“वक़्त वक़्त की बात”
प्राण शर्मा
सरिता अरोड़ा की देवेन्द्र साही से जान-पहचान कालेज के दिनों से ही है. कभी दोनों में एक-दूसरे के प्रति प्यार भी जागा था. आज देवेन्द्र साही का फिल्म उद्योग में अच्छा-खासा नाम है. फिल्म उद्योग उसके काम को अच्छी नज़र से देखता है. उसने एक नहीं, तीन-तीन हिट फ़िल्में दी हैं. उसकी फ़िल्में साफ़-सुथरी होती हैं.
सरिता अरोड़ा के के मन में इच्छा जागी कि क्यों न वो अपनी रूपवती बेटी अरुणा अरोड़ा को हीरोइन बनाने की बात देवेन्द्र साही से कहे. मन में इच्छा जागते ही उसने मुम्बई का टिकेट लिया और जा पहुँची अपने पुराने मित्र के पास.
देवेन्द्र साही सरिता अरोड़ा के मन की बात सुनकर बोला, “देखो सरिता, ये फिल्म जगत है. इसके रंग-ढंग बड़े निराले हैं. देखो -सुनोगी तो तुम दांतों तले अपनी उँगलियाँ दबा लोगी. हर हीरोइन को अपने तन पर पारदर्शी कपड़े पहनने पड़ते हैं. कभी-कभी तो उसे निर्वस्त्र भी —– “.
“तो क्या हुआ? हम सभी कौन से वस्त्र पहनकर पैदा हुए थे? सभी इस संसार में निर्वस्त्र ही तो आते है—— ”
सरिता अरोड़ा अपनी बात कहे जा रही थी और देवेन्द्र साही मुँह पर हाथ रखे सोचे जा रहा था कि क्या ये वही सरिता अरोड़ा है जो अपने तन को पूरी तरह ढक कर कालेज आया करती थी.
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“आपका क्या जाता है?”
प्राण शर्मा
मेरे मोहल्ले में तीन ऐसे मियां-बीवी के जोड़े हैं जो अपने-अपने कारनामों यानि विचारों की अभिन्नता के लिए मोहल्ले के अन्य मियां-बीवी के जोड़ों में खूब जाने जाते हैं.
मियां-बीवी का पहला जोड़ा है धनीराम जी और लक्ष्मी देवी का. इस जोड़े के जीवन का एक ही मक़सद है धन कमाना और जोड़ते ही रहना. यह जोड़ा कमाता तो बहुत है लेकिन खर्च कम करता है. खर्च करने के मामले में वह जोड़ा चमड़ी जाए, दमड़ी नहीं जाए की उक्ति को पूरी तरह चरितार्थ करता है.
एक दिन मैंने धनीराम जी से पूछ ही लिया “सुना है कि आप मियां बीवी कमाते तो बहुत हैं लेकिन खर्च कम करते हैं?”
मेरा प्रश्न सुनते ही धनीराम जी उत्तर में बोले- “हजूर, आपने सत्य सुना है. हम बुढापे के लिए जोड़ते हैं. हम भी आपसे एक बात पूछते हैं. हम अगर कम खर्च करते हैं और ज्यादा जोड़ते हैं तो आपका क्या जाता है? “
दूसरा जोड़ा है सुखीराम और आनंदी का. जैसा नाम वैसा काम. दोनों सुख और आनंद में खाते–पीते और जीते हैं. जितना कमाते हैं उतना उड़ाते हैं. छुट्टियों में में कहीं न कहीं सैर-सपाटे को निकल जाते हैं. उनका भव्य मकान और नयी-नकोर कार को देखकर कोई जलता है और कोई हाथ मलता है.
एक दिन मैंने सुखीराम जी से पूछ ही लिया- “सभी आपके अच्छे रहन-सहन से जलते हैं. ये देख-सुनकर क्या आप दुखी नहीं होते हैं?”
मेरा प्रश्न सुनते ही सुखीराम जी उत्तर में बोले – ” नहीं, बिलकुल नहीं. लोगों के जलने और हाथ मलने से हम दुखी क्यों हों? इतनी फुर्सत ही कहाँ हैं हमें. लेकिन एक बात आपसे पूछते हैं हम – “हमारा रहन -सहन अच्छा है तो आपका क्या जाता है?”
तीसरा जोड़ा है भोलेराम और सुशीला का. मोहल्ले भर में सबसे ज्यादा चर्चित जोड़ा. शादी से लेकर अब तक यानि बारह सालों में दोनों ने मिलकर ग्यारह बच्चों की कतार लगा दी है. बारहवां बच्चा भी कतार में लगने वाला है इस साल के मध्य में. अड़ोसी- पड़ोसी सभी ने दाँतों तले उँगलियाँ दबा रखी हैं.
एक दिन भोले राम जी से मैंने आश्चर्य में पूछ ही लिया- “किस चक्की का आटा खाते हैं आप ? इतने बच्चे, राम दुहाई ?”
मेरा प्रश्न सुनते ही भोले राम जी उत्तर में बोले – ” हम तो उसी चक्की का आटा खाते हैं जिस चक्की का आटा आप खाते हैं. कैसी राम दुहाई, अपना तो यही है मनोरंजन भाई. लेकिन एक बात आपसे हम पूछते हैं -“अगर हमारे ढेर सारे बच्चे हैं तो आपका क्या जाता है ?
प्राण शर्मा
बहुत सटीक…दोनों लघु कथाओं का अपना निहित संदेश है.
बात जब पैसे की..प्रसिद्धि की आती है तो सारे आदर्श धरे के धरे रह जाते हैं ….
सुन्दर लघु कथाएँ …
वक़्त विचारों को यूँ तोड़ देता है या दबी लालसा होती है………..इस लघुकथा ने अन्दर की चाह को बखूबी उतारा है
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दूसरी लघुकथा भी अपनी एक अद्भुत छाप छोडती है,
आपके लेखन में सहजता,सरलता और गहनता का समावेश होता है
आदरणीय भाई साहिब की पहली रचना बिलकुल आज के संदर्भे मे है आज कल लोग सस्ती पहचान और पैसे के लिये किस हद तक चले जाते हैं ये सरिता अरोडा जी के चरित्र से साफ झलकता है। आज कल टी वी चैनलों पर और फिल्मों मे जो होरहा है उसका सही चित्रण किया है। बात जब पैसे की हो तो सब अपनी मान्यतायें त्याग देते हैं। दूसरी कहानी भी समाज के विभिन चेहरों की है। दुनिया मे सभी तरह के लोग हैं मगर जो सुखी राम जी की तरह रहते हैं वही सफल हैं क्या करना है धन जोड कर जब उसका सुख ही न भोगा और बच्चों को रोटी दे सकें य न मगर फौज इकट्ठी कर लेते हैं शायद उन्हें सही जिन्दगी के मायने ही पता नही होते। बहुत अच्छी लगी कहानियां। समाज से जुडी और आस पास बिखरी हुयी। भाई साहिब को बधाई और आपका धन्यवाद्
महावीर जी आपके प्रति मैं आभार प्रगट करता हूँ आपके माध्यम से हमें प्राण शर्मा साहब की बेजोड़ लघु कथाएं समय समय पर पढने को जो मिल जाती हैं. हमेशा की तरह प्राण साहब अपनी इन दो लघु कथाओं के माध्यम से मानव मन की अनछुई परतों को सब के सामने रख देते हैं…अपने स्वार्थ के लिए अपनी सोच को बदलने की हमारी प्रवृति उनकी पहली लघु कथा में साफ़ झलकती है तो वहीँ दूसरी लघु कथा में जीवन के तीन अलग अलग अंदाज़ दिलचस्प ढंग से प्रस्तुत करती है…हम में से अधिकाँश इन में से ही किसी एक जीवन शैली से जुड़े हुए हैं…प्राण साहब की शशक्त कलम का सहारा पा कर ये कहानियां जीवन का जीवंत दस्तावेज़ हैं…वाह.
नीरज
श्रद्धेय प्राण शर्मा जी, आदाब
समाज का सच पेश किया है आपने…आधुनिकता के नाम पर संस्कारों को तिलांजलि दे चुके हैं ऐसे लोग.. वक्त वक्त की बात है..!!
अपनी मर्ज़ी से चल रहे…और चलना चाहते हैं लोग.
…..सर चलिये…चलने दीजिये….हमारा क्या जाता है.
महावीर जी,
आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा| प्राण शर्मा जी की लघुकथाएं पढ़ीं | अच्छी लगीं तो नीचे भी गई और सुकेश सहनी जी और हिमांशु जी को भी पढ़ डाला | सभी उम्दा रचनायें हैं| आपके ब्लॉग के इन सभी लेखकों को बधाई !
इला
Adarniya Mahavir ji
Pran ji ki dono hi laghukathon mein jevantata aura kathatmakata hai. Dono ki sarthakata spasht hai. Pran ji mein ek achha kathakar baitha hai. Abhi tak unaki 2 kahaniyan hi padhi hain … aap unase kahaniyan likhavayen.
Chandel
दोनों लघुकथाओं में कथानक विषय अलग होते हुए भी परस्पर संबद्ध है कि हर व्यक्ति अपनी चाह के अनुरूप तर्क तलाश लेता है और उस तर्क से जनित सोच के आस-पास उसी स्वरूप के और तर्क एकत्रित कर उसे पुष्ट करता रहता है और इतना पुष्ट कर लेता है कि वह उसकी जीवन-शैली का अंग बन जाती है।
वस्तुत: इस सृष्टि में ग़लत सही की परिभाषा परिस्थिति के अनुरूप बदलती रहती है जो परिस्थिति चैतन्य से प्रभावित होती है।
दो अच्छी लघुकथाओं के लिये बधाई।
संक्षिप्त कलेवर में गहन सन्देश देती सुन्दर लघुकथाएं….
बदलते परिवेश में आए हुवे बदलाव को बाखूबी उतारा है इस पहली कहानी में …. बहुत उम्दा …
dono hi kahaniyan soch ke antar ko batati hai
soch kuch samay ke saath badalti hai, kuch logon ke saath ….
आ. प्राण भाई साहब की कथा ऐसी जीवंत लगतीं हैं जैसे आप हर पात्र को आपकी नज़रों के सामने पाते हुए
उनके हाव भाव , बोल चाल तक को देख पाते हैं – ये एक सशक्त रचनाकार ही कर सकता है – ईश्वर उनके लेखन को
यूं ही बनाए रखें ये विनम्र प्रार्थना है –
आ. महावीर जी आप दोनों को मेरी शुभकामनाएं
सविनय
– लावण्या
प्राण साहब को सादर प्रणाम। दोनों लघु कथाओं में एक निहित संदेश है। बहुत सहजता से सारी बातें कहीं गयीं हैं। सबसे सुन्दर बात मुझे यह लगी कि दोनो कथाओं में लगता है कि पात्र जीवित हो उठे हैं। यही लेखन शैली प्राण शर्मा जी को अलग पहचान देती है।
महावीर जी भी बधाई के पात्र हैं जिनकी कोशिश से यह सुन्दर रचना पढ़ पाये हैं।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
Pran ji ki Laghukathaon mein soch har uljhan ko suljha rahi hai.
Pahli mein aaj ke parivesh ke modern soch ka pardarshi chitra dekha gaya.. Doosri laghukatha samvadon se bahut rochak aur arthpoorn lagi. Is Manch par aakar kuch n kuch naya seekhne ko milta hai.
sadar
Devi nangrani
भाई महावीर जी
नमस्ते ।
प्राण शर्मा जी की दोनों लघुकथाएँ पढ़ीं । उन्होंने मानवीय आचरण पर अच्छी चुटकी ली है ।
samay ke saath aadmii kaise apne ko badal letaa hei yeh in dono laghu kathaon me dekhaa jaa saktaa hei priya bhai pran jee ne bhee inka varnan bahut sundar dhang se kiya hei. meri aur se unhen itnii achchhi laghu kathaon ke liye badhai
बदलती दुनिया
बदले रिवाज़
बदलते मूल्य ..
कुछ दिन नेट खराब रहा और कुछ दिन शहर से बाहर रही और आज ही आप के ब्लाग पर आई हूँ .. प्राण भाई साहब की लघु कथाएँ तो हमेशा ही झकझोरती हैं…सुकेश जी और कम्बोज जी की लघु कथाओं ने आँखें नम कर दीं…
aadarniy pran ji ,
sabse pahle to deri se aane ke liye maafi chahunga.
aapki kahaniyo me hamesha hi ek saar aur sandesh nihit hota hai … dono kahaniya aaj ke waqt ke aayine ko sahi tareeke se darshaati hai … pahli kahani ek visphotak aur badalte samaaj ki soch ka aayina hai , aur dusari kahani is baat ki pushti karti hai ki khushi ke maayne aur kuch hote hai …aur unhe jeene ke tareeke bhi …
aapka sneh aur aadar banaye rakhe ..
aapka
vijay
परम श्रद्धेय श्री महावीर शर्मा जी का बहुत बहुत आभार कि उनका आशीर्वाद आखर कलश को मिला और श्रद्धेय श्री प्राण शर्मा जी की गजलें भी प्रकाशित करने का सौभाग्य मिला। आप ही के प्रोत्साहन और आशीर्वाद से हमारे हिन्दी साहित्य की सेवा करने का हौसला और बुलन्द हुआ।
एक बार पुनः श्रद्धेय श्री महावीर जी और श्री प्राण शर्मा जी का बहुत बहुत आभार।
आज हमें श्री प्राण शर्माजी की लघुकथाएँ पढने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। दोनों ही लघुकथाएँ श्री प्राण शर्मा जी की लेखनी से जीवंत हो उठी है और खास कर प्रथम लघुकथा आज के बदलते हुए दौर में अपने निजी स्वार्थ की पूर्ती हेतु गिरते हुए नैतिक पतन को दर्शाती है। और दूसरी लघुकथा पढने पर ऐसा लगा मानो ये हमारे आस-पास की ही घटनाएँ है और आज के समाज की विभिन्न जीवन शैलियों को चित्रित करती हई यथार्थ प्रतीत होती है। और सबसे खास बात ये, कि श्री प्राण शर्मा जी की ये ’’गागर में सागर’’ सी प्रतीत होती लघुकथाएँ ऐसी हैं, जैसे ये हर व्यक्ति के आसपास के समाज से निकल कर श्री प्राण शर्मा जी की लेखनी का सहारा लेकर हमारे बीच आज पठनीय हो गई है।
धन्य हो गए श्री प्राण शर्मा जी की ये कथाएँ पढकर। आप श्री का बहुत बहुत आभार।।
samamniya pran saab,
sadar
sir, aap kilaghukathe ”’ waqt waqr ki baat hai”” muje zayada pasand aaye.. insan kathani or karni me fark karna bhol gaya hai. ya ye kahe ki kahta kuch hai karta kuch hai, zuban ka dhani nahi rraha, sadhu wad aap ko ek aaj je yatharth ki katha padhe ko mile. aabhar
regaridng aap ki 2nd katha ka bhi prastutikaran accha tha, bhavishay me bhi aap ki sunder rachaon ki pratksha hai,
aabhar
बहुत-बहुत शुक्रिया महावीर जी। प्राण साब की दोनों लघुकथायें पढ़ तो मैंने पहले ही ली थी, किंतु उस वक्त कुछ लिख नहीं पाया था।
दोनों कथायें बहुत सशक्त बन पड़ी हैं। प्राण साब का समस्त विधाओं पे पकड़ हैरान करता है।