डॉ. बलराम अग्रवाल
जन्म: २६ नवंबर, १९५२ को उत्तर प्रदेश के जिला बुलंदशहर में हुआ था.
शिक्षा: हिन्दी साहित्य में एम.ए., अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, और ’समकालीन हिन्दी लघुकथा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की.
लेखन व सम्पादन : समकालीन हिन्दी लघुकथा के चर्चित हस्ताक्षर. सभी स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, लघुकथा आदि प्रकाशित. अनेक रचनाएं विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित व प्रशंसित . भारतेम्दु हरिश्चन्द्र , प्रेमचंद, प्रसाद, शरत, रवींद्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की चर्चित/ज़ब्त कहानियों के संकलनों के अतिरिक्त कुछेक लघु-पत्रिकाओं व लघुकथा-विशेषांकों का संपादन. प्रेमचंद की लघुकथाओं के संकलन ’दरवाज़ा’ (२००५) का संपादन. ’अंडमान-निकोबार की लोककथाएं’(२००१) का अंग्रेजी से अनुवाद व पुनर्लेखन.हिन्दीतर भारतीय कथा-साहित्य की श्रृंखला में ’तेलुगु की सर्वश्रेष्ठ कहानियां’ (१९९७) तथा ’मलयालम की चर्चित लघुकथाएं’ (१९९७) के बाद संप्रति तेलुगु की लघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लुघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लघुकथाओं व कहानियों के अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित.अनेक वर्षों तक रंगमंच से जुड़ाव. कुछ रंगमंचीय नाटकों हेतु गीत-लेखन भी. हिन्दी फीचर फिल्म ’कोख’ (१९९४) के संवाद-लेखन में सहयोग.कथा-संग्रह ’सरसों के फूल’ (१९९४), ’दूसरा भीम’ (१९९६) और ’चन्ना चरनदास’ (२००४) प्रकाशित.
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सुंदर
डॉ. बलराम अग्रवाल
लड़की ने काफी कोशिश की लड़के की नज़रों को नज़रअंदाज़ करने की। कभी वह दाएँ देखने लगती, कभी बाएँ। लेकिन जैसे ही उसकी नज़र सामने पड़ती, लड़के को अपनी ओर घूरता पाती। उसे गुस्सा आने लगा। पार्क में और भी स्टूडैंट्स थे। कुछ ग्रुप में तो कुछ अकेले। सब के सब आपस की बातों में मशगूल या पढ़ाई में। एक वहीं था जो खाली बैठा उसको तके जा रहा था।
गुस्सा जब हद से ऊपर चढ़ आया तो लड़की उठी और लड़के के सामने जा खड़ी हुई।
‘‘ए मिस्टर!’’ वह चीखी।
वह चुप रहा और पूर्ववत् ताकता रहा।
‘‘जिंदगी में इससे पहले कभी लड़की नहीं देखी है क्या?’’ उसके ढीठपन पर वह पुन: चिल्लाई।
इस बार लड़के का ध्यान टूटा। उसे पता चला कि लड़की उसी पर नाराज हो रही है।
‘‘घर में माँ–बहन है कि नहीं।’’ लड़की फिर भभकी।
‘‘सब हैं, लेकिन आप ग़लत समझ रही हैं।’’ इस बार वह अचकाचाकर बोला, ‘‘मैं दरअसल आपको नहीं देख रहा था।’’
‘‘अच्छा!’’ लड़की व्यंग्यपूर्वक बोली।
‘‘आप समझ नहीं पाएँगी मेरी बात।’’ वह आगे बोला।
‘‘यानी कि मैं मूर्ख हूं।’’
‘‘मैं खूबसूरती को देख रहा था।’’ उसके सवाल पर वह साफ–साफ बोला, ‘‘मैंने वहाँ बैठी निर्मल खूबसूरती को देखा–जो अब वहाँ नहीं है।’’
‘‘अब वो यहाँ है।’’ उसकी धृष्टता पर लड़की जोरों से फुंकारी, ‘‘बहुत शौक है खूबसूरती देखने का तो अम्मा से कहकर ब्याह क्यों नहीं करा लेते हो।’’
‘‘मैं शादी शुदा हूँ, और एक बच्चे का बाप भी।’’ वह बोला, ‘‘लेकिन खूबसूरती किसी रिश्ते का नाम नहीं है। नहीं वह किसी एक चीज़ या एक मनुष्य तक सीमित है। अब आप ही देखिए, कुछ समय पहले तक आप निर्मल खूबसूरती का सजीव झरना थी–अब नहीं है।’’
उसके इस बयान से लड़की झटका खा गई।
‘‘नहीं हूं तो न सही। तुमसे क्या?’’ वह बोली।
लड़का चुप रहा और दूसरी ओर कहीं देखने लगा। लड़की कुछ सुनने का इंतज़ार में वहीं खड़ी रही। लड़के का ध्यान अब उसकी ओर था ही नहीं। लड़की ने खुद को घोर उपेक्षित और अपमानित महसूस किया और ‘बदतमीज कहीं का’ कहकर पैर पटकती हुई वहाँ से चली गई।
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जहर की जड़ें
डॉ. बलराम अग्रवाल
दफ्तर से लौटकर मैं अभी खाना खाने के लिए बैठा ही था कि डॉली ने रोना शुरू कर दिया।
‘‘अरे–अरे–अरे, किसने मारा हमारी बेटी को?’’ उसे प्यार करते हुए मैंने पूछा।
‘‘डैडी…..हमें स्कूटर चाहिए।’’ सुबकते हुए वह बोली।
‘‘लेकिन तुम्हारे पास तो पहले ही बहुत खिलौने हैं!’’ इस पर उसकी हिचकियाँ बंध गई, बोली, ‘‘मेरी गुड़िया को बचा लो डैडी।’’
‘‘बात क्या है?’’ मैंने दुलारपूर्वक पूछा।
‘‘पिंकी ने पहले तो अपने गुड्डे के साथ हमारी गुडि़या की शादी करके हमसे गुडि़या छीन ली।’’ डॉली ने जारों से सुबकते हुए बताया, ‘‘अब कहती है–दहेज में स्कूटर दो, वरना आग लगा दूंगी गुडि़या को।…..गुडि़या को बचा लो डैडी….हमें स्कूटर दिला दो…।’’
डॉली की सुबकियाँ धीरे–धीरे तेज होती गईं और शब्द उसकी हिचकियों में डूबते चले गए।
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बहुत अच्छी लगी। धन्यवाद।
पहली कहानी बहुत सशक्त है और एक नये प्रकार के अंदाज़ में लिखी गई है । उसमें खूबसूरती का जिस प्रकार से बयान किया गया है वेा बहुत उम्दा है । कहानी रोचक तरीके से आगे बढ़ती है और अंत में ठीक जगह पर आकर समाप्त होती है । सुंदरता कितनी निर्भर करती है किसी के व्यवहार पर इस बात को बखूबी स्थापित करती है ये कहानी । कहानी में अच्छा प्रावाह है ।
DONO HI LAGHUKATHAYEN PRABHAAVSHALEE HAIN…PAR PAHLEE KATHA KE TO KYA KAHNE….BAHUT HI SUNDAR AUR PRABHAAVSHALEE DHANG SE KATHY NIYOJAN KIYA GAYA HAI….
SUNDAR LEKHAN KE LIYE BADHAI…
DR.BALRAM AGARWAL SHEERSH KAHANIKAR HAIN.UNKEE RACHNAAON KO PADHNA HAMESHA
ACHCHHA LAGTA HAI.UNKEE YE DONO LAGHU KATHAAYEN BHEE ACHCHHEE LAGEE HAIN.
BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA.
दोनो कहानियाँ अलग अलग CANVAS लिए हैं ………… दूसरी कहानी में गुडियों के माध्यम से अपने समाज में फैली कुरीति का बहुत गहरा चित्रण किया है ……. कुछ ही शब्दों में कही शशक्त रचना …..
दोनो कहानियाँ बहुत सुन्दर और गहरे भाव लिये हुये हैं। पहली मे लडके लडकी के माध्यम से खूबसूरती की सही विशेशता को बताया है।। दूसरी मे समाज का आईना है ब्च्चे जो देखते सुनते हैं वैसा ही व्यवहार करते हैं । डा. बलराम जी को बहुत बहुत बधाई
बेहद मनोवैग्यानिक और खूबसूरत लघुकथाएं.
जहर की जड़ें ने झकझोर दिया.
चन्देल
बेहद मनोवैग्यानिक और खूबसूरत लघुकथाएं.
’जहर की जड़ें’ ने झकझोर दिया.
बधाई
चन्देल
लेकिन खूबसूरती किसी रिश्ते का नाम नहीं है। नहीं वह किसी एक चीज़ या एक मनुष्य तक सीमित है। अब आप ही देखिए, कुछ समय पहले तक आप निर्मल खूबसूरती का सजीव झरना थी–अब नहीं है।’’
वाह ……बहुत ही लाजवाब लगी ये लघु कथा ……बलराम जी को बधाई …..!!
दो बेहतरीन लघुकथायें, मनोवैज्ञानिक पक्ष की बारीकी लिये। यह समझ ही मुनष्य की नासमझी है। यह प्रश्न एक शोध का विषय हो सकता है कि हम जो कुछ देखते हैं उसके नैसर्गिक पक्ष की उपेक्षा क्यों करते हैं और अनावश्यक रूप से अपनी समझ का पर्दा डालकर यथार्थ को अपने ही नजरिये से बाँध लेते हैं।
दूसरी लघुकथा बालमन की सुलभ सोच लिये सटीक प्रहार है आज की सामाजिक स्थितियों पर।
बधाई।
तिलक राज कपूर
दोनों लघु कथाये मानवीय भावनाओ को ईमानदारी से प्रस्तुत करती है |
सुन्दरता का बेहद सुंदर रूप और जहर के बीज का सुंदर विश्लेषण |
सच कहा है डा. बलराम जी आपने,
खूबसूरती को चेहरों में नहीं,
व्यक्ति के आचरण में तलाश करना चाहिये..
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
Balram ji
aapne bhram se parda uthakar accha kiya. kabhi kabhi khush fahmi ke shikar ho jaate hai.
khoobsoorti apne ander ki abhivyakti hai, man ki-tan ki nahin.
wishes
Devi Nangrani
पहली लघु कथा मैंने पहले भी पढ़ी थी, फिर से पढ़ने में आनन्द आया,
ज़हर की जड़ें ने मन भारी कर दिया…
balram jee kii ye dono rachnayen pehle bhee pad chukaa hoon ve ek achchhe kathaakar hain oonki rachnayen apne alag andaaj men prabhaav chhodtee hain iseeliye yeh man ko kaheen gehre chhu jaati hain
I liked the first story very much. Pay my regards to Writer.