‘राज़ ‘
– प्राण शर्मा
धर्मपाल ने टेलिफ़ोन का चोगा उठाकर सतपाल का फ़ोन नंबर मिलाया.फ़ोन की लाइन अंगेज थी.” पता नहीं कि लोग फोन पर क्या- क्या बातें करते हैं? घंटों ही लगा देते हैं.किसी और को बातकरने का मौक़ा ही नहीं देते हैं.” खीझ कर उसने फोन पर चोगा पटक दिया.
कमरे में इधर-उधर चक्कर लगा कर धर्मपाल ने फिर सतपाल को फोन किया.दूसरी ओर से फ़ोन की घंटी बजी.धर्मपाल के चेहरे पर सब्र का प्याला छलका.
” कौन ? “दूसरी और से सतपाल की आवाज़ थी.
” मैं धर्मपाल बोल रहा हूँ. सतपाल, तुम बड़े अजीब किस्म के आदमी हो. एक राज़ को तुमने कुछ ही दिनों में यारों-दोस्तों में उगल दिया. क्या उसे तुम अपने दिल में नहीं रख सकते थे ? “
” किस राज़ को उगल दिया मैंने ?
” वही यशपाल का राज़ कि वो किसी और ब्याही औरत से छिप- छिप कर इश्क लड़ाता है.अभी-अभी वो मुझसे लड़ कर गया है. बहुत गुस्से में था.”
” भाई, तुमने तो मुझे यशपाल का राज़ बताया ही नहीं था. राज़ तो योगराज और सुधीर ने मुझे बताया था.धर्मपाल , पकड़ना है तो उन्हें पकड़ो.” सतपाल ने फ़ोन के बेस पर चोगा रख दिया.
धर्मपाल ने फ़ोन पर योगराज को पकड़ा ” योगराज , तुमने ये हंगामा क्या बरपा कर दिया है?”
” कैसा हंगामा,भाई.समझा नहीं.” योगराज ने हैरानगी ज़ाहिर की.
” क्या तुम एक राज़ को अपने दिल में नहीं रख सकते थे?”
” किस राज़ को ? जरा खोल कर बात करो.
” वही यशपाल वाला राज़ कि वो छिप-छिप कर किसी ब्याही औरत से रंगरलियाँ मनाता है.उसका राज़ तुमने सतपाल को खोल दिया और उसने कई यारों-दोस्तों को.मुझे तुमसे ये आशा कतई नहीं थी.”
” देखो धर्मपाल, तुम मुगालते में हो. तुमने तो ये राज़ मुझसे कहा ही नहीं तो खफा क्यों होते हो ? राज़ तो मुझे सुधीर ने बताया था. पकड़ना है तो उसे पकड़ो.”
योगराज ने भी फ़ोन के बेस पर चोगा पटक दिया.
धर्मपाल को याद आया कि राज़ उसने सुधीर को ही बताया था. उसने उसको पकड़ना मुनासिब समझा. फ़ोन लगने पर सुधीर की पत्नी बोली – ” कौन ?
” भाभी जी, मैं धर्मपाल बोल रहा हूँ. क्या सुधीर घर में है? “
” जी, नहीं. कुछ मेहमान आने वाले हैं. उनके लिए मीठा – नमकीन लेने गये हैं.आने वाले ही हैं.आप कुछ देर के बाद फ़ोन कर लीजिये .ठहरिये, वो आ गये हैं. लीजिये, उनसे बात कीजिये.”
” सुधीर.”
” बोल रहा हूँ , धर्मपाल.”
” तुम अच्छे हमराज़ निकले हो ! एक राज़ को तुम अपने पेट के किसी कोने में दबा कर नहीं रख सके.”
” कौन सा राज़, मेरे यार ?”
” वही यशपाल का किसी ब्याही औरत से लुक-लुक कर मिलने वाला राज़.”
” अरे यार, इसे तुम राज़ कहते हो ? इश्क-विश्क के चक्कर को तुम राज़ समझते हो .ये रोग भी कहीं छिपाने से छिपता हैं? देखो, धर्मपाल, तुमने मुझसे यशपाल का राज़ बताया. बताया न ?
” बताया.”
” राज़ था तो उसे राज़ ही रहने देते.- – – मैं गलत तो नहीं कह रहा हूँ ? – – – – चुप क्यों हो गये हो ? – – – – बोलो न?”
धर्मपाल को दूसरी ओर से टेलिफ़ोन के बेस पर चोगा रखने की आवाज़ सुनायी दी.
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सुरक्षाकर्मी
– प्राण शर्मा
रामस्वरूप और राजनारायण कई सालों से पुलिस विभाग में काम कर रहें हैं. उनके काम को सराहते हुए विभाग ने उन्हें उद्योगपति पी.के.धर्मा की सुरक्षा में तैनात कर दिया.
पी.के. धर्मा वही उद्योगपति हैं जो हर साल देश की प्रमुख पार्टी को एक करोड़ रुपयों की धनराशि चन्दा के रूप में देते हैं. गत मास किसी अज्ञात व्यक्ति ने उन पर गोली चला कर हमला किया था. गोली उनके सर के दस-ग्यारह मीटर ऊपर होकर निकल गयी थी. उनको कोई जानी नुक्सान नहीं हुआ था.
मीडिया ने उक्त घटना को पी.के. धर्मा का स्टंट बताया. सरकार ने इसकी छानबीन करवाई. छानबीन पर लाखों रूपए खर्च हुए. जल्द ही एक सौ पृष्ठों की रिपोर्ट छपी. रिपोर्ट का सारांश था – ” चूँकि पी.के. धर्मा सैंकड़ों संस्थाओं को चन्दा देते हैं इसलिए वे कई ईर्ष्यालु संस्थाओं की हिटलिस्ट में हैं. वे सरकारी सुरक्षा व्यवस्था के पूरे हक़दार हैं.”
पी.के. धर्मा की सुरक्षा में तैनात रामस्वरूप और राजनारायण को तीन महीने भी नहीं बीते थे कि उन्हें और उनके परिवार को जान से मार देने के धमकी भरे पत्र और फ़ोन आने लगते हैं. हिम्मती हैं इसलिए कुछ दिनों तक दोनो ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया. लेकिन रोज़ – रोज़ के धमकी भरे पत्रों और फ़ोनों से वे घबरा जाते हैं. अपनी चिंता कम और परिवार वालों की चिंता उन्हें ज्यादा है. अपनी और अपने परिवार वालों की सुरक्षा व्यवस्था के लिए उन्होंने पूरा विवरण अपने विभाग को भेज दिया.
विभाग ने उनकी दरखास्त को नामंजूर कर दिया. जवाब में लिखा था – ” आप सुरक्षाकर्मी हैं. आपको सुरक्षा की क्या आवश्यकता है ? “
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बात जो एक को मालूम हो; सौ प्रतिशत राज़, दो को मालूम हो तब भी पता लग जाता है कि किसने उगली लेकिन तीसरे को पता चलते ही राज़- राज़ नहीं रहता और जिसका राज़ होता है वह नाराज़ हो जाता है।
दूसरी लघुकथा आज की व्यवस्था पर कटाक्ष तो है लेकिन महाकटाक्ष यह है कि जनप्रतिनिधि जितनी जनता का प्रतिनिधित्व करता है उतनी जनता की सुरक्षा की कीमत पर उस जनप्रतिनिधि को सुरक्षा में क्या ग़ल़त है, वैसे ही जनसमस्या है, जनता कम होती है हो जाये, जनप्रतिनिधि सलामत रहने चाहियें। टैक्स देने वालों को बचायेंगे नहीं तो टैक्स कहॉं से आयेगा।
मैं कायल हुआ।
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वाकई, राज तभी तक राज है, जब तक एक के पास है वरना कैसा राज…
सुरक्षा कर्मी को इन्सान कहाँ समझा जाता है इतने बड़े रसूकदार लोगों के तबके में…
दोनों कथायें बहुत उम्दा!! पसंद आई.
Aadarniy Pran bhai saa’b
tatha Aadarniy Mahaveer ji
Namaste
Pran bhai saahab ki dono Katha samaj ka sach darshatee huee bahut pasand aayee — Dhanywaad —
sadar, Sa – sneh,
-L
आईये जानें … सफ़लता का मूल मंत्र।
आचार्य जी
हा हा हा ये कैसा राज है, ये कहानी बेहद रोचक लगी…
regards
donon laghukathayen sarthak hain.
प्राण शर्मा जी की दोनों लघुकथाएँ -‘राज़ ‘ और सुरक्षा कर्मी सधी हुई लघुकथाएँ हैं । बधाई !रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
दोनो कहानियाँ जबर्दस्त हैं .. पहली कहानी तो बहुत अच्छा संदेश लिए है … राज तब तक ही राज रहता है जब तक अपने अंदर है …. प्राण साहब की लेखनी को प्रणाम ..
प्राण शर्मा साहब की ये ही तो खूबी है के वो जिस विधा पर भी अपनी कलम चलाते हैं चाहे वो ग़ज़ल हो या लघु कहानी अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं…इतनी रोचक ओर सादा ज़बान में अपनी बात कहते हैं के वो सीधे पाठक के दिल में उतर जाती है…दोनों लघु कथाएं बेजोड़ हैं…उनकी लेखनी को प्रणाम…
नीरज
Aadarniya Pran ji,
Dono laghukathaon ki pathaniyata abadhit hai. Bahut hi behatareen laghukathayen. Surakshakarmi vyavastha par karara chot karati hai.
Badhai Pran ji.
Chandel
आदरणीय महावीर जी ,
आदरणीय प्राण साब ,
सादर प्रणाम !
प्राण साब , ” राज़” बेहद रोचक प्रकार से आप ने छोटे से कथानक को रोचकता से प्रस्तुत किया , संवाद कट तो कट है , बिना रूकावट के ! सुंदर प्रस्तुति है .
” सुरक्षा कर्मी “‘ के सन्दर्भ में है की एक प्रशन छोड़ता है कथानक की जिन की सुरक्षा की जाती है , और जो सुरक्षा प्रदान करते है विरोधी ये सहन नहीं कर पाते इस लिए उनको भी धमकी देने लग जाते है मगर प्रशाशन कितनी गंभीरता से लेते है ये कटाक्ष आप ने अच्छा किया .
साधुवाद !
आभार !
प्राण शर्मा जी की दोनों लघुकथाएँ एक से बढ़कर एक हैं, अत्यंत शानदार!
‘राज़’ के सन्दर्भ में कहना चाहता हूँ –
“जब सिले होंठ उधड़ते हैं, उघड़ते हैं,
आवाज़ें जो आती हैं, जहाँ की जागीर होती हैं।”
और ‘सुरक्षा कर्मी’ के विषय में यह शे’र कहता हूँ —
“तूफ़ान की मौजो रुक जाओ,
ले जाओ न हमको साहिल पर।
मौजों की क़सम, साहिल की क़सम,
साहिल पे हमारा कोई नहीं॥ ”
प्राण जी, महावीर जी, आप दोनों को हार्दिक बधाई।
महेंद्र दवेसर ‘दीपक’
आदरणीय श्री प्राण साहब को प्रणाम ! आपकी दो लघुकथाएं पढ़ी दोनों ही कथाओं के विषय मौलिक और यथार्थ हैं. प्रथम कथा में आपने ‘राज’ के राज का जो सटीक चित्रण किया, सराहनीय है, हालांकि इस कथा में नाटकीयता और कथोपकथन आने से शुद्ध रूप से लघुकथा नहीं बन पाई है, लघुकथा की परिधि और परिभाषा को थोडा तोडती है, फिर भी आपकी कलम से प्रभावशाली बन पाई है..
द्वितीय कथा अधिक सशक्त और सारगर्भित होती हुई पूर्णतः लघुकथा परिलक्षित होती है.., भाषा, शिल्प और व्याकरण की दृष्टि से भी उम्दा है..और
विषयवस्तु भी बहुत प्रभावशाली और यथार्थ है जो सोचने पर मजबूर करती हुई संदेशपरक बन पाई है…सारांशतः दोनों ही लघुकथाएं अच्छी और संवेदनशील लेखनी की परिचायक हैं..आपको और श्रद्धेयश्री महावीर जी को कोटिशः प्रणाम !
थीम अच्छा है । मारक । बधाई । फ़ार्म आपने पकड़ लिया है । क्या बात है ..
प्राण भाई , कहानियां अच्छी हैं . आप की राज कहानी पढ़कर मुझे भर्तृहरि की वह कहानी याद आ गयी जिसके चलते उन्हें सन्यास लेना पड़ा था. हुआ यूँ की राजा भर्तृहरि को संतान नहीं थी. बहुत अनुनय-विनय पर एक साधु ने उन्हें एक फल दिया, कहा कि इसे रानी को खिला देना. राजा घर आये और फल रानी को दिया. बताया कि यह बहुत योगकारक फल है. इसे खा लेना. रानी सेनापति को प्यार करती थी. उससे जब सेनापति चोरी चुपके मिला तो रानी ने वह फल सेनापति को दे दिया. कहा कि यह बहुत योगकारी फल है, इसे खा लेना. सेनापति रानी से भी ज्यादा एक वेश्या को चाहता था. वह जब वेश्या के पास गया, तो उसने वह फल वेश्या को दे दिया. वेश्या राजा को मन से चाहती थी. उसने फल एक संदेशवाहक से राजा के पास भिजवा दिया और कहलवाया कि फल बहुत योगकारी है. राजा उसका सेवन कर लें. जब वह फल फिर लौटकर राजा को मिला तो उन्होंने पता किया की यह फल वेश्या के पास कैसे पहुंचा. जब उन्हें पूरी कहानी पता चली तो वे राज-पाट छोड़कर सन्यासी हो गए.
और क्या टिप्पडी करूं.
रोजमर्रा की छोटी छोटी अनदेखा कर दी जाने वाली बातों को जितनी शूक्षमता से आप पकड़ते हैं और फिर इन लघुकथाओं के माध्यम से प्रभावशाली विशिष्ठ बना देते हैं,देखने लायक हैं…
आपसे बहुत सीखने को मिलता है हमें…
प्राण साहिब की पहली लघुकथा “राज” बहुत दमदार लघुकथा है। विडम्बना कहिये या मनुष्य की फितरत कि हम दूसरों पर दोष मढ़ते हैं पर अपने ओर नहीं देखा करते कि हम क्या किया। बहुत बढ़िया ! दूसरी लघुकथा “सुरक्षाकर्मी” पाठक का ध्यान खींचती है पर पहली लघुकथा जैसा उसमें कसाव नहीं है। बहरहाल, बहुत बहुत बधाई !
लघुकथा की एक विशेषता है कि गहरे भावों के साथ साथ कथा का अंत एक पंचलाईन से होता है. प्राण शर्मा जी की
लघुकथाओं में यह विशेषता है कि अंत की लाईन मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ जाती है. दोनों लघुकथाएं बहुत
ही प्रभाव शाली हैं.
प्राण भाई साहिब की लघुकथायेंहों या गज़ल हो उन मे जीवन और समाज का यथार्थ चेहरा छुपा रहता है। राज़ कविता मे आम आदमी कैसे किसी की चुगली कर राज़ खोलता है मगर जब उसका ये राज़ खुलता है तो दूसरों को दोश देता है और सुधीर की कही बात बहुत अच्छी लगी कि जब ये राज़ था तो उसने ही क्यों उगला। इस पर सुभाष राइ जी की बोध कथा सोने पर सुहागा है जो हमे कुछ सोचने पर मजबूर करती है। हम एक दूसरे की चुगली कर समाज मे गलत बातों को फैलाने के लिये हवा देते हैं और दूसरी लघु कथा मे व्यवस्था पर गहरी चोट है। दोनो कथाओं मे सार्थक सन्देश छुपा है । भाई साहिब को बहुत बहुत बधाई और आपका धन्यवाद उनकी कथायें पढवाने के लिये।
nice
pran ji !
sabse pahle toh aapko saadar pranaam !
donon laghukathayen main toh ek hi jhonke me baanch gaya…….aur doob gaya
sach………..aapki lekhni me anubhav aur adhyayan donon ka zabardast sangam hai aur main aise sangam ko sahitya ke teerth ki tarah maanta hoon .
aapko mera shat shat pranaam aur prakaashkon ko saadhuvad !
– albela khatri
http://www.albelakhatri.com
http://albelakhari.blogspot.com
लघुकथा “सुरक्षाकर्मी” पर संक्षेप में पहले कहना चाहूंगा ।
यथास्थिति यही है कि व्यवस्था गेंडों की खाल पर खरोंच न आए ,
इसके लिए तो चिंतित हो’कर सुरक्षा इंतज़ाम कर सकती है ,
लेकिन वास्तव में समाज का जो तबका , आम आदमी असुरक्षित है ,
अथवा असुरक्षा की संभावना से ग्रस्त है , आशंका से त्रस्त है …
उनके प्रति उदासीन ही रहती है ।
“राज़”
शीर्षक को पूरी तरह सार्थक करती हुई यह लघुकथा
शुरू से आख़िर तक पाठक को बांधे रखने में समर्थ है ।
इस लघुकथा के समापन तक पहुंचते पहुंचते
हम इसके कथानक से गहरी जान पहचान अनुभव करने लग जाते हैं ।
क्लाइमेक्स पर यह लघुकथा हमें भी अपने अंदर झांकने को विवश करती है ।
‘हममें से कितने लोग राज़ को राज़ रख पाते हैं ‘
लाख बहानों के बाद भी इस प्रश्न का तोहफ़ा
लघुकथा “राज़” के हर पाठक की झोली में स्वतः ही आ टपकता है ।
प्राणजी की लेखनी की ही सामर्थ्य है कि शब्द और भाव ,
कथ्य एवम् शिल्प के बलबूते पर पाठक – श्रोता के मन – मस्तिष्क पर
अपनी गहरी छाप छोड़े बिना नहीं रहते ।
चाहे प्राण शर्मा जी की ग़ज़ल हो , कहानी हो , लघुकथा हो …
पाठक यदि सच में पाठक है ,
तो पठन – प्रक्रिया के दौरान स्वछंदता – उन्मुक्तता भूल कर मात्र समर्पण भाव ही कायम रख पाता है ।
प्राण शर्मा जी की लेखनी को शत शत नमन !
– राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
Sashakt srajan ki oonchaion ko choti laghukatahyein dasha aur disha darsha rahi hai
sadar…
priya bhai pran jee aapki dono kathaon ne mun ko chhu liya hai bahut gehra se aapni baat ko katha ke madhyam se prastut kiya hai,sundar ati sundar, badhai meri aur se sweekar karen
प्राण शर्मा जी की दोनों लघु कथाएं आज विलम्ब से पढ़ सका हूँ.शर्मा जी इसके लिए अवश्य क्षमा करेंगे.आप ने साधारण विषय लेकर अपने चिंतन और शिल्प से प्राण फूँक दिए हैं.सुभाष राय जी ने महाराज भ्रितिहरी का जो उदाहरण दिया है उसका स्मृति में आना तो ठीक है लेकिन वह त्रासदी है राज के प्रकटन में ,जब कि प्राण शर्मा जी के ‘राज’की विडंवना है कि उन्हें इतनी गंभीरता से नहीं लेनी चाहिए और यहीं पर इस लघुकथा को मजबूती मिलती है.दूसरी लघु कथा व्यवस्था पर करारa तमाचा है .प्राण शर्मा जी को सशक्तलघुकथाओं के लिए बधाई .महावीर शर्मा जी को धन्यवाद.
आपकी लघुकथाओं में से राज बेहद पसंद आई। इसमें जीवन का स्पंदन हे साथ ही मानव समाज के आगे बढ़ने का प्रेरणा भाव भी छिपा हुआ है। बधाई
अखिलेश् शुक्ल्
malissia
यू.के. से प्राण शर्मा की दो लघुकथाएं | मंथन