लघुकथा-
खट्टे संतरे
प्राण शर्मा

रमेश बड़े शौक़ से खाने के लिए साफ़ सुथरे और चमचम करते संतरे सुबह सब्जी मंडीसे खरीद कर लाया था. उसकी आदत है रात को रोटी खाने के बाद दो-तीन संतरे लेने की. रोटी खाने के बाद दो-तीन संतरे लेने से सुबह खुलकर पखाना आता है, ऎसी उसकी मान्यता है.
रात को भोजन करने के पश्चात रमेश से पहला संतरा चखा नहीं गया. नींबू से भी ज्यादा खट्टा था वो. गुस्से में उसने थाली में पटक दिया उसको, क्या करता वो? इतना खट्टा संतरा उसने पहले कभी चखा नहीं था.
रमेश ने दूसरा संतरा चखा. वह और भी खट्टा निकला. मुंह बना कर उसने उसको भी थाली में पटक दिया.
रमेश ने तीसरा संतरा चखा. उफ़, वो भी खट्टा. दांत किचकिचाते हुए उसने तीसरा संतरा भी थाली में दे मारा.
थोड़ी देर के बाद रमेश को लगा कि थाली में पड़े तीनों संतरे अपनी दुर्दशा से आहत होकर एक स्वर में उससे कह रहे हैं “साब, आपने हमें थाली में इस तरह क्यों फ़ेंक दिया है?” “इसलिए मैंने फ़ेंक दिया है तुम्हें थाली में क्योंकि तुम तीनों ही नींबू से ज्यादा खट्टे हो. देखो, तुम तीनों की एक फाड़ी ने ही मेरे दांत खट्टे करके रख दिए.”
“साब, अगर हम खट्टे हैं तो हमारा क्या कुसूर है? कसूर तो उनका है जिन्होंने हमें उगाया है और सींचा है.”
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लघुकथा-
‘पत्थर दिल’
देवी नागरानी
रमेश कब कैसे, किन हालात के कारण इतना बदल गया यह अंदाजा लगाना उसके पिता सेठ दीनानाथ के लिये मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा लगा । अपने घर की दहलीज पार करके उसके बंगले के सामने खड़े होकर सोचते रहे – जो मान सम्मान, इज्ज़त उम्र गुजा़र कर पाई, आज वहीं अपने बेटे की चौखट पर झुकेगी, वो भी इसलिये कि उसकी पत्नी राधा मृत्यु-शैया पर लेटी अपने बेटे का मुंह देखने की रट लगाये जा रही थी – मजबूरन यह कदम उठाना पड़ा। दरवाजे पर लगी बेल बजाते ही घर की नौकरानी ”कौन है” के आवाज़ के साथ उन्हें न पहचानते हुए उनका परिचय पूछ बैठी.
“मैं रमेश का बाप हूँ, उसे बुलाएं.” वह चकित मुद्रा में सोचती हुई अंदर संदेश लेकर गई और तुरंत ही रोती सी सूरत लेकर लौटी. जो उत्तर वह लाई थी वह तो उसके पीछे से आती तेज़ तलवार की धार जैसी उस आवाज में ही उन्हें सूद समेत मिल गया.
“जाकर उनसे कह दो यहां कोई उनका बेटा-वेटा नहीं रहता । जिस गुरबत में उन्होने मुझे पाला पोसा, उसकी संकरी गली की बदबू से निकल कर अब मैं आजा़द आकाश का पंछी हो गया हूँ. मै किसी रिश्ते-विश्ते को नहीं मानता. पैसा ही मेरा भगवान है. अगर उन्हें जरूरत हो तो कुछ उन्हें भी दे सकता हूँ जो उनकी पत्नी की जान बचा पायेगा शायद ………….!!” और उसके आगे वह कुछ न सुन पाया. खामोशियों के सन्नाटे से घिरा दीनानाथ लड़खड़ाते कदमों से वापस लौटा जैसे किसी पत्थर दिल से उनकी मुलाकात हुई हो ।
देवी नागरानी
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Posted by महावीर on अक्टूबर 7, 2009 at 12:05 पूर्वाह्न
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प्राण जी की कहानी बहुत गहरे तक उतर कर बात को कह रही है । उसके लिये संतरे का प्रतीक बना कर जो बात कही है वह अनूठा प्रयोग है । इस कहानी को यदि हम देश के संदर्भ में देखें, देश की राजनीति के संदर्भ में देखे तो समझ में आता है कि कथाकार ने किस तरफ इंगित करने का प्रयास किया है । संतरे के खट्टे होने में दोष संतरों का नहीं है बल्कि उस व्यवस्था का है जो कि संतरों के खट्टा होने का वातावरण पैदा कर रही है । यदि आप ऐसा माहौल रचेंगे जिसमें भ्रष्टाचार रूपी खट्टे संतरे पैदा हों तो फिर दोषी कौन होगा आप या संतरे । कहानी से एक कथाकार के रूप में बहुत कुछ सीखने को मिला है । मेरे गुरू कहा करते थे कि साहित्यकार भी अगर सब कुछ खुल कर कहने लगेगा तो उसमें और आम आदमी में क्या अंतर रह जायेगा । श्रद्धेय प्राण जी की कहानी ने आज उसी बात को सिद्ध कर दिया कि साहित्यकार की सोच और उसका कहन हमेशा अलग होता है । देवी नागरानी जी की कहानी अच्छी है ।
आदरणीय दादा भाई आपकी लगन का कायल हो रहा हूं । अभी कल ही तो आपका मेल मिला था कि अस्वस्थ हैं और आज पोस्ट भी लगा दी । आप अपना ख्याल रखिये । प्राण जी को प्रणाम । देवी जी को प्रणाम । अनुज सुबीर
zindagi ke kuch khatte anubhav kadwe magat satya ye bhi hai,sikke ka dusra pehlu.dono kahni bahut achhi lagi.
दोनों कहानिया अंतर्मन को सोचने पर मजबुर करती हुई…..
regards
मन को छू लेने वाली रचनाएं है, शुक्रिया।
एक सुझाव देना चाहूंगा, यदि आप एक बार में एक ही रचना प्रकाशित करें, तो ज्यादा अच्छा है, इससे पाठक अच्छे से उसका रसास्वादन कर पाता है।
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बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?
priya bhai pran jee kii tathaa nagraanii jee ki laghu kathaon ne man ko kaheen gehre chhu kar jhakjhor diya hum log kitne namuraad ho chuke hein iskaa andajaa inn kathaon me dikhaai detaa hae pehli kathaa ne prateek ke roop mei sochne ko majboor kiya to dusri ne to deemag ki har nuss ko hilaa diya jahaan ek betaa apne janam daata ko bhee pehchaane se inkaar kartaa hei
badhai
ashok andrey
दोनों ही कहानियां झकझोरने वाली है….
यथार्थ का विदूप चेहरा दिखाती ये कहानियां मन को बोझिल कर सोचने को मजबूर करतीं हैं…
जनाबे प्राण साहिब और मोहतरमा देवी साहिबा को पढ़ा
मेरा झुकाव दोनों की जानिब है मैं धर्म संकट में पड़ गया हूँ
प्राण साहिब ने जो लिखा है अपनी कहानी में उसमें ज़बान की चाशनी है
खट्टी नहीं है मीठी ही मीठी है मिठास तो मिठास ही होती है
प्राण साहिब लफ्जों की मीनाकारी करते हैं ऐसी जलेबी बनाते हैं
घुमा फिरा कर खाने वाला लुत्फ़अन्दोज़ हो जाता है
देवी साहिबा ने पथरों से चश्में निकालने की भरपूर कोशिश की है
दोनों को मेरा सलाम
महावीर साहिब आप भी क्या कमाल करते हो
आदाब
चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क
aadarniy pran saheb aur , mahaveer ji aur devi ji ko mera pranaam , deri se aane ke liye maafi …
pran ji , aapki katha ne ik dwandh paida kar diya hai man me.. kya santre ki tarah hamaare bacche bhi hote hia , jo ki bade hokar kahte hai , aapne hamare liye kya kiya .. ham bhi to unhe seenchte hai ,paalte hai , poste hai .. agar wo ek acche insaan nahi bane to kya wo hamari galti hongi .. ya samaj bhi iski responsibility lenga … jaise ki santre ke liye , khet, mitti , paani, aur khaad bhi responsible honge.. . main bahut soch me padh gaya hoon ..
ho sakya hai ki meri soch galat ho …
devi ji ki katha bahut saarthak hai aur aaj ki baa kahti hui hai ..
meri badhai aap sab ko is manch ke liye ..
praan ji , ek request, aapne mujhe taajmahal wali poem sunayi thi .. maine kaha tha aapse ki mere liye use avashay complete kare..
to ,please use jaldi se poora karen…
aapka
vijay
प्रणाम प्राण जी,
लघुकथा पढ़ी और बहुत कुछ सीखने को मिला,
संतरे तो एक प्रतीक मात्र हैं, जो बहुत सारे मुद्दों को समेटे हुए हैं.
इसी प्रसंग से जुडा एक मुद्दा दिमाग में आ रहा है, अभी एक भारतीय वैज्ञानिक को नोबेल पुरूस्कार मिला (जो अमेरिका की नागरिकता लिए हुए हैं) अगर वो यही भारत में रहते (उन्होंने अपनी graduation यही से की है) और शोध करते तो क्या ये संभव था ??????????
संतरे खट्टे थे उसके कई कारन हो सकते हैं ( मैंने कृषि से अपना स्नातक किया है तो काफी बातें दिमाग में आ गई हैं और उन्हें व्यस्था से जोड़ रहा हूँ)………………….
१. बीज में ही कोई खराबी होगी तभी खट्टे रहे (हमें अपनी नींव मजबूत करनी होगी तभी हम मीठे फल पा सकेंगे)
२. मौसम की मार (हमारे आस पास का समाज और उसमे रह रहे हम लोग भी जिम्मेदार हैं किसी चीज़ के ख़राब होने के)
३. सही मात्र में खाद पानी नहीं मिलना (शिक्षा और अन्य मूलभूत सुविधाओं को पर्याप्त मात्रा में नहीं होना और ज़रुरत मंद तक नहीं पहुंचना)
…………. मगर एक वाक्य हमेशा मेरे दिमाग में कौंधता है की अगर हम इसे सुधारने के लिए कुछ नहीं कर सकते तो इसे बिगाडे भी ना और केवल चिंता व्यक्त करके हमारा काम खत्म नहीं होता हम सबको एकसाथ आगे बढ़कर इसके कारणों का हल निकाल के दूर करना होगा.
अनुज अंकित
आदर्नीय प्राण शर्मा जी की कहाने गहरे भाव लिये हैम जिसे हम इस संद्र्भ मे देख सकते हैं जैसा बोयोगे वैसा ही काटोगे सुबीर जी ने भी सही कहा है ।इसके इलावा भी हम घर मे या समाज मे अपनी पीढियोंको जैसे संस्कार देंगे वैसे ही उनका व्यव्हार होगा। जैसा बीज बीजेंगे वैसा ही उसका फल होगा। पेड लगायें बबूल का तो आम कहाँ से आयेण्गे? ये संतरे के माध्यम से एक बोध कथा का आभास देती कहानी है ।उनको बहुत बहुत बधाई और नागरानी जी की रचना भी आज के बच्चों के व्यव्हार का सही चित्रण है। माँ बाप की अनदेखी कैसे हो रही है इसे बहुत अच्छे तरीके से कहानी मे निभाया है उन्हें भी बधाई आपका बहुत बहुत धन्यवाद्
आ. महावीर जी
नमस्ते दोनों कथाएँ
संक्षिप्त में गहन सीख दे गयीं –
यही तो है एक सक्षम रचनाकार के हस्ताक्षर
मेरी आदरणीया देवी बहन
व आ. प्राण भाई साहब को नमन
तथा आपको आभार …
विनीत,
– लावण्या
आदरणीय श्री प्राण शर्मा जी की कहानी में जो प्रयोग किया गया है वो अनूठा है जीस छोटी सी चीज जो लेकर उन्होंने समाज की बुरईओं पे ब्यंग किया है वो स्तब्ध कर देने वाला है ,… समजोपरक कहानी है ये जिससे काफी कुछ सीखा जा सकता है ,.. आदरणीया देवी जी की कहानी में गज़ब के भाव हैं दर्द में जिस तरह का सम्मोहन होनी चाहिए वो बात पूर्णतया सत्य प्रतीत हो रही है उनकी इस कहानी में … दोनों ही लघु कथा पसंद आये…
गुरु देव आपकी क्रताब्यानिष्ठ के तो हम कायल हैं… जिस तरह से आप साहित्य की सेवा कर रहे हैं वो हमारे लिए एहसान की तरह है … सादर चरणस्पर्श
अर्श
बढ़िया…ठीक-ठाक…
बेहतर कोशिश….
अब इन दो दिग्गज लेखकों की लघु कथाओं पर क्या कहूँ…जो बात पोथियाँ भरने के बावजूद पूरी तरह से नहीं कही जा सकती उसी बात को कुछ शब्दों में बाँध देना एक ऐसा हुनर है जो इश्वर हर किसी को नहीं देता., लेकिन इन महान लेखकों पर वो इस मामले में खूब मेहरबान हुआ है.
प्राण साहब ने खट्टे संतरों के माध्यम से इंसानी फितरत को ग़ज़ब ढंग से जतलाया है वहीँ देवी दीदी ने हालत के शिकार इंसान की मार्मिक तस्वीर बयां की है.
इन दोनों लेखकों की लेखनी को मेरा नमन.
नीरज
दोनों लघुकथाएँ यथार्थदर्शी और मर्मस्पर्शी हैं. बुन्देली लोक जीवन में ‘कम लिखे को अधिक समझना’ उक्ति का प्रयोग प्रायः पत्राचार में किया जाता है. दोनों लघु कथाएँ इसकी बानगी हैं. दोनों लघु कथाकारों को साधुवाद.
प्राण जी! अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखिये.
महावीर जी! इस सार्थक प्रस्तुतीकरण हेतु आपको धन्यवाद.
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत ही ख़ूबसूरत भाव और अभिव्यक्ति के साथ लिखी हुई आपकी ये रचना काबिले तारीफ है!
पिछली बार की और इस बार की दोनों लघु कथाएँ बहुत पसंद आईं.
अगर एक बारगी में एक लेखक की लघुकथा दी जाये तो पढ़ने वाले को
ज़्यादा आन्नद आता है. प्राण भाई और देवी दीदी को बहुत -बहुत बधाई..
आदरणीय प्राण शर्माजी एवं देवी नागरानी जी ,
सादर प्रणाम !
आप दोनों की लघु कथाएं बाँच कर धन्य हो गया……….
कहने को भले ही हम लघु कथा कह रहे हैं लेकिन जीवन के समूचे अस्तित्व को उसके वास्तविक रूप में दर्शाती ये अनुपम रचनाएं किसी महाकाव्य से कम नहीं………
इतनी सरल भाषा में इतनी गूढ़ शिक्षा देना आप जैसे पुरोधा और अनुभवी रचनाकारों का ही सामर्थ्य है………
आपको हार्दिक हार्दिक नमन……….
दो-दो दिग्गजों की लेखनी का जादू एक संग बोल पड़े, तो क्या कहेन….
प्राण साब ने संतरे को प्रतिक बना कर वर्तमान व्यवस्था पर चोट की है अपनी इस छोटी सी कहानी में, वो महसूस करने वाली बात है। उनकी कविता, गीत, ग़ज़ल का तो फैन था ही…उनका ये नया रूप भी खूब भाया।
देवी नागरानी जी की ग़ज़लों का भी कायल रहा हूं। अपनी इस लघु-कथा में जिस कड़वे सच के दर्शाया है उन्होंने वो हमारी आज की पीढ़ी का वास्तविक रूप है।
महावीर जी का तहे-दिल से शुक्रिया….
Main mahavir ji aur Pran sharma ji ki shukrguzaar hoon jo mujhe is manch par sthaan diya hai sur sudhee paathakon aur shrotaaon ko dhanyawaad atta karti hoon
Diwali ki Shubhkamanaon sahit
ssneh
Devi nangrani