एक परिचय – लावण्या शाह

एक परिचय – लावण्या शाह

जब समाज में विशृंखलता उत्पन्न होकर गति रुद्ध हो जाती है, ऐसे समय में उस गति-रुद्धता को मिटा कर
पारस्परिक सहयोग एवं समानता का वातावरण बनाने के लिए कवि की वाणी विशेष महत्व रखती है। भावों का कोश वाणी के प्रतीकों द्वारा ह्रदयगत अनुभूतियों को व्यक्त करने में दक्ष स्व० पंडित नरेंद्र शर्मा जी की सुपुत्री लावण्या जी जिनकी वाणी उनके अंतःकरण से निकल कर रेडयो-वार्ता , उनकी हाल ही में प्रकाशित काव्य-पुस्तक “फिर गा उठा प्रवासी”, विश्व-जाल के अनेक जालघरों द्वारा कोने कोने में फैली हुई हैं, उनका परिचय तथा कविता उनकी अपनी ही वाणी द्वारा प्रस्तुत हैः

मेरा परिचय :

मै लावण्या , बम्बई महानगर मे पली बडी हुई – शोर शराबे से दूर, एक आश्रम जैसे पवित्र घर में , मेरे पापाजी, स्वर्गीय पँ. नरेन्द्र शर्मा व श्रीमती सुशीला शर्मा की छत्रछाया मे , पल कर बडा होने का सौभाग्य मिला.मेरे पापाजी एक बुद्धिजीवी , कवि और दार्शिनिक रहे.
मेरी अम्मा , हलदनकर ईनस्टिटयूट में ४ साल चित्रकला सीखती रही. १९४७ मे उनका ब्याह हुआ और उन्होने बम्बई मे घर बसा लिया.
मेरा जन्म १९५० नवम्बर की २२ तारीख को हुआ. मेरे पति दीपक और मै एक ही स्कूल मे पहली कक्षा से साथ साथ पढ़े हैं. मैने समाज शात्र और मनोविज्ञान मे बी.ए. होनर्स किया. २३ वर्ष की आयु मे , १९७४, मे शादी कर के हम दोनो लॉस ~ ऍजिलीस शहर मे , केलीफोर्नीया , यू. स. ए. ३ साल , १९७४, ७५, ७६ , तक रुके जहां वे ऐम.बी.ए. कर रहे थे. उस के बाद हम फिर बम्बई लौट आये. परिवार के पास — और पुत्री सिंदुर का जन्म हुआ. ५ वर्ष बाद पुत्र सॉपान भी आ गये.

१९८९ की ११ फरवरी के दिन पापाजी महाभारत सीरीयल को और हम सब को छोड कर चले गये.

घटना चक्र ऐसे घूमे हम फिर अमरिका आ गये. अब सीनसीनाटी , ओहायो मे हूं. पुत्री सिंदुर का ब्याह हो चुका है और मै नानी बनने वाली हू. पुत्र सॉपान जनरल मील्र मे कार्यरत है.
जीवन के हर ऊतार चढ़ाव के साथ कविता , मेरी आराध्या , मेरी मित्र , मेरी हमदर्द रही है. विष्व-जाल के जरिये, कविता पढ़ना , लिखना और इन से जुड़े माध्यमो द्वारा भारत और अमरीका के बीच की भौगोलिक दूरी को कम कर पायी हू. स्व-केन्द्रीत , आत्मानुभूतियों ने , हर बार , समस्त विश्व को , अपना – सा पाया है. पापाजी पँ. नरेन्द्र शर्मा की कुछ काव्य पँक्तिया दीप-शिखा सी , पथ प्रदर्शित करती हुई , याद आ रही है.

” धरित्री पुत्री तुम्हारी, हे अमित आलोक
जन्मदा मेरी वही है स्वर्ण गर्भा कोख !”

और
” आधा सोया , आधा जागा देख रहा था सपना,
भावी के विराट दर्पण मे देखा भारत अपना !
गाँधी जिसका ज्योति-बीज, उस विश्व वृक्ष की छाया
सितादर्ष लोहित यथार्थ यह नहीं सुरासुर माया ! ”

अस्तु विश्व बन्धुत्व की भावना , सर्व मँगल भावना ह्र्दय मे समेटे , जीवन के मेले मे हर्ष और उल्लास की दृष्टि लिये , अभी जो अनुभव कर रही हू उसे मेरी कविताओं के जरिये , माँ सरस्वती का प्रसाद समझ कर , मेरे सहभागी मानव समुदाय के साथ बाँट रही हू.
पापाजी की लोकप्रिय पुस्तक ” प्रवासी के गीत ” को मेरी श्राद्धाँजली देती , हुई मेरी प्रथम काव्य पुस्तक ” फिर गा उठा प्रवासी ” प्रकाशित हो गई है.
स्वराँजलि पर मेरे रेडयो-वार्तालाप स्वर साम्राज्ञी सुश्री लता मँगेषकर पर व पापाजी पर प्रसारित हुए है. महभारत सीरीयल के लिये १६ दोहे पापाजी के जाने के बाद लिखे थे !
एक नारी की सँवेदना हर कृति के साथ सँलग्न है. विश्व के प्रति देश के प्रति , परिवार और समाज के प्रति वात्सल्य भाव है. भविष्य के प्रति अटल श्रद्धावान हूं. और आज मेरी कविता आप के सामने प्रस्तुत कर रही हू.
आशा है मेरी त्रुटियों को आप उदार ह्रदय से क्षमा कर देंगे –
विनीत,
लावण्या

सीता जी के वर्णन से सँबन्धित श्लोक –
श्री सीता – स्तुति

सुमँगलीम कल्याणीम
सर्वदा सुमधुर भाषिणीम i
वर दायिनीम जगतारिणीम
श्री राम पद अनुरागिणीम ii

वैदेही जनकतनयाम
मृदुस्मिता उध्धारिणीम i
चँद्र ज्योत्सनामयीँ, चँद्राणीम
नयन द्वय, भव भय हारिणीम ii

कुँदेदू सहस्त्र फुल्लाँवारीणीम
श्री राम वामाँगे सुशोभीनीम i
सूर्यवँशम माँ गायत्रीम
राघवेन्द्र धर्म सँस्थापीनीम ii

श्री सीता देवी नमोस्तुते !
श्री राम वल्लभाय नमोनम: i
हे अवध राज्य ~ लक्ष्मी नमोनम: i
हे सीता देवी त्वँ नमोनम: नमोनम:ii

लावण्या

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2 Comments »

  1. 1

    बहुत अच्छा लगा लावण्या जी के बारे में और जानकर..
    “जीवन के हर ऊतार चढ़ाव के साथ कविता , मेरी आराध्या , मेरी मित्र , मेरी हमदर्द रही है. विष्व-जाल के जरिये, कविता पढ़ना , लिखना और इन से जुड़े माध्यमो द्वारा भारत और अमरीका के बीच की भौगोलिक दूरी को कम कर पायी हू.”

    पं नरेन्द्र शर्मा जी की कई रचनाएं मुझे बहुत अच्छी लगीं,
    और यह मुझे सबसे ज्यादा प्रिय है
    http://www.mpsharma.com/?p=20

    आशा है उनके बारे में और जानने को व और पढ़ने को मिलेगा 🙂

    • 2
      देवमणि पाण्डेय, मुम्बई Says:

      लावण्या जी की कविता अच्छी लगी । यह देखकर अच्छा लगा की अपने पिताजी से काव्य भाषा उनको विरासत में मिली है । सन् 1988 में जब मैने कविता लिखना शुरू ही किया था तब मुम्बई के ‘खार’ उपनगर में एक मित्र के साथ पं.नरेंद्र शर्मा से मिलने गया था । उनकी सादगी और सरलता देखकर हम लोग दंग रह गए थे । कुछ समय बाद बिरला क्रीड़ा केन्द्र में उनके साथ कविता पढ़ने का भी सौभाग्य मिला जिसमें स्व.विद्यानिवास मिश्र और स्व.जगदीश गुप्त भी शामिल थे । यह बहुत प्रसन्नता की बात है कि लावण्या जी अपने पिताजी की रचनात्मक विरासत को आगे बढ़ा रही हैं ।

      देवमणि पाण्डेय, मुम्बई


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