जून 23rd, 2010 के लिए पुरालेख

अमेरिका से देवी नागरानी की दो लघुकथाएं

जून 23, 2010

कड़वा सच

देवी नागरानी

सोच के सैलाब में डूबा रामू पेड़ के नीचे बुझी हुई बीड़ी को जलाने की कोशिश में खुद ठिठुर रहा था. दरवाज़े की चौखट पर घुटनों के बल बैठा अपनी पुरानी फटी कम्बल से खुद को ठिठुरते जाड़े से बचाने की कोशिश में जूझ रहा था, पर कम्बल के छोटे-बड़े झरोखे उनकी जर्जर हालत बयान करने से नहीं चूके.

“रामू यहाँ ठंडी में क्यों बैठे हो? अंदर घर में जाओ” गली के नुक्कड़ से गुज़रते हुए देखा तो उसके पास चला गया. रामू मेरे ऑफिस का चपरासी है.

“साहब अंदर बेटे-बेटी के दोस्त आये हुए हैं. गाना-बजाना शोर-शराबा मचा हुआ है. सब झूम-गा रहे हैं. इसलिए मैं बाहर….” कहकर उसने ठंडी सांस ली.

“तुम्हारी उम्र की उन्हें कोई फ़िक्र नहीं, रात के बारह बज रहे हैं और यह बर्फीली ठण्ड!”

“साहब दर्द की आंच मुझे कुछ होने नहीं देती अब तो आदत सी पड़ गयी है. पत्नी के गुज़र जाने के बाद बच्चे बड़े होकर आज़ाद भी हो गए हैं, बस गुलामी की सारी बेड़ियाँ उन्होंने मुझे पहना दी है. कहाँ जाऊं साहब?” कहकर वह बच्चों की तरह बिलख पड़ा.

मैंने उसका कंधा थपथपाते हुए निशब्द राहत देने का असफल प्रयास किया और सोच में डूबा था की अगर मैं उस हालत में होता तो !

“क्या उन्हें बिलकुल परवाह नहीं होती कि तुम उनके बाप हो? क्या कुछ नहीं किया तुमने और तुम्हारी पत्नी ने उन्हें बड़ा करने के लिए?”

” वो बीती बातें हैं साहब, ‘आज’ मस्त जवानी का दौर है, उनकी मांगें और ज़रूरतें मैं पूरी नहीं कर पाता, उनकी पगारें कर देती हैं. पैसा ही उनका माई-बाप है.”

“तो इसका मतलब हुआ, संसार बसाकर, बच्चों कि पैदाइश से उनके बड़े होने तक का परिश्रम, जिसे हम ‘ममता’ कहते हैं कोई माइने नहीं रखता?”

“नहीं मालिक! मैं ऐसा नहीं सोचता. दुनिया का चलन है, चक्र चलता रहता है और इन्हीं संघर्षों के तजुर्बात से जीवन को परिपूर्णता मिलती है. जीवन के हर दौर का ज़ायका अलग-अलग होता है. जो मीठा है उसे ख़ुशी से पी लेते हैं, जो कड़वा है उसे निग़ल तक नहीं सकते. बीते और आने वाले पलों का समय ही समाधान ले आता है. काल-चक्र चलता रहता है, बीते हुए कल की जगह ‘आज’ लेता है और आज का स्थान ‘कल’ लेगा. यही परम सत्य है और कड़वा सच भी.

देवी नागरानी

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दाव पर द्रोपदी

देवी नागरानी

कहते हैं चोर चोरी से जाए पर हेरा फेरी से न जाए. अनील भी कितने वादे करता, किए हुए वादे तोड़ता और जुआ घर पहुँच जाता, अपनी खोटी किस्मत को फिर फिर आज़माता. बस हार पर हार उसके हौसले को मात करती रही.

एक दिन अपनी पत्नी को राज़दार बनाकर उसके सामने अपनी करतूतों का चिट्ठा खोलकर रखते हुए कहाँ- “अब तो मेरे पास कुछ भी नहीं है जो मैं दाव पर लगा सकूँ. क्या करूँ? क्या न करूँ, समझ में नहीं आता. कभी तो लगता है खुद को ही दाव पर रख दूँ.”

पत्नी समझदार और सलीकेदार थी, झट से बोली- “ आप तो खोटे सिक्के की तरह हो, वो जुआ की बाज़ार में कॅश हो नहीं सकता ? अगर आपका ज़मीर आपको इज़ाज़त देता है तो, आप मुझे ही दाव पर लगा दीजिए. इस बहाने आपके किसी काम तो आऊंगी.”

अनील सुनकर शर्म से पानी पानी हो गया. और इस तरह के कटाक्ष के वार से खुद को बचा न पाया. हाँ, एक बात हुई. ज़िंदगी की राह पर सब कुछ हार जाने के बाद भी, जो कुछ बचा था उसे दाव पर हार जाने से बच गया.

देवी नागरानी

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