आनंदवादी
-महावीर शर्मा
मैं बहुत हँसता था। हँसना, हँसाना और आनंद के भौतिक पहलूको ही जीवन का आधार मानता था। कहा करता था – सृष्टि की उत्पत्ति जब आनंद-विभु से ही हुई है तो आनंद में ही निवास करना जीवन का सार है। लोग ब्रह्म-आनंद की बात करते तो बात काट देता कि इस अमूर्त,काल्पनिक अव्यावहारिक शून्यमनस्कता का समक्ष-आनंद के सामने कोई क्रियात्मक मूल्य नहीं है।गर्व से कहता था “मैं आनंदवादी हूं।” काव्य-कहानियों में निराशा और जीवन का नकारात्मक पहलू मुझे साहित्य में प्रदूषण की भांति लगता था।
आराम कुर्सी पर बैठे हुए हाथ में पकड़ी हुई पुस्तक का पन्ना उलटते हुए अनायास ही मस्तिष्क के किसी कोने में छुपी हुई अतीत की स्मृतियों ने ३५ वर्ष पुराने टाईम-ज़ोन में धकेल दिया। पुस्तक के पन्नों में शब्द लुप्त से हो गए। ऐसा लगा जैसे इन पन्नों में चल- चित्र की रीलें चल रही हो। मेरी हँसी, मेरी मुस्कान, आनंद-विभु से बनी हुई सृष्टि – सब ‘झबिया’ की गोद में नन्हे से ‘ललुआ’ की पथराई आँखों से ढुलके हुए दो आँसुओं में समाये जा रहे हों।
पुरानी घटनाएं सजीव हो उठी। दिल्ली का वही पुल तो है जिसके नीचे सड़क के दोनों ओर फुटपाथों पर एक ओर ११ और दूसरी ओर १० व्यक्ति जीवन- यातना भुगत रहे हैं। शयनागार, रसोई, कारोबारालय, चौपाल – सभी कुछ इसी में समाये हुए हैं। ना दरवाज़े हैं, ना खिड़की हैं, ताले का तो प्रश्न ही नहीं होता। इन लोगों की जाति क्या है? ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रीय,शूद्र या दलित वर्ग में तो यह लोग आ नहीं सकते। जाति-वर्गित लोगों को तो लड़ाई झगड़ा करने का, ऊंच और नीच दिखाने का, फूट डलवा कर देश में दंगा फ़साद करवाने का और फिर अवैध युक्तियों से अपने बैंक बैलेंस को फुलाने का, अनेक सामाजिक, असामाजिक, वैध या अवैध अधिकार हैं।
इन २१ व्यक्तियों को तो ऐसा एक भी अधिकार नहीं है तो इनकी जाति कैसे हो सकती है! तो फिर ये लोग कौन हैं? इनके नाम हैं – भिखारी, कोढ़ी, लंगड़ा, अंधा, भूखा-नंगा, अपंग, भुखमरा, कंगला, और गरीब होने के कारण इनके तीन नाम और भी हैं क्योंकि कहते हैं,
“गरीबी तेरे तीन नाम: लुच्चा, गुंडा, बेईमान!!”
हां, उन्हीं लोगों के बीच में जो बैठी हुई जवान सी औरत है, उसका नाम है ‘झबिया’। उसकी गोद में जो नन्हा सा बालक है, उसे ये लोग ‘ललुआ’ कह कर पुकारते हैं। पिता का नाम ना ही पूछा जाए तो उचित होगा क्योंकि कभी कभी कुछ विषम स्थिति में असली नाम बताना किसी गोपनीय मृत्यु-दण्ड जैसे अंजाम तक भी पहुंचा सकता है।
झबिया की क्या मजाल है कि कह सके कि उसकी गोद में इस हड्डियों के ढांचे पर पतली सी खाल का आवरण लिए हुए नन्हे से बच्चे का पिता नगर के प्रतिष्ठित नेता का जवान सुपुत्र है।
*** *** *** ***
उस दिन अमावस्या की रात थी जब वह अपनी चमचमाती सी कार खड़ी करके बाहर निकला था तो झबिया ने केवल इतना ही कहा था,
“साब, भूकी हूं, कुछ पैसे दे दो। भगवान आपका भला करे!”
शराब का हलका सा नशा, अंधी जवानी का जोश और नेतागीरी के आगे गिड़गिड़ाता हुआ कानून -बस उसने झबिया को घसीट कर कार में खींच लिया। झबिया ने तो केवल भूखे पेट भरने को दो रोटी के लिए कुछ पैसे मांगे थे, ना कि यह मांगा था कि अपने उदर में उसका बच्चा लेकर उसको भी भूख से मरता देखती रहे!
गर्मियों की चिलचिलाती हुई धूप, बरसात की तूफानी बौछारें और कंपकंपा देने वाली सर्दियां इन पुलों के नीचे रहने वाले बिन वोटों के नागरिकों के जीवन को अगले मौसम को सौंप कर चल देती हैं।
इस बार तो ठण्ड ने कई वर्षों का रिकार्ड तोड़ डाला। ये कंपकंपाते हुए अभागे बिजली के खम्बों की रोशनी पर टकटकी लगाए हुए हैं। शायद इतनी दूर से बिजली के बल्ब से ही कुछ गर्मी उन तक पहुंच जाए!
हिमालय की पर्वत-शृंखलाओं से शिशिर ऋतु की डसने वाली बर्फीली शीत लहर गगनचुम्बी अट्टालिकाओं से टक्कर खाती हुई हार मानकर खिसियाई बिल्ली की तरह इन जीवित लाशों पर टूट पड़ी। इन निरीह निस्सहाय अभागों ने बचाव के लिए कुछ यत्न करने का प्रयास किया जैसे कंपकंपी, चिथड़े, कोई फटी पुरानी गुदड़ी या फिर एक दूसरे से सट कर बैठ जाना। इससे अधिक वे कर भी क्या सकते थे? सभी के दांत ठण्ड से कटकटा रहे थे जैसे सर्दी ध्वनि का रूप लेकर अपने प्रकोप की घोषणा कर रही हो। कुछ शोहदे बिगड़ैल छोकरे राह चलते हुए छींटाकशी से अपना ओछापन दिखाने से नहीं मानते :
“ऐसा लगता है जैसे मृदंग या पखावज पर कोई ताल चगुन पर बज रही है।”
इन ठिठुरे हुए बेचारों के कानों के पर्दे सर्दी के कारण जम चुके हैं, कुछ सुन नहीं पाते कि ये छोकरे क्या कुछ कहकर हँसते हुए चले गए। यदि सुन भी लेते तो क्या करते? बस अपने भाग्य को कोस कर मन मसोस कर रह जाते!
झबिया की गोद में ललुआ ठिठुर कर अकड़ सा गया है, ना ठीक तरह से रो पाता है, ना ही ज्यादा हिल-डुल पाता है। माँ उसे सर्दी से बचाने के लिए अपने वक्ष का कवच देकर जोर से चिपका लेती है। ललुआ माँ के दूध-रहित स्तनों को काटे जा रहा है। बड़ी बड़ी बिल्डिंगों से हार कर बड़े आवेग से एक बार फिर यह बर्फानी हवा का झोंका इन पराजित निहत्थों पर भीषण प्रहार कर अपनी खीज उतार रहा है।
एक गाड़ी इस हवा के झोंके की तीव्र गति को पछाड़ती हुई सड़क पर पड़े हुए बर्फीली पानी पर सरसराती हुई चली जाती है। कार के पहियों से उछलती हुई छुरी की तरह बर्फीली पानी की बौछारों से इन लोगों के दातों की कटकटाहट भयंकर नाद का रूप ले लेती हैं। ललुआ ने अकस्मात ही झबिया के वक्ष को काटना, चूसना बंद कर दिया, आंखें खुली पड़ी हैं, माँ की ओर टिकी हुई हैं जैसे पूछ रहा हो,
“माँ, मुझे क्यों पैदा किया था?”
झबिया उसे हिलाती-डुलाती है किंतु ललुआ के शरीर में कोई हरकत नहीं है। वह दहाड़ कर चीख़ उठती है। सभी की आंखें उसकी ओर घूम जाती हैं, बोलना चाहते हैं पर बोलने की शक्ति तो शीत-लहर ने छीन ली है!!
पुस्तक के पन्नों पर ऐसा लग रहा है जैसे ललुवा पथराई आंखों से ढुलके हुए दो आंसू को गिराते हुए कह रहा होः “मेरी आंखों में डाल कर ज़रा हँस कर तो दिखाओ!! तुम तो आनंदवादी हो! अरे, तुम क्या जानो कि जीवन की गहराईयों की तह में कितनी पीड़ा है!”
मैंने पुस्तक साथ की मेज़ पर रख दी और आंखें मूंद लीं!!!
महावीर शर्मा
कथा डुबो ले गई..बहा ले गई.बस काफी है. बहुत पसंद आई.
दादा भाई
प्रणाम
हमारे समाज का असली चेहरा दिखाती है ये कहानी । औश्र साथ ही उस खाई का भी पता चलता है जो कि हमारे समाज में खिंची है । आपके इस रूप से पहली बार परिचय हुआ । एक अच्छी कहानी के साथ । आपका गीत अभी तक जेहन में बसा है उम्मीद है अपनी उस पुरानी डायरी को खोल कर कुछ गीत और सुनवाएंगें हमें ।
अनुज सुबीर
सुन्दर कहानी प्रकाशित करने के लिए बधाई!
मार्मिक कहानी…आपकी लेखनी को नमन….
नीरज
ेक सशक्त शब्दशिलपी की अद्भुत रचना अपनी शब्द गंगा मे बहाये ले जाती है बधाई आभार्
मर्मस्पर्शी कहानी. वर्णन प्रधान होने के स्थान पर घटना प्रधान होती तो अधिक प्रभावित करती. आपका प्रयास श्लाघनीय है.
महावीर शर्मा जी
आदाब
आपका आनंदवादी शीर्शक है लाजवाब
है किताब-ए-ज़िंदगी का ख़ूबसूरत एक बाब
ज़िंदगी हर हाल मेँ क़ुदरत का एक इनआम है
है कोई प्रसन्न कोई खा रहा है पेचो ताब
अहमद अली बर्क़ी आज़मी
बह गए…….. बह गए………. बह गए………..
बह गए दर्द की गर्म धार में
रह गए……. रह गए……… रह गए ………….
रह गए डूब के पारावार में
निहाल हो गए………
आँसुओं से
मालामाल हो गए…………….
गज़ब की याद……………..
गज़ब की कहानी………..
____आपकी लेखनी को सादर नमन है
आपको सादर प्रणाम है !
यथार्थ का अनावृत रूप ऐसे झकझोर गया कि निशब्द हो गयी…..क्या कहूँ…..लेकिन भरे पेट छत के नीचे प्रकृति के किसी भी प्रकोप से सुरक्षित हम अंदाजा भर लगा सकते हैं उस पीडा का……..बाकी तो जा तन लागे सोई तन जाने…
पीडा और त्रासदी को इतना प्रभावी अभिव्यक्ति देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार.
सुन्दर कहानी प्रकाशित करने के लिए बधाई!
MAHAVIR SHARMA JEE ACHCHHE KAVI HEE NAHIN HAIN
BALKI ACHCHHE KAHANIKAR BHEE HAIN. NAPE-TULE
SHABDON MEIN EK ACHCHHEE KAHANI KAESE LIKHEE
JAATEE HAI, USKAA SAJEEV UDAHRAN HAI ” ANANDWADEE.”
BAHUT DINON KE BAAD KAHANI ” ANANDWADEE” KO PADH
KAR ANAND AAYAA HAI.
महावीर जी,
कहानी पढ़ते -पढ़ते खो गई.
अंतर्मन तक भीग गया.
बहुत -बहुत बधाई.
डॉ. सुधा ढींगरा जी, रंजना जी, निर्मला कपिला जी, प्राण शर्मा जी, पंकज सुबीर जी, समीर लाल जी, आचार्य संजीव ‘सलिल’ जी, डॉ. अहमद अली बर्क़ी साहब, डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ जी, नीरज गोस्वामी जी, अलबेला खत्री जी, परमजीत बाली जी की टिप्पणियों के लिए मैं आभारी हूँ.
अन्य पाठकों को हार्दिक धन्यवाद.
nice
😦
कुछ कथाएँ मन को झंझोड़ कर रख देतीं हैं
आदरणीय महावीरजी
आप की लेखनी के मनोबल पर बीते हुए कल और आने वाले कल के बीच में पिस्ता हुआ आज सिसक उठा है
पुरानी घटनाएं सजीव हो उठी। दिल्ली का वही पुल तो है जिसके नीचे सड़क के दोनों ओर फुटपाथों पर एक ओर ११ और दूसरी ओर १० व्यक्ति जीवन- यातना भुगत रहे हैं।
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इन ठिठुरे हुए बेचारों के कानों के पर्दे सर्दी के कारण जम चुके हैं, कुछ सुन नहीं पाते कि ये छोकरे क्या कुछ कहकर हँसते हुए चले गए। यदि सुन भी लेते तो क्या करते? बस अपने भाग्य को कोस कर मन मसोस कर रह जाते!
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प्रसव पीडा सी अंगडाई दर्द मेरा है लेता क्यों?
अरे, तुम क्या जानो कि जीवन की गहराईयों की तह में कितनी पीड़ा है!”
मैंने पुस्तक साथ की मेज़ पर रख दी और आंखें मूंद लीं!!!
सत्यम. शिवम्, सुंदरम!!!
देवी नागरानी