पृष्ठों की लघु कथाएँ भी धल्ले से लिखी और छपी जा रही हैं. अस्तु… रहिमन चुप व्है बैठिये …
आदरणीय प्राण साहब,
नमस्कार!
आपके आदेशानुसार दोनों लघुकथएं पढीं !
आज के ज़माने में पैसा ही सब कुछ हो गया है। लोगों को धर्म के नाम पर लूटना बहुत आसान है। किसी को पता भी नहीं चलता कि कोई आप को यूँ ही लूटे जा रहा है।
गहरे भाव …गागर में सागर भर रखा है ..आप ने।
आप की कलम को सलाम!
दाता दे दरबार विच … सच है हम भारतीय भावनाओ में बह कर कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं और कुछ गिने चुने लोग इन भावनाओं से खिलवाड़ कर जाते हैं …. बहुत अच्छी व्यंग कथा है ….
आकांक्षा में तो आपने जीवन के किसी कटु सत्य को उकेर दिया है …. पैसा बहुत बलवान होता है और आज की अंधाधुंध दौड़ बस पैसे के ही पीछे है …
प्राण जी की दोनो रचनाएँ जीवन के लंबे अनुभव की एक झलक हैं …..
प्राण जी,
दोनों लघुकथाएँ पढ़ीं। दोनों कमाल!! ‘दाता दे दरबार विच’ – दाता तो मिला नहीं, जेब भी खाली हो गयी! ‘सौरी, वेरी, सौरी!’ क्या भक्त समझते हैं कि पंडित को दिया गया पैसा भगवान तक पहुँच जाता है? क्या पंडित भगवान का ‘authorised agent’ और क्या भगवान भी रिश्वतखोर है?
दूसरी कहानी में भी एक आम ग़लतफ़हमी को अभिव्यक्त किया गया है – धन सब सुखों का मूल-सूत्र है।
प्राण जी, बधाई! महावीर जी, धन्यवाद!!
महेंद्र दवेसर ‘दीपक’
दाता दे दरबार विच्च्…………एक सत्य को उजागर करती है……………काफ़ी हद तक आज हर जगह यही हो रहा है ……………भगवान के नाम के सहारे जेब आराम से काटी जा सकती है और कटने वाला खुशी खुशी कटने को तैयार हो जाता है तो इससे अच्छा कमाई का और क्या साधन होगा………………।बहुत ही सुन्दर संदेश देती है कहानी।
आकांक्षा ……………मनुष्य की आकांक्षायें ही तो उन्हें कुछ भी करने के लिये मजबूर कर देती हैं सिर्फ़ भौतिक सुखों की खातिर जब एक माँ अपनी बेटी को ऐसा कर्म करने के लिये उकसा सकती है तो इस से ज्यादा दुखद और क्या होगा……………आज सब जगह यही तो हो रहा है……………यथार्थ का सटीक चित्रण्।
एक इसी तरह की कहानीनुमा घटना मैने भी लिखी है अपना कीमती वक्त देकर अनुगृहीत करें।
http://ekprayas-vandana.blogspot.com
‘दात दे दरबार विच ‘ लघुकथा में गहरा व्यंग्य है । नरदेव जी अपने घर पर भी जेब खाली करवाने से नहीं चूकते। अन्ध श्रद्धालु भले ही परेशानियों मे दिन बिताएँ ; लेकिन तथाकथित धर्म ध्वजाधारी, लोगों को त्याग का पाठ पढ़ाकर सम्पत्ति अर्जित करने में लगे हैं। रोज़मर्रा ऐसे लोगों का भण्डाफोड़ हो रहा है ; फिर भी कुछ लोग इनके झाँसे में आ ही जाते हैं।दूसरी लघुकथा ‘आकांक्षा स्र्थवापूर्ण सम्बन्धों को उजागर करती है । यह आजकल की सभ्यता का विकृत रूप है। दोनों ही लघुकथाओं के केन्द्र में है-किसी भी तरह धन हड़पना ।बस रास्ते अलग-अलग हैं- पहला मार्ग नरदेव जी का है जो छुपा हुआ है , दूसरा मार्ग जगजाहिर !
इंसान के लालच और स्वार्थी स्वाभाव को कितनी आसानी से प्राण साहब ने अपनी लघु कथाओं में पिरोया है…उनका कथ्य और शब्द कौशल कमाल का है…उनकी लघु कथाएं और ग़ज़लें पढने के बाद फिर और कुछ पढने की जरूरत ही कहाँ रह जाती है…जीवन का पूरा निचोड़ तो मिल जाता है कुछ बाकि रहता ही नहीं…प्राण साहब की रचनाएँ हम तक पहुँचाने के लिए महावीर जी हम पाठक आपके आभारी हैं…
नीरज
प्राण जी आपकी लघुकथाएं पढ़ीं।
माफ करें। लघुकथा को लेकर मेरी अपनी समझ यह है कि उसका अंत पाठक को चौंकाता है। और जैसा कि लघु का मतलब है वह लघुता में ही अपनी बात कहकर चोट भी पहुंचाता है।
यहां आपकी पहली लघुकथा लघुकथा से ज्यादा लघुव्यंग्य की श्रेणी में रखी जा सकती है। वहां व्यंग्य बहुत सशक्त तरीके से उभरा है। लेकिन मुझे फिर यह नहीं लगता कि नरदेव कोई अनैतिक काम कर रहे हैं। आखिर वे तो अपनी वाणी का ही उपयोग कर रहे हैं न। अब यह तो आप पर है कि आप उनकी वाणी के माधुर्य में खोएं या नहीं। हां अपना माधुर्य में उस प्रभु की बात कर रहे हैं जो अगर है तो सब जगह है। हम ही मूर्ख उसे ढ़ंढने नरदेव जैसे लोगों के महलों में चले जाते हैं।
दूसरी लघुकथा भी मेरी लघुकथा की समझ पर खरी नहीं उतरी। शायद इसलिए भी कि यह कथ्य इतना पिट चुका है कि उसमें नयापन नहीं दिखता। दूसरी बात कि आंकाक्षा की उम्र तीस साल आपने बताई है या रखी है। तीस साल की लड़की कितना और इंतजार करे अपने राजकुमार का। इसलिए अगर वह ऐसा करती भी है तो हमें यह भी विचार करना होगा कि आखिर वह यह फैसला क्यों ले रही है। और इसमें भी अनैतिक क्या है। शायद केवल वह भावना जिसके तहत यह फैसला किया जा रहा है।
दोनों लघु कथाएं एक सत्य उजागर करतीं है शायद आज के युग की सबसे बड़ी जरुरत लगती है लोगों को
Priya bhai Pran jee ne bahut hii seedhee-saadhee bhashaa me inn kathaon ke madhyam se badee gehree baat keh dee hai badhai
दोनों ही लघु कथाएँ आज के समाज का चरित्र उजागर कर रही हैं. स्वामी, बाबा और भजन गायक-सभी का उद्देश्य धन कमाना ही रह गया है और उपदेश देते हैं धन से मोह त्यागने का.
पैसे की लालच में न जाने कितनी आकांक्षाएँ और उसकी माँएं बिखरी हुई दिख जाती हैं..क्या कहा जाये.
दोनों रचनाएँ अपनी बात पूरी तरह से रखने में सफल रहीं.
इसमें दो राय नहीं कि प्राण साहिब की दोनों लघुकथाएं अपने अपने ढंग से समाज में व्याप्त कटु सत्यों की ओर संकेत करने में सफल हैं परन्तु साथ ही साथ मुझे लगता है कि थोड़ा-सा रचनात्मक कसाव और होता तो ये और अधिक प्रभावकारी हो सकती थीं।
शर्मा जी ,
आपकी दोनों लघु कथाएं हमारे समाज में नकाब के पीछे छिपे सच को उजागर करती हैं….सच है कि आज धर्म पैसा कमाने का जरिया बन चुका है…और धन इतना महत्वपूर्ण हो चुका है कि हमारे रिश्तों कि पवित्रता को भी लील रहा है…! सुंदर रचनाओं के लिए बधाई…!!!
समय कोई भी हो , मनुष्य में स्वार्थ भरा ही रहता है ।
पुरातन और आधुनिक , दोनों सोच को बड़ी खूबी से उजागर किया है , इन लघु कथाओं में ।
सार्थक लेखन ।
’दाता दे दरबार विच’ में गहरा व्यंग्य छुपा है. आंकाक्षा अपनी सहजता में हमें प्रभावित करती है. जीवन का यह एक कटु सच है. एक साधारण मां की सलाह यदि बेटी मान लेती है तो यह अजीब नहीं लगता . यह आज का सच है. जब बुद्धिजीवी , लेखिकाएं और कवयित्रियां गांठ का मजबूत और कब्र में पैर लटकाए लोगों से शादी करती हैं तब भी आश्चर्य नहीं होता. यह आज के समय का सच है.
बधाई प्राण जी,
रूपसिंह चन्देल
आज के समय का सच कहती दोनों लघु कथाएँ, बहुत -बहुत बधाई.
बदलते युग और उपभोक्तावादी संस्कृति के हावी हो जाने का ये सब परिणाम है.
प्राण सर ने दोनों लघुकथा में सरलता से सच को दिखाया है.
gazal usataad bhaaI saahib praaN sharmaa jee kee laghu kathaayeM sadaiv samaaj me failee kureetioM par ek vyang hotaa hai pahalee kahaanee me gaharee coT kee hai un par jo keeratan aadi ke naam par paisaa kamaane kaa dhandhaa karate haiM au4r log andh vishvas me paisaa lutate hain doosaree kahaanee me bhee aaj vivaah jaise pavitr bandhan ko bhee kaise vyaapaar samajhaa jaane lagaa hai | dono kahaniyan laajavaab haiM unheM badhaaI aapakaa dhanyavaad.
प्राण साब ,
प्रणाम !
आप कि दोनों लघु कथाए पढ़ी विषय हालकी सामान्य है मगर सन्देश है एक बात कान्हा च्चुगा कि पलही लाख अगर वृतांत ना देती तो सार गर्भित होती तोड़ी और कसावट हो सकती थी ये मेरी दृष्टी से है .
दूसरी कथा आज मानव पैसो के पीछे भाग रहा है अगर एक माँ अपनी संतान के लिए ऐसा सोचे तो संस्कार कहा से आयेगे,
आप को साधुवाद
महावेर्र सर को प्रणाम
sunil gajjani
जेबें झड़ाना तो एक कला है, सड़क किनारे मदारी से लेकर मंदिर में बैठे पुजारी तक सभी तो इस कला को भॉंजने को उद्यत रहते हैं फिर बेचारे पंडित नरहरि जी क्या करें। लेने की कलायें देने की मानसिकता पर आश्रित हैं। एक कुली पॉंच रुपये ज्यादह मॉंग ले तो दर सूची याद आ जाती है क्योंकि वहॉं देने की मानसिकता नहीं है। ‘दाता दे दरबार विच’ एक सौदा है कि हे प्रभु मैं तो जेबें लुटाकर जा रहा हूँ अब तू मेरा घर भर दे (घर से चलते समय ही सावधानी बरत ली थी कि जेब में कुछ सिक्के ही निकलें।
आकांक्षा ग्लैमर की दुनिया का एक कड़वा सत्य है, प्रश्न यहॉं भी सौदे का ही है ‘आखिर कुछ पाने के लिये कुछ खोना पड़ता है’; ठीक है भाई लेकिन खोने पाने के इस खेल में नैतिक और सामाजिक मूल्यों का भी कुछ तो स्थान होगा। तर्क तो सोच से जन्मता है, एक बच्चे को देखें जब जो मनवाना होता है उसी के अनुसार सारे तर्क बटोर लाता है।
आज के समय का सच यही है। सच का आईना है ये लघु कथाएं |
आदरणीय प्राण साहब
प्रणाम !
दोनों लघुकथाओं ने बहुत प्रभावित किया ।
इनका कथ्य ऐसा है कि संप्रेषण में कहीं परेशानी नहीं आती ।
भाषा में प्रवाह , शिल्प में कसावट है ।
आपकी लेखनी को कोटि नमन है !
– राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
प्राण जी की लघुकथाओं की विशेषता यह है कि गहन विषय जो लंबी लंबी कहानियों में भी कहानीकार स्पष्ट नहीं कर पाता, प्राण जी अपनी लघुकथा में केवल कुछ ही पंक्तियों में पूरी बात सफलता से कह देते हैं. इन दोनों लघुकथाओं में भी उनकी कलम का कमाल देखा जा सकता है.
‘दाता दे दरबार विच’ में कितनी सरलता से यह स्पष्ट कर दिया कि पंडित नर देव अपने गायकी का सहारा लेकर प्रभु के नाम पर लोगों को लूटते रहे. यदि नर देव प्रभु की भक्ति के लिए यह धन एकत्रित करते तो दृश्य कुछ और ही होता. यह एकत्रित किया हुआ धन अपने बड़े भवन पर खर्च नहीं किया जाता बल्कि भूके नंगे अपंग जैसे लोगों के सुधार पर व्यय किया जाता. हम यह भूल जाते हैं कि एक समय था कि मंदिर के पुजारी और ऎसी ही संस्थाओं की यह ज़िम्मेदारी थी कि उस मंदिर के चारों ओर १० मील तक कोई भूका न रहे.
प्राण जी यह दिखाने में पूर्णतय: सफल हैं कि नर देव की आस्था ईश्वर में नहीं, केवल प्रभु के नाम पर श्रद्धालुओं को किस तरह वर्गला कर अपना उल्लू सीधा करते हैं.
दूसरी कथा में यह प्रश्न पूछा गया है कि ‘तीस साल की लड़की कितना और इंतज़ार करे’? मैं यह कहना चाहूँगा कि समय बदल गया है, तीस साल की लड़की आजके युग में बहुत बड़ी नहीं मानी जाती. लड़की एम. ए. करती है, फिर उसके बाद कुछ व्यवसायिक शिक्षा, पी.एच.डी. आदि की लालसा में काफी समय लग जाता है. यह यहीं समाप्त नहीं हो जाता, करियर की दौड़ में तीस वर्ष की आयु तो हो ही जाती है. इन सभी के पीछे भी पैसे की लालसा काम करती है. उसी माया के जाल में आकांक्षा जवानी की आहुति देने को तैयार हो गई. इस कथा में इंग्लैण्ड का नाम बीच में देकर यह साफ हो जाता है कि यहाँ तीस साल की लड़की अविवाहित रहना एक आम बात है.
प्राण जी को धन्यवाद के साथ बधाई भी.
आपकी दोनों लघुकथाएं… आज के सामाजिक पहलू… को दिखातीं हैं…. बहुत गहराई है…
महावीर जी ,आप निरंतर मूल्यवान रचनाओं से परिचित कराते हैं आप को सधुवाद..इस क्रम में प्राण शर्मा जी की दोनों लघु कथाएं पढ़ीं —व्यावसायिकता के इस युग में चरित्रियिक मूल्यों की गिरावट को दर्शाती हैं.बूढ़े और ख्यातिप्राप्त लेखकों से शादी कर महिलाएं नामी लेखिका बन जाती हैं और धनी भी .लालसाओं के इस सागर में नरदेव भी आज कल खूब डूब रहे हैं और आकांक्षाएं भी . .दूसरी लघु कथा और भी तराशी जाती तो अच्छा लगता .समसामयिक संवेदना को गहराई से व्यक्त करती इन लघु कथाओं हेतु हार्दिक बधाई .
आ. प्राण भाई साहब आपकी कथा में सच है, समाज की तस्वीर है आपकी लेखन क्षमता की विशेषता है और समाज के दुर्गुणों का पर्दाफ़ाश करने की क्षमता भी ..यूं ही लिखते रहीये
बहुत स्नेह सहित,
– लावण्या
pran ji deri se aane ke liye maafi ,
aapki kahaniya hamesha hi mere liye ek naya roop lekar aati hai , dono kahaniya , apne aap me poorn hai aur aaj ke samaj ki choti soch ko darshaati hai , yahan ye bhi kahna chahunga ki aapki kahaniya samaj ka saccha roop hoti hai .. mera pranaam sweekar kariye..
aapka
vijay
मारक…गहरी चोट करती लघुकथाएं…अपने अति लघु कलेवर में भी कहानियां गहन प्रभाव छोडती हैं…
बहुत ही प्रभावशाली कहानियां हैं…