![]() जन्म : 19 मार्च,1949 शिक्षा : एम ए-हिन्दी (मेरठ विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में) ,बी एड प्रकाशित रचनाएँ : ‘माटी, पानी और हवा’, ‘अंजुरी भर आसीस’, ‘कुकडूँ कूँ’, ‘हुआ सवेरा’ (कविता संग्रह), ‘धरती के आँसू’,’दीपा’,’दूसरा सवेरा’ (लघु उपन्यास), ‘असभ्य नगर'(लघुकथा “संग्रह),खूँटी पर टँगी आत्मा( व्यंग्य –संग्रह) , भाषा -चन्दिका (व्याकरण ) ,अनेक संकलनों में लघुकथाएँ संकलित तथा गुजराती, पंजाबी, उर्दू एवं नेपाली में अनूदित। सम्पादन : आयोजन ,नैतिक कथाएँ(पाँच भाग), भाषा-मंजरी (आठ भाग)बालमनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ एवं http://www.laghukatha.com (लघुकथा की एकमात्र वेब साइट), http://patang-ki-udan.blogspot.com/ (बच्चों के लिए ब्लॉगर) वेब साइट पर प्रकाशन : रचनाकार ,अनुभूति, अभिव्यक्ति,हिन्दी नेस्ट,साहित्य कुंज ,लेखनी,इर्द-गिर्द ,इन्द्र धनुष ,उदन्ती ,कर्मभूमि आदि । प्रसारण : आकाशवाणी गुवाहाटी ,रामपुर, नज़ीबाबाद ,अम्बिकापुर एवं जबलपुर से । निर्देशन : केन्द्रीय विद्यालय संगठन में हिन्दी कार्य शालाओं में विभिन्न स्तरों पर संसाधक(छह बार) ,निदेशक (छह बार) एवं : केन्द्रीय विद्यालय संगठन के ओरियण्टेशन के फ़ैकल्टी मेम्बर के रूप में कार्य सेवा : 7 वर्षों तक उत्तरप्रदेश के विद्यालयों तथा 32 वर्षों तक केन्द्रीय विद्यालय संगठन में कार्य । केन्द्रीय विद्यालय के प्राचार्य पद से सेवा निवृत्त |
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धर्म-निरपेक्ष
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
शहर में दंगा हो गया था। घर जलाए जा रहे थे। छोटे बच्चों को भालों की नोकों पर उछाला जा रहा था। वे दोनों चौराहे पर निकल आए। आज से पहले उन्होंने एक-दूसरे को देखा न था। उनकी आँखों में खून उतर आया। उनके धर्म अलग-अलग थे। – पहले ने दूसरे को मां की गाली दी, दूसरे ने पहले को बहिन की गाली देकर धमकाया। दोनों ने अपने-अपने छुरे निकाल लिए। हड्डी को चिचोड़ता पास में खड़ा हुआ कुत्ता गुर्रा उठा। वे दोनों एक-दूसरे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। हड्डी छोड़कर कुत्ता उनकी ओर देखने लगा।
उन्होंने हाथ तौलकर एक-दूसरे पर छुरे का वार किया। दोनों छटापटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। जमीन खून से भीग गई।
कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी-बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और फिर सूखी हड्डी चबाने में लग गया।
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लघुकथा
खुशबू
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
दोनों भाइयों को पढ़ाने-लिखाने में उसकी उम्र के खुशनुमा साल चुपचाप बीत गए। तीस वर्ष की हो गई शाहीन इस तरह से। दोनों भाई नौकरी पाकर अलग-अलग शहरों में जा बसे।
अब घर में बूढ़ी माँ है और जवानी के पड़ाव को पीछे छोड़ने को मजबूर वह।
खूबसूरत चेहरे पर सिलवटें पड़ने लगीं। कनपटी के पास कुछ सफेद बाल भी झलकने लगे। आईने में चेहरा देखते ही शाहीन के मन में एक हूक-सी उठी-‘कितनी अकेली हो गई है मेरी जिन्दगी! किस बीहड़ में खो गए मिठास-भरे सपने?’
भाइयों की चिट्ठियाँ कभी-कभार ही आती हैं। दोनों अपनी गृहस्थी में ही डूबे रहते हैं। उदासी की हालत में वह पत्र-व्यवहार बंद कर चुकी है। सोचते-सोचते शाहीन उद्वेलित हो उठी। आँखों में आँसू भर आए। आज स्कूल जाने का भी मन नहीं था। घर में भी रहे तो माँ की हाय-तौबा कहाँ तक सुने?
उसने आँखें पोंछीं और रिक्शा से उतरकर अपने शरीर को ठेलते हुए गेट की तरफ कदम बढ़ाए। पहली घंटी बज चुकी थी। तभी ‘दीदीजी-दीदीजी’ की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ।
“दीदीजी, यह फूल मैं आपके लिए लाई हूँ।” दूसरी कक्षा की एक लड़की हाथ में गुलाब का फूल लिए उसकी तरफ बढ़ी।
शाहीन की दृष्टि उसके चेहरे पर गई। वह मंद-मंद मुस्करा रही थी। उसने गुलाब का फूल शाहीन की तरफ बढ़ा दिया। शाहीन ने गुलाब का फूल उसके हाथ से लेकर उसके गाल थपथपा दिए।
गुलाब की खुशबू उसके नथुनों में समाती जा रही थी। वह स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रही थी। उसने रजिस्टर उठाया और उपस्थिति लेने के लिए गुनगुनाती हुई कक्षा की तरफ तेजी से बढ़ गई।
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आगामी अंक:
बुद्धवार,१० फरवरी २०१०
भारत से सुकेश साहनी
की दो लघुकथाएं
दोनों ही कथायें बहुत उम्दा हैं. अच्छा लगा पढ़कर.
दोनों ही कहानियों में काम्बोज जी ने यद्यपि दोहराये गये कथानक को लिया है लेकिन उसका नये तरीके से निर्वाहन करने के कारण वे सफल रहे हैं ।
पहली कहानी ने मन व्यथित किया , जानवर भी इंसान से समझदार होता है.
regards
बौद्धिक क्षमता और उसके उपयोग की समझ का अंतर ही है जो ऐसी स्थितियॉं पैदा कर सकता है कि हम जानवर को इंसान से अधिक समझदार मान सकें। जानवर की समझ केन्द्रित होती है उद्देश्य पर और मनुष्य की सोच पर। कुत्ते के लिये गिरे पड़े इंसान मात्र एक ऐसी वस्तु हैं जिनपर अपना पहचान चिह्न छोड़ना कुत्ते का स्पष्ट उद्देश्य होता है हक़ जताने का, उसे अंतर नहीं पड़ता कि वह खम्बा है या इंसान। कथानक पटल पर जो स्थितियॉं उसमें हर व्यक्ति की प्रतिक्रिया उसकी सोच के आधार पर अलग होगी। पात्र इंसान की प्रवृति और उसका परिणाम शायद कुछ समझ पैदा कर सके।
दूसरी लघुकथा एक और उदाहरण है सोच का। एक औसत आदमी वही देखता और समझता है जो वह देखना या समझना चाहता है। हॉं कुछ लोग ध्यान दिलाने पर वह भी देख और समझ पाते हैं जो उन्हें पहले नहीं दिख रहा होता। सफल जीवन के लिये सोच के सकारात्मक पक्ष को सुदृढ़ करना आवश्यक होता है।
Laghu kalewar me bhi deergh prabhaav chhodne walee hain dono hi kathayen….
Bada sukhkar laga padhna…aabhar.
HIMAANSHU KEE DONO LAGHUKATHAYEN MARMSPARSHEE HAIN.
BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA
हिमांशु जी की पहली लघुकथा “धर्म-निरपेक्ष” बहुत कमाल की लघुकथा है। दूसरी लघुकथा भी पाठक को भीतर तक संवेदित कर जाती है। हिमांशु जी हिंदी के एक सिद्धहस्त लघुकथाकार हैं। उनकी लघुकथाओं में एक बात होती है जो पाठक के जेहन पर असर किये बिना नहीं रहती। मुझे उनकी लघुकथाएं इसीलिए पसंद हैं।
पहली कहानी मे कितना अच्छा सन्देश दिया है सहीाज का इन्सान जानवर से भी ग्या गुजरा हो गया है और दूसरी कहानी भी बहुत अच्छी लगी जीवन की सकारात्मक सोच से हम जीवन को सुखमय बना सकते हैं वर्ना दुनिया तो मतलव की है । हिमाँशू जी को बहुत बहुत बधाई
हिमांशु जी हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठ लघुकथाकार हैं. दोनों लघुकथाएं उल्लेखनीय हैं. मंथन और हिमांशु जी इन्हें पढ़वाने के लिए आभार.
चन्देल
‘धर्म-निरपेक्ष’ व्याख्या की व्यापक संभावनाओं वाली लघुकथा है। मानवेतर पात्र होने के बावजूद कुत्ता ही इस लघुकथा का नायक है। ‘खुशबू’ एक ओर निजी संबंधों में व्याप चुकी स्वार्थपरता की ओर हमारा ध्यान खींचती है तो दूसरी ओर हताशा और निराशा की स्थितियों के बीच से फूटती खुशबू को भी हमारी घ्राणेन्द्रियों तक पहुँचाती है। अच्छी लघुकथाओं के चयन हेतु आपको बधाई।
Rameshwar jee ki dono laghu kathaen padin.unki pehli kathaa ne to jhakjhor diya mun ko manushya dharm ke naam par kitna gir kar pashutaa jaisaa vyavhaar karne lagtaa hei. doosree katha ne aadmee ki sarthak soch ko hii palvit kiya hei mai unhen badhai deta hoon itnee achchhi laghukathaon ke liye
sarthak laghukathayen.
मैं अपने सभी उदार साथियों का उनकी टिप्पणी के लिए हृदय से आभारी हूँ ।
दोनों ही सशक्त लघुकथाएं हैं. सुन्दर लघुकथाओं के लिए ‘मंथन’ की टीम श्री काम्बोज जी के आभारी हैं.