वसंत पंचमी के शुभ अवसर पर
आप सब को शुभकामनाएं
अखबार
– प्राण शर्मा
भरत उच्च शिक्षा के लिए यू.के. में आया था .पंजाब यूनीवर्सिटी से उसने अंग्रेज़ी में एम.ए. कर रखी थी. यूँ तो वो पढ़ा-लिखा था लेकिन यहाँ के रीति-रिवाजों से अनजान था. उसके आने के कुछ दिनों के बाद ही उसके चाचा हरिकृष्ण ने उसको समझा दिया था- “भरत, इस देश की दो बातों को हमेशा याद रखना. पहली ये कि अगर तुमने
चाय के लिए एक बार न कह दी तो अँगरेज़ दुबारा तुमसे चाय पीने के लिए नहीं पूछेगा. वो वैसे भी नहीं पूछता है. दूसरी बात, उससे पढ़ने के लिए कभी अखबार नहीं माँगना. ये यू.के. है, यू.के. भारत नहीं .
एक दिन भरत ट्रेन में सफ़र कर रहा था. उसके साथ वाली खाली सीट पर एक अँगरेज़ आकर बैठ गया था. उसके हाथ में तीन-चार अखबार थे . भरत देखकर हैरान हो गया. वो अपने दिल ही दिल में कह उठा-” इतने सारे अखबार !”
अँगरेज़ ने चाय का आर्डर दिया. चाय पीने के साथ-साथ वो एक अखबार पढ़ने लगा. दूसरे अखबार उसने अपनी दायीं बगल में रख लिए.
भरत को अपने चाचा की समझाई दो बातें याद नहीं रहीं. चाय पीने की तो उसकी कोई इच्छा नहीं थी लेकिन अखबार को पढने की इच्छा उसमें जाग उठी. वो अँगरेज़ से पूछ बैठा -“क्या मैं आपका एक अखबार पढ़ सकता हूँ? ”
अँगरेज़ ने सुना-अनसुना कर दिया.
भरत को लगा कि अँगरेज़ अखबार में व्यस्त होने के कारण उसको सुन नहीं पाया है. वो उससे फिर पूछ बैठा-“क्या मैं आपका एक अखबार पढ़ सकता हूँ? ”
अँगरेज़ ने टेढ़ी नज़रों से भरत को घूरा. वो अँगरेज़ का घूरना समझा नहीं. अखबार पढ़ने की तीव्र लालसा में उसने एक बार और अँगरेज़ से बड़ी नम्रता में पूछा -” क्या मैं आपका एक अखबार पढ़ सकता हूँ? ”
” नहीं, पढ़ने की इतनी ही इच्छा है तो अपना अखबार खरीदो और पढ़ो.” अँगरेज़ भरत पर बिफर उठा.
भरत अपनी मूर्खता पर दिल ही दिल में हंसने लगा.
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नेकी कर और कुँएँ में डाल
– प्राण शर्मा
दयाराम जी को देख कर कोई भी कह सकता था कि वे दया की मूर्ति थे. बेचारे हर एक की मुसीबत में काम आते. कई यार-दोस्त उनकी दया पर निर्भर थे.
वे कभी मिलते तो सभी कह उठते-” दयाराम जी, आपकी दया अपम्पार है. आप कितने दयावान हैं. आप तो हमारे लिए भगवान् हैं, भगवान्. संकट में आपका ही सहारा है. हम सब आपके ऋणी हैं. आपका ऋण कई जन्मों तक हम उतार नहीं पायेंगे. कभी हमें भी आप अपनी सेवा करने का मौक़ा दीजिये.
दयाराम जी की धर्मपत्नी को कैंसर हो गया. उसने चारपाई को ऐसा पकड़ा कि वो उसे छोड़ने का नाम ही नहीं ले रही थी. उसकी लम्बी बीमारी से दयाराम जी आर्थिक और मानसिक रूप से टूटने लगे. वे टूटते गये और यार-दोस्त एक-एक करके ये कह कर” दयाराम जी, आपकी पत्नी कैंसर की मरीज़ है. आज नहीं तो कल उसका मरना निश्चित
है. चिंता करनी छोड़िये. भाग-दौड़ और सेवा करने से कोई लाभ नहीं होगा” पीठ दिखाते गये. धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधकों ने भी जो उनपर निर्भर थे, कहना शुरू कर दिया-
” हमारी संस्थाएं दान लेती हैं,देती नहीं.
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hum dosti, ahsaan, wafa bhool gaye hain…
वसंत पंचमी की शुभकामनायें
जय हिंद…
आदरणीय प्राण जी और आप सभी को बसंत पंचमी की हार्दिक बधाई ………
दोनो लघु कहानियाँ हक़ीकत से जुड़ी हुई हैं …… दूसरी कहानी तो दिल को छू जाती है ….. सच है बुरा वक़्त आने पर कोई साथ नही देता ……
दोनों ही लघु कथाएं आज की यथार्थ है और साथ ही शिक्षाप्रद भी हैं।
पहली कहानी पढ़ते ही सबसे पहले यही ख्याल आता है-क्यों हमें ठोकर खाने के बाद ही बुजुर्गों की सीख का महत्त्व पता चलता है? दूसरी बात ये कि किताबी शिक्षा के साथ-साथ व्यवहारिक शिक्षा कितनी जरूरी है! कहने को तो भरत भी पढ़ा-लिखा था मगर……
दयाराम जी की कहानी के निहितार्थ ने अंदर तक प्रभावित किया। बदलते परिवेश में निजी स्वार्थ सर्वोपरि हो गये हैं। स्वार्थ-सिद्धि में बाधा पड़ने की आशंका मात्र से भी लोग रास्ता बदल देते हैं। सोच का अहंकेंद्रित हो जाना दुर्भाग्यपूण है।
आ. प्राण भाई साहब
व
आ . महावीर जी ,
प्रणाम
आप नित नया परोसते रहते हैं
– धन्य है यह ऊर्जा और प्रयास –
आज प्राण भाई साहब की और २ लघु कथाएं पढ़ीं
और कितनी अच्छी तरह से पूरा द्रश्य उभरा है के बस !
क्या कहने ! वाह !
ये लिंक भी देखिएगा
http://www.lavanyashah.com/2010/01/blog-post_17.html
आप सभी को बसंत पर्व पर,
माँ शारदा की कृपा उपलब्ध हो
इस मंगल कामना सह:
– विनीत
– लावण्या
श्रद्देय शर्मा जी
बसंत पंचमी की शुभकामनाएं
‘लघु’ कथाओं में ‘दीर्घ’ शिक्षा देते रहे हैं आप
यही प्रार्थना है
ये अभियान जारी रहे,
और हम इसी तरह सीखते रहें
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
प्राण साहेब प्रणाम !
महावीर जी प्रणाम !
आपको, आपके परिवारजन और इष्ट-मित्रों को वसंत पंचमी की हार्दिक मंगल कामनाएं –
यहाँ आया तो मैं दो लघु कथाएं पढने था , लेकिन उम्मीद से दुगुना मिल गया ।
प्राण जी की चारों लघु कथाएं क्रमशः अखबार, नेकी कर और कुँए में डाल, ये इंग्लैंड है माय ब्रोदर और बहु नंबर वन पढ़ कर बड़ा सुख मिला ……….बड़ा आनन्द मिला साथ ही बोनस के रूप देवी नागरानी जी की लघुकथाएं रिश्ता और समय की दरकार पढने का सौभाग्य भी मिला ……….
आपका धन्यवाद !
http://www.albelakhatri.com
वसंत पंचमी की शुभकामनायें.
दोनों ही कथायें अच्छी सीख दे रही हैं. आभार!
Basant Bahar aap ko sukhdai ho
Pran ji ki kathaen parh kar bahut achha laga.
yeh sachchi kathaen man ko chhoo lety hein.
Aabhar
Pushpa Bhargava
Adarniy Pran ji; Aapki dono hi laghukathayen sundar hain—yatharthparak.
Chandel
प्राण साहेब प्रणाम !
महावीर जी प्रणाम !
आपको, आपके परिवारजन और इष्ट-मित्रों को वसंत पंचमी की हार्दिक मंगल कामनाएं –
यहाँ आया तो मैं दो लघु कथाएं पढने था , लेकिन उम्मीद से दुगुना मिल गया ।
प्राण जी की चारों लघु कथाएं क्रमशः अखबार, नेकी कर और कुँए में डाल, ये इंग्लैंड है माय ब्रोदर और बहु नंबर वन पढ़ कर बड़ा सुख मिला ……….बड़ा आनन्द मिला साथ ही बोनस के रूप देवी नागरानी जी की लघुकथाएं रिश्ता और समय की दरकार पढने का सौभाग्य भी मिला ……….
आपका धन्यवाद !
बाद हिदायत की नहीं, पहले यह जानने की है कि अपरिचित से इतनी उम्मीदें ना पालें……यह गंदी
आदत हमारी ही है, किसी का अखबार, पत्रिका हम उठा लेते (माँगना तो दूर की बात है), बिना सोचे कि उसने पढ़ा है या
नहीं, उसे लेना उचित होगा या नहीं……
दूसरी कहानी लोगों की हृदयहीनता को बखूबी उजागर करती है…..
सच है, जेके पैर ना फटे बेवाई, वो क्या जाने पीर पराई
सशक्त लघुकथाएँ …साधुवाद.
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
सशक्त लघुकथाएँ …साधुवाद.
Acharya Sanjiv Salil
देश काल और परिस्थिति के अनुरूप स्वयं को ढाल न पाना युगों युगों से ‘अखबार’ की स्थिति निर्मित करता रहा है। यहॉं प्रश्न एक तथाकथित प्रबुद्ध वर्गीय व्यक्ति का एक अनुभवी की सलाह न मानने तक सीमित न होकर एक व्यवस्था की जड़ता का भी है। कहानी का मुख्य पात्र जिस व्यवस्था से गया उसकी सहजता को साथ लेकर गया कि भाई आप एक साथ तो सारे अखबार पढ़ नहीं सकते क्यूँ न मिल-बॉंट कर पढ़ लें विशेषकर सार्वजनिक स्थल पर। हॉं अगर कोई रोज रोज पड़ोसी का अखबार पढ़ने के लिये मॉंने लगे तो आपत्तिजनक हो सकता है। अब हर आदमी खरीदकर पढ़ेगा तो अखबार की बिक्री बढ़ेगी- अखबार अधिक मात्रा में छपेंगे- अधिक मात्रा में पेड़ कटेंगे- तो अभिषेक बच्चन को गुस्सा आयेगा।
सारे भारत में सार्वजनिक स्थल पर एक अखबार पृष्ठ-पृष्ठ कर कई लोग एकसाथ पढ़ते हैं, यहॉं तक कि कई बार तो एक ही पृष्ठ पर एक साथ कई नज़रें भ्रमण कर रही होती हैं। भरत जैसे भरतवंशी इस प्रकार पर्यावरण मित्र हुए कि नहीं।
दूसरी कहानी और ये कहानी ही क्या ऐसी सभी परिस्थितियॉं अनादि काल से मनुष्य के मूल चरित्र में सम्मिलित रही हैं। लोग तो खैनी के लिये बढ़ाया हाथ वापिस खींच लेते हैं अगर पता लग जाये कि सामने वाला किसी काम का नहीं रहा। इसीलिये नेकी कर कुए में डाल या दरिया में डाल की कहावत है। दूसरों के चरित्र से विचलित हुए बिना अपने मार्ग पर निरंतर अपने चरित्र को लिये बढ़ते रहने में ही पौरुष है।
Manav man ki chhudrataon par kararee chot karti saarthak sateek prabhaavshalee laghukathayen…
प्राण शर्मा जी की दोनों लघुकथाएं उच्च कोटि की हैं. सरल शब्दों में भाषा को
सशक्त रूप देना प्राण शर्मा जी की विशेषता है. दोनों कथाएं शिक्षाप्रद सन्देश
दे रही हैं. ‘अखबार’ में यू.के. के रीति-रिवाजों पर बहुत ही एक रोचक प्रसंग
लेकर सुन्दर चित्रण दिया है. ‘नेकी कर और कुँए में डाल’ में दयाराम जी की घटना लेकर बड़े सुन्दर ढंग से दिखाया है कि हमारे समाज की आडम्बरी धार्मिक संस्थाओं के नाम की आड़ में ये लोग किस तरह लोगों के खून पसीने की कमाई से मौज उड़ाते हैं.
बधाई.
mun ko chhuti hui dono laghukathaaen gehraa prabhaav chhodtee hai priya bhai Pran jee mai aapko badhai deta hoon
सशक्त और यथार्थ लघुकथाएँ दिल को छू गईं.
प्राण जी कि लघुकथएं अपनी गहराई और गीराई में ज़माने कि हकीकत को संबोधित
कर रही है. अख़बार लेकर पड़ने का और खरीदकर पड़ने का मज़ा अलग अलग होता है. ये शायद उधार लेकर पड़ने वाले को पत्ता नहीं. दूसरी में यह पक्ष साफ़ हो गया है कि लेने वाले हाथ देने वाले बन जायें ये ज़रूरी नहीं. बहुत सार्गार्भी लघुकथाएं लगी
प्राण भाई साहिब की कहानी हो या गज़ल जीवन और समाज की हकीकतों को साथ लिय चलती है। पहली कहानी कई संदेश देती है हमारे बुज़ुरगों की कहावतें और सीख उनके जीवन के तज़ुर्बे हैं और हम लोग कब उन नसीहतों को मानते है। ये कहानी हम अपने देश और विदेश के रिति रिवज़ों मे फर्क महसूस करवाती हैं जिस से अपने देश के संस्कारों के प्रति सिर श्रद्धा से झुक जाता है।
जब तक खुद हाथ नहीं जला लेते जलन का एहसास नहीं होता। विदेश जा कर हम अपने देश के संस्कार और आदतें कहाँ छोड पाते हैं? हमे उनका व्यवहार अजीब लगता है इस अखबार के माध्यम से जो तिलक राज जी ने कहा है वो सही कहा है । हम मिल बाँट कर रहने मे विश्वास करते हैं मगर उनकी कोई चीज़ व्यर्थ चाहे चली जाये मगर किसी से बाँटना उन्हें गवारा नहीं। ये अपने देश की इस महान परंपरा को भी दर्शाती है और बडों की सीख मानने की प्रेरना भी देती है।
और दूसरी लघु कथा नेकी कर कुयें मे डाल भी समाज का आईना है। सारी उम्र भी किसी के लिये जान देते रहो मगर कुध पर मुसीबत आने पर वही लोग मुंह छुपा लेते हैं। ऐसे दयाराम तो समाज मे आम दिख जायेंगे।कितनी बडी बात है फिर भी बहुत से दयाराम अभी भी समाज मे पैदा हो रहे हैं। दोनो कथायें बहुत प्रेरणादायी और सीख देने वाली हैं भाई साहिब को बधाई और आपका धन्यवाद्। देर से आने के लिये भी क्षमा चाहती हूँ ।कुछ तबीयत सही नहीं चल रही।
लघु कथाएँ कितनी सच्ची आस – पास बीती घटनाएं हैं ..
देर से आने पर क्षमा…प्राण साहब की दोनों लघु कथाएं जीवन में बहुत बड़ी सीख दे जाती हैं…चंद शब्दों में जीवन की गहराई समझाना कोई उनसे सीखे… उन्हें जितना पढो कम ही लगता है…ऐसे सिद्ध हस्त रचनाकार को नमन,.
नीरज
दोनों ही लघुकथाओं में एक कड़वी सच्चाई छिपी है। “सच” बड़ा कड़वा और खुरदरा होता है। लेखक का काम ही है कड़वे सच को रचनात्मक सच में बदलकर पाठको के सामने लाना। इस दृष्टि से दोनों लघुकथाएं सच का रचनात्मक बयान हैं।
आदरणीय प्राण शर्मा जी की दोनों ही लघु कथाएं अपने आप में परिपूर्ण हैं.. बात की गहराई को जिस अंदाज और सीधे तरके से कही है इन्होने वो अपने आप में सिख की तरह है … दोनों ही कथाएं सिख देती हुई हैं … सच यही है जो इन दोनों से सिख मिल रही है ….
आभार
अर्श
regarding pran saab, aap kidono laghu kathae” akhabar ” or ” neki kar kue me dal “” ek kataksh hai aaj ke halaat par ki aaj manav kita swarthi hota ja raha hai, sirf apni sochta hai,
aap ki laghukathae , thora chintan karne ko vivash kar deti hai. lajavab.. hai.. aap ki lekhani uhi chalti rahe yahi kamna hai.
sunil gajjani