ग़ज़ल – हादसों के शहर में
सो रहा था चैन से मैं फ़ुर्सतों के शहर में
जब जगा तो ख़ुद को पाया हादसों के शहर में
फ़ासले तो फ़ासले हैं दो किनारों की तरह
फ़ासले मिटते कहाँ हैं फ़ासलों के शहर में
दोस्तों का दोस्त है तो दोस्त बन कर ही तू रह
दुश्मनों की कब चली है दोस्तों के शहर में
थक गये हैं आप तो आराम कर लीजे मगर
काम क्या है पस्तियों का हौसलों के शहर में
मिल नहीं पाया कहीं सोने का घर तो क्या हुआ
पत्थरों का घर सही, अब पत्थरों के शहर में
हर किसी में होती है कुछ प्यारी प्यारी चाहतें
क्यों न डूबे आदमी इन ख़ुशबुओं के शहर में
धरती-अम्बर, चाँद-तारे, फूल-ख़ुशबू, रात-दिन
कैसा-कैसा रंग है इन बंधनों के शहर में
हम चले हैं ‘प्राण’ मंज़िल की तरफ़ लेकर उमंग
आप रहियेगा भले ही हसरतों के शहर में
‘प्राण’ शर्मा
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Posted by महावीर on जून 27, 2008 at 11:29 अपराह्न
Filed under ग़ज़ल/नज़्म, प्राण शर्मा  |
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मिल नहीं पाया कहीं सोने का घर तो क्या हुआ
पत्थरों का घर सही, अब पत्थरों के शहर में
बहुत खूब …
थक गये हैं आप तो आराम कर लीजे मगर
काम क्या है पस्तियों का हौसलों के शहर में
मिल नहीं पाया कहीं सोने का घर तो क्या हुआ
पत्थरों का घर सही, अब पत्थरों के शहर में
हर किसी में होती है कुछ प्यारी प्यारी चाहतें
क्यों न डूबे आदमी इन ख़ुशबुओं के शहर में
wah bahut sundar, kash log hadse chod khushiyon ke sheher bas jaye.
vha bhut acche.badhai.
सुंदर गजल पढ़ाने के लिये धन्यवाद।
आदरणीय प्राण सर ,
बहुत अच्ची गज़ल लगी आपकी ,
धरती-अम्बर, चाँद-तारे, फूल-ख़ुशबू, रात-दिन
कैसा-कैसा रंग है इन बंधनों के शहर में ,
हम चले हैं ‘प्राण’ मंज़िल की तरफ़ लेकर उमंग
आप रहियेगा भले ही हसरतों के शहर में ,
ये शेर बहूत अच्छे लगे ।
सादर
हेम ज्योत्स्ना
हर किसी में होती है कुछ प्यारी प्यारी चाहतें
क्यों न डूबे आदमी इन ख़ुशबुओं के शहर में
–बहुत उम्दा, बेहतरीन..!!
हर किसी में होती है कुछ प्यारी प्यारी चाहतें
क्यों न डूबे आदमी इन ख़ुशबुओं के शहर में
बहुत खूब…अन्दाज़े बयां बहुत भाया ज़नाब…बधाई…
— डा. रमा द्विवेदी
थक गये हैं आप तो आराम कर लीजे मगर
काम क्या है पस्तियों का हौसलों के शहर में
मिल नहीं पाया कहीं सोने का घर तो क्या हुआ
पत्थरों का घर सही, अब पत्थरों के शहर में
wah bahut khoob bahut khoob
http://bheegigazal.blogspot.com
आदरणीय प्राण शर्मा जी
आप की ग़ज़ल पढ़ी। बेहद आला और नफ़ीस खयालात हैं। आपकी ग़ज़लें पढ़ता रहता
हूं और हर बार वही लुत्फ़ आता है। आपकी ग़ज़लों और लेखों से मेरे ब्लॉग में जैसे
चार चांद लग गए हैं। आपका बहुत बहुत आभार।
महावीर शर्मा
ख़ूबसूरत ग़ज़ल है.
क्या मिला है, क्या मिलेगा? अब हमें रहना नहीं।
छोडदो,क्यों है शिकायत नफ़रतों के शहर में।
बहोत खुब अच्छी है आपकी रचना।
बधाई स्विकारें
मेरी ये पंक्तिया आपको समर्पित………..
ये किस शहर में आ गये हैं हम?
करते है मोहब्बत ,
तो जुर्म कहते हैं,
और बनाते है दोस्त,
तो ग़रेबा पकड़ते है,
ये कैसा शहर है,
बेदर्दो का, ज़ालिमों का,
जॅहा न मोहब्बत है न दोस्ती है,
न प्यार है, न वफ़ा है,
शायद हम तेरे शहर में,
आ गये है”ज़िन्दगी”
मेरा ब्लॉग भी आप देख कर मुझे अनुग्रहित करे
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mera blog hai….
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