फ़हीम अख़्तर
जन्म:कोलकाता, भारत.
शिक्षा तथा संक्षिप्त जीवन चित्रण: १९८५ में मौलाना आज़ाद कॉलेज से बी.ए. (ऑनर्स) प्रथम श्रेणी में पास किया. १९८८ में कलकत्ता विश्विद्यालय से एम.ए. पास किया.
आप सी.पी.आई(एम) पार्टी के कार्यकर्त्ता की हैसियत से अनेक भाषण दिए. आपकी पहली कहानी १९८८ में ऑल इंडिया रेडियो से प्रसारित की गई थी. आपकी कहानिया दुनिया के विभिन्न देशों में छप चुकी हैं.
१९९३ में फ़हीम अख्तर इंगलैंड आगये और यहीं के होकर रह गए.
आजकल आप प्रशासकीय सेवा में रजिस्टर्ड सोशल वर्कर के रूप में रत हैं.
लाल कुर्सी
फ़हीम अख़्तर
लन्दन, यू.के.
जूली और उसके शौहर दोनों मार्केट में घूम रहे थे कि अचानक जूली कि नज़र उस कुर्सी पर पड़ी जो बेहद बड़ी और लाल कपड़ों में पूरी तरह ढकी हुई थी. जूली के आग्रह पर उसका शौहर उस कुर्सी को ख़रीदने को तैयार हो गया.
अब जूली का अधिकतर समय उस कुर्सी पर ही गुज़रता. चाहे टेलीविज़न देखना हो, किताब पढ़नी हो या फिर चाय पीनी हो. जूली कुर्सी पर इस तरह फ़िदा हो गई थी कि वो यह अक्सर भूल जाती कि उसका शौहर भी घर पर है और ज़िन्दा है. शौहर की मृत्यु के बाद जूली बिलकुल ही अकेली हो गई थी. सुब्ह उठती और नाश्ता वगैरह करके या तो बिंगो क्लब चली जाती या फिर घर के क़रीब चर्च से सटे क्लब में समय गुज़ारती. यही अब उसकी दिनचर्या थी.
आज जूली को पीठ में बहुत शदीद दर्द महसूस हुआ. डॉक्टर को दिखाने के बाद उसकी परेशानी में कुछ और भी बढ़ोतरी हो गई थी. डॉक्टर को शुब्हा था कि ये दर्द कोई मामूली दर्द नहीं बल्कि किसी जानलेवा मर्ज़ की भूमिका है. डॉक्टर ने जूली को मशवरा दिया कि वो अधिक जाँच-मुआइना के लिए अस्पताल में किसी विशेषज्ञ ससे संपर्क करे. डॉक्टर ने एक्सरे के बाद रिपोर्ट को पढ़ा और जुली को अम्बोधित करते हुए कहा “जूली मुझे दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि तुम्हारी रीढ़ की हड्डी में कैंसर है.”
जूली ने मुस्कुराते हुए पूछा, तो इसका इलाज क्या है?
डॉक्टर ने बताया, तुम्हें शायद ऑपरेशन कराना पड़े.
जूली और कोई सवाल किए बिना घर रवाना हो गई. घर पहुँच कर जूली रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गई.
कई हफ़्ते गुज़रने के बाद आज जूली से बिस्तर पर लेटा नहीं जा रहा था. उसका दर्द इतना तीव्र था कि उसका बिस्तर पर लेटना बहुत मुश्किल हो गया. चुनांचा आज उसने कुर्सी पर ही रात गुज़ारने की ठान ली.
सुबह हो चुकी थी जूली अभी तक कुर्सी पर नींद में गुम थी कि अचानक कूड़ा उठाने वाली लॉरी की आवाज़ और ख़ाकरोबों के शोर ने उसको गहरी नींद से जगा दिया. जूली ने दरवाज़ा खोलकर कूड़ा उठाने वाली लॉरी को गुज़रते हुए देखा और दरवाज़े से अपनी डाक उठाकर घर के अन्दर आ गई और दिनचर्या के मुताबिक हर रोज़ की तरह तैयार होकर सामने क्लब में दिन का समय गुज़ारने चली गई.
इस तरह कई दिन बीत गए. एक दिन जब जूली क्लब नहीं गई तो क्लब चलाने वाले पादरी ने जूली के एक क़रीबी दोस्त को फ़ोन करके जूली के बारे में पूछा कि जूली क्यों क्लब नहीं आती? तो उसने पादरी को बताया कि जूली कई रोज़ से उससे मिली ही नहीं है.
पादरी ने क्लब बन्द करने के बाद जूली के घर जाकर दरवाज़े पर दस्तक दी, काफ़ी देर दस्तक देने के बाद जूली की तरफ़ से कोई जवाब नहीं मिला तो पादरी को परेशानी और भी बढ़ गई.
आख़िर काफी देर के प्रतीक्षा करने के बाद परेशानी की स्थिति में पादरी ने पुलिस को फोन पर खबर दी.
कुछ ही क्षणों के बाद पुलिस की गाड़ी आ पहुंची. एक मर्द और एक औरत पुलिस अधिकारी गाड़ी से उतरे और दरवाज़े पर दस्तक दी. जब उन्हें भी कोई जवाब नहीं मिला तो उनहोंने एक भारी लोहे की सलाख से दरवाज़े को तोड़ दिया. इतनी देर पुलिस के घर में दाख़िल होते ही पादरी भी वहां आ गया और वो उनके साथ घर में दाख़िल हो गया.
जूली लाल कुर्सी पर बैठी सो रही थी. पुलिस वालों ने जूली को उठाने की कोशिश की मगर लाल कुर्सी का साथ नहीं छोड़ा. आज मौत के बेरहम हाथों में जूली का रिश्ता लाल कुर्सी से हमेशा-हमेशा के लिए तोड़ दिया था.
फ़हीम अख़्तर
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लाल कुर्सी लघु कथा बहुत बढ़िया लगी प्रस्तुति..के लिए आभार
…आभार.
रहस्यमयी रोचक लघुकथा…
लघु कथा का मूल तत्व तो आरंभ के दो पैराग्राफ़ में ही आ गया। मूल प्रश्न रिश्तों के संतुलन का है। काश जूली कुर्सी से बने रिश्ते में इतना न डूबती।
marmik ant.
जब से तेरी रोशनी आ रूह से मेरी मिली है ।
अपने अंदर ही मुझे सौ सौ दफा जन्नत दिखी है ॥
आस क्या है, ख्वाब क्या है, हर तमन्ना छोड़ दी,
जब से नन्ही बूंद उस गहरे समंदर से मिली है ।
प्रात बचपन, दिन जवानी, शाम बूढ़ी सज रही,
खुशनुमा हो हर घड़ी अब शाम भी ढ़लने लगी है ।
गम जुदाई का न करना, चार दिन की जिंदगी,
ठान ली जब मौत ने किसके कहने से टली है ।
गीत गाओ अब मिलन के, है खुशी की यह घड़ी,
यार अपनी सज के डोली अब तो रब के घर चली है ।
kavi kulwant
JANAAB FAHEEM AKHTAR KEE LAGHUKATHA ” LAAL KURSEE ”
MUN KO CHHOO GAYEE HAI.BADHAAEE.
Fahim sahab ki laghukatha bahut achchi hai dil ko choo gaee.
phahim jee ki yeh chhoti si katha ne mun ko gehre chhua hai jin isthitiyon se hum gehri judan mehsoos karte hain vh hame ta umra pichha karti hue alag tarah ki samvednaon se jod jaatin hain aur hum ooska pichha karte rehte hain lagaatar.