श्री रूप सिंह चंदेल जी का संक्षिप्त परिचय:
१२ मार्च, १९५१ को कानपुर के गाँव नौगवां (गौतम) में जन्मे वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चन्देल कानपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. हैं।
* अब तक उनकी ३९ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें ७ उपन्यास जिसमें से ‘रमला बहू’, ‘पाथरटीला’, ‘नटसार’ और ‘शहर गवाह है’ – चर्चित रहे हैं, १० कहानी संग्रह, ३ किशोर उपन्यास, १० बाल कहानी संग्रह, २ लघुकथा संग्रह, यात्रा संस्मरण, आलोचना, अपराध विज्ञान, २ संपादित पुस्तकें सम्मिलित हैं।
* इनके अतिरिक्त बहुचर्चित जीवनीपरक पुस्तक ‘दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ (जीवनी) संवाद प्रकाशन, मेरठ से २००८ प्रकाशित से प्रकाशित हुई थी।
* उन्होंने महान रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास ‘हाजी मुराद’ का हिन्दी में पहली बार अनुवाद किया है जो २००८ में ‘संवाद प्रकाशन’ मेरठ से प्रकाशित हुआ था।
* हाल में लियो तोल्स्तोय पर उनके रिश्तेदारों, मित्रों, सहयोगियों, लेखकों और रंगकर्मियों द्वारा लिखे संस्मरणों का अनुवाद किया है जो ’संवाद प्रकाशन’ से ही ’लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार’ से शीघ्र प्रकाश्य है.
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन
चिट्ठे- रचना समय, वातायन और रचना यात्रा
संप्रति: roopchandel@gmail.com
roopschandel@gmail.com
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कहानी
भेड़िये
रूपसिंह चन्देल
ठंड कुछ बढ़ गई थी. बौखलाई-सी हवा हू-हू करती हुई चल रही थी. उसने शरीर पर झीनी धोती के ऊपर एक पुरानी चादर लपेट रखी थी, लेकिन रह-रहकर हवा के तेज झोंके आवारा कुत्ते की तरह दौड़ते हुए आते और चादर के नीचे धोती को बेधते हुए बदन को झकझोर जाते. वह लगातार कांप रही थी और कांपने से बचने के लिए उसने दोनों हाथ मजबूती से छाती से बांध लिए थे; और दांतों को किटकिटाने से बचाने के लिए होठों को भींच रखा था.
‘भिखुआ आ जाता तो, कितना अच्छा होता.’ वह सोचने लगी –’किसी तरह छिप-छिपाकर दोनों उस शहर से दूर चले जाते, जहां वे उन्हें ढूंढ़ न पाते. आज चौथा दिन है उसे गए— न कोई चिट्ठी , न तार, जबकि जाते समय उसने कहा था कि तीसरे दिन वह जरूर आ जाएगा. बापू की तबीयत अगर ज्यादा खराब हुई तो उन्हें साथ लेता आएगा.’
मेनगेट के पास खड़े पीपल के पेड़ से कोई परिंदा पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ा, तो बिल्डिंग के अंधेरे कोने में छिपे कई चमगादड़ एक साथ बाहर निकल भागे. वह चौंक उठी और उन्हें देखने लगी. क्षण-भर बाद वे फिर अंधेरे कोनों में जा छिपे. तभी उसे लगा, जैसे कोई आ रहा है. उसने इधर-उधर देखा, कोई दिखाई नहीं पड़ा.
‘पता नहीं वह सिपाही कहां गुम हो गया— कह रहा था — अभी बुला लाता है थानेदार को. साहब सो रहे होंगे. रात भी तो काफी हो चुकी है. साहब लोग ठहरे—- आराम से उठेंगे, तब आएंगे—-’
उसे इस समय भिखुआ की याद कुछ अधिक ही आ रही थी. ’उसे जरूर आ जाना चाहिए था. हो सकता है, बापू की तबीयत कुछ ज्यादा खराब हो गई हो. न वह उन्हें ला पा रहा होगा, न आप आ पा रहा होगा. लेकिन उसे उसकी चिंता भी तो करनी ही चाहिए थी. जबकि उसने उस दिन उसे बता दिया था कि उनमें से एक — महावीरा को उसने सड़क के मोड़ वाली पान की दुकान पर खड़े देखा था.’
“तू नाहक काहे कू डरती है रे. उनकी अब इतनी हिम्मत नाय कि तोको लै जांय. मुफ्त मा नाय लाया था तोको. पूरे पांच हजार गिने थे—ऊ का नाम —- शिवमंगला को. बाद में ’कोरट’ में अपुन ने रजिस्ट्री भी तो करवा ली थी. अब अपुन को कौन अलग करि सकत है ?” भीखू ने उसके गाल थपथपाते हुए कहा था.
“तू कछू नाई जानत, भीखू, वो कितने जालिम हैं. शिवमंगला जो है न, यो सबते अपन को मेरा मामा बताउत है. वैसे भी यो मामा है, दूर-दराज का. मेरे बापू की लाचारी और मजबूरी का फायदा उठाकर इसी पापी ने मेरी पहली शादी करवाने का ढोंग किया था, बूढ़े बिरजू के साथ. खुद एक हजार लेकर, एक हजार बापू को दिए थे. और उसके बाद, मां और बापू के मरने के बाद, यो महावीरा के साथ मिलकर —- सातवीं बार तेरे हाथ मेरे को—–” वह रोने लगी थी.
“भूल भी जा अब पुरानी बातों को, सोनकी. अब कोई चिंता की बात नईं. मैं पुलिस-थाने को सब बता दूंगा. तू काहे को फिकर करती ?” उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरता हुआ भीखू बोला, तो वह निश्चिंत हो सोचने लगी थी कि दुनिया में अब कोई तो है उसका, जो उसे चाहने लगा है. उससे पहले शिवमंगला ने जिसके साथ भी उसे बांधा, साल-डेढ़ साल से अधिक नहीं रह पाई थी वह उसके साथ.
शिवमंगला पहले ही उससे कह देता, “साल-डेढ़ साल रह ले. जमा-पूंजी जान ले, कहां कितनी है. उसके बाद मैं एक दिन आऊंगा—तुझे लेने. सारी पूंजी बांध, चल देना. न-नुकर की, तो तड़पा-तड़पाकर मारूंगा.”
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और वह चाबी-भरे खिलौने की तरह उसका कहना मानने को मजबूर होती रही सदैव. चौथे मरद के साथ जमना चाहा, तो पुलिस को साथ लेकर वह जा पहुंचा और उसको यह कहकर पकड़वा दिया कि वह उसकी इस अनाथ भांजी– सोनिया — को भगा लाया है. तब उसने चाहा था कि पुलिस को सब कुछ बता दे, लेकिन महावीरा ने कान के पास धीरे से कहा था, “अगर मुंह खोला—- तो समझ लेना—-.”
वह उनके साथ घिसटती चली गई थी, पांचवें के पास जाने के लिए. एक शहर से दूसरे शहर भटकती रही है वह, क्योंकि कभी भी उन्होंने उसे एक ही शहर में दूसरी बार नहीं बेचा. हर बार, जब तक कोई ग्राहक उन्हें नहीं मिलता, शिवमंगला खुद हर रात उसके शरीर से खेलता रहता. कभी-कभी इस खेल में महावीरा को भी शामिल कर लेता. वह कराहती, तड़पती, लेकिन शिवमंगला भूखे भेड़िये की तरह उसके शरीर को नोचता रहता और तब वह उस यातना से मुक्ति पाने के लिए कुछ दिनों के लिए ही सही, किसी-न-किसी के हातों बिक जाना बेहतर समझती.
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खट—खट—खट ! गेट की ओर कुछ कदमों की आहट सुनाई पड़ी. कोई ट्रक चिघ्घाड़ता हुआ सड़क पर गुजरा. उसकी रोशनी में उसने चार सिपाहियों को अपनी ओर आते देखा. वह कुछ संभलकर बैठ गई. सोचा, शायद थानेदार साहब आ रहे हैं.
“तू यहां किसलिए—-ऎं !” चारों उसके सामने खड़े थे. वह सिपाही, जो थाने पहुंचते ही उसे मिला था और जिससे उसने थानेदार को बुलाने के लिए कहा था, उनके साथ था.
“हुजूर, मैं थानेदार साब को—- कुछ बतावन खातिर—-” कांपती हुई वह खड़ी हो गई.
“क्या बताना है ? इस समय वो कुछ नहीं सुनेंगे— सुबह आना.” लंबी मूंछोंवाला, जो आगे खड़ा था ओवरकोट पहने, गुर्राकर बोला.
“हुजूर, वो—वो– मेरे पीछे पड़े हैं. मैं –मैं…” उसकी जुबान लटपटा गई.
“तू उनके पीछे पड़ जा न—हा—हा—हा—हा—-.”
“दुबे, क्या इरादा है, मिलवा दिया जाए इसे थानेदार साब से ?” लंबी मूंछोंवाले के पीछे खड़े सिपाही ने, जिसके होंठ मोटे थे और उसने भी ओवरकोट पहन रखा था, बोला. शेष तीनों उसकी ओर देखने लगे. टिमटिमाते बल्ब की रोशनी में चारों ने आंखों ही आंखों में कुछ बात की और वापस मुड़ गए.
“अभी बुलाकर लाते हैं थानेदार साब को. तू यहीं बैठ.” जाते-जाते एक बोला.
चारों चले गए, तो वह आश्वस्त हुई थी कि थानेदार को जरूर बुला देंगे. वह फिर बैठ गई उसी प्रकार और सोचने लगी कि कैसे और क्या कहेगी वह थानेदार से. लेकिन जैसे भी हो, वह उसे सब कुछ बता देगी—- बचपन से अब तक क्या बीती है उस पर —- सब कुछ. धीरे-धीरे वह पुरानी स्मृतियों में खोने लगी. हवा का क्रोध कुछ शांत होता-सा लगा, लेकिन ठंड ज्यों-की-त्यों थी.
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बापू ने बहुत सोच-विचारकर उसका नाम रखा था — सोनिया. एक कहानी बताई थी उन्होंने कभी उसे– जिस दिन वह पैदा हुई थी, बाप को मालिक के खेत में हल जोतते समय सोने का कंगन मिला था.बापू ने चुपचाप वह कंगन मालिक को दे दिया था. उनका कहना था कि जिसके खेत में उन्हें कंगन मिला है, उस पर उसी का अधिकार बनता है. मालिक ने उसके बदले दस रुपये इनाम दिए थे बापू को. वह उसी से खुश था—-“बेटी भाग्यवान है. तभी तो सोना मिला था मुझे. मैं इसका नाम सोनिया रखूंगा.” और उस दिन से ही वह सोनिया और दुलार-प्यार में सोना हो गई थी.
लेकिन बापू की कल्पना कितनी खोखली सिद्ध हुई थी. उसके जन्म के बाद घर की हालत और खस्ता होती चली गई थी. मां बीमार रहने लगी थी. काम करने वाला अकेला बापू– वह भी मजूर— और खाने वाले तीन. जब वह छः-सात साल की थी, तभी से बापू के साथ काम पर जाने लगी थी और जिन हाथों को पाटी और कलम-बोरकला पकड़ना था, वे खुरपी और हंसिया पकड़ने लगे थे. वह बड़ी होती गई—- मां चारपाई पकड़ती गई और बापू का शरीर कमजोर होता गया था. बापू उसे लेकर चिंतित रहने लगा था — उसके विवाह के लिए. कहां से लाएगा दहेज, जब खाने के लाले पड़े हों ! और तभी एक दिन मां की तबीयत अधिक बिगड़ गई थी.बापू इधर-उधर भटकता रहा था पैसों के लिए. उस दिन यही इसका दूर-दराज का मामा— शिवमंगला आया था बापू के पास और कुछ व्यवस्था करने का आश्वासन दे गया था.
दूसरे दिन वह बिरजू के साथा आया. कोठरी के अंदर कुछ गुपचुप बातें हुईं और फिर उसने देखा कि बिरजू बापू को सौ-सौ के दस नोट पकड़ा गया था. मां का इलाज शुरू हो गया था . वह कुछ ठीक भी होने लगी थी. लगभग पंद्रह दिन बीत गए कि बिरजू फिर आया, शिवमंगला के साथ. उस दिन बापू ने उसे बताया कि उन्होंने बिरजू के साथ उसकी शादी तय कर दी है. वह आज उसे लेने आया है.
आंखें छिपाते हुए बापू बोला था, “सोना बेटा, मैंने बहुत बड़ा पाप किया है, जिसकी सजा मुझे भगवान देगा. लेकिन बेटा, यह पाप मुझे तेरी मां के लिए करना पड़ा है. तू मुझे माफ कर देना, बेटा.”
वह बापू से लिपटकर रोई थी फूट-फूटकर. बापू उसके सिर पर हाथ फेरता रहा था, फिर बिरजू से बोला था, “पाहुन, मेरी सोना अभी छोटी है. पंद्रह साल की है. बड़े कष्टों में मैंने इसे पाला है. इसे आप कष्ट न देना.”
चलने से पहले बिरजू ने बापू को आश्वस्त किया था—
जब तक सोना बिरजू के पास रही, मानसिक कष्ट तो उसे भोगने पड़े, लेकिन जीवन की सुख-सुविधा के तमाम साधन उसने जुट रखे थे उसके लिए.
दो साल वह उसके पास रही थी. इन्हीं दो वर्षों में पहले मां और बाद में बापू के चल बसने का समाचार उसे मिला था.
और दो वर्षों बाद— एक दिन शिवमंगला के धमकाने पर उसे बिरजू का घर छोड़ना पड़ा था. उसके बाद शुरू हो गया था उसके बसने और उजड़ने का सिलसिला.
भीखू को बेचते समय भी शिवमंगला ने उसे चेता दिया था कि डेढ़-दो साल से अधिक नहीं रहना है इसके पास. एक दिन वह आएगा और उसे ले जाएगा. शुरू में कुछ महीने वह यह सोचकर रहती रही कि एक दिन उसका साथ भी छोड़ना पड़ेगा. अधिक माया-मोह बढ़ाना ठीक नहीं समझा उसने, लेकिन भीखू का निश्छल प्यार धीरे-धीरे उसे बांधता चला गया और वह महसूस करने लगी कि वह भीखू को कभी छोड़ नहीं पाएगी. इतना प्यार उसे किसी ने न दिया था—चौथे ने भी नहीं. सभी उससे किसी खरीदे माल की तरह जल्दी -से-जल्दी, अधिक-से-अधिक कीमत वसूल कर लेना चाहते. भीखू को उसने सबसे अलग पाया था. जिस अपनत्व-प्यार के लिए वह तरसती आई थी, भीखू ने उसे दिया था. और इसलिए उसने उस दिन अपने अंधे अतीत का एक-एक पृष्ठ खोलकर रख दिया था उसके सामने.
सुनकर भीखू ने जो कुछ कहा था, उससे उसने महसूस किया था कि उसके कष्टों के दिन बीत गए. उसका जीवनतरु अब नई रोशनी में पल्लवित,विकसित और पुष्पित हो सकेगा. भावातिरेकवश वह भीखू के सामने झुक गई थी, उसकी चरणरज माथे से लगाने के लिए, लेकिन भीखू ने उसे पहले ही पकड़ लिया था, “सोना, मैं तुझ पर कोई एहसान थोड़े ही कर रहा हूं. अनपढ़-गंवार जरूर हूं, लेकिन हूं तो इनसान. इनसान होने के नाते उन भेड़ियों से तुझे बचाना मेरा फर्ज है. मेरे पैर छुकर तू मुझे महान मत बना. मैं बस, इनसान ही रहना चाहता हूं.”
प्यार से आंसू उमड़ पड़े थे उसके—- उस क्षण उसने निर्णय किया था —- अब वह उनके डराने-धमकाने के सामने नहीं झुकेगी. भीखू को छोड़कर वह कभी नहीं जाएगी.
उस दिन पान की दुकान के पास दिखने के बाद महावीरा जब दोबारा उसे नहीं दिखा, तो वह कुछ निश्चिंत -सी हो गई थी. कुछ भय भीखू ने कम कर दिया था— और जब भीखू गांव जाने लगा, तब वह बोली थी, “मेरी ज्यादा चिंता न करना तुम. बापू को—-” बात बीच में ही रोक दी थी, क्योंकि डर तब भी उसके अंदर अपने पंजे गड़ा रहा था.
“चिंता तो रहेगी ही, सोना. अगर कोई खतरा दिखे तो पुलिस-थाने की मदद ले लेना.”
शायद भीखू को भी इस बात का डर सता रहा था कि उसके जाने के बाद वे आ सकते हैं—-.
लेकिन जैसे-जैसे एक-एक दिन भीखू के जाने के बाद बिना किसी संकट के कटते चले गए, सोना बिलकुल निश्चिंत होती गई. कोठरी का दरवाजा सांझ ढलने के साथ ही वह बंद कर लिया करती थी. आज भी दरवाजा बंद कर वह भीखू का इंतजार कर रही थी. शायद आखिरी बस से आ जाए—- और जब दरवाजे पर दस्तक हुई, तो दौड़कर उसने दरवाजा खोला. लेकिन भीखू नहीं, सामने शिवमंगला खड़ा था.मुंह से शराब की बदबू छोड़ता हुआ.
“तो रानीजी पति का इंतजार कर रही हैं—-” वह कमरे में घुस आया. वह एक ओर हट गयी. शिवमंगला निश्चिंततापूर्वक चारपाई पर बैठ गया. उसे अवसर मिल गया था. वह तीर की तरह वहां से भाग निकली . सीधे थाने में जाकर ही दम लिया .
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खट—खट—-खट—-खट—-
उसके कान फिर चौकन्ने हो गए. एक सिपाही चला आ रहा था.
“चलो, थानेदार साब बुला रहे हैं.”
वह उसके पीछे हो चली– ठंड से दोहरी होती हुई.
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रात-भर चारों सिपाही एक के बाद एक उसके शरीर को नोचते – झिंझोंड़ते रहे. वह चीखती-चिल्लती और तड़पती रही और वे हिंस्र पशु की भांति उसे चिंचोंड़ते रहे— उसके बेहोश हो जाने तक.—.
जब उसे होश आया, वह एक पार्क में पड़ी थी—– और शिवमंगला और महावीरा उसके पास खड़े थे, उसे घेरे. वह पूरी ताकत के साथ चीख उठी और फिर बेहोश हो गई.
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बेहोश हो गई.ham bhi hai.
मान्यवर शर्मा जी,
’भेंड़िया’ के प्रकाशन के लिए आभार. दो बार आपको मेल करके मैंने बताया कि कहानी पोस्टिग में त्रुटि है. टिप्पणी और कहानी के बीच बहुत अंतराल है जो अशोभनीय प्रतीत हो रहा है. क्या इसे दुरस्त नहीं किया जा सकता ?
रूपसिंह चन्देल
भेड़िये कहानी जब पहली बार पढ़ी थी, दिल दहल गया था.
आज भी रोंगटे खड़े हो गए.
priya bhai chandel bahut diino baad tumhaari kahaani phir ek baar padne ko milii abhiibhii yeh kahaani usi tarah kii taajgi liye hue hei aur aapna sandesh dene mei saphal hei kyonki aaj bhii iss tarah kii ghatnaen hamare aas pass ghattii rehtiin hein ek achchhi kahanii ke liye mei tumhe tathaa mahaveer jee ko badhai detaa hoon
ashok andrey
ROOP JEE KEE KAHANI ” BHEDIYA” KO DO BAAR PADH GAYAA HOON.DONO BAAR HEE KAHANI
APNEE KATHAVASTU,BHASHA-SHAILEE AUR SHILP KE LIYE BEHTREEN LAGEE HAI.
पहले तो मैं साहित्यकार श्री चंदेल जी को ‘मंथन’ के लिए एक बहुत ही प्रभावशाली कहानी के प्रकाशन की अनुमति के लिए आभार प्रकट करता हूँ.
एक ऎसी कहानी है जो केवल लोकरंजन के लिए ही नहीं है, बल्कि कथावास्तु, चरित्रचित्रण, घटना, भाव, वातावरण, उद्देश्य और प्रभावान्वित जैसे गुणों से भरपूर है. कथानक, प्रांतीय भाषा में संवाद और चरित्रोद्घाटन का सुन्दर संयोजन है. सर्वांगपूर्ण कहानी कला के प्रत्येक अंग पर पूरी उतरती है. इस दिल को दहलाने वाली कहानी पढ़कर पाठक स्तब्ध सा रह जाता है.
श्री चंदेल जी, ‘मंथन’ की टीम की ओर से आपका धन्यवाद.
यह सच जीवन के प्रति निर्मोह दृढ कर देता है……
स्तब्ध शब्दहीन हूँ क्या कहूँ…..
‘भेड़िये’ रूपसिंह चंदेल की चर्चित कहानियों में से एक कहानी रही है। ‘मंथन’ के माध्यम से नेट की दुनिया के पाठकों को नि:सदेह पसंद आएगी।
भेड़िये’ रूपसिंह चंदेल की कहानी कला के प्रत्येक अंग पर पूरी उतरती है. इस दिल को दहलाने वाली कहानी पढ़कर पाठक स्तब्ध सा रह जाता है. सक लिखा नहीं गया है महसूस करवाया गया है. पड़कर सच में रोंते खड़े हो गए. इस मर्मात्मक कहानी की प्रस्तुति के लिए मंथन की टीम को बधाई हो
देवी नागरानी