आचार्य संजीव ‘सलिल’ की दो लघुकथाएं

SanjivVerma1

लघुकथा
एकलव्य

‘नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?’
– ‘हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.’
– ‘उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?’
-‘हाँ बेटा.’

– ‘दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा – ‘काश वह आज भी होता.’
आचार्य संजीव ‘सलिल’
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– लघुकथा
समय का फेर

गुरु जी शिष्य को पढ़ना-लिखना सिखाते परेशां हो गए तो खीझकर मारते हुए बोले-
‘ तेरी तकदीर में तालीम है ही नहीं तो क्या करुँ? तू मेरा और अपना दोनों का समय बरबाद कर रहा है. जा भाग जा, इतने समय में कुछ और सीखेगा तो कमा खायेगा.’
गुरु जी नाराज तो रोज ही होते थे लेकिन उस दिन चेले के मन को चोट लग गयी. उसने विद्यालय आना बंद कर दिया, सोचा ‘आज भगा रहे हैं. ठीक है भगा दीजिये, लेकिन मैं एक दिन फ़िर आऊंगा… जरूर आऊंगा.
गुरु जी कुछ दिन दुखी रहे कि व्यर्थ ही नाराज हुए, न होते तो वह आता ही रहता और कुछ न कुछ सीखता भी. धीरे-धीरे गुरु जी वह घटना भूल गए.
कुछ साल बाद गुरूजी एक अवसर पर विद्यालय में पधारे अतिथि का स्वागत कर रहे थे. तभी अतिथि ने पूछा- ‘आपने पहचाना मुझे?
गुरु जी ने दिमाग पर जोर डाला तो चेहरा और घटना दोनों याद आ गयी किंतु कुछ न कहकर चुप ही रहे.
गुरु जी को चुप देखकर अतिथि ही बोला
– ‘आपने ठीक पहचाना. मैं वही हूँ. सच ही मेरे भाग्य में विद्या पाना नहीं है, आपने ठीक कहा था किंतु विद्या देनेवालों का भाग्य बनाना मेरे भाग्य में है यह आपने नहीं बताया था.
गुरु जी अवाक् होकर देख रहे थे समय का फेर.

आचार्य संजीव ‘सलिल’
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10 Comments »

  1. दोनों लघुकथाएँ –बढ़िया.
    बधाई.

  2. विद्या देनेवालों का भाग्य बनाना-वाकई आजकल ऐसे ही हाथों में है.

    दोनों लधुकथाएँ-असरदार!!

  3. 3

    आचार्य जी की रचनाओं पर टिप्पणी दूँ ? सूरज को दीप दिखाऊँ? ऐसा कैसे हो सकता है फिर भी कहे जा रही हूँ लाजवाब। बोधगम्य बधाई कुछ दिन की अनुपस्थिती के लिये क्षमा चाहती हूँ

  4. 4
    pran sharma Says:

    Aacharya salil jee kee dono laghukathayen sraahniy hain.

  5. 5

    बहुत खूब श्रीमान जी

  6. आचार्य ‘सलिल’ जी के लेखन की एक अपनी प्रभावशाली शैली है जिसमें थोड़े से ही शब्दों में गहरी बात कह जाते हैं जो अंतिम वाक्य या शब्दों में एक दम समझ आता है. साथ ही आरम्भ से लेकर अंत तक रोचकता बनी रहती है. दोनों लघुकथाओं में आगे पढ़ने की उत्सुकता बनी रहती है. कथा के अंत में जो मोड़ आता है, वो लाजवाब हैं.
    महावीर शर्मा

  7. 7

    ‘आपने ठीक पहचाना. मैं वही हूँ. सच ही मेरे भाग्य में विद्या पाना नहीं है, आपने ठीक कहा था किंतु विद्या देनेवालों का भाग्य बनाना मेरे भाग्य में है यह आपने नहीं बताया था.
    गुरु जी अवाक् होकर देख रहे थे समय का फेर

    antim charan bejod hai!!!!!!!!!!!
    laghukatha ki laghuta mein samaya arth bahut hi gahara aur arthpoorn laga. daad ke saath

    Devi nangrani

  8. 8

    उत्साहवर्धन हेतु आप सभी का हार्दिक धन्यवाद.

  9. 9
    shyam Says:

    एकल्व्य लघु-कथा एक सटीक व्यंग्य है।दूसरी लघुकथा अछ्ची है मगर इस का कथानक अनेक बार अनेक लोगो द्वारा लिखा जाकर अपनी रोचकता खो चुका है
    श्याम सखा श्याम


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