![]() जन्म : 5 सितम्बर, 1956(लखनऊ) शिक्षा : एम.एस-सी. (जियोलॉजी), डीआईआईटी (एप्लाइड हाइड्रोलॉजी) मुम्बई से। कृतियां : डरे हुए लोग, ठण्डी रजाई (लघुकथा-संग्रह), मैग्मा और अन्य कहानियां, (कहानी-संग्रह), अक्ल बड़ी या भैंस (बालकथा-संग्रह), लघुकथा संग्रह पंजाबी,गुजराती,मराठी एवं अंग्रेजी में भी उपलब्ध। मैग्मा कहानी सहित अनेक लघुकथाएँ, जर्मन भाषा में अनूदित। अनेक रचनाएँ पाठयक्रम में शामिल `रोशनी´ कहानी पर दूरदर्शन के लिए टेलीफिल्म। अनुवाद : खलील जिब्रान की लघुकथाएँ, पागल एवं अन्य लघुकथाएँ, विश्व प्रसिद्ध लेखकों की चर्चित कहानियाँ। सम्पादन : हिन्दी लघुकथा की पहली वेब साइट http://www.laghukatha.com का वर्ष 2000 से सम्पादन। आयोजन, महानगर की लघुकथाएँ, स्त्री-पुरुष संबंधों की लघुकथाएँ, देह व्यापार की लघुकथाएँ, बीसवीं सदी : प्रतिनिधि लघुकथाएँ, समकालीन भारतीय लघुकथाएँ, बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ । सम्मान : डॉ.परमेश्वर गोयल लघुकथा सम्मान 1994,माता शरबती देवी पुरस्कार 1996, डॉ. मुरली मनोहर हिन्दी साहित्यिक सम्मान 1998, बरेली कालेज, बरेली-स्वर्ण जयन्ती सम्मान 1998, माधवराव सप्रे सम्मान 2008 । सम्प्रति : भूगर्भ जल विभाग में हाइड्रोलॉजिस्ट। |
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दीमक
सुकेश साहनी
“किसन !—” बड़े साहब ने चपरासी को घूरते हुए पूछा, “तुम मेरे कक्ष से क्या चुराकर ले जा रहे थे?”
“ कुछ नहीं साहब।”
“झूठ मत बको!—” बड़े साहब चिल्लाए, “चौकीदार ने मुझे रिपोर्ट किया है, तुम डिब्बे में कुछ छिपाकर ले जा रहे थे—क्या था उसमें? सच-सच बता दो नहीं तो मैं पुलिस में तुम्हारे खिलाफ—”
“नहीं—नहीं साहब! आप मुझे गलत समझ रहे हैं—” किसन गिड़गिड़ाया, “मैं आपको सब कुछ सच-सच बताता हूँ—मेरे घर के पास सड़क विभाग के बड़े बाबू रहते हैं, उनको दीमक की जरूरत थी, आपके कक्ष में बहुत बड़े हिस्से में दीमक लगी हुई है । बस—उसी से थोड़ी-सी दीमक मैं बड़े बाबू के लिए ले गया था। इकलौते बेटे की कसम !—मैं सच कह रहा हूँ ।”
“बड़े बाबू को दीमक की क्या जरूरत पड़ गई !” बड़े साहब हैरान थे।
“मैंने पूछा नहीं,” अगर आप कहें तो मैं पूछ आता हूँ ।”
“नहीं—नहीं,” मैंने वैसे ही पूछा, “—अब तुम जाओ।” बड़े साहब दीवार में लगी दीमक की टेढ़ी-मेढ़ी लंबी लाइन की ओर देखते हुए गहरी सोच में पड़ गए।
“मिस्टर रमन!” बड़े साहब मीठी नज़रों से दीवार में लगी दीमक की ओर देख रहे थे, “आप अपने कक्ष का भी निरीक्षण कीजिए, वहां भी दीमक ज़रूर लगी होगी, यदि न लगी हो तो आप मुझे बताइए, मैं यहाँ से आपके केबिन में ट्रांसफर करा दूँगा। आप अपने खास आदमियों को इसकी देख-रेख में लगा दीजिए, इसे पलने-बढ़ने दीजिए । आवश्यकता से अधिक हो जाए तो काँच की बोतलों में इकट्ठा कीजिए, जब कभी हम ट्रांसफर होकर दूसरे दफ्तरों में जाएँगे, वहाँ भी इसकी ज़ररूरत पड़ेगी।”
“ठीक है, सर! ऐसा ही होगा—” छोटे साहब बोले। “देखिए—” बड़े साहब का स्वर धीमा हो गया-“हमारे पीरियड के जितने भी नंबर दो के वर्क-आर्डर हैं, उनसे सम्बंधित सारे कागज़ात रिकार्ड रूम में रखवाकर वहाँ दीमक का छिड़काव करवा दीजिए—न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।”
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विजेता
सुकेश साहनी
“बाबा, खेलो न!”
“दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँ तुम्हें ढूँढ रही होगी।”
“माँ को पता है- मैं तुम्हारे पास हूँ । वो बिल्कुल परेशान नहीं होगी। पकड़म-पकड़ाई ही खेल लो न !”
“बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है ।”
“मुझे नहीं खेलना उनके साथ । वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते ।” अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला, “मेरा खाना तो माँ बनाती है , तुम्हारी माँ कहाँ है?”
“मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गयी थी।” नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कराकर कहा ।
“बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नज़दीक आकर उसका झुर्रियों भरा चेहरा अपने नन्हें हाथों में भर लिया,” अब तुम्हें अपना खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं, मै माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!”
“दोस्त!” बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, “अपना काम खुद ही करना चाहिए—और फिर—अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ—है न !”
“और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।”
“तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगें ।” बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा । बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।
कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गये। बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पटटी बाँधने लगा ।
पटटी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया- मोतियाबिन्द के आपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिल्कुल खत्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेजी से क्षीण होती जा रही थी।
“बाबा,पकड़ो—पकड़ो!” बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था।
उसने बच्चे को हाथ पकड़ने के लिए हाथ फैलाए तो एक विचार उसके मस्तिक में कौंधा- जब दूसरी आँख से भी अंधा हो जाएगा—तब?—तब?—वह—क्या करेगा?—किसके पास रहेगा?—बेटों के पास? नहीं—नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया—हर बार अपमानित होकर लौटा है—तो फिर?—
“मैं यहाँ हूँ—मुझे पकड़ो!”
उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से कदम बढ़ाए—हाथ से टटोलकर देखा—मेज—उस पर रखा गिलास—पानी का जग—यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई—और –और—यह रहा बिजली का स्विच—लेकिन —तब—मुझ अंधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी?—होगी—तब भी रोशनी की ज़रुरत होगी—अपने लिए नहीं—दूसरों के लिए—मैंने कर लिया—मैं तब भी अपना काम खुद कर लूँगा!”
“बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए—तुम हार गए—तुम हार गए!” बच्चा तालियाँ पीट रहा था।
बूढ़े की घनी सफेद दाढ़ी के बीच होंठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी।
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आगामी अंक:
बुद्धवार, 17 फरवरी 2010
यू.के. से प्राण शर्मा
की दो लघुकथाएं
दोनों कहानियाँ बहुत उम्दा..दूसरी कथा भावुक कर गई.
SUKESH SAHNI KEE KATHAAYEN PADHKAR BAHUT ACHCHHA LAGAA
HAI.KATHAAYEN MASTISHK KO HEE NAHIN MUN KO BHEE CHHOOTEE
HAIN.BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA.
सुकेश aसाहनी जी को पड़ना एक सुखद अनुभव ही है. उनकी खलील की अनुवादित ल.क.मैंने पड़ी है. विजेता मर्मस्पर्शी , जीवन की एक सच्चाई से रो-बी-रू कराती हुई अभिव्यक्ति है. बहुत सुंदर स्वरुप से शब्दों में बुनी गई है.
साहनी जी की लघुकथाएँ जीवन की व्यापक संवेदना समेटे हुए हैं ।विषयवस्तु का वैविध्य और शिल्प की तराश इन लघुकथाओं का सौन्दर्य है।
पहली कथा एक दु:खद व्यवस्था का नग्न सत्य है। यह आज़ादी क्या हमने इसीलिये पाई थी कि राय बहादुरों और राय साहबों की एक नयी नस्ल पैदा हो जाये जो अपने ही घर को खोखला करने में व्यस्त रहे।
वर्ष 1992 में एक पुस्तक पढ़ी थी ‘प्लानिंग फॉर द मिलियन्स’, उसमें एक बात ऐसी थी जो पूरी पुस्तक पर भारी पड़ गयी। लेखक ने बड़े सपाट शब्दों में इस देश का दुर्भाग्य बताया कि इस देश में जनसेवक, जनता को अपना सेवक समझता है। बस इतनी सी बात समझ ली जाये तो काफी बड़ा बदलाव आ सकता है। कितने प्रयत्नों के बाद कोई शासकीय सेवा का अवसर पाता है, और फिर उस सेवा की गरिमा को निहित स्वार्थों के लिये मिटा देता है? इस देश को दीमक ने नहीं, दीमक की मानसिकता लिये लोगों ने चोट पहुँचाई है।
दूसरी लघुकथा सकारात्मक सोच का एक ऐसा उदाहरण है जो आयुवर्ग की सीमाओं से उपर है।
दो अच्छी लघुकथाओं के लिये सुकेश जी और आपको बधाई।
श्रद्धेय महावीर जी, सादर प्रणाम
श्री सुकेश साहनी जी की दोनों कहानी अच्छी लगी
विजेता में जो भाव है, वो बेहद भावुक कर गया.
हालात भी इंसान को अपने मुताबिक ढाल ही लेते हैं.
शरीर के रोम रोम में सिहरन पैदा करती….
क्या इसी देश में रहते थे कभी राम और श्रवण
हर तरफ क्यों नजर आते हैं मुझे वृद्ध आश्रम…
जो लेखक अपने समय को अपनी रचनाओं में व्यक्त करने की क्षमता रखता है, सुकेश साहनी उनमें से एक हैं। आपको साधुवाद।
(ई मेल द्वारा)
laghukathyeN praharak hain
badhaee
Dr. Prem Janmejai
Sukesh jee ki dono laghu kathaon ne gehra prabhav chhoda hei vakei aaj ek taraph aadmi apne samay se haar rahaa hei to doosri taraph aadmi deemak ban kar chat kar rahaa hei jeevan mulyon ko, ati sundar rachnaon ke liye mai unhen badhai detaa hoon
लघुकथा में छिपा सत्य कितना बड़ा है…
sukeh ji , har laghu katha mujhe acchi lagti hai, cha he e-patrika ho ya print magzine ho. main dikhte hi sukesh ji ki lekhani zarur padhe ka prayas karta hoo.
aakbhar
सुकेश जी की लघु कथाओं के बारे मे क्या कहूँ निशब्द हूँ चन्द शब्दों मे इतनी गहरी बात कहना इनकी लघु कथा की विशेश्ता और मानवीय संवेदनाओं को दूसरी कहानी मे समेटा है काबिले तारीफ है पहली कहानी मे व्यवस्था की दयनीय दशा का बोध होता है
बहुत अच्छी लघुअकथायें हैं सुकेश जी को बधाई
दोनों लघु कथाएँ ……रोचक पूर्ण है ………पढ़ के अच्छा लगा .
पहली कहानी कटु सत्य को उजाकर करती है तो दूसरी व्यथित कर देती है…
सुकेश जी आज लघुकथा के बड़े हस्ताक्षर के रूप में यदि जाने, माने और पहचाने जाते हैं तो ऐसी ही उत्कृष्ट और धारधार रचनाओं के कारण।