भारत से आचार्य संजीव ‘सलिल’ की दो लघुकथाएं

गाँधी और गाँधीवाद

आचार्य संजीव ‘सलिल’

बापू आम आदमी के प्रतिनिधि थे. जब तक हर भारतीय को कपड़ा न मिले, तब तक कपड़े न पहनने का संकल्प उनकी महानता का जीवत उदाहरण है. वे हमारे प्रेरणास्रोत हैं’ -नेताजी भाषण फटकारकर मंच से उतरकर अपनी मंहगी आयातित कार में बैठने लगे तो पत्रकारों ने उनसे कथनी-करनी में अन्तर का कारण पूछा.

नेताजी बोले

– ‘बापू पराधीन भारत के नेता थे. उनका अधनंगापन पराये शासन में देश की दुर्दशा दर्शाता था, हम स्वतंत्र भारत के नेता हैं. अपने देश के जीवनस्तर की समृद्धि तथा सरकार की सफलता दिखाने के लिए हमें यह ऐश्वर्य भरा जीवन जीना होता है. हमारी कोशिश तो यह है की हर जनप्रतिनिधि को अधिक से अधिक सुविधाएं दी जायें.’

‘ चाहे जन प्रतिनिधियों की सुविधाएं जुटाने में देश के जनगण क दीवाला निकल जाए. अभावों की आग में देश का जन सामान्य जलाता रहे मगर नेता नीरो की तरह बांसुरी बजाते ही रहेंगे- वह भी गाँधी जैसे आदर्श नेता की आड़ में.’ – एक युवा पत्रकार बोल पड़ा.

अगले दिन से उसे सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो गया.

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निपूती भली थी

आचार्य संजीव ‘सलिल’

बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली. अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया.

अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आंखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली. उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए, तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुंह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि

देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आयी.

उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूंदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सत्ता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे.

दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीड़ाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे. नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुंह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुंह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गा कर ख़ुद को धन्य मान रहा था.

अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता के मुँह से निकला-

‘ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी.

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7 Comments »

  1. दोनों कथाये बहुत उम्दा..

  2. आदरणीय आचार्य संजीव ‘सलिल’ जी की दोनों लघुकथाएं बहुत उम्दा..
    आभार..

  3. 3
    amar jyoti Says:

    सुन्दर कथायें।
    पर एक शंका है।
    “महात्मा जी” क्या महँगी आयातित कार में नहीं बैठते थे?

  4. आदरणीय आचार्य संजीव ‘सलिल’ जी की दोनों लघुकथाएं सटीक प्रहार हैं, आज की व्‍यवस्‍था पर, लेकिन दुर्भाग्‍य कि आप जागते हुए को जगा नहीं सकते।
    ईक भीड़ सी लगी है मिरे चार सू मगर
    गॉंधी के नाम को है तमाशा बना रही।

  5. 6
    Ranjana Says:

    गहरी चोट करती सटीक लघुकथाएं…
    आज गांधी आदर्श और अनुकरणीय नहीं रहे ,अपितु राजनीती की दूकान चलने के लिए साधन बनकर रह गए हैं…
    सचमुच भारत माता अपने इन कपूतों पर जार जार आंसू बहा रही हैं…

  6. 7
    ASHOK ANDREY Says:

    AACHARYA SALIL JEE KI DONO LAGHU KATHAEN SAMAJ MEN NAAE SIRE SE OOPJE KARNDHAARO KI JEEVAN SHAILI PAR GEHRA PRAHAAR KIYA HAI AAJ INN LOGON NE POORE SAMAJ KO ANDHE KAUON KI TARAPH DHAKEL DIYA HAI JAHAAN GHANDHI JAISE CHARITR GAON HO GAYE HAI UNKI SARTHAKTA KA OAUCHITYA GADBADAA GAYA HAI. TABHI TO KATHAA KE ANT ME NIPUTI REHNE JAISE SHABDO KA OOCHCHARAN KARNA PADAA BHARAT MAA KO . VAYANG SHAILEE ME LIKHEE YEH RACHNAA USS AUR SANKET KARTEE HAI JAHAAN SE ROSHNI KA AABHAS HO SAKTA HAI, SHART YEH KI HUM OOS AUR CHALEN BHEE TO.


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