(सन् 1960 के पन्नों से)
इस दुनिया में आ कर साथी, देखो मैं ने सब कुछ पाया
पर एक चीज़ अब तक ना मिली ठहरो अभी बताऊंगा ।
जाड़े के ठण्डे मौसम में जब शीत पवन चल जाता है
सच कहता हूं यह बन्दा तो सर्दी में रोज़ नहाता है
एक थाल सजा, दीपक रख कर, लोटे में ले ठण्डा पानी
शिव राम कृष्ण हनुमान रटूं, निकला करती कम्पित वाणी
फिर जा कर प्रतिदिन मन्दिर में बस यही प्रार्थना करता हूं
भगवन सुनो विनती मेरी, मैं बिन मारे ही मरता हूं
सप्ताह में छः दिन व्रत रख के, फल दूध दही मीठा खाया
पर एक चीज़ अब तक ना मिली ठहरो अभी बताऊंगा ।
डिग्री एम.ए. तक की ले कर बी.टी. की पूंछ लगाई है
अध्यापक बन, ट्यूशन से भी, कर ली बहुत कमाई है
धोती कुर्ते को दे तलाक़ मैं ने पतलून सिलाई है
सिलकन कमीज़ और कोट गरम, पहनी नीली नकटाई है
पैरिस से सैण्ट मंगा कर सब वस्त्रों पर छिड़का करता हूं
मॉडर्न बूट पहन पैरों को धीरे धीरे धरता हूँ
जीवित माँ बाप अभी तक हैं पर मूंछों का भी किया सफ़ाया
पर एक चीज़ अब तक ना मिली ठहरो अभी बताऊंगा ।
यदि कमरे में जा कर देखो तो, भेद पता चल जायेगा
झाड़ू कोने में सिसक रही, कूड़े का शासन पायेगा
जा के रसोई में देखो सच चूहे दण्ड पेलते हैं
बर्तन आपस में मिल कर के, बस आंख मिचौनी खेलते हैं
रावण धर भेष भिखारी का, लाया था सीता को हर के
मैं किस की सीता हर लाऊं अपना यह मुख काला करके
कहते हैं वो मिले न जिसको, व्यर्थ हुई सारी माया
पाठक हैं सब ज्ञानी मानी , अब मैं ही क्या समझाऊंगा
जो एक चीज़ अब तक न मिली, अब कैसे जुबाँ पर लाऊंगा
महावीर शर्मा


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Posted by महावीर on सितम्बर 11, 2007 at 5:41 अपराह्न
Filed under महावीर शर्मा, हास्य-रस/व्यंग्य  |
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ठहरे हैं हम यहीं, बताईये तो!! 🙂
बहुत गहरी रचना है महावीर जी. हमारी सच्चाई का वर्णन.
शब्द और बिंब में ग़ज़ब का तालमेल.उपरवाला ऐसी प्रतिभा विरले को ही देता है. बार -बार पढ़ने का मन कर रहा है,आपके लेखन में जीवन की सच्चाई प्रतिबिंबित होती है .बधाई…../
bhut hi subdr sachi gehri rachna…
शब्दों से यों चित्र बनाना काश हमें भी ऐसे आता
हम भी ठहरे हुए हमें भी कोई आ कर बतला जाता
बहुत सुन्दर रचना है
अहा! मजा आ गया हम तो आपके साथ आपके उन दिनों में पहुँच गये जहाँ, आप अपने भेद सबको बता रहे थे…! अद्भुत
गुरुजी पहले आप ये बताये ,आप वो वाले महावीर तो नही ,जिनको हमने १० १२ वी क्लास मे पढा …कुछ भी हो बहुत ही अलौकिक और अदभूत लिखा है आपने ,जी खुश हो गया ……
महावीर जी
मन की भावनाऐँ श्ब का जामा पहन कर सामने आती है हर बार. बहुत अच्छी रचना लगी
सादर
देवी
आदरणीय सर,
गंभीर चिंतन और सतत मनोवैज्ञानिक विश्लेषित यह रचना बहुत कुछ सोंचने को मजबूर करती है… हम चाहे लाख चीजों से परिपूर्ण हो लाख गलत कर्म करें पर हम कभी अपनी तृष्णा की आग को मिटा नहीं पाते हैं… शायद यही अविद्या है…।
sundar rachana hetu badhaaee
सर, आपको क्या नही मिला??? मैंने आपकी रचना पढ़ी, बहुत अच्छी लगी पर सर शायद मैं शब्दों से खेलना उतने अच्छे से नहीं जानती हूं। लेकिन कविता पढ़कर ये जानने की इच्छा हो रही है कि आखिर आपको क्या नहीं मिला??? हो सके तो ज़रूर क्लियर किजिएगा।
बर्तन आपस में मिल कर के, बस आंख मिचौनी खेलते हैं
रावण धर भेष भिखारी का, लाया था सीता को हर के
बहुत गहरे भाव छुपे हैं इन पँक्तियों में
आपके तजुर्बात की बुनियाद पर शब्दों की इमारत टिकी है.
सादर
देवी
kuch gahri bat he jise ham samjh nhi pa rahe he pr
sir g kya nhi mila uska pta mu abi tak nhi chal paya he plz meri smsya ka smadhan karia plz
your
greesh sharma
ग्रीश जी तथा स्नेहा जी
आप दोनों का एक ही प्रश्न है कि इस कविता में जो लिखा है कि ‘ठहरो अभी बताता हूं’,वह कौन सी चीज़ है जो मुझे नहीं मिली। जैसे कि कविता के शुरु में ही लिखा था कि यह बात १९६० की है। उन दिनों शादी आदि का मामला बुज़ुर्गों के हाथ में ही होता था।
एक पढ़ा लिखा कुंवारा व्यक्ति जो एक किराए के कमरे में पत्नि के अभाव में क्या सोचता है, क्या क्या जतन करता है, उसी का उल्लेख है। शायद मंदिर आदि में जा कर व्रत आदि से पूजा करके, अपनी वेश-भूषा ही बदल कर शायद शादी का कोई जुगाड़ हो जाए आदि आदि। उन दिनों पत्नि का हीकाम था कि रसोई, घर की व्यवस्था आदि सुचारु रूप से चलाए। उसके बिना क्या हुआ है
अंतिमपंक्तियों में स्पष्ट किया गया है।
तो इन सब तथ्यों को कुल मिला कर देखें तो उस बेचारे को ‘पत्नि’ नहीं मिली थी। हाँ,आजकल के युवकों-युवतियों को यह समस्याएं नहीं है। पति या पत्नि अपने पसंद सेअपनी ज़रूरत के अनुसार चुन सकते हैं और बुज़ुर्गों का आशीर्वाद मिल ही जाता है।