ग़म की दिल से दोसती होने लगी-ग़ज़ल
ग़म की दिल से दोसती होने लगी।
जब मिली उसकी निगाहों से मिरी
ज़ुल्फ़ की गहरी घटा की छांव में
बेसबब जब वो हुआ मुझ से ख़फ़ा
बह न जाएं आंसू के सैलाब में
आंसुओं से ही लिखी थी दासतां
जाने क्यों मुझ को लगा कि चांदनी
आज दामन रो के क्यों गीला नहीं?
तश्नगी बुझ जाएगी आंखों की कुछ
डबडबाई आंख से झांको नहीं
इश्क़ की तारीक गलियों में जहां
आ गया क्या वो तसव्वर में मिरे
मरना हो, सर यार के कांधे पे हो
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बहुत सुंदर, ये शेर विशेष रूप से पसंद आया.
बेसबब जब वो हुआ मुझ से ख़फ़ा
ज़िन्दगी में हर कमी होने लगी।
आदरणीय ! हर शेर कमाल. ग़ज़ल एकदम लाजवाब.
“आज दामन रो के क्यों गीला नहीं?
आंसुओं की भी कमी होने लगी।”
ये शेर पढ़ कर मुझे अपना एक शेर याद आ गया, शायद आप को भी अच्छा लगे :
“मीत” कुछ तो बात है, क्यों मुंह तुम्हारा ज़र्द है
दिल में खूँ बाकी़ है तो, हाथों में ख्नंजर क्यों नहीं
मरना हो, सर यार के कांधे पे हो
मौत में भी दिलकशी होने लगी।
–बहुत उम्दा. आनन्द आया.
आज दामन रो के क्यों गीला नहीं?
आंसुओं की भी कमी होने लगी।
तश्नगी बुझ जाएगी आंखों की अब
उसकी पलकों में नमी होने लगी।
kya baat hai
इश्क़ की तारीक गलियों में जहां
दिल जलाया, रौशनी होने लगी।
आ गया है वो तसव्वर में मिरे
दिल में कुछ तस्कीन सी होने लगी।
मरना हो, सर यार के कांधे पे हो
मौत में भी दिलकशी होने लगी।
sir ji har sher bahut hi khubsurat hai,ye aakhari wale bahut hi pasand aaye.
आदरणीय सर ,
आपकी ये गज़ल भी हमेशा की तरह बहुत अच्छी लगी ।
हर शेर बहुत बदिया लगा ।
सादर
हेम ज्योत्स्ना
बहुत उम्दा ग़ज़ल है शर्मा जी….आप लिखते रहिये और हम पढ़कर लाभान्वित होते रहें…युगादि पर्व की अनेकानेक शुभकामनाएं….
डा. रमा द्विवेदी
लिख न पाया कुछ गज़ल के वास्ते
लफ़्ज़ की यूँ कमतरी होने लगी
बेसबब जब वो हुआ मुझ से ख़फ़ा
ज़िन्दगी में हर कमी होने लगी।
शेर तो सभी अच्छे …..पर यह तो कमाल लगा…..बधाई
हर शेर लाजवाब ..बस पढ़ते गए और डूबते गए ..
आपके अनुभव का रसपान कर रहे हैं हम सब .. सच में मजा आ गया ..
आज फिर से पढ़ा. फिर बहुत अच्छी लगी.
आपका लिखा हमेशा बहोत पसँद आता है इसी तरह लिखते रहेँ
सादर्, स स्नेह लावण्या
प्रणाम.
अति सुंदर.
पढ़कर आनंद आया.
और के इंतज़ार में.
आदरणीय महावीर जी,
आपकी रचनायें पढना एक अनुभव की तरह होता है
डबडबाई आंखों में मत झांकिये
अब नदी में बाढ़ सी होने लगी।
बेहद अच्छी गज़ल..
***राजीव रंजन प्रसाद
प्रणाम आदरणीय, बहुत दिनों बाद आज आपके ब्लाग में आया और 80 व 90 के दशकों का आनंद पाया ।
डबडबाई आंखों में मत झांकिये
अब नदी में बाढ़ सी होने लगी।
आदरणीय महावीर जी
प्रणाम
आप के ब्लॉग पर आना मन्दिर में आने के समान है…आ कर वो ही रूह को ताजगी और सुकून मिलता है. लफ्ज़ ग़ज़ल में ऐसे बहते हैं जैसे पहाडों से झरना…. भीगने का जो मजा आता है उसे बयां करना न मुमकिन है…आप वर्षों तक यूँ ही लिखते रहें ये ही कामना है.
नीरज